वक्त के साथ गुम होते बहुरूपिया ( दूसरों को हंसाने वाला खुद गमगीन) किसी ने सही लिखा है कि इंसान को यदि जिंदगी में कामयाब होना है तो आम जिं...
वक्त के साथ गुम होते बहुरूपिया
(दूसरों को हंसाने वाला खुद गमगीन)
किसी ने सही लिखा है कि इंसान को यदि जिंदगी में कामयाब होना है तो आम जिंदगी में एक कलाकार की तरह अभिनय करें। बचपन में तो हमने उन्हें अकसर देखा है पर अब वो कहीं नजर नहीं आते। गांव हो या शहर कभी कभार ही उनके चेहरे दिख जो है जिन्हें लोग प्यार से बहुरूपिया कहा करते हैं। बहुरूपिये कभी लैला-मजनूं, कभी सन्यासी, कभी पागल, कभी शैतान, कभी भगवान शंकर, कभी डाकू, कभी नारद जैसे कई किरदारों को बखूबी निभाते हैं। कहा जाता है कि नायक और खलनायक का रोल कभी एक व्यक्ति द्वारा नहीं निभाया जा सकता है। यह सब फिल्मों में कभी कभार ही नजर आते हैं पर बहुरूपिये इस मिथक को पूरी तरह झुठला देते हैं यह कई किरदारों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि कुछ क्षणों के लिये लोग उसे सही समझ बैठते हैं। कई तरह के किरदारों का स्वांग रचने वाले आज के आधुनिक और तेजतर्रार युग में गुम से होते जा रहे हैं। दूसरों को हंसाने वाले ये किरदार दो जून की रोटी की खातिर लोगों के दिल को तो बहला देते हैं, स्वयं भीतर से कितने टूटे हुए है इसको यह व्यक्त नहीं कर पाते। लगी मोहल्लों में नारायण नारायण की रट लगा कर नारद के किरदार को निभाने वाले ये लोग दो जून की रोटी के लिये खुद की खुशियों की बली दे देते हैं। घर घर में चैनलों की मार और समाज में आधुनिकता का मिश्रण ने इस कला को वक्त की परतों में गुम होने के लिये मजबूर कर दिया। बहुरूपिया भले ही वास्तविक किरदार न हो पर एक दौर था जब भारत में इन कलाकारों की बड़ी अहमियत हुआ करती थी। फिल्म मेरा नाम जोकर का गीत जीना यहां मरना इसके सिवा जाना कहां गीत के बोल में एक जगह पर बहुरूपियों पर भी प्रकाश डाला गया है।
बहुरूपिया, भांड और नक्काल लोकजीवन में मनोरंजन के मुख्य अंग है। कई प्रकार के स्वांग बनाकर अपने हाव भाव, वाकपटुता और कला कौशल में से लोगों का मनोरंजन करते रहे हैं। राजाओं, नवाबों, जागीरदारों, सेठ साहूकारों के अलावा, जनसाधारण का भी इन्हें संरक्षण प्राप्त होता था। बड़ी से बड़ी बातों को यह साधारण मनोरंजक ढंग से प्रकट कर वास्तविकता उजागर कर लोगों का ध्यान आकर्षित करते थे। टी.वी. सिनेमा और मनोरंजन के अन्य आधुनिक साधन होने के कारण अब ये लोक कलाकार कम ही दिखाई देते हैं।
बहुरूपिये प्रायः घुमक्कड़ होते हैं। इनके जीवन पर अनेक लेख लिख चुके लेखक देवी सिंह नरूका का कहना है कि-एक स्थान पर कुछ दिन रहकर फिर दूसरे नगर व कस्बे में चले जाते हैं। राजा रईसों व नेताओं की बदसलूकी, विलासिता और फिजूलखर्ची आदि पर ऐसा तीखा व्यंग करते हैं कि लोगों को वास्तविकता से साक्षात्कार करने को विवश होना पड़ता है। इन भांडों के कई किस्से मशहूर है। एक बार कुछ सिपाही किसी नक्काल को पकड़ कर बादशाह के सामने ले गए। उसकी शक्ल देखकर बादशाह ने कहा किस मनहूस को पकड़ कर ले आए मालूम नहीं खाना भी मिलेगा या नहीं, ले जाओ यहां से और कल सुबह इसे फांसी पर लटका देना। नक्काल ने यह हुक्म सुनकर बादशाह से कुछ अर्ज करने की इजाजत मांगी। बादशाह से इजाजत मिलने पर नक्काल ने कहा हुजूर मेरी शक्ल देखने से आपको केवल खाने की फ्रिक्र हुई किंतु आपकी शक्ल देखने से मुझे तो फांसी की सजा का हुक्म हो गया। नक्काल की बात सुनकर बादशाह को हंसी आ गई और उसे माफ कर दिया। किसी ठाकुर के यहां जलसा था, उसमें नक्कालों को भी बुलाया गया था। अन्य मेहमानों के लिए तो कई प्रकार के पकवान बनाए गए किंतु नक्कालों को रोजाना ही रोटी और कढ़ी दी गई। दो दिन तक तो उन्होंने कढी-रोटी खाई किंतु तीसरे दिन कढी न खाकर एक बर्तन में भरकर रख ली। जब उन्हें अन्य मेहमानों के सामने बुलाया गया तो वहां जाने से पहले उनने अपने बदन पर कढ़ी का लेप कर लिया। सबके सामने जब पूछा गया तो यह क्या हुआ ? तब नक्कालों ने जवाब दिया कि तीन से समारोह में लगातार कढ़ी खा रहे है वह अब बदन से फूट फूट कर निकल रही है। यह सुनकर ठाकुर झेंप गए और उनके लिए भोजन की व्यवस्था की।
चिराग अली किसी थाने के बड़े अफसर थे। भांडों के तमाशे में वह भी बैठे थे। भांडों ने क्रम से वहां बैठे लोगों का नाम पूछना शुरू किया। जब एक भांड ने चिराग साहब का नाम लिया तो दूसरा भांड बोला, उस उल्लू के पट्ठे चिराग को लगाओ सौ जूते, हुजूर का नाम तो आफताब (सूर्य) होना चाहिए। सब मौजूद लोग खिलखिलाकर हंस पड़े। एक शहर में कुछ नक्काल बैठे हुए थे उनसे एक बादशाह की पोशाक में और दूसरे दरबारियों के रूप में बैठे हुए उनकी खिल्ली उड़ा रहे थे। शहर में गश्त लगाते हुए सिपाहियों ने जब ये देखा तो उन्हें सहन नहीं हुआ। इन सब को गिरफ्तार कर बादशाह के सामने ले गए और कहा कि हुजूर यह सब बाजार के बीच में आपकी और दरबारियों का मजाक उड़ा रहे थे इस गुस्ताखी के लिए इन्हें सख्त सजा दी जाए।
बादशाह ने कहा मामला गंभीर है किंतु जिस तरह ही मजाक वे बाजार में कर रहे थे, वह यहां भी करके दिखाएं। नक्काल कांप गए कि अब खैर नहीं न जाने बादशाह कितनी कडी सजा देंगे। यह सब करने को हिचकिचा रहे थे किंतु बादशाह का हुक्म टालने की हिम्मत किसमें थी।
आखिरकार उन्हें उसी तरह का मजाक उड़ाने का नाटक बादशाह के सामने भी करना पड़ा। बादशाह उनकी कला से प्रभावित हुआ और सजा देने के बजाय इनाम देकर बिदा किया।
विवाह आदि अवसरों पर मनोरंजन के लिए इन्हें बुलाया जाता था। कुछ भांड व नक्काल सभी वेशभूषा में नाच गाकर भी मनोरंजन करते थे। इस तरह की हाजिर जवाबी और स्पष्टवादिता इन कलाकारों की विशेषता है।
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रहीम खान
पत्रकार
गुजरी चौक, भरवेली
बालाघाट (म.प्र.)
मो. 09301210541
अब पेट भरना तो असम्भव हो गया है गरीब के लिये. बहुरूप धारण करने से रोटी कहाँ मिलेगी.
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