(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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हाशिए से अभिव्यक्ति
राजेन्द्र दानी
हिन्दी कहानी आलोचना/समीक्षा के अपने कुछ अनौपचारिक तर्क हैं, जिसे औपचारिकता में बदलने का साहस इस क्षेत्र के किसी पुरोधा/धुरंधर ने नहीं दिखाया। बात यही कि झूठ के अन्वेषण के लिए उसकी स्थापना के लिए ऊर्जा स्खलित होती रही। यह चरम के पहले ही हो गया। यह आश्चर्यजनक घटना है। यहां नये समय के ‘हिडन' शर्तों के साथ हम आगे बढ़ते चले गये। यह कहना शायद ज़्यादा बेहतर होगा कि ये शर्तें इसे धकेलती चली आईं। अब इसका उद्घाटन करना बेमानी है कि अब हम कहां हैं।
दरअसल इस देश में जब मीमांसकों की इस विधा का विकास हो रहा था तब तक इस क्षेत्र के सक्रिय लोगों के अचानक फलने-फूलने के दिन आ गये। यह बताना कतई आवश्यक नज़र नहीं आता कि इस घटना के पीछे किस साम्राज्यवादी चेतना का हाथ था या है। इसके दिशाहीन
अराजक विकास के लिए कुछ लोग, ऐसे कुछ लोग-जिनकी प्रतिभा संदिग्ध थी और सम्भवतः वे भी इस तथ्य से परिचित थे- आगे आ गये। तब सृजनधर्मी, रचनाकार और ईमानदार लोगों के जीवन और सोच में व्यापक बदलाव हुए। इन्हें कोई न रोक सका। कई अन्य सरोकारों को जोड़ते हुए इस सत्य को ज्ञानरंजन की इस टिप्पणी से भी जोड़कर अच्छी तरह समझा जा सकता है कि- “देश के सर्वोत्तम दिमाग और रचनात्मक प्रतिभाएं किसी भी राजनैतिक या सांस्कृतिक समर में घुसने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी विचारधारा चाहे कुछ भी हो, उनके पास एक खुश और चमकीली जीवन पद्धति है और बाज़ार की सभी भव्य चीज़ें, देर-सवेर उनमें घर कर गई हैं।”
यदि इसे एक स्थापना मानकर चला जाए तो यहां बहस की असीम संभावनाएं है। कहानीकारों की भीड़ में आज कोई क्यों नहीं सुरेन्द्र मनन को याद करता। अशोक अग्रवाल ने बीसियों कहानियां, बेहद महत्त्वपूर्ण कहानियां लिखीं उन्हें स्मरण न करने के क्या कारण हैं? सुभाष पंत या नरेन्द्र नामदेव आज भी सक्रिय हैं पर बड़े लोगों की छोटी-छोटी टिप्पणियों में इनके नाम नदारद हैं। ये बड़े, लाचार, बेचारे लोग अपनी ओर से अन्वेषक का व्यवहार नहीं करते, जो मुहैया है उसका उत्थान करते हैं। कॉलम लिखने के लिए इससे ज़्यादा की ज़रुरत भी कहां है?
इन परिस्थितियों पर चिंता व्यक्त करने वाले सिर्फ ईमानदार रचनाकार ही नहीं हैं बल्कि आलोचना के क्षेत्र में ईमानदारी और साफगोई से संलिप्त युवा आलोचकों की चिन्ताएं भी विमर्श के लिए प्रस्तुत हुई हैं। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में ‘कहानी की आलोचना' सम्बन्धी विमर्श में युवा आलोचक जयप्रकाश ने अपने विचार रखते हुए कहा- आलोचक कहानी से अपेक्षा करे कि वह पूँजी तकनीक और बाज़ार के संयुक्त प्रभाव से जटिल मायावी होते यथार्थ के भीतर प्रवेश करने के लिए नई सूक्तियां ईज़ाद करे, तो यह उचित है लेकिन आलोचना स्वयं कहानी के भीतर प्रवेश न कर उसकी सतह पर मंडराती रहे तो इसे क्या कहा जाय? आलोचना का तदर्थवाद या उसका प्रमाद?
इसी तरह अपने उद्बोधन में उन्होंने एक बेहद महत्त्वपूर्ण बात कही कि- नई सदी के अनिश्चयपूर्ण और बहुकेन्द्रिक यथार्थ का सामना करते हुए कहानी जिस तरह से शिल्पगत उद्यमों का सहारा ले रही है, वह कई मायनों में विलक्षण है। लेकिन क्या कहानी-आलोचना कहानी का सिर्फ साथ निभा रही है या फ़िर उसका सतर्क परीक्षण कर पा रही है, या नहीं ? यह देखा जाना भी आवश्यक है।
कुल मिलाकर इतना कि कहानी की पहचान का आज अभूतपूर्व संकट है। ये संकट कितना विशाल-विकराल है इसकी पड़ताल का यह अवसर और जगह नहीं है। आज के परिदृश्य में कई तरह के एक्स्ट्रीम हैं पर इनसे अलहदा, इनकी परवाह न करते हुए कुछ ऐसे कथाकार हैं जो अपनी समूची ऊर्जा के साथ रचनारत हैं। ये वे रचनाकार हैं जो नये समय के समीकरणों से अनभिज्ञ हैं, उसका गणित वे नहीं जानते। सांप-सीढ़ी का खेल उन्हें समझ नहीं आता। यह अलग बात है कि नई व्यावहारिकता के समझ के अभाव में वे ओट में हैं और अभी तक पर अकुण्ठ हैं।
एक ऐसे ही कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा, जो बरसों से लिख रहे हैं, का परिचय कराते हुए उनकी कुछ उल्लेखनीय कहानियों पर दृष्टि डालने का यहां प्रयास है।
हाशिये पर जीने वाले अधिसंख्य लोगों के जीवन में ऐसी कौन-सी परिस्थितियां इस देश में पैदा होती हैं जिसकी वजह से किसी चरित्र की मनःस्थितियों का ग्राफिक्स में एक अत्यन्त अजीब विचलन देखने को मिलता है, यदि इसकी जांच करनी हो और कमोबेश संभावित हल तक पहुंचने का प्रयास जहां परिलक्षित हो, यह देखना हो तो तेजेन्द्र शर्मा की ‘एक ही रंग' को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। फुटपाथ पर हज़ामत बनाने वाले ग़रीब नाई का आशंकित और हर पल संभावित विस्थापन से लड़ने की क्षमता अर्जन करने के दौरान एक हास्यास्पद और किसी हद तक विक्षिप्त स्थिति तक पहुंच जाने कि दुर्दशा के चित्रण से मार्मिक अनुभूति का सफल और सहज सम्प्रेषण इस कहानी की खासियत है।
रोजी-रोटी कमाने के लिए समझौतों के साथ मजबूर निरीहता की हदों को पार कर देने के बावजूद हासिल ‘सिफर' के साथ जीते लोगों की दशा का मार्मिक चित्रण इस कहानी में निहित है। इर्दगिर्द की संवेदनहीनता-जो अपने हितों तक सीमित है, की नाटकीय व्यंजना के साथ सार्थक अभिव्यक्ति इस कहानी की विशेषता है।
भू-मंडलीकरण, वैश्वीकरण और उत्तर आधुनिकता के इस दौर में जीवन की विदारक घटनाओं को भुना लेने की सभ्यता का कितनी तेज़ी से विकास हो रहा है इस तरह के अनुभव से साक्षात्कार कराती एक कहानी है ‘देह की कीमत'। कहानी के शीर्षक से यह लक्षित नहीं है कि कौन सी देह? जीवित अथवा मृत? पर कहानी की प्रथम पंक्ति से ही ज्ञात होने लगता है कि यहां भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है और कहानी के केन्द्र में एक मृत देह ही है। कोई भी समझ सकता है कि हमारे समाज और हमारे देश में मृत देह को अन्ततः खाक हो जाना है, वह मिट्टी है। वह अमूल्य ज़रूर है पर उसे बेचा नहीं जाता। पर उसकी भी अब बिक्री सम्भव है। यहां भले न सही पर अप्रत्यक्ष रूप से देश से परे यह सम्भव है। इस देश में यह व्याधि नहीं है पर उसके संक्रमण को यहां पहुँचाना सम्भव हो गया है। कथा में जो कहा है वह यही व्यक्त करता है। कथन में जो है उसका सार-तत्व यही है कि हमारे परिवार का कोई सदस्य परदेश जा बसे और वहीं स्वर्गवासी हो जाए और हम आंसू बहाते उसकी अंत्येष्टि के लिए उसकी देह की मांग करें तो हमें उसकी कीमत चुकानी होगी। लेकिन अंतरंग-आत्मीय और खून के रिश्ते के लोग यह न चाहें और देह को परदेश में खाक कर देने की अनुमति दे दें तो इसकी इतनी कीमत मिल सकती है- जिसकी चाहत में, जिसकी वासना में मृतक का परिवार छिन्न-भिन्न हो सकता है। परिवार की यह स्थिति उसकी अन्तिम क़ीमत है जिसे चुकाने में सदियां गुज़र सकती हैं। नये समय में हमारी संवेदनात्मक परम्परा का क्षरण इस कहानी मुख्य वस्तु है जिसे सहज ढंग से मुखरता मिली है।
परदेश में हमारे किसी आत्मीय के देह की कीमत है तो उसकी आरक्षित क़ब्र की कीमत भी उत्तरोत्तर बढ़ रही है। तीसरी दुनिया (हालांकि कहा नहीं जा सकता कि वैश्वीकरण की दौड़ में वह बची कि नहीं) के दो देश के दो परिवार पहली दुनिया के किसी देश में मित्र हैं। उनकी मैत्री का कारण ही यह है कि पहली दुनिया में रहते हुए वे तीसरी दुनिया के हैं। उनकी नस्ल एक है पर जाति-धर्म भिन्न है। यह भिन्नता उनका अतीत है जो समय-समय पर सिर उठाता है। अतीत से साम्प्रदायिक सड़ांध की बू भी निकलती है पर तीसरी दुनिया की समानता की वजह से वह अधिकांश वक़्त नेपथ्य में रहती है। पर आर्थिक असमानता उन्हें जीवन की ज़रूरतों से सम्पन्न होने के बावजूद त्रास देती है। इस त्रासदी के लिए दोनों परिवार के मुखिया एक उच्च स्तरीय क़ब्रगाह में अपनी और अपने पारिवारिक सदस्यों के लिए क़ब्र की बुकिंग करते हैं। इस स्थिति में इस विकृत हरकत पर परिवार में जब बहस चलती है और अन्ततः बुकिंग निरस्त की जाती है तो पता चलता है कि बुकिंग की राशि उन्हें इन्फ्लेशन की वजह से कई गुना बढ़कर वापिस मिलेगी। दोनों परिवार के लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। यह कहानी है ‘क़ब्र का मुनाफा'। तेजेन्द्र शर्मा की यह कहानी ‘देह की कीमत' के आगे की कहानी है। मानवीय अस्मिता के विरुद्ध चल रहे आर्थिक षडयंत्रों को उजागर करती ये कहानियां विषय और कथ्य के मामले में बिरली हैं।
‘देह की कीमत' और ‘क़ब्र का मुनाफा' की तरह विचारोत्तेजक तो नहीं, पर मानव नियति और उसके पराजय पर एक सार्थक कहानी है, “कैंसर”। पत्नी की आसन्न मृत्यु और अपनी नियति के साथ लड़ते-लड़ते एक व्यक्ति कैसे स्वयं भी अनजाने ही नियति का अप्रत्यक्ष ग्रास बन जाता है कि उसे लगता है कि वह भी गिरफ्त में है आशंकाएं यदि घर बना लें तो किस तरह एक झूठ भी सच की तरह महसूस होता है। पत्नी को उपचारोपरांत जो अंतरिम राहत मिलती है उसका मिलना भी संदिग्ध है क्योंकि वह स्वयं बाद में अपने घर को उस तरह नहीं देख पाती जैसा कि पहले देखती थी। वह महसूस करती है कि उसके रोग का संक्रमण उसके घर के वातावरण में घुल रहा है।
रोगोपरांत बनने वाली मनोवैज्ञानिक विकृतियां शेष जीवन को डस लेती हैं। संत्रास में जी रहे परिवार का भावुकता से बचते हुए चित्रण करना किसी भी रचनाकार के लिए एक चुनौती है जिसका सामना रचनाकार ने इस कहानी में अपने कौशल के साथ किया है। कथ्य की मार्मिकता पाठक के अंतर्मन में पैबस्त हो जाती है।
एक और कहानी का जिक्र यहां बेहद ज़रूरी है। तेजेन्द्र शर्मा की एक कहानी है ‘ढिबरी टाइट'। यह हमारे रोज़मर्रा की ज़िदगी का एक बेहद प्रचलित मुहावरा है और बहुत छोटी-छोटी झड़पों, बहसों में प्रयुक्त होता है। लेकिन नये संदर्भों और बदलती हुई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के बरक्स इसे यहां एक व्यापक अर्थ मिला है। यहां उल्लिखित कहानियों में सुदूर जा बसे प्रवासी लोगों के जीवन की व्यथाएं आमतौर से सामने आई हैं। लेकिन वे ज़्यादातर निजी जीवन से सामने आई हैं। पर यह कहानी निजी जीवन की होते हुए भी प्रवास के दौरान निजी जीवन में घटी घटना से किसी देश पर किसी अन्य देश का कब्जा होने पर प्रसन्नता कैसे ला सकती है? या क्यों ला सकती है? यह थोड़ी सी अजीब ‘बात हो सकती है लेकिन' कहानी में यह एक विद्रूप यथार्थ के रूप में उजागर होती है। अपने सगे की मृत्यु के लिए जिम्मेदार एक देश पर जब दूसरा देश हमला करता है तो एक कमज़ोर असहाय भोक्ता प्रसन्न होने के अलावा कर भी क्या सकता है? यहां एक अभूतपूर्व यथार्थ सामने है कि सारी दुनिया में समय की जो गति है वह ईमानदार, नेक ख़्याल आदमी के जीवित रहने के विरुद्ध है।
तेजेन्द्र शर्मा के अलग-अलग संग्रहों से ली गई ये कहानियां अनजान होते हुए भी बदलती हुई दुनिया के प्रति हमारी जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ाती हैं। उनका और उनकी रचनात्मकता की चर्चा भले न हो पर वे विद्यमान हैं और प्रकाश में आने से उनका रुकना नहीं हो सकता। कहानी के नये आडंबरों से दूर वे एक हाशिए पर सक्रिय हैं। उनकी भाषा में किसी नवजात का सा भोलापन है पर कथ्य में एक सादगी के साथ एक विश्व दृष्टि विकसित करने की गम्भीर सक्रियता है। ये विशेषताएं उनकी कहानियों को मूल्यवान बनाती हैं।
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