(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बध...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
पत्थर दिल कहानीकार
अमीन मुग़ल
पहले एक बात जो देखने में बे मौक़ा लगती है।
ग्रीष्मकाल 1995, कराची में अजमल कमाल ने अपने पर्चे ‘आज' का ‘हिंदी विशेषांक' निकाला। उसके संपादकीय में उन्होंने लिखा, ‘‘․․․․․․․․ इस अंक में शामिल कहानियों को उर्दू में अनूदित करने में औसतन पांच प्रतिशत शब्द बदले गए हैं। कार्य बड़ी हद तक केवल लिपि परिवर्तन पर आधारित है, जिसके लिए उर्दू में अगर कोई शब्द है तो वो मेरी जानकारी में नहीं, इसलिए उसे अनुवाद कहे बिना चारा नहीं।'' इस बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लिखा, ‘‘इस तरह देखा जाए तो इस संकलन में सम्मिलित हिंदी कहानियों का अध्ययन साहित्यिक ही नहीं भाषिक अनुभव भी है। उर्दू और हिंदी दोनों की व्याकरण की बुनियाद खड़ी बोली की व्याकरण पर है, और बहुत से शब्दों के अलावा उर्दू की मूल क्रियाएं सब की सब वही हैं जो हिंदी में भी मौजूद हैं, यद्यपि जब नई शब्दावली निर्मित करनी होती है तो हिंदी को संस्कृत की मदद लेनी पड़ती है और उर्दू को फ़ारसी और अरबी की।''
अजमल कमाल के जवाब में पाकिस्तान साहित्य अकादमी के उच्च अधिकारी मैदान में आ गए और उन्होंने उर्दू और हिन्दी को अलग-अलग आमने सामने खड़ा कर दिया और स्वाभाविक है कि इसके बाद हिंदू और मुसलमान पानी अलग-अलग होना ही था।
लेकिन पानी फिर पानी है․․․․․․
आप समझ गए होंगे कि मामला साहित्य से निकल कर कहीं और चला गया। लेकिन मैं आपको फिर वापस ले आता हूँ।
जब मैंने तेजेंद्र शर्मा की किताब का मसौदा खोला तो पता चला कि उनकी कहानियों का उर्दू में अनुवाद किया गया है। मेरा ख़याल है कि अनुवाद करने वाले को औसतन पांच प्रतिशत से भी कम शब्द बदलने पड़े होंगे। अगर इतना सा प्रतिशत उर्दू और हिंदी को कबड्डी की टीम बना दे तो क्या कहा जा सकता है․․․․․․ या क्या किया जा सकता है।
मैं इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट न कराता अगर मुझे यह अहसास न होता कि किताब हिंदुस्तान में छप रही है और मैं दूसरे गांव से हूँ। कहा जा सकता है कि आलोचना के लिए यह आर पार की बात इतनी अर्थपूर्ण नहीं होती। लेकिन जबसे लोगों ने कहना शुरू किया है कि देश और काल किसी और वस्तु के तत्व हैं, कोई भी व्यक्ति पराभौतिक स्थान या भाषा में अवस्थित नहीं है, उर्दू और हिंदी के मामले में मेरा पक्ष अपने देश के भाषायी वातावरण के संदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। हमारे देश में उर्दू के नाम पर फ़ारसी लिखी और बोली जाती है। हमारे यहाँ प्रेमचंद और फि़राक़ नहीं हैं। मंटो और नासिर काज़मी कब के चले गए। अब केवल इंतिज़ार हुसैन है जो उर्दू बल्कि (उनकी इजाज़त के बग़ैर कहूँ) हिंदुस्तानी लिखते हैं। इधर तेजेंद्र की हिंदी वास्तव में खुशगवार उर्दू है।
अजमल कमाल की हिंदी कहानियाँ और अब तेजेंद्र की ये कहानियाँ एक ही समय में हिंदी और उर्दू में है तो इसका मतलब यह है कि ये ऐसी भाषाएं में हैं जो हिंदी और उर्दू जानने वाले आम पाठक के शब्द भण्डार से बाहर नहीं जाती हैं। ये कहानियां आसान बोली में हैं।
सरल बोली कहानी की मूल आवश्यकता हुआ करती है क्योंकि कहानी बोल चाल की उंगली पकड़कर चलती है। लेकिन तेजेंद्र की इस कला हीनता में उसकी अपनी शैली भी दिखाई देती है। और यह एक अच्छे कलाकार की निशानी है।
इन कहानियों में आपको शायद ही कहीं संयुक्त वाक्य दिखाई पड़ें। संयुक्त वाक्य इसलिए जटिल होते हैं कि वक्ता पूरे विचार के आदि और अंत को अपनी कल्पना में बंद कर लेता है, इसलिए इसके आरंभ में ही इसके अंतिम अंश की परछाईं नज़र आती है। इसके विपरीत सरल वाक्य से व्यक्त होता है कि वक्ता या वाचक ऊँची आवाज़ में सोच रहा है और जैसे जैसे उसका विचार विकासमान होता है, वह वर्णन करता जाता है। इसके साथ-साथ कहानी का पाठक या श्रोता का विचार भी विकास के सोपान तय करता जाता है।
तेजेंद्र सरत वाक्य के स्वतः स्फूर्त हैं। तेजेंद्र यह स्वतः स्फूर्ति उत्पन्न करने के लिए भाषागत चतुराई से काम लेता है। वह सरल वाक्यों के पदक्रम को बदलकर, कर्म को कर्ता के तुरंत बाद ले आता है। इस प्रक्रिया से वक्तव्य की तार्किकता स्पष्ट हो जाती है। इस तरह हर अच्छे कहानीकार की तरह उसके लहजे में बातचीत का मज़ा आता है।
तेजेंद्र की यह शैली विशेषरूप से उस वक़्त अपना रंग दिखाती है जब वह अपने किसी पात्र के विचारों, भावों और संवेदनाओं के उतार चढ़ाव को अपनी गिरफ़्त में लेने की कोशिश करता है।
तेजेंद्र के वर्णन का सिलसिला मूलरूप से घटना की समय सापेक्ष निरंतरता और पात्र की मानसिकता निरंतरता की पैरवी करता है, लेकिन वह शब्द शक्ति से भरपूर काम लेता है। वह अगर कोई बात कहता है तो भाषा और अर्थ के कलात्मक प्रयोग से किसी और स्तर पर चला जाता है। उसकी कहानी का सिलसिला हमें कहानी के अगले हिस्से पर ले जाता है। उदाहरण के तौर ‘‘जिस्म की मेहनत'' में परमजीत के ससुराल तक पहुँचने की वारदात का वर्णन दो छोटे वाक्यों में इस प्रकार किया है- ‘‘और लाल सूट वाली लड़की लावां फेरे लेकर ज्ञानियों के शालूकों पर सवार होकर सेकड़ अठारह से सेकड पंदरह के बीच की सड़क पार कर गई। रास्ते में भीम बाग़ और जैन मंदिर इसकी शादी के ख़ामोश गवाह थे।''
और अगला वाक्य है, ‘‘गवाह बनने के लिए बिजली तैयार नहीं थी।'' पहले तो यह देखिए कि ससुराल के सफ़र की अभिव्यंजना, परमजीत की डोली, रानियों के शलूकों के रूप में व्यक्त होती है। इसके बाद गवाह की व्यंजना आती है। भीमबाग़ और जैन मंदिर गवाह बन जाते हैं। अगली बात तेजेंद्र यह कहना चाहता है कि परमजीत के घर पहुंचने पर बिजली चली जाती है, लेकिन यह बात गवाह कि व्यंजना के काँधों पर सवार होकर आती है।
ऐसे ही मौक़े पर बड़े बूढ़े कहते थे। जी, बात से बात निकलती है।
‘बददुआ' में रजनीकांत के बी․ए․ पास कर लेने के बाद बाबूजी के सामने उसके रोज़गार का मसला पैदा होता है। कहानीकार कहता है, ‘‘दूर की बहन गाँव आती है․․․․․․ बहुत दूर रहती है․․․․․․ लंदन․․․․․ बापू जी अपनी चिंता उसके सामने लेकर बैठ जाते हैं․․․․․․'' और, कुछ और वाक्यों के बाद यह वर्णन आता है, ‘‘रजनीकांत ने भी दूर की बहन की बात दूर से सुन ली थी।''
तेजेंद्र कहानी के स्वभाव और मांग के अनुसार अपने लहजे को गिरफ़्त में रखने की कोशिश ही करता है। लेकिन उसके यहाँ चंचलता ही हावी रहती है।
तो क्या तेजेंद्र एक नटखट है जो कहानी के अखाड़े में आन उतरा है? ऐसा नहीं है।
तेजेंद्र एक निर्दय बल्कि पत्थर दिल कहानीकार है।
इस संकलन में किसी भी कहानी का अंत आनंद संतोष और अवबोध के बाद हालात से साक्षात्कार या आत्मिक अनुभव के द्वारा पलायन के रूप में नहीं होता। हर कहानी एक दुख, कसक, या कम से कम एक परेशान करने वाला सवाल छोड़ जाती है। बारह में से चार कहानियाँ प्राकृतिक आपदा की अपेक्षा मनुष्य की प्रतिक्रिया पर केंद्रित हैं जबकि बाक़ी कहानियाँ मनुष्य द्वारा उत्पन्न समस्याओं से संबंध रखती है।
‘एकही रंग' में दीवार एक लक्षण के तौर पर ज़ाहिर होती है। यह इन्सान की खड़ी की हुई दीवार है और वह भी स्कूल के गिर्द। ‘कार्पोरेशन-करप्शन' के शब्दों पर खेल में खड़ी की गई दीवार को सुदर्शन हज्जाम अपने मक़सद के लिए टेढ़ा करता है। तेजेंद्र की कहानी यह समझाने की कोशिश करती है कि आम लोग जीविका के लिए समाज की स्वतंत्र दृढ़ता से समझौता करने की चेष्टा करते हैं। इसलिए वो हर तरफ़ देखते हैं कि लोग अपने लिए इसी तरह के निम्न अराजक समाज बना रहे हैं। मगर सुदर्शन हज्जाम इस काम में हैं, वो सिर्फ़ अपनी नाक तक ही दोस्ती रखते हैं। सुदर्शन हज्जाम मार खा जाता है। कहानी कह रही है कि निचले तबक़े जिनके पास सिर्फ़ अपनी मेहनत बेचने के सिवा कुछ नहीं है, बदमाश भी तो नहीं बन सकते। और तो और खुद उससे बेहतर कारीगर बाबूराम भी पुलिस को आते देख कर खिसक जाता है। सुदर्शन के लिए समाज एक चारों तरफ़ से बंद गली है।
‘ईंटों का जंगल' इन्सानों का अपना बनाया हुआ जंगल है जिसमें एक मध्यवर्ग के लिए मकान नहीं है लेकिन उसकी पूंजी से दूसरे मालामाल हो रहे हैं। ‘‘कड़ियाँ'' में दादा और पोते के रिश्ते के बीच दौलत खुलकर बिना किसी शर्म के आ जाती है। जो स्वाभाविक पारिवारिक संबंध पोते और उसके बाप को दादा से जोड़े हुए था, धन के नकारात्मक प्रभाव के कारण तनाव ग्रस्त हो जाती है। बाप अपने बाप की, तमाम प्रेम हीनता के बावजूद, बड़ा बेटा होने के कारण उसकी चिता को आग दिखाता है और पोता उस कसक को महसूस करता है जो उसे दादा की उपेक्षा से मिलती है। फिर एक बंद गली जो गैर बराबरी वाले समाज की देन है․․․․․ कड़ी, बहुत ही कड़ी कड़ियाँ।
‘सियाह-सफ़ेद' और ‘यह क्या हो गया' में इसी असमान समाज में शारीरिक संबंधों को प्रभावित करने वाले कृत्यों को सामने लाया गया है। और फिर सवाल खड़े करके तेजेंद्र अपना बोरिया बिस्तर लपेटे आगे बढ़ गया है।
ये तो थी वो कहानियाँ जिनमें इन्सान अपने ही बुने हुये जालों में उलझे हुए हैं। चार कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें हादसों से दो चार होने वाले किरदारों और हादसों के बीच जटिलताएं दूसरे किरदारों की तरफ़ से पैदा होती हैं।
उदाहरण के लिए ‘काला समंदर' लीजिए। इन्सान दोस्त विमल महाजन पाकिस्तान बनने पर नये हिन्दुस्तान में पहुंचकर आश्चर्य चकित होते हैं कि वह खुद अपने ही देश में अजनबी समझे जाते हैं। पंजाब से मुंबई पहुंच कर खुद को और अधिक अजनबी महसूस करते हैं। विमल महाजन जी की इन्सान दोस्ती जहाज़ के क्रैश होने के मौक़े पर लोगों के लालच के सामने दम तोड़ देती है। ‘‘विमल महाजन हैरान थे कि ये लोग यहां दिवंगत रिश्तेदारों की पहचान करने आए हैं या तफ़रीह करने।'' और आखि़र में ‘‘विमल महाजन सोच रहे थे कि क्या काला सागर काले दिलों से भी ज़्यादा स्याह हो सकता है।'' इसी तरह परमजीत के पति की मौत पूरे परिवार के मूल्यों के खोटेपन को व्यक्त करने का माध्यम बनती है। इस कहानी में किरदार जिस तरह रूपये के लालच में पैंतरे बदलते हैं उससे इन्सानी कमीनगी की परते एक-एक कर सामने आती है। और लेखक की मनोवैज्ञानिक समझ का पता चलता है। बेचारे इन्सान दोस्त दारजी और अधिक बेचारे हो जाते हैं।
‘कैंसर' कहानी में कैंसर पति-पत्नी के प्रेम को आज़माता हैं। लेकिन एक कैंसर और भी है जो पूरे समाज में फैला हुआ है। खुद मनुष्यों के कुकर्मों से फूटने वाला, हर जगह फैला हुआ, सफल आप्रेशन करने वाले सर्जन से लेकर बस्ती के सभी लोग इससे पीड़ित हैं। क्या इस कैंसर से छुटकारा संभव है? एक प्रश्न!
तेजेंद्र विलायत में रहता है और यहां रहने वाले लेखक अगर यहाँ के अपने अनुभव को कलमबंद करें तो स्वाभाविक होगा। लेकिन अब यह काम उद्योग का रूप ले चुका है। इसके अनुभव जाने पहचाने हैं। इनमें देश की याद, रोजगार की कशमकश, दो दुनियाओं से बनी एक दुनिया जिसमें हर परदेसी रहता है और अनगिन मूल्यों की गुत्थमगुत्था है। ये सब ऊन के गोलों की तरह एक दूसरे में उलझ गए हैं। उल्लेखनीय है कि इस संकलन में केवल एक कहानी (डायस पूरा) बिखराव से संबंधित है, लेकिन कमाल की है। ‘बददुआ' में रजनीकांत के लिए मुक्ति का मार्ग बंद हो चुका है। इस कहानी में, कहानी के एक लम्हे के गुज़रने पर अतीत और वर्तमान एक दूसरे में गुंथ जाते हैं जिसमें पात्र के चरित्र की जटिलता खुलती है और कहानी का मनोवैज्ञानिक क्षण छलांग लगाता है और फिर एक बार अतीत की लहर रजनीकांत के वर्तमान क्षण की लहर से टकराती है। अपना निशान छोड़ती है और आगे बढ़ जाती है। आखि़र में रजनीकांत महसूस करता है कि वह नहीं जीत सकता। यह एक बेरहम फैसला हैं तेजेंद्र यह फै़सला सुनाते वक्त तसल्ली का कोई एक लालीपॉप भी तो नहीं थमाता।
फ्लैश बैक और वर्तमान के बीच निरंतर जारी संवाद तेजेंद्र की तमाम कहानियों में मिलता है। उसकी कोई कहानी सरपट नहीं दौड़ती। वह सहजधारी है लेकिन मीठा नहीं पकाता। इस सहजकारी की बदौलत उसे हर मनोवैज्ञानिक स्थिति को खंगांलने का मौक़ा मिलता है। उसके कथावाचक की विवरण षैली निवेदनात्मक नहीं होती है। उसके पात्र एक दूसरे पर हंसते भी हैं, ज़्यादातर अपने पर ही हंसते हैं, और इस प्रक्रिया में तेजेंद्र बोलचाल, लहजे के उतार चढ़ाव, शब्दों के कौतुक, उनसे उत्पन्न चंचलता और तीखेपन से काम लेता है। सहज शैली, तीखेपन और चंचलता से प्रभाव उत्पन्न होता है कि मामला कहानीकार की गिरफ़्त में है और वह अवश्य कोई सुखांत पक्ष ढूंढ लेगा परन्तु क्लाइमैक्स पर पहुंचकर कहानी की दुम में डंक जैसा काट खाता है।
अभी तक जितनी कहानियों का उल्लेख हुआ है उनमें दैवीय आपदा, हादसों, या समाज रूपी मकड़ी के जाले में फंसे हुए लोगों की बात हो रही है। ‘सलवटें' एक और ढंग की कहानी है जहाँ रुपए पैसे की जंग और उससे नष्ट होने वाली स्वाभाविक प्रकृति का महत्व है। यह कहानी दो पात्रों की व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता या उसकी परछाई में खुलने वाली वारदात नहीं है। यह बेहद पेचीदा कहानी है। इसमें एक पात्र अपनी कमीनगी को अपनी पत्नी से छुपाए रखता है जबकि उसकी कमीनगी का सबूत हर वक्त उन दोनों की आंखों के सामने उनके हाथों परवान चढ़ता है। जब भेद खुलने का समय आता है तो मुजरिम का ख़्ायाल है कि उसके इक़बाले-जुर्म से मामला सुलझ जाएगा लेकिन दूसरा किरदार माफ़ी नहीं दे सकता। यहाँ माफ़ी मांगना और माफ़ी देना एक तराज़ू में तुलने की बात नहीं है। पीड़ित को लगे घाव बहुत गहरे हैं और उन्हें क्षमा से नहीं भरा जा सकता। शायद कहानीकार यह कहने की कोशिश कर रहा है कि मुजरिम के लिए उसका जुर्म बाह्य घटना थी जो उसके ख़्ायाल से माफ़ी मांगने से धुल जाएगा। यह बाहरी घटना उसके गहरे मिथ्या संतोष के लिए थी। चूंकि उसमें दूसरे की सहमति नहीं थी इसलिए वह जुर्म बना। लेकिन जिसपर यह घटना घटी उसके लिए यह शरीर पर मामूली हाकी की चोट नहीं था जो फाहे से ठीक हो जाती। यह घाव गहरा था और वहाँ लगा था जहाँ उसने पीड़ित के अस्तित्व को तार-तार कर दिया था। मुजरिम पीड़ित के रवैये पर अंततः इसलिए परेशान है कि वह नहीं जानता कि वह और पीड़ित संवदेना के दो भिन्न स्तरों पर हैं। उसे समझने के लिए रूह की गहराइयों में उतरना पडे़गा। लेकिन वह अभी सतह को कुरेद रहा है। न जाने यहाँ क्यों बेदी की कहानी ‘लाजवंती' याद आती है। ‘लाजवंती' में जब अपहृता अपने पति को वापस मिलती है तो पति उसको देवी की तरह पूजता है। लेकिन वह तो चाहती है कि वह उससे पूछे कि उस पर क्या बीती थी। इसके साथ मानवीय सतह पर व्यवहार करे। अपहरण का घाव इतना गहरा है कि उसे भरने के लिए पहले उसकी तरफ़ नज़र भर के देखना ज़रूर होगा। मेरे ख़याल से पंजाब के बंटवारे पर बेदी की टिप्पणी इस विषय पर सबसे ज़्यादा प्रभावशाली और सफ़ल कोशिश है। वह व्यक्ति के केंद्र में पहुंचता है। इसी तरह कोई माफ़ी उस समय तक माफ़ी नहीं होती जब तक ज़ालिम और पीड़ित दोनों गुनाह को भरपूर कड़ी नज़रों से नहीं देख लेते। वरना इक़बाले-जुर्म और माफ़ी केवल औपचारिक कार्रवाई बन कर रह जाते हैं। तेजेंद्र की यह कहानी सिफ़र् ‘स्त्रीवाद' का विरोध ही नहीं है बल्कि अस्तित्व की संपूर्णता पर एक गहरी दृष्टि भी है।
‘मुझे मार डाल बेटा' में कथावाचक अपने होने वाले बच्चों की जिंदगियों के बारे में प्रत्यक्ष रूप में पत्थर दिल है। लेकिन दया पर आधारित निर्णय लेने में केवल कुछ क्षण ही लेता है दूसरी ओर बाप के बारे में ज़ाहिरी तौर पर सहानुभूतिपूर्ण लेकिन वास्तव में (कम से कम एक दृष्टि से) निर्दय निर्णय लेकर एक शख़्स वह ज़बरदस्ती चार साल जिंदा रखता हैं कहानीकार का प्रश्न मूलभूत तात्विक सतह पर ले जाता है जहाँ दूसरों के साथ सम्बंधों के विभिन्न पक्षों और उनके आधारों की तुलना की गई है। क्या कथावाचक अपने बच्चों से ज़्यादा प्रेम करता है या बाप से? वह दोनों से एक समान प्रेम क्यों नहीं कर सकता। कौन उसके व्यक्तित्व के केंद्र में है और कौन उससे दूर? कौन उनके फ़ासले मनुष्य के अस्तित्व के केंद्र से निश्चित करता है? और कैसे? उन्नति और प्रगति के चक्कर में जन्म लेने वाले संबंधों से संबद्ध ये विभिन्न मूल्य प्रश्नवाचक चिह्न बन जाते हैं। नहीं आप हर एक से एक सा प्यार नहीं कर सकते, हालांकि आप करना चाहते हैं।
यह कहानी भी उतनी ही बे रहम है जितनी ‘सिलवटें'।
तेजेंद्र मनुष्येतर प्रक्रियाओं, घटनाओं की बजाए मनुष्य पर आधारित घटनाओं में अधिक दिलचस्पी रखता है, जिससे मनुष्य के अस्तित्व की समस्याएं महत्वपूर्ण हो जाती हैं। अगर यह रूझान जारी रहा तो निःसन्देह तेजेंद्र हमारी हिंदुस्तानी कथा में बहुमूल्य अभिवृद्धि करेगा। हाँ, इसके साथ उसे अपने फ़न के कुछ तकनीकी पक्षों पर थोड़ा ज़्यादा ध्यान देना होगा। उदाहरण के लिए जिस चीज़ को सिनेमा या ब्राडकास्ट में कंटीन्यूटी (तारतम्यता) कहा जाता है, उसका ज़्यादा कड़ा ख़याल रखना होगा। साहित्य या मिथक के संकेतों या उनके साथ सामंजस्य स्थापित करने की प्रक्रिया रचनात्मक हो तो वह कृति के मूल्य में वृद्धि करता है और विषय की सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता की संभावना की ओर संकेत करता है। लेकिन इसका प्रयोग यांत्रिक बनकर भी रह सकता है। इसी तरह कहानी की कला, बल्कि तमाम कलाओं का यह तक़ाज़ा है कि उसके अर्थ अधिक से अधिक उसके अंदर के विवरणों से उद्घाटित हो। कला की आर्थिकी मांग करती है कि टिप्पणियाँ कम से कम हों और कहानी स्वयं टिप्पणी करती चले।
तेजेंद्र की बेरहमी के पीछे एक झुंझलाहट, एक विरोध यह है कि जो सुलूक इन्सान के साथ अंधा अंधकार करता है और जो सुलूक इन्सान अपने ही बनाए हुए सामाजिक संबंधों के द्वारा एक दूसरे के साथ करते हैं, वह अन्याय है और सरासर अन्याय है। जैसाकि हम जानते हैं इस विरोध में मानव बंधुता के मूल्य क्रियाशील हैं जिससे इन्सान छुटकारा हासिल नहीं कर सकता। इन्सान से बेहद प्रेम ही तेजेंद्र को बेरहम बनाता है।
हाँ, अलबत्ता तेजेंद्र शर्मा कोई समाधान, प्रस्तुत नहीं करता हैं । मुझे साहित्य में समाधान प्रस्तुत किए जाने से चिढ़ सी हो गई है। इसलिए कि साहित्य समाधान नहीं है। समाधान दूसरे समाधानों को अपने से दूर करता है। अतः वह एक हद तक यथार्थ को सीमित करता है। व्यावहारिक जीवन में यह ठीक होगा क्योंकि यह हमारे अस्तित्व का तक़ाजा यह है। मगर फ़न का काम उस चीज़ का जश्न मनाना है जो हमें मिल जाती है और उस चीज पर आंसू बहाना है जो हमसे खो जाती है। कला अनुभव और घटनाओं के सफ़ल संश्लेषण की मांग करती है। अतः कला का हर प्रयास इस दृष्टि से अन्ततः अपूर्ण ही रहता है। कौन कलाकार है जो यह नहीं जानता? फिर भी वह लगा रहता है कि वह अपने अस्तित्व में याजूज माजूज है। इक़बाल ने कहा था- ‘नक़्श हैं सब नातमाम, खूने जिगर के बग़ैर। लेकिन अगर अनुमति हो तो निवेदन करूँ कि नक़्श रगों में खूने जिगर के दौड़ने के बाद भी नातमाम (अपूर्ण) रहते हैं।
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