तेजेंद्र शर्मा विशेष : गिरीश पंकज का संस्मरण - जिन्‍हें अपने बड़े होने का अहसास ही नहीं

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      (तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है ) जिन्‍हें अपने ...

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      (तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है )

जिन्‍हें अपने बड़े होने का अहसास ही नहीं

गिरीश पंकज

तेजेंद्र शर्मा से मेरा पहला परिचय अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर हुआ। हम भारत में नहीं, सीधे विदेश में मिले-त्रिनिदाद में। दिल्‍ली में रहने वाले हिंदी के प्राध्‍यापक और प्रख्‍यात व्‍यंग्‍यकार डॉ. प्रेम जनमेजय उस वक़्‍त त्रिनिदाद के वेस्‍टइंडीज विश्वविद्यालय में हिंदी अध्‍यापन-कार्य कर रहे थे। उन्‍होंने सन्‌ 2002 में अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी सम्‍मेलन का आयोजन किया था। मेरे प्रति अकूत स्‍नेह के कारण उन्‍होंने मुझे भी आमंत्रित किया था। जीवन में पहली बार इतनी लम्‍बी हवाई यात्रा पर निकला था मैं। वो भी अकेले। रायपुर से दिल्‍ली, दिल्‍ली से लंदन और लंदन से पोर्ट ऑफ स्‍पेन। ज़िंदगी की पहली हवाई उड़ान थी। दिल्‍ली से मेरा सामान सीधे त्रिनिदाद के लिए बुक हो गया था। मैं निश्‍चिंत हो कर लंदन के लिए उड़ा। लंदन में ब्रिटिश एयरवेज की दूसरी फ़्‍लाइट पकड़ कर मैं त्रिनिदाद पहुँचा। लेकिन उस वक़्‍त मेरे होश उड़ गए, जब पता चला कि मेरी अटैची तो लंदन में ही रह गयी है। उसमें मेरे रोज के पहनने वाले कपड़े थे।

अब क्‍या किया जाए। परेशान होना स्‍वाभाविक था। मुझे तत्‍काल एक फुलपैंट और टी-शर्ट खरीदनी पड़ी। लेकिन इस पहरावे से बात बन नहीं रही थी। मैं टेंशन में था। कुछ देर बाद मेरा तनाव दूर हो गया। और जिस शख्‍स ने यह काम किया, वे थे हरदिलअज़ीज़ शख्‍़स भाई तेजेंद्र शर्मा। यह थी भाई तेजेंद्र से पहली मुलाकात। उन्‍होंने कहा, ‘‘चिंता न करें। दो दिन बाद आपका सामान आपको मिल ही जाएगा। तब तक आप मेरे कुरते से काम चलाएँ। मेरे पास दो-चार कुरते हैं भाई। डोंट वरी। हम तो हूँ।'' तब मैंने मुसकराते हुए पूछा-‘‘लेकिन ये तो बताइए, आप लोगों से यह तो कहते नहीं फिरेंगे न, कि गिरीश आदमी तो ठीक है, मगर ये जो कुरता पहने हुए है, वह मेरा दिया हुआ है।'' मेरी बात सुन कर तेजेंद्र भाई ने ज़ोरदार ठहाका लगाया और बोले, ‘‘चिंता मत करो। मामला गुप्‍त ही रहेगा।'' और सचमुच, बात हम लोगों के बीच ही सीमित रही। हम लोग साथ-साथ रहते और भरी महफिल में परिहास करने का मन हो तो इतना ज़रूर हिदायत दे दिया करते थे, कि कुरते का जिक्र नहीं। अगर कोई पूछता, कि ये कुरते वाला क्‍या मामला है, तो भाई तेजेंद्र मुसकराते हुए कहते, ‘‘ये अंदर की बात है।'' दो दिन बाद जब मेरे कपड़े मुझे मिल गए, तो मैंने तेजेंद्र भाई का कुरता उन्‍हें सधन्‍यवाद वापस कर दिया। तेजेंद्र का कुरता मुझ पर न केवल फिट हुआ, वरन मुझ पर कुछ जँच भी रहा था। वैसे मैं केवल खादी के कपड़े ही पहनता हूँ, लेकिन तेजेंद्र के कुरते उनके व्‍यक्तित्‍व की ही तरह इतने सुदर्शन थे, कि उन पर मेरा दिल आ गया। लगा कि उनका एकाध कुरता धरोहर के रूप में रख ही लूँ। मैंने इच्‍छा भी जाहिर कर दी, तो तेजेंद्र ने दरियादिली दिखाते हुए फौरन से पेश्‍तर कहा -नेकी और पूछ-पूछ। तुम भी क्‍या याद करोगे, कि किसी दोस्‍त से पाला पड़ा था। उनकी इच्‍छा तो थी कि मैं उनका एक कुरता अपने पास रख लूँ, लेकिन मुझे लगा कि परदेस में उनके पास भी सीमित कपड़े होंगे, इसलिए उन्‍हें धर्म-संकट में क्‍यों डालूँ, लेकिन मेरे प्रति तेजेंद्र का यह स्‍नेह मैं आज तक नहीं भूल सका हूँ।

त्रिनिदाद में प्रेम जी के सौजन्‍य से दस दिनों तक रहने का अवसर मिला। (चार-पाँच दिन तो मैं उनके घर पर ही रहा।) प्रेम जी के बाद परदेस में जिस दूसरे शख्‍़स से मिल कर सुकून मिला, वे थे तेजेंद्र। चार-पाँच दिन हम और तेजेंद्र साथ ही रहे। साथ-साथ घूमते-फिरते रहे। फोटो खींचते-खिंचवाते रहे। एक सुंदर महिला के साथ फोटो खिंचवाने में मैं संकोच कर रहा था, तो तेजेंद्र शर्मा ने स्‍नेहिल फटकार लगाते हुए कहा, गिरीश, ऐसे दूर-दूर मत खड़े हो, फोटो सही नहीं आएगी। सट कर..सट कर, समझे। मैं नहीं माना तो दौड़ कर आए, और मुझे उस महिला से एक दम सटाकर फौरन तस्‍वीर खींच ली। उसके बाद बोले, ‘‘बच्‍चू, अब इसे इंटरनेट पर दे दूँगा।'' और बाद में दिया भी। उनके बिंदास व्‍यक्तित्‍व को देख मैं चकित था।

तेजेंद्र एक ऐसे शख्‍़स हैं, जो शायद परेशानियों के बीच भी हर वक़्‍त खुश और चहकते रहते हैं। वे चिरयुवा-से दिखते हैं अब भी। आज भी उसी तरह बिंदास हैं, जीवंत हैं, जैसा मैंने त्रिनिदाद में देखा था, जैसा मैंने उन्‍हें लंदन में देखा और जैसा मैंने उन्‍हें विभिन्न अवसरों पर दिल्‍ली पधारने पर देखा। त्रिनिदाद में आदरणीय नंदन जी समेत अशोक चक्रधर, नरेंद्रकुमार वर्मा, अनिल शर्मा, प�ेश गुप्‍त आदि अनेक लोगों से बेहद आत्‍मीय संबंध बने। लेकिन तेजेंद्र शर्मा से अपनी कुछ गहरी छनने लगी। (आज भी छनती है) दस दिन बाद मैं लंदन, दिल्‍ली होते हुए रायपुर वापस आ गया और तेजेंद्र सीधे लंदन चले गए। लेकिन ई-मेल के माध्‍यम से उनसे बातें होती रहीं। उन्‍होंने मेरे कुछ फोटोग्राफ्‍स मेल कर दिए। त्रिनिदाद में बिताए दिनों को याद करते रहे। मेरी ग़ज़लें उन्‍हें पसंद आईं। उन्‍होंने अपनी ग़ज़लें भी सुनाई तो मैं हैरत में पड़ गया, कि लंदन में रहते हुए एक शख्‍स इतने स्‍तरीय शेर कह रहा है। कई बार वे मुझे फोन भी करते तो अपने नये शेर जरूर सुनाते। कुछ महीने पहले जयप्रकाश मानस के सौजन्‍य से जब इंटरनेट के माध्‍यम से लाइव अंतरराष्‍ट्रीय कवि सम्‍मेलन का कार्यक्रम बना तो एक बार फिर हमारी शेरो-शायरी चली। लंदन में अपने घर में बैठे तेजेंद्र ने तो अपना पूरा घर ही हमें दिखा दिया। ऐसी आत्‍मीयता वही प्रदर्शित कर सकता है, जिसका मन निर्मल होता है। आज भी तेजेंद्र शर्मा भारत आते हैं, तो फोन जरूर करते हैं। उनकी बातों में स्‍वार्थ नहीं रहता। गहरी आत्‍मीयता होती है। समकालीन साहित्‍य सम्‍मेलन का जब लंदन में अधिवेशन हुआ तो हम लोगों (मैं, जयप्रकाश मानस और डॉ. सुधीर शर्मा) ने ब्रिटेन के कवियों पर एक पुस्‍तक संपादित की थी। तेजेंद्र ने काफी सामग्री हमें मुहैया कराई थी। लंदन पहुँचने पर तेजेंद्र भाई ने हमारा आत्‍मीय स्‍वागत किया और छुट्टी लेकर हमारे साथ ही रहे। हमारी संपादित पुस्‍तक के लिए वहाँ के लेखकों से कुछ पौंड भी दिलवा दिए।

तो ऐसे गहरे आत्‍मीय जन हैं तेजेंद्र। वे कथाकार हैं, कवि हैं, लेकिन उससे भी बढ़ कर अच्‍छे इंसान। हमारा देश अनेक तथाकथित बड़े रचनाकारों से भरा पड़ा है, लेकिन इन बड़े लोगों में कोई बड़प्‍पन वाला भी दिखाई दे, तो खुशी होती है। तेजेंद्र में यह गुण है। वे जितने प्‍यारे कहानीकार हैं, उससे भी प्‍यारे मनुष्‍य हैं। हम लोग रचनाकारों की रचनाओं पर तो पन्ने के पन्ने रंग मारते हैं। नकली बौद्धिकता के आडंबर में जीने वाले हम लोग मनुष्‍य की गहराइयों में नहीं उतरते। मैं तेजेंद्र शर्मा जैसे बड़े रचनाकार के अंतस में उतरता हूँ, तो पाता हूँ, तो स्‍नेह-प्रेम और सद्भावना के हीरे-जवाहरात भरे पड़े हैं। मैं भी तेजेंद्र शर्मा की एक-एक कहानी पर कई-कई पन्ने रंग सकता हूँ, लेकिन किसी लेखक को समझने का यह एक जड़-पहलू है। सही विश्लेषण तो तब होता है, जब उसके अंतस में झाँका जाता है कि वहाँ क्‍या है? वहाँ भी मनुष्‍यता ही है, कि कोई चालू या शातिर इंसान विराजमान है? लेखक अगर अच्‍छा इंसान न बन सके, तो उसका लेखन बेमानी है। तेजेंद्र शर्मा के लेखन में गहरी करुणा है। उनकी तमाम कहानियाँ मनुष्‍य की प्रवृत्तियों की गहरी पड़ताल करते हैं और पाठक को सोचने पर विवश कर देते हैं। विदेश में रह रहे भारतवंशियों की समस्‍याओं को लेकर या फिर यहाँ से विदेश जाने की ललक रखने वाले रिश्‍तेदारों के स्‍वार्थों की कहानियाँ भी तेजेंद्र ने खूब लिखी हैं। महानगरीय त्रासदियों पर भी उनकी अनेक कहानियाँ हैं। अब तो उनकी कहानियाँ अनेक भाषाओं में भी अनूदित होने लगी हैं। धीरे-धीरे तेजेंद्र शर्मा समकालीन भारतीय कहानी के एक महत्‍वपूर्ण और चर्चित हस्‍ताक्षर के रूप में लोकप्रिय होते जा रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद तेजेंद्र शर्मा तेजेंद्र शर्मा ही बने हुए हैं। यानी कि महामानव किस्‍म के मानव। न घमंड आया है, न गुरूर। अपने से छोटों को स्‍नेह देना और बड़ों का सम्‍मान करना, यही है तेजेंद्र शर्मा की विशेषता। ये सब गुण तेजेंद्र को ज़रूर उनकी माँ से मिले होंगे।

तेजेंद्र भाई के व्‍यक्‍तित्‍व पर केंद्रित पुस्‍तक के लिए लिखने का सुअवसर जब मिला तो मुझे लगा, यह अवसर हाथ से नहीं जाना चाहिए। तेजेंद्र भाई जैसे लोगों पर कलम चला कर मुझे सर्वाधिक खुशी हो रही है। यह शख्‍़स सत्ता का शिखर पुरुष तो है नहीं, जिस पर लिख कर कुछ हासिल हो सकता है। मैंने यह काम कभी किया भी नहीं। लिखो, तो तेजेंद्र शर्मा जैसे कथनी-करनी में समानता रखने वाले लेखक पर लिखो। तेजेंद्र भाई की कहानियों पर भी कभी विस्‍तार से लिखूँगा, अभी तो तेजेंद्र शर्मा रूपी ऐसे मनुष्‍य पर लिखते हुए मन यह सोचकर प्रसन्न हो रहा है, मैं एक ऐसी विभूति पर कलम चला रहा हूँ, जिसे खुद अपनी ऊँचाई के बारे में कुछ पता नहीं है। जिसे अपने बड़ेपन का कुछ अहसास ही नहीं है। तेजेंद्र शर्मा का साहित्‍यिक मूल्‍यांकन अभी होना बाकी है। उनकी कहानियाँ अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर की हैं। वे केवल हिंदी के लेखक नहीं है, वे भारतीय साहित्‍य के हस्‍ताक्षर हैं और वैश्‍विक लेखक हैं। वैश्‍विक लेखक केवल इसलिए नहीं कि वे लंदन में रह रहे हैं, वरन्‌ इसलिए कि उनकी रचनाओं में वैश्‍विकता के दर्शन भी होते हैं। उन्‍होंने जैसी कहानियाँ लिखी हैं, वैसी कहानियाँ कोई भी भारतीय लेखक नहीं लिख सकता। मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ, क्‍योंकि भारत में रहने वाले लेखक के पास वे सब प्रत्‍यक्ष यथार्थ नहीं होते, जो तेजेंद्र शर्मा रोज़ देखते हैं। इसलिए अनुभूतियों का जो ताप, जो कोष तेजेंद्र के पास है, वह भारतीय लेखक के पास दुर्लभ ही है। तेजेंद्र शर्मा जैसी कहानियाँ लिखने के लिए पहले हमें विदेश में कहीं बसना होगा लेकिन ऐसा भी नहीं, कि इतने मात्र से कोई अच्‍छा लेखक हो जाए। अच्‍छा लेखक होने के लिए तेजेंद्र शर्मा जैसा संवेदनशील मन भी तो होना चाहिए। तेजेंद्र अपनी रचनाओं के माध्‍यम से जो सवाल उठाते हैं, वे वैश्‍विक हैं। उनकी संवेदनाएँ वैश्विक हैं। ऐसे दौर में जबकि इधर की हिंदी कहानी घर से बेघर-सी होती नज़र आ रही है, तब तेजेंद्र शर्मा की घूरती आँखें, नये भाव-बोध के साथ खड़ी होती हैं। और कहानी को कहानी बनाए रखने की प्रेमचंद की परम्‍परा की संवाहिका बनती हैं। ‘देह की कीमत' जैसी अनेक कहानियाँ तेजेंद्र शर्मा को बहुत बड़े कथाकारों की जमात में खड़ा कर देती हैं। भले ही तेजेंद्र शर्मा को अपने बड़े कथाकार होने का अनुमान न हो, लेकिन ईमानदार पाठक समझ सकता है, कि इस लेखक का मय्‍यार क्‍या है।

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रचनाकार: तेजेंद्र शर्मा विशेष : गिरीश पंकज का संस्मरण - जिन्‍हें अपने बड़े होने का अहसास ही नहीं
तेजेंद्र शर्मा विशेष : गिरीश पंकज का संस्मरण - जिन्‍हें अपने बड़े होने का अहसास ही नहीं
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