(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बध...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
तेजेन्द्र शर्मा के संबंध में ये पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है। इस संबंध के व्यक्तिगत, पारिवारिक और साहित्यिक रूपों का उल्लेख एक अजीब सी अनुभूति देता है। मैं लगभग दो दशक पुराने घटना-क्रम की तरफ लौट जाता हूँ। पहली मुलाक़ात कहाँ और कैसे हुई, बहुत साफ-साफ याद नहीं है। इतना याद है कि तेजेन्द्र के साथ मैंने उनकी पत्नी इंदु और दो छोटे बच्चों को देखा था। पति-पत्नी दोनों ने ही मुझे बहुत प्रभावित किया था। इंदु का उल्लेख विशेष रूप से जरूरी है। सुंदर और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली इंदु एक गहरी त्रासदी को अपने आप में समेटे हुए, यह मुझे कुछ बाद में मालूम हुआ। तेजेन्द्र ने ही बताया था कि इंदु ब्रेस्ट कैंसर से ग्रस्त हो गयी थी। कुछ देर से पता चलने पर ऑपरेशन कराया गया। लेकिन यह सिर्फ अस्थायी उपाय था क्योंकि चीज़ों में कुछ देर हो गयी थी और कैंसर कोशिकाएँ शरीर में फैल चुकी थी। इंदु के पास अब ज्यादा समय नहीं था। इस बात को वह भी जानती थी। बच्चे अभी काफी छोटे थे। इंदु फिर भी एकदम नॉर्मल थी और सहज स्वाभाविक रूप से मुस्कराती रहती थी। यह सहजता हमेशा उसके साथ रही। जीवन के अंत तक इसने उसका साथ नहीं छोड़ा। मुझे बार-बार महसूस होता रहा कि सहजता का कायम रहना सबसे बड़ी साहसिकता हैं। इस मामले में इंदु का कोई सानी मुझे कभी दिखाई नहीं दिया।
तेजेन्द्र के लेखन के संदर्भ में इंदु का उल्लेख ज़रूरी है। मेरा ख्याल है कि तेजेन्द्र के जीवन में अगर इंदु नहीं होती तो तेजेन्द्र का शायद कोई साहित्यिक लेखन नहीं होता। होता भी तो हिन्दी में नहीं होता। इंदु के व्यक्तित्व और चिंतन का सीधा प्रभाव तेजेन्द्र पर पड़ा है। इसका यह मतलब नहीं कि इंदु का सारा चिंतन और विश्वास तेजेन्द्र ने अपना लिया है। यह कहा जा सकता है कि दोनों की मान्यताओं में काफी फर्क रहा है। कहीं-कहीं वे एक दूसरे के विपरीत भी हो गयी है। लेकिन कहीं गहराई में जागरूकता, सजगता और जीवंतता है। शायद यह सही हैं कि तेजेन्द्र को इसका काफी कुछ इंदु से मिला है।
इस संदर्भ में इंदु के आखिरी दिनों का उल्लेख ज़रूरी लगता है। उन दिनों वह बिस्तर से लग गयी थी। तीव्र शारीरिक पीड़ा भी उसे झेलनी पड़ रही थी। यह उसके अंत की शुरूआत थी। लेकिन अंतिम समय में जैसे एक नयी इंदु पैदा हो रही थी। इन दिनों टेलीफोन उसका खास सहारा था टेलीफोन पर लंबी बातचीत करने की कोशिश करती थी नदी धारणाओं का जन्म हो रहा था कहते हैं कि उस पार उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। कहीं कुछ नहीं है कोई ईश्वर नहीं है कोई परलोक नहीं है। सिर्फ एक गहरा अंधेरा है।
कहा जा सकता हैं कि तीव्र पीड़ा और मृत्यु की आसमनता के कारण वह निराशावादी और आस्थाहीन हो गयी थी। लेकिन मुझे लगता है कि यह शायद सच नहीं है ऐसा लगता था कि दार्शनिक स्तर पर उसकी मान्यताओं में जबरदस्त परिवर्तन हो रहा था। यह परिवर्तन किसी स्थिति की प्रतिक्रिया नहीं थी। लगता था उसे नये सत्यों का साक्षात्कार हो रहा था और पुराने विश्वास ढह रहे थे। तेजेन्द्र को इस परिवर्तन का पता था लेकिन इस संदर्भ में उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा, अपनी राय कभी भी जाहिर नहीं की। एक तरह का नॉन-कमिटल रवैया था। कहा जा सकता है कि जिंदा रहने वाले और मरनेवाले की तर्क-प्रक्रियाएँ अलग-अलग थी। एक के पास खोने के लिये बहुत कुछ था, दूसरे के पास कुछ भी नहीं था। जीनेवाले के पास इच्छाएँ हैं, मुरादें हैं, उसकी अपनी असुरक्षाएँ हैं इसलिए विश्वास और संबल की जरूरत है। लेकिन जिसकी आसन्न मृत्यु अनिवार्य है, पीड़ाएँ असहय और अनिवार्य हैं, आस्था और विश्वास का इसके लिये कोई मतलब नहीं है। तेजेन्द्र और इंदु की मनःस्थितियों और धारणाओं के फर्क को अच्छी तरह समझा जा सकता है। इस फ़र्क के बावजूद इंदु के जीवन और उसकी मृत्यु के परोक्ष प्रभाव को तेजेन्द्र शर्मा में अच्छी तरह देखा जा सकता है।
मुझे उस दौर का याद है जब इंदु का दर्द असहाय हो गया था। बड़े से बड़ा पेनकिलर उस पर बेअसर हो रहा था। कुछ विशिष्ट पेनकिलर से जिनको पाने के लिये टाटा अस्पताल का लिखित नुस्खा ज़रूरी था। ये पेनकिलर भी जो राहत पहुँचाते थे, काफ़ी अल्पकालिक होती थी। फिर भी उनका सहारा लेना अपरिहार्य था। इस दौरान मेरी भेंट एक ऐसे दार्शनिक विद्वान से हुई जो अपने श्रोताओं को समझा रहा था कि ‘पेन' या 'दर्द' नाम की कोई चीज़ नहीं है, यह मात्र मन की एक स्थिति है। विद्वान का भाववाद अपनी चरम सीमा पर था। मैंने टाटा अस्पताल के ‘पेन किलर' का जिक्र कर जब बताना चाहा कि मन की हर स्थिति शरीर और पदार्थ की स्थिति से सापेक्ष है, तो उनका कोप-भाजन बनना मेरे लिये अनिवार्य हो गया। दुःख, पीड़ा, ताप बगैर की भौतिक सापेक्षता का तेजेन्द्र ने दार्शनिक स्तर पर कितना कुछ अवगाहन किया, यह बहुत स्पष्ट नहीं है। लेकिन ‘बेघर आँखों' के पीछे इंदु शर्मा की आँखें ही हैं, यह बहुत साफ है।
तेजेन्द्र शर्मा ने कविताएँ और ग़जलें लिखीं जरूर, लेकिन कहानी विद्या को उन्होंने विशेष रूप से अपनाया। एयर इंडिया में पर्सर होने की वजह से उनका अनुभव-संसार एक अलग किस्म का था। हिंदी के आम कहानीकार के पास यह अनुभव-संसार नहीं था। तेजेन्द्र की ‘काला सागर' जैसे कहानियाँ उनके विशिष्ट अनुभव-संसार की बानगी हैं। लेकिन सचेतन स्तर पर तेजेन्द्र ने अपना कोई विशेष जीवन-दर्शन नहीं बनाया है। ‘काला सागर' और ‘ढिबरी टाइट' की कहानियाँ जीवन की कटुताओं और विद्रूपताओं की कहानियाँ ज़रूर हैं, लेकिन जीवन के प्रति किसी कटु और विद्रूप दृष्टि का प्रतिनिधित्व ये कहानियाँ नहीं करती हैं। जीवन जैसा कुछ है, तेजेन्द्र को उसी रूप में स्वीकार है। उसे बदलने का कोई ख़्याल तेजेन्द्र शर्मा के मन में नहीं है। मार्क्सवाद से तेजेन्द्र को गहरी चिढ़ है। इस विषय पर कोई तर्कयृक्त चर्चा तेजेन्द्र से संभव नहीं है।
इंदु की मृत्यु के तुरंत बाद तेजेन्द्र और परिवार का गहरे अवसाद में घिर जाना स्वाभाविक था। मृत्यु के दो या तीन दिन बाद तेजेन्द्र ने मेरे सामने अपनी बेचैनी और व्याकुलता का इज़हार किया। इंदु की मृत्यु ने उसके जीवन को एक ऐसे शून्य से भर दिया था जिसके साथ समझौता कर पाना मुश्किल था। अपनी मनःस्थिति जीवन को एक ऐसे शून्य से भर दिया था जिसके साथ समझौता कर पाना मुश्किल था। अपनी इसी मनः स्थिति में तेजेन्द्र ने मेरे सामने एक विचार रखा-इंदु शर्मा के नाम से क्यों न एक पुरस्कार शुरू किया जाए.... एक ऐसा पुरस्कार जो इंदु और उसके साहित्य-प्रेम की यादगार हो। इस पुरस्कार के लिये काम करने की प्रक्रिया उस शून्य को भी काफ़ी कुछ भर देगी, जो इंदु के जाने के बाद पैदा हो गयी है।
इस तरह इंदु शर्मा पुरस्कार की शुरूआत हुई। बाद में तेजेन्द्र के प्रयत्नों से इस पुरस्कार की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति बन गयी। हिंदी की साहित्यिक दुनिया में इस समय अंधे की रेवड़ी वाली स्थिति बनी हुई थी, कुछ गुट बने हुए थे। कुछ स्वनामधन्य प्राध्यापक साहित्य की दुनिया के ठेकेदार बने हुए थे। चुने हुए उन लोगों को साहित्य अकादमी और अन्य पुरस्कारों से गौरवान्वित किया जा रहा था जो खास ‘अपने' थे। साहित्यिक भ्रष्टाचार के इस माहौल के लिये इंदु शर्मा पुरस्कार एक माकूल जवाब बन गया। गुमनाम लेखकों की योग्य कृतियों को सम्मानित कर इस पुरस्कार ने साहित्य अकादमियों और अन्य सरकारी गैर सरकारी एजेंसियों की हिस्सेदारी को खत्म कर दिया। महत्वपूर्ण उपलब्धि यह नहीं है कि इंदु शर्मा पुरस्कार समारोह हाउस ऑफ लार्ड्स में आयोजित हुए। सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि इंदु शर्मा पुरस्कार ने गुटबाजी के दलदल में फँसे हुए साहित्यिक लेखन को योग्यता और गुणवत्ता के आधार पर मान्यता दी और प्रतिभासंपन्न रचनाकारों को विश्व मंच पर पेश किया। निश्चय ही इसका श्रेय तेजेन्द्र शर्मा को है। ज्यादातर पुरस्कार उपन्यासों को दिये गये हैं। कहानियों को भी दिये गये हैं। इंदु शर्मा पुरस्कार का दायरा लगातार वृहद् और व्यापक बनाया जा रहा है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, तेजेन्द्र शर्मा ने खुद ज्यादातर कहानियाँ लिखी हैं। कहानी विद्या की स्थिति इस समय कोई ख़ास अच्छी नहीं है। ‘बेघर आँखें' संग्रह में कुछ कहानियाँ ज्यादा उल्लेखनीय हैं। ‘कब्र का मुनाफा' का विशेष उल्लेख जरूरी है। ब्रिटेन में रिवाज है कि कब्र के लिये जगह पहले से रिजर्व कर ली जाए, वरना बाद में जगह मिलना मुश्किल हो जाता है। इसमें भी एक प्रकार के धंधे की गुंजाइश बन गयी है। भाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं। कब्र की जगह कम दाम में रिज़र्व कराने के बाद आगे चलकर ज्यादा दाम में उसे बेचकर मुनाफ़ा कमाया जा सकता है। मुनाफ़ा खोरी पर चाल और पल रहे इस साम्राज में यह धंधा कोई बुरी बात नहीं है। इस कहानी में इस व्यवस्था पर तीव्र प्रहार है। अजीब बात है कि इस व्यवस्था पर प्रहार करते हुए भी लेखक पूँजीवाद और मुनाफाख़ोरी के खिलाफ़ कोई वैचारिक दृष्टि अपनाने से लगातार गुरेज करता है।
‘कब्र का मुनाफा' कहानी तेजेन्द्र शर्मा की ही एक और कहानी की याद दिला देती है जो इस संग्रह में नहीं है। वह कहानी है ‘देह की कीमत'। व्यवस्था की आर्थिक विद्रूपताएँ इस कहानी के मूल में भी हैं। पिछले हुए देशों के लोग जीविका की तलाश में उन देशों में जाते हैं। जो पिछड़े हुए देशों की बदौलत ही संभव और विकसित हुए है। इसके लिये उन्हें क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। उनका अंत भी काफी भयावह होता है। एक ऐसी व्यवस्था है जहाँ हर आदमी धन का मोहताज है। अधिक धन-प्राप्ति के लिये कुछ भी किया जा सकता है। एक बार इस चक्र में पड़ने के बाद उससे मुक्ति संभव नहीं होती। ‘बेघर आँखें' की अनेक कहानियाँ इसी स्थिति की ओर इशारा करती है। ‘अभिशप्त' कहानी में इस स्थिति की मजबूरी काफ़ी उभरकर सामने आयी है। तेजेन्द्र ने इस स्थिति को प्रत्यक्ष देखा है... पर्सर के रूप में काम करते समय और अब ब्रिटेन में बस जाने के बाद।
लेकिन वैचारिक स्तर पर उसकी दुनिया आर्थिक कारकों से बहुत दूर है। कहीं-कहीं उसमें हिंदुत्व का आग्रह देखा जा सकता है। इस संग्रह की एक कहानी ‘एक बार फिर होती'! ब्रिटेन में बसे पाकिस्तानी परिवार की बहू नज़मा भारत के बुलंदशहर से है। भारत को लेकर उसका नॉस्टेलजिया स्वाभाविक है। लेकिन नजमा का लगाव संकट मोचन के हनुमान जी से मन ही मन दुआ माँग रही है, “ हे संकटमोचन! मुझे इस हालत से बचा लीजिए। आज दफ़्तर बंद हो जाए। मुझे (ब्रिटिश) पासपोर्ट देने के लिये अफ़सर मना कर दे। मैं जब वापस अपने मुल्क जाऊँगी, आपके मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने ज़रूर जाऊँगी। ”
लेखक के अनुसार ‘उसका शरीर, आत्मा और दिमाग पूरी तरह भारतीयता के रंग में रंगे थे। भारतीयता का रंग यहाँ वास्तव में परम्परागत हिंदू रंग हो गया है। नज़मा चंद्र प्रकाश नाम के एक हिन्दू लड़के से प्यार करती थी। कृष्ण और राधा के होली के नग़में सुनकर ‘नज़मा' भाव विभोर हो जाती।' वह उर्दू नहीं जानती, हिंदी में लिखती पढ़ती है। उसकी लगभग सभी सहेलियाँ हिंदू थीं। कराची में सभी लोग गाय का मीट खाते हैं। नज़मा ऐसा नहीं कर सकती। वह पूरी तरह शाकाहारी हो गयी है। पति इमरान और उनका पूरा परिवार न सिर्फ कट्टर मुसलमान हैं, बल्कि भारत-विरोधी भी हैं। लेखक ने पूरे परिवार को और खासकर पति इमरान को काफी हृदय हीन दिखाया है। क्या सिर्फ इसलिये कि वे मुसलमान हैं ? युद्ध में इमरान की मौत के बाद नज़मा भारत लौटती है। यह फिर होली का मौका है। पल-भर के लिये ही सही, नज़मा की पुरानी खुशियाँ छब्बीस साल लौट आती हैं। पुराने प्रेमी चंद्र प्रकाश ने उसके गालों पर जैसे फिर से गुलाल मल दिया है।
नज़मा का चरित्र कितना कुछ यथार्थ है, इस पर चर्चा हो सकती है। शायद यह सही है कि तेजेन्द्र शर्मा के अपने आग्रह हैं। नज़मा ही नहीं, कहानी के अच्छे-बुरे सभी पात्र इन आग्रहों के वाहक हैं। इन आग्रहों की समलीनता चर्चा का विषय हो सकती है। किसी भी रचनाकार के संदर्भ में उसकी जीवन-दृष्टि महत्वपूर्ण है। इसी जीवन-दृष्टि से रचनात्मकता जन्म लेती है, कहानी और उपन्यास के पात्रों का चुनाव होता है, कथानक अस्तित्व में आता है और शिल्प का विन्यास होता है। किसी विशिष्ट जीवन-दृष्टि का न होना भी अपने आप में एक जीवन-दृष्टि बन जाता है। इस संदर्भ को लेकर तेजेन्द्र शर्मा पर चर्चा होना अभी बाकी है।
संग्रह में ‘टेलीफोन लाइन' एक दिलचस्प और उद्देश्यपूर्ण कहानी है।
तेजेन्द्र शर्मा के साथ मेरे संबंध निजी और पारिवारिक रहे हैं। बहुत से व्यक्तिगत उतार-चढ़ावों में हम एक दूसरे के हिस्सेदार रहे हैं। इस स्थिति के फ़ायदे हैं, और नुकसान भी। घनिष्ठ परिचय से एक ऐसी समय मिलती है जो एक दूसरे को अनेक ऐसी विशिष्टताओं के नज़दीक ले जाती है जो अन्य व्यक्तियों के लिये दुर्लभ है। लेकिन एक नुकसान भी है। नज़दीक होने पर दृष्टि उतनी तटस्थ नहीं रह पाती जितनी होनी चाहिए। इसलिये मैं नहीं कहूंगा कि मेरी राय मेरे अपने व्यक्तिनिष्ठ आग्रहों से मुक्त रही है।
हिन्दी में कहानी विद्या की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। तेजेंद्र की कहानियाँ उसे बेहतर बनाने में कितना योगदान कर सकेंगी, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। फ़िलहाल इतना ही कि तेजेन्द्र शर्मा के भावी लेखन के लिये अनेक शुभकामनाएँ।
- जगदम्बा प्रसाद दीक्षित
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