तेजेन्द्र शर्मा विशेष : रति लाल शाहीन का संस्मरण - बेघर आँखें की आँखें

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   (तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक ब...

   (तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक  शुभकामनाएं - सं.)

 

बेघर आँखें की आँखें : तेजेन्‍द्र शर्मा

रति लाल शाहीन

हर लेखक अपने साथ अपने संस्‍कार, अपने अनुभव, अपनी अनुभूतियाँ और अपनी सोच का संसार लेकर-चलता है। जब इनमें इत्तफाक होता है, तो लेखक एक-दूसरे के अपने हो जाते हैं। हमख्‍याल, यारबाज, हमराज़ से लेकर हमकदम तक। दो आम आदमी में भी आत्‍मीयता को गुंफित करने वाली ये ही शक्‍तियां और सक्रियता काम करती हैं। भाई तेजेन्‍द्र शर्मा से भी अचानक यूं ही मैं जुड़ गया। यह कोई 1978-79 की बात होगी या उससे भी पहले की।

उस समय यह बंदा मुम्‍बई से लेकर दिल्‍ली तक के नामी प्रकाशनों में छाया रहता था। संपादक भाई लोग जैसाकि होता है, अपनी कुर्सी और प्रकाशन बचाने के लिए अपनी मर्जी का पहले लिखवाते हैं। तो ज्‍यादा छपना स्‍वाभाविक ही था। डॉ. देवेश ठाकुर जी के घर एक चर्चा गोष्‍ठी हुई थी। वहीं दीदी इन्‍दु शर्मा से मुलाकात हुई। आदरणीय भाई डॉ. देवेश ठाकुर जी के घर भोजन करते हुए इन्‍दु दीदी ने तेजेन्‍द्र भाई से परिचय करवाया। तब वे अंग्रेजी में लिखते और छपते थे, रहते थे उसी शूट आउट लोखंडवाला अंधेरी में।

तब इन्‍दु दीदी को कोई बीमारी न थी। वे बहुत ही अन्‍तर्मुखी थीं। अन्‍दर ही अन्‍दर सोचने, गुनगुनाने, चिंतन करने वाली, बेहद मिलनसार। वे भाई देवेश ठाकुर जी के निर्देशन में पी.एच.डी. कर रही थीं। मेरी पांडुलिपि “कहानीकार कमलेश्‍वर” के संदर्भ में भाई देवेश ठाकुर ने कहा था, “यह पहली थीसिस है, जिसमें मुझे न तो कुछ जोड़ना पड़ा, न काटना पड़ा। एक शब्‍द भी नहीं। कहीं-कहीं अल्‍प विराम लगाना पड़ा है।” उनकी इस अलौकिक राय की वजह से आज भी वह मूल पांडुलिपि मेरे पास धरोहर बन कर पड़ी है। तेजेन्‍द्र भाई को यह टीप भी आश्‍चर्य में डाल गई। फिर हमारी चर्चा नरेन्‍द्र कोहली जी के कथानकों पर आ गई। मेरी राय से तेज भाई भी पूरी तरह सहमत थे।

फिर मिलना-मिलाना और पत्राचार भी। जो आदमी उथला नहीं होता, उसकी हर चीज में गहराई होती है। बस, यूं हुआ कि इन्‍दु दीदी ने उनको हिंदी की ओर मोड़ा और स्‍वयं अन्‍तर्ध्‍यान हो गयी। तेज भाई का “काला सागर” कहानी संग्रह यहीं मुंबई में थे, तब छपा। तेज भाई ने मकान बहुत बदले। मुंबई में शायद चित्रा भाभी ने भी मकान बहुत बदले थे। यह बदलना अनुभव बदलता है, विचारों को बदलता है, धारणाओं को बदलता है। पर, अपने आसपास की बेचैनी लेखक को घर होते हुए भी बेघर बनाये रखती है। जो संतुष्‍ट हुआ, उसका लेखक मरने लगता है। तब से तेज भाई को अपनी ही स्‍थितियों में पाता रहा। फर्क इतना रहा कि वे जमीन पर रहने से ज़्‍यादा आसमान में रहते थे। एयर इंडिया में जो काम पर थे। एक उड़ान के बाद दूसरी उड़ान में न जाने क्‍या हो। उनका अनुभव, परिचय, विशाल से विशालतर होता रहा। हिंदी वाले शायद मुझसे नाराज़ हों, पर अंग्रेजी भाषा से जो हिंदी में आये हैं, उनकी भाषा, अभिव्‍यक्‍ति और अभिव्‍यंजना में एक सूक्ष्‍म पैनापन भी आया है। उसकी एक और मिसाल हैं भाई तेजेन्‍द्र शर्मा की कहानियाँ। “ढिबरी टाइट” को भी अच्‍छी तरह पढ़ने का मौका मिला। तेज भाई को अपने बारे में कोई मुगालता नहीं है। कोई मुखौटा नहीं रखते वे। जहाँ रखना होता है, वहाँ वे मेक-अप की इतनी अच्‍छी परत रखते हैं कि उन जैसा अभिनेता कोई हो ही नहीं सकता। उन्‍होंने फिल्‍मों में काम किया। नाटकों में भी रोल किये। “शांति” सीरियल के समय इन सतरों का लेखक भी उनसे जुड़ा रहा। इस आदमी में, दिखावा और नकलीपन कहीं नज़र नहीं आता। जीवट ऐसा कि काबिले-दीद और काबिले-दाद भी। ”शाहीन, घर पर भी रहना, खून चेक-अप करवा कर अभी मैं पहुंचता हूं।” दूसरा कोई होता, मरसिया सुनाते रह जाता। और नाम के अनुसार, तेज की तेज़ी से आगे बढ़ने का भी यही राज़ है। लंदन गये जनाब, तो वहां भी अपनी प्रतिभा का झण्‍डा गाड़ दिया। यह सब एकाएक नहीं होता। इसके पीछे ढेर सारा अनुभव और दूसरों को खंगालने का एहसास काम करता है। यही विशालता और व्‍यापकता उनकी रचनाओं में भी है। एयर इंडिया में थे, विमान दो घंटे के लिए रूका। तो विश्राम की बजाय, कागज और कलम लेकर बैठ गये। कहानी तैयार। “शाहीन, बताना, कैसी लगी।”150

अपने राम तो दूसरों को नाराज करने वाली बेलाग प्रतिक्रिया देने के शाप से अभिशप्‍त कह बैठता, ” यार। उपन्‍यास को तुमने कहानी में समेट दिया है।”

उनके कई कहानी-पाठ हुए। दुनियादार उस्‍ताद लोग प्रतिक्रिया देने के बजाय चुप्‍पी लगा जाते। यों भी तेज इतना प्‍यारा है कि उसका दिल तोड़ कर लगता है, अपने ही साथ ज़्‍यादती की गई है। पिछली बार, अस्‍पताल में घण्‍टों इधर-उधर की गप-शप हुई। उससे पहले “बेघर आँखें” की पहली कहानी “कब्र का मुनाफा” का पाठ था। मूल कथा वहीं पढ़ने का भी सलीका आता है। पहले से अपनी कब्र का बुकिंग यूरोप में होती है। मूल कथा वहीं से ली गई है। दो साल एक मुस्‍लिम परिवार के साथ रह कर बिताये हैं इस ब्राह्मन बन्‍दे ने। दूसरा होता तो अपनी जाति और गोत्र के नाम से रोता। बारह कहानियों में एक-एक नई दुनिया हैं लोग इनकी शिल्‍पगत विशेषता को लेकर काफी चर्चा कर सकते है, पर कथानक तो अनुपम हैं हीं। आखिरी कहानी “बेघर आँखें” हैं। उसमें तेज भाई अपने को अलग-थलग नहीं रख पाये। इतनी शिद्‌दत से वह उनमें पैठ गई हैं। पाठक भी अपने को बचा नहीं पाता। ये सभी कहानीकार नये संसार, व अनुभव से ताअलुल्‍क रखती हैं। ये कहानियाँ जिंदगी को मुंह चिढ़ाती हैं। हाँ, इतना फिर से रेखांकित करना चाहूंगा कि अभी तो तेज भाई का आधा साहित्‍य भी नहीं छपा है। वे साहित्‍यकार नहीं, साहित्‍य अनुरागी भी हैं। खुद पुरस्‍कृत होते हैं और उससे भी दुगुनी उत्‍तमता से इंगलैण्‍ड बुला, दूसरों को भी सम्‍मानित करते हैं। यह बंदा अपने आप में एक संस्‍थान हो गया। ऐसा सौभाग्‍य कितने हिंदी लेखकों को मिल पाया है। उनकी उम्र की कामना सभी करना चाहेंगे

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रति लाल शाहीन

मुंबई-400053,

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रचनाकार: तेजेन्द्र शर्मा विशेष : रति लाल शाहीन का संस्मरण - बेघर आँखें की आँखें
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