हिन्दी काव्य जगत में अगीत कविता विधा एवं उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व वर्तमान परिदृश्य --- (डॉ. श्याम गुप्त ) कविता की अगीत विधा का प्रचलन भ...
हिन्दी काव्य जगत में अगीत कविता विधा एवं उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व वर्तमान परिदृश्य ---
(डॉ. श्याम गुप्त )
कविता की अगीत विधा का प्रचलन भले ही कुछ दशक पुराना हो परन्तु अगीत की अवधारणा मानव द्वारा आनंदातिरेक में लयबद्ध स्वर में बोलना प्रारम्भ करने के साथ ही स्थापित हो गई थी। विश्व भर के काव्य ग्रंथों व समृद्धतम संस्कृत भाषा साहित्य में अतुकांत गीत, मुक्त छंद या अगीत-- मन्त्रों , ऋचाओं व श्लोकों के रूप में सदैव ही विद्यमान रहे हैं। लोकवाणी एवं लोक साहित्य में भी अगीत कविता -भाव सदैव उपस्थित रहा है।
वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक व पौराणिक युग में भी सदैव मुक्त-छंद रूप ही थी। कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में सुखानुभूति प्राप्ति हित कविता छंद शास्त्र के बंधनों व पांडित्य प्रदर्शन के बंधन में बंधती गयी। नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला गमलों व वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी तथा स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य , विद्वता प्रदर्शन व सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया और साथ-साथ ही राष्ट्र, देश, समाज , जाति भी बंधनों में बंधते गए।
निराला से पहले भी आल्ह-खंड के जगनिक, टेगोर की बांग्ला कवितायें, जयशंकर प्रसाद , मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', सुमित्रानंदन पन्त आदि कवि तुकांत कविता के साथ साथ भिन्न-तुकांत व अतुकांत काव्य-रचना कर रहे थे। परन्तु वे गीति-छंद विधान के बंधनों से पूर्ण मुक्त नहीं थीं। उदाहरणार्थ...
"अधिक और हुई नभ लालिमा ,
दश दिशा अनुरंजित हो गयी।
सकल पादप पुंज हरीतिमा ,
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई ।।" ......अयोध्या सिंह उपाध्याय' हरिओध'
"तो फिर क्या हुआ,
सिद्धराज जय सिंह;
मर गया हाय-
तुम पापी प्रेत उसके।" ........मैथिली शरण गुप्त ( सिद्धराज जयसिंह से )
: विरह अहह कराहते इस शब्द को,
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा।।" ..........सुमित्रा नंदन पन्त
' परिमल' में निराला जी ने तीनों प्रकार की कवितायें तीन खण्डों में प्रस्तुत की हैं। अंतिम खंड में मुक्त-छंद कविता है। हिन्दी के उत्थान व बांग्ला से टक्कर व प्रगति की उत्कट लालसा लिए निराला, खड़ी बोली को सिर्फ आगरा के आस-पास की भाषा समझाने वालों को गलत ठहराने व खड़ी बोली- जो शुद्ध हिन्दी थी और राष्ट्र-भाषा के सर्वथा योग्य व हकदार थी --की सर्वतोमुखी प्रगति व विकास के हेतु कविता को छंद-बंधन से मुक्त करने को कटिबद्ध थे। इस प्रकार मुक्त-काव्य व स्वच्छंद कविता की स्थापना हुई। परन्तु निरालायुग में, उससे पहले व स्वयं निराला जी की अतुकांत व छंद-मुक्त कविता मुख्यतः छायावादी प्रभाव, यथार्थ-वर्णन व सामाजिक यथास्थिति वर्णन तक सीमित थी, क्योंकि उनका उद्देश्य एक सामाजिक युगकर्म--कविता को मुक्त करना व हिन्दी का उत्थान था। अतः वे कवितायें लंबी-लंबी थीं, उनमें आगे के आधुनिक युग की आवश्यकता--संक्षिप्तता, सरलता, सहजता के साथ तीव्र भाव-सम्प्रेषण व सामाजिक सरोकारों का उचित समाधान वर्णन व प्रस्तुति का भाव था। उदाहरणार्थ---" वह आता ...", "अबे सुन बे गुलाब .." , वह तोडती पत्थर ..."...आदि प्रसिद्ध कविताओं में समस्या वर्णन तो है परन्तु उनका समुचित समाधान प्रस्तुति नहीं है। इन्हीं विशिष्ट अभावों की पूर्ती हित के साथ साथ मुक्त-छंद, अतुकांत कविता , हिन्दी भाषा , साहित्य व समाज के उत्तरोत्तर और अग्रगामी विकास व प्रगति हेतु हिन्दी साहित्य की नवीन धारा " अगीत-विधा" का प्रादुर्भाव हुआ, जो निराला-युग से आगे कविता की यात्रा को नवीन भाव से आगे बढ़ाते हुए एवं उसी धारा की अग्रगामी विकासमान धारा होते हुए भी निराला के मुक्त-छंद काव्य से एक पृथक सत्ता है।
इस प्रकार संस्कृत व वैदिक साहित्य के अनुशीलन व अनुकरण में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा हिन्दी कविता को तुकांत-बद्धता व छंद-बद्धता की अनिवार्यता से मुक्त किये जाने पर हिन्दी साहित्य जगत में अतुकांत, मुक्त-छंद कविता का विधिवत सूत्रपात हुआ और आज वह पूरे हिन्दी जगत में सर्व-मान्य है। इसी के साथ अकविता, नईकविता, चेतन कविता, खबरदार कविता, अचेतन कविता, यथार्थ कविता, ठोस कविता , प्रगतिवाई कविता आदि का आविर्भाव हुआ। अतुकांत छंदों को रबड़-छंद, केंचुआ-छंद आदि विभिन्न नामों से पुकारा गया ; परन्तु कोई सर्वमान्य नाम नहीं मिल पाया था। इन सभी में संक्षिप्तता, सम-सामयिक वर्णन के साथ समाधान प्रस्तुति, सुरुचिकरता, सरलता आदि आधुनिक परिस्थिति के काव्य की क्षमता का अभाव था , अतः ये सभी नामों की कवितायें कालान्तर में लुप्त होगईं ,परन्तु जैसा पहले कहा जाचुका है कि उपरोक्त अभावों की पूर्ति-हित अगीत कविता की उत्पत्ति हुई एवं उसे गति मिली।
संक्षिप्तता, समस्या समाधान, अतुकांत मुक्त-छंद प्रस्तुति के साथ-साथ गेयता को समेटती हुई गीत सुरसरि की सह-सरिता , नयी अतुकांत कविता "अगीत" एक अल्हड निर्झरिणी की भांति, उत्साही व राष्ट्र-प्रेम से ओत -प्रोत , गीत, गज़ल, छंद, नव-गीत आदि सभी काव्य-विधाओं में सिद्धहस्त कवि डा.रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के अगीतायन से, लखनऊ विश्व-विद्यालय में हिदी की रीडर व सुधी साहित्यकार डा उषा गुप्ता की सुप्रेरणा व आशीर्वाद से निस्रत हुई। सन १९६५-६६ ई.में डा. सत्य ने "अखिल भारतीय अगीत परिषद "की लखनऊ में स्थापना की तथा अगीत विधा को विधिवत जन्म दिया तो वह अगीत-धारा कुछ इस प्रकार मुखरित हुई --
" आओ हम राष्ट्र को जगाएं
आजादी का जश्न मनाना,
हमारी मजबूरी नहीं-
अपितु कर्तव्य है।
आओ हम सब मिलकर
विश्व-बंधुत्व अपनाएं,
स्वराष्ट्र को प्रगति पथ पर -
आगे बढाएं।" ............डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य'
सन १९६७ ई. में परिषद को पंजीकृत कराया गया सन १९६७ से ही' अगीत त्रैमासिक' पत्रिका का संपादन भी किया गया। इसप्रकार अगीत --एक जन-आंदोलन होकर उभरा। इसी क्रम में १९७५ में 'संतुलित कहानी' व १९९८ में 'संघात्मक समीक्षा पद्धति' का जन्म हुआ। १९६६ से ही अगीत -विधा एक आंदोलन के रूप में विविध झंझावातों को सहते हुए अबाध गति से आगे बढ़ती जा रही है। देश-विदेश में फैले हुए कवियों द्वारा यह विधा देश की सीमाओं को पार करके अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपना परचम लहराने लगी है।
सन १९६६ ई. से ही डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के साथ अनेक उत्साही व प्रगतिवादी कवि अगीत आंदोलन से जुड़ गये थे। जिनमें वीरेंद्र निझावन, काशी नरेश श्रीवास्तव, मंजू सक्सेना,गिरिजा शंकर, डा अमरनाथ बाजपेयी, नित्य्नाथ तिवारी, जावेद अली, मंगल दत्त त्रिवेदी 'सरस', सुभाष हुड़दंगी , घनश्याम दास गुप्त, रामदत्त मिश्र, धन सिंह मेहता, राजेश द्विवेदी आदि प्रमुख हैं।
आगे चलकर अगीत विधा के मुखपत्र 'अगीतायन' के प्रचार-प्रसार से अन्यान्य कवियों व साहित्यकारों के इस विधा से जुड़ने का सिलसिला बढ़ाता गया एवं अगीत में विभिन्न रचनाएँ व संग्रह रचे जाने लगे।और हिन्दी कविता में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। इनमें श्रीकृष्ण तिवारी(खिड़की से झांकते अगीत )...नित्यनाथ तिवारी ( उन्मुक्त अगीत)..श्रीमती गिरिजादेवी 'निर्लिप्त' (मेरे प्रिय अगीत )...सुदर्शन कमलेश, प्रेमचन विशाल, तेज नारायण (अगीत-प्रवाह)...राजीव्शरण, कौशलेन्द्र पाण्डेय, रामकृष्ण दीक्षित'फक्कड़'..घनश्याम दास गुप्ता...रामगुलाम रावत, अनिल किशोर'निडर'...इन्दुबाला गह्लौत'इन्दुछाया' आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
इस प्रकार अगीत विधा चरण दर चरण अग्रसर होती गयी। श्री तेज नारायण राही, सोहन लाल सुबुद्ध (अगीत श्री ) मंजू सक्सेना'विनोद', रवीन्द्र राजेश, डा योगेश गुप्त, पार्थोसें, देवेश द्विवेदी 'देवेश', नन्द किशोर पांडे, ओमप्रकाश, कैलाश निगम, सुधा अनुपम, श्री गोपाल श्रीवास्तव, चंद्रपाल सिंह 'चन्द्र', डा नीरज कुमार, अवधेश मिश्र , भगत राम पोखरियाल, कुंवर बेदाग़, विनय सक्सेना, रचना शुक्ला, वासुदेव मिश्र, आदि कवि, साहित्यकार, समीक्षक व शास्त्रकार इस विधा से प्रभावित होकर जुड़ते गए एवं अनेकानेक रचनाएँ, कृतियाँ,अगीत काव्य संग्रहों की रचना हुई, आलेख लिखे गए और अगीत-विधा का प्रवाह अक्षुण्ण रूप से होता रहा।
अगीत विधा के प्रसार-प्रचार के साथ साथ राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर विभिन्न रचनाकारों , समीक्षकों व अध्येताओं द्वारा भी अगीत का लगातार उल्लेख किया जाता रहा। डा वेरास्की ( वारसा विवि पोलेंड), डा वोलीसेव ( मास्को विवि, सोवियत रूस) ने भी अगीत की महत्ता को अपने निबन्धों में स्वीकारा है तथा देश भर के विश्व-विद्यालयों ने अगीत की आवश्यकता पर बल दिया। द्वितीय युद्धोत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास ( राजपाल एंड सन्स) आई लगभग दो दर्ज़न इतिहास ग्रंथों ,शोध ग्रंथों व समीक्षा ग्रंथों में अगीत का लगातार उल्लेख होता रहा है। नागपुर में आयोजित तृतीय विश्व हिन्दी सम्मलेन में अगीत परिषद की ओर से डा रंगनाथ मिश्र'सत्य' ने प्रतिनिधित्व किया जिससे अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अगीत को बढ़ावा मिला।
विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर परीक्षाओं तक में अगीत विधा पर प्रश्न पूछे गए\ आकाशवाणी व दूरदर्शन पर भे कवि अपने अगीत रचनाएँ प्रसारित करते हैं। १९६६ ई. में श्री अनुराग मिश्र सुपुत्र डा रंगनाथ मिश्र'सत्य' द्वारा 'अगीतायन' साप्ताहिक पत्रिका का कार्यभार व संपादन संभाल लेने से अगीत-विधा के प्रचार-प्रसार को नया बल मिला है। नवीन व युवा कवि इस विधा को और आगे लेजाने को कटिबद्ध हैं, नवीन उत्साह व गति के साथ। डा योगेश गुप्ता , मंजू लता तिवारी सोनी, स्वर्णा सक्सेना , बुद्धिराम विमल, पार्थोसेन, कुमारी रजनी श्रीवास्तव, स्नेह प्रभा, क्षमापूर्णा पाठक, श्रद्धा विजय लक्ष्मी , विजय कुमारी मौर्या , विनय सक्सेना, डा मंजू श्रीवास्तव, मिर्ज़ा हसन नासर, सुभाष हुडदंगी , कवि वुद्दा, वाहिद अली वाहिद ,आदि कवि अगीत को गति देते रहे।इस प्रकार डा सत्य के सद्भावी प्रयासों से अनेकानेक कवि इस विधा से जुड़ते गए और कविवर अनिल किशोर 'निडर' को कहना पड़ा....
खिले अगीत-गीत हर आनन्,
तुम हो इस युग के चतुरानन। -----------सफर नामा से।..
सन १९६८ में डा रंग नाथ मिश्र सत्य जी की साहित्य सेवा के लिए उन्हें .राहुल सांस्कृत्यायन मंच उत्तर प्रदेश की ओर से तत्कालीन राज्यपाल श्री मोतीलाल बोरा द्वारा सम्मान दिया गया। तत्पश्चात महामहिम राज्यपाल सूरजभान द्वारा उन्हें 'सरस्वती सम्मान ' से विभूषित किया गया और अगीत को एक नया आयाम मिला।
अगीत को एक सुखद मोड़ तब मिला जब सन २००३ ई. में अगीत परिषद के वरिष्ठ सदस्य एडवोकेट पं. जगत नारायण पांडेय ने राम कथा पर आधारित खंड काव्य " मोह और पश्चाताप" तथा २००४ में "सौमित्र गुणाकर" महाकाव्य अगीत विधा में लिखा जो अखिल भारतीय अगीत परिषद द्वारा प्रकाशित कराया गया। ये दोनों रचनाएँ " गतिबद्ध सप्तपदी अगीत छंद" में रची गयीं जो पांडे जी द्वारा स्वरचित थे एवं प्रथम बार प्रयोग में लाये गए अगीत-विधा के नवीन छंद थे। ये दोनों कृतियाँ अगीत विधा में लिखे गए सर्वप्रथम खंड काव्य व महाकाव्य थे। एक उदाहरण प्रस्तुत है....
" गणनायक की कृपादृष्टि को ,
माँ वाणी ने दिया सहारा।
खुले कपाट बुद्धि के जब, तब-
हुए शब्द-अक्षर संयोजित;
पाई शक्ति लेखनी ने फिर।
रामानुज की विमल कथा का,
प्रणयन है अगीत शैली में।।" ------सौमित्र गुणाकर महाकाव्य से।
सन २००५ ई. में मैं ( डा श्याम गुप्त) डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' के संपर्क में आया और अगीत परिषद का सदस्य बना। इसमें मेरे चिकित्सालय के सहयोगी अगीत कवि श्री विनय सक्सेना का महत्वपूर्ण योगदान रहा जिन्होंने मुझे सर्वप्रथम 'अगीत' व अगीत परिषद' की जानकारी दी। इस प्रकार अगीत कविता जगत से मेरा प्रथम बार परिचय हुआ। सन २००४ ई. में मेरी प्रथम कृति 'काव्य-दूत' प्रकाशित हो चुकी थी जिसमें तुकांत, छंदोबद्ध व अतुकांत सभी विधाओं के गीत संकलित थे। २००५ में डा सत्य की प्रेरणा से मेरा तृतीय काव्य संकलन 'काव्य-मुक्तामृत " अतुकांत छंदों में प्रकाशित हुआ जो अगीत परिषद के प्रकाशन में मेरी प्रथम कृति थी।
अगीत कविता के छंदों की संक्षिप्तता के बावजूद कथ्य की सम्पूर्णता के साथ भाव-संप्रेषणीयता मुझे 'सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर " एवं उर्दू के शे'र की भांति 'गागर में सागर' के भाव में सुस्पष्टता से संप्रेषणीय, सुग्राह्य व मनमोहक लगी। मैंने अनुभव किया कि अगीत में जन-जन की कविता बनने तथा सामान्य जन के लिए भी भाव-सम्प्रेषण की अपार क्षमता के साथ-साथ अग्रगामी युगानुकूल संभावनाएं भी हैं। अतः मैंने स्वयं ( डा श्याम गुप्त ) सन २००६ ई. में शाश्वत आध्यात्मिक रहस्यमय विषय - 'सृष्टि, ईश्वर व जीवन-जगत के प्रादुर्भाव ' पर , विज्ञान व अध्यात्म पर समन्वित महाकाव्य " सृष्टि ( ईषत इच्छा या बिगबैंग-एक अनुत्तरित उत्तर )". अगीत विधा में लिखा जिसमें अगीत व साहित्य के इतिहास में प्रथम बार किसी मूर्त व्यक्तित्व के स्थान पर अमूर्त ने नायकत्व का निर्वाह किया है। इस कृति की सफलता व पत्रकारों, विद्वानों, समीक्षकों द्वारा आलेखों से यह सिद्ध हुआ कि अगीत में आध्यात्मिक, वैज्ञानिक व गूढ़ विषयों पर भी रचनाएँ की जा सकती हैं। सन-..२००८ में अगीत विधा पर मेरी द्वितीय कृति "शूर्पणखा" खंड काव्य प्रकाशित हुई जिसे मैंने "काव्य-उपन्यास" का नाम दिया है।
सृष्टि महाकाव्य के प्रणयन के लिए मैंने अतुकांत, सममात्रिक, लयबद्ध गेय 'अगीत षटपदियों' का निर्माण किया जो अगीत में एक और नवीन छंद की सृष्टि थी। सृष्टि महाकाव्य के लोकार्पण के समय इन अगीत षटपदियों को भातखंडे संगीत महाविद्यालय ,लखनऊ की प्राचार्या श्रीमती कमला श्रीवास्तव द्वारा संगीतमयता से गाकर बड़े सुन्दर एवं मनमोहक ढंग से प्रस्तुत किया गया। एक उदाहरण देखें....
" नए तत्व नित मनुज बनाता ,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से।
अंतरिक्ष आकाश प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं व ऊर्जा ;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढता जाता।।" ---सृष्टि महाकाव्य से ....
इसी वर्ष कवयित्री श्रीमती सुषमागुप्ता के एक छोटे से अगीत से प्रेरित होकर मैंने अगीत के एक अन्य छंद
" नव-अगीत" का सूत्रपात किया जो पारंपरिक अगीत से भी लघु है....यथा...
" बेड़ियाँ तोड़ो ,
ज्ञान दीप जलाओ;
नारी अब,
तुम्हीं राह दिखाओ ,
समाज को जोड़ो।" ---- नव अगीत ( श्रीमती सुषमा गुप्ता )
अगीत छंद को और आगे बढाते हुए , क्रांतिकारी, स्वतन्त्रता सेनानी ,पत्रकार, साहित्यकार पद्मश्री पं. बचनेश त्रिपाठी के निधन पर श्रृद्धांजलि स्वरुप मेरे द्वारा एक नवीन अगीत-छंद- "त्रिपदा अगीत छंद" का प्रयोग किया गया। वह प्रथम छंद श्री बचनेश जी की स्मृत-श्रद्धांजल स्वरुप था....
" सादा जीवन औ विचार से,
उच्च भावना से पूरित मन;
सच्चे निष्प्रह युग-ऋषि थे वे।"
इस प्रकार अगीत की यह अल्हड़ निर्झरिणी , आज पूर्ण-रूप से युवा होकर अगीत काव्य की विभिन्न धाराओं से समाहित कालिंदी का रूप धरकर कल-कल प्रवहमान है तथा उत्तरोत्तर नवीन धाराओं -उपधाराओं से आप्लावित हो रही है। सिर्फ भारत में ही नहीं सारे विश्व में अगीत की गूँज है। एक वार्तालाप में डा सत्य का कथन था कि --" यद्यपि अगीत कवि किसी 'वाद ' का सहारा नहीं लेता; परन्तु इतने लंबे समय तक चलने वाला व स्थायी होने वाला आंदोलन स्वयं एक वाद का रूप ले लेता है , अतः काव्य की इस धारा को 'अगीतवाद" की संज्ञा दी जा सकती है।
साहित्य की यह अगीत धारा, प्रत्येक माह के प्रथम रविवार को 'अखिल भारतीय अगीत परिषद, राजाजी पुरम, लखनऊ के तत्वावधान में गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों , कवि-मेला, कवि-कुम्भ व एक मार्च को 'साहित्यकार दिवस' मनाकर तथा 'अगीतायन' नामक समाचार पत्र के प्रकाशन द्वारा नए-नए व युवा कवियों को प्रोत्साहन देकर, हिन्दी भाषा, व साहित्य की अतुलनीय सेवा में लगी हुई है। अगीत के कवि-पुष्प, काव्य-वाटिका में अपना अपना सौरभ बिखेर रहे हैं जो अन्य कवियों, साहित्यकारों व जनमानस को विविध रूपों से हर्षित व आंदोलित करते जा रहे हैं। इस प्रकार उपन्यासकार प्रोफे. यशपाल के वाक्य "... अगीत का भविष्य उज्जवल है "...श्री अमृत लाल नागर के कथन "...यदि अगीत फैशन के लिए नहीं है तो उसका भविष्य उज्जवल है"..एवं श्री सूर्य प्रसाद दीक्षित के शब्द ..." अगीत वस्तुत: गीति काव्य का ही अभिकल्प है "...वस्तुतः सत्य सिद्ध हो रहे हैं और कहा जा सकता है कि ---
"रंगनाथ की कविता का रंग,
ज्यों ज्यों समय बीतेगा ,
धुलेगा नहीं वरन निखरेगा।
क्योंकि समय के शूलों को,
झेलना, फूलना, भूलना -
यह सत्य का स्वभाव है।" ---- कवि पाण्डेय रामेन्द्र ( सफर नामा से )
तथा---
" पौधा जो अगीत का सत्य ने लगाया था,
तन मन का रंग रूप जन जन को भाया था।
बना सुमन-वल्लरी, काव्य शिखर चूमता ,
श्रम, श्रद्धा , सत्य-भाव सींचा औ सजाया था।।" ---- डॉ. श्याम गुप्त ..
धन्यवाद रवि रतलामी जी ---हिन्दी में अगीतविधा अब अनजानी नहीं रही ....
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