(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाई...
(तेजेंद्र शर्मा - जिन्होंने हाल ही में अपने जीवन के 60 वर्ष के पड़ाव को सार्थक और अनवरत सृजनशीलता के साथ पार किया है. उन्हें अनेकानेक बधाईयाँ व हार्दिक शुभकामनाएं - सं.)
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(इंदु शर्मा)
ताजमहल केवल पत्थरों से नहीं बनते
(इंदु शर्मा जी से जुड़े तेजेन्द्र शर्मा के संस्मरण) - राजीव रंजन प्रसाद
ताजमहल को देख घंटों खड़ा रहा था। पिघलती हुई शाम ताज पर इस तरह झुकी हुई थी जैसे उसे चूम कर अलविदा कहना चाहती हो। मैंने दूर उस महल की ओर भी देखा जहाँ शाहजहाँ ने अपने आख़िरी दिन ताजमहल को निहारते हुए काटे थे; उसकी खामोशी अब भी कुछ कहती है। ताजमहल तब से मेरे भीतर शाहजहाँ का दिल बन कर रहा है। मैंने हमेशा यह महसूस किया है कि प्रेम जीना सिखाता है, प्रेम वह जिजीविषा पैदा कर देता है जिससे कुछ कर गुज़रने की हूक उठती है। बात यहाँ से इस लिये आरंभ कर रहा हूँ क्योंकि जब तेजेन्द्र शर्मा कहते हैं कि “ताजमहल केवल पत्थरों से नहीं बनते तो पाता हूँ कि हर आदमी का अपना ताजमहल है और वही उसे कहता है चरैवेति-चरैवेति।
उस सारे दिन तेजेन्द्र जी के साथ था। शाम एक कार्यक्रम से लौटते हुए हल्की हल्की थकान सब पर हावी थी। ऐसे में या तो कुछ गुनगुनाने की इच्छा होती है या अपने ही भीतर डूब जाने की। शायद तेजेन्द्र अपने ही भीतर डूबे हुए थे। मेरे हाथ में एक पुस्तक थी जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था “इंदु शर्मा कथा सम्मान” और मुखपृष्ठ पर एक चित्ताकर्षक तस्वीर मुद्रित थी। मैं यह तो जानता था कि इंदु जी, तेजेन्द्र शर्मा जी की दिवंगत पत्नी हैं और इंदु शर्मा कथा सम्मान उनकी स्मृति में स्थापित किया गया है। यह भी जानता था कि गहरे रिश्तों के कारण ही ताजमहल बना था और यह सम्मान….केवल इंदु जी को याद रखने की कोशिश भर नहीं है। तेजेन्द्र शर्मा से कहानी पर बात करना तो आसान है लेकिन इंदु जी पर बात करना...मेरे मन में एक हिचक थी। लेकिन माहौल ने मुझमें हिम्मत भरी और मैंने उनसे यह बेहद निजी सवाल पूछ ही लिया - “इन्दु जी के बारे में कुछ बतायें। कुछ पल वातावरण शांत रहा।
मुझे लगा जैसे मुझे यह प्रश्न नहीं करना चाहिये था। किंतु अगले ही क्षण ख़ामोशी टूटी और तेजेन्द्र जी ने कहना आरंभ किया “इन्दु जैसे व्यक्तित्व बहुत कम पैदा होते हैं। मैं जैसे एक तरह का 'रॉ-मैटीरियल’ था - इंसान के तौर पर; इन्दु ने मुझे तराशा, ज़िंदगी के वो फ़ाइन ऐलीमेंटस सिखाये जिनसे मैं एक बेहतर इंसान बन पाया। उसने मुझे एक चीज़ बताई कि मैं जीवन में कभी उतावला न होऊँ। मेरी एक आदत थी कि आई कुड नेवर स्टैंड मीडियोकर्स। वो मुझे हमेशा कहती थी कि आप हर व्यक्ति को अपनी इंटैलीजेंस से कैसे नाप सकते हैं? आप हर व्यक्ति को ये लिबर्टी दीजिये कि वो अपनी इंटैलीजेंस के हिसाब से जिये और आप अपनी इंटैलीजेंस के हिसाब से।”
बात एक दर्शन से आरंभ हुई थी। लेकिन स्वयं कथाकार के लिये इस दर्शन से इतर इंदु जी क्या थीं, यह भी मैं समझना चाहता था। तेजेन्द्र जी ने अपनी बात जारी रखी “कोई भी व्यक्ति इन्दु को एक बार मिल ले तो ये हो ही नहीं सकता कि वो इन्दु का मुरीद न बन जाये.....और मुझे इस बात से फ़ख्र महसूस होता था कि कोई भी राह चलता आदमी इन्दु को देख के दोबारा मुड़ के ज़रूर देखता था। उसकी जो अपीयरेंस वाली खूबसूरती थी, वो हर आम आदमी को दिखाई देती थी किन्तु उसकी भीतरी ख़ूबसूरती मैं महसूस कर सकता था। मेरे मित्र-वर्ग में जितनी पत्नियाँ थीं, उन सबके राज़ इन्दु को मालूम थे; इन्दु क्या है ये कभी किसी को नहीं पता चला। किन्तु इन्दु के ज़रिये कभी किसी के राज़ किसी को पता नहीं चलते थे। उसमें पता नहीं क्या था कि जो भी उससे मिलता, अपने राज़ उसे बताने को आतुर हो जाता। उसने बच्चों में अच्छे संस्कार डाले.....
इन्दु ने मुझे एक बेहतर इंसान बनाया; इन्दु ने मुझे कहानीकार बनाया। इन्दु को मेरे सभी दोस्त पसंद करते थे। कम शब्दों में सटीक बात कहती थी; एक अक्षर फ़ालतू नहीं बोलती थी। ए परफ़ेक्ट सोल, इन ए परफ़ेक्ट बॉडी।“
मैं वाक्यों के बीच बीच ली गयी गहरी साँसों के अर्थ जानता था। लेकिन बहुधा ऐसे अवसर नहीं मिलते कि किसी लेखक को इतनी अंतरंगता से समझा जा सके। मैं उन्हें ध्यान से सुन रहा था। थोड़ा रुक कर वे बताने लगे “ये जो ’इन्दु शर्मा कथा सम्मान' है, ये चालीस साल से कम उम्र के लोगों के लिये शुरू किया गया था। मुझे लगता था कि जिस तरह इन्दु ने मुझे गाइड किया, चालीस साल से कम उम्र के लोगों को अपनी याद से गाइड करेगी। ये जो टुकड़ा-टुकड़ा इन्दु बाँटने वाली बात थी, ये चालीस साल से कम उम्र के लोगों के लिये थी कि तुम इतने लकी नहीं हो कि इन्दु तुम्हारे पास हो। चलो मैं अपनी इन्दु का कुछ हिस्सा तुम्हें देता हूँ। पर मैं कभी भी इतना नहीं कर पाऊँगा कि मैं कह सकूँ कि "इन्दु! देखो तुमने जो किया था, उसका हिसाब मैंने पूरा कर दिया; क्योंकि ये हिसाब-किताब का रिश्ता था ही नहीं, ये भावनाओं का रिश्ता था और भावनाएं तब तक रहेंगी जब तक कि सीने में दिल है। जब वो धड़कना बंद कर देगा तो... ..
इन्दु का नाम आसमान पे लिखना चाहता था; जब हर साल ’हाउस ऑॅफ़ लॉर्ड’ में नाम लिखा जाता है तो लगता है कि जो चाहा था उसका कुछ हिस्सा तो पूरा हो गया। शायद आगे भी कुछ हो पाये!।
“आपका ये प्रेम-विवाह था?” मुझसे रहा नहीं गया। तेजेन्द्र शायद इस प्रश्न से कुछ असहज हुए और बताने लगे “ये ऐसा प्रेम-विवाह था जो माँ-बाप की मर्ज़ी से, सामाजिक तरीके से हुआ। हमने अपनी माँ को बताया कि हमें ये लड़की पसंद है और ब्राह्मण होते हुये... ये जात-पात की बात नहीं है, ये एक फैक्चुअल स्टेटमेंट है। इन्दु का परिवार ’सूद’ परिवार था जो बनिये होते हैं। पर मेरे माँ-बाप ने कोई अड़चन पैदा नहीं की। उन्होंने कहा कि लड़की इतनी अच्छी है.. एक्चुअली हमारा बेटा ब्राह्मण नहीं है, हमारी बहू ब्राह्मण है। तो ये प्रेम-विवाह इस तरह हुआ। फिर कुछ पल कोई कुछ न बोला।
बड़े बड़े प्रश्नों से मैं तेजेन्द्र जी को बाधित नहीं करना चाहता था सो इतना ही पूछा - इन्दु जी का कृतित्व... वो लिखतीं भी थी? तेजेन्द्र बताने लगे “इन्दु को सिर्फ़ लिखने का शौक था। वो अपनी फीलिंग्स, अपने विचार काग़ज़ पे लिख लेती थी लेकिन उसने कभी छपने के एंगिल से उन्हें पॉलिश नहीं किया। मेरे बहुत कहने पर उसने अपनी दो कहानियाँ फेअर की थीं। एक तो ’सारिका’ में छपी थी और एक ’नवभारत टाइम्स’ में। एक कहानी का मुझे नाम याद है "मध्यान्ह के बाद"। उसकी दो-तीन कवितायें जो फ़ेअर की हुईं थीं, वो उसकी मृत्यु के बाद ’जनसत्ता’ की मैगज़ीन सबरंग में छपीं थीं....
मेरी हिम्मत नहीं थी कि मैं उसके लिखे को बदलूँ या उसे तराशूँ। क्योंकि मुझे लगता था कि जो मुझे तराशती थी, मैं भला उसके लिखे को कैसे तराश सकता हूँ। जो उसका लिखा हुआ था वो साफ़ पता लगता था कि अभी दिमाग में कुछ आया और उतार दिया..... बस यही कुछ डायरियों में कुछ पन्ने हैं... वो कहती थी कि "आपको छपने का शौक है, आप छप रहे हो न! ज़रूरी तो नहीं कि एक घर में दो हों।" बस ....”
“इन्दु जी पर कभी कोई कहानी लिखी आपने?” मैंने बात आगे बढ़ाई। कुछ सोचने की ख़ामोशी दे कर तेजेन्द्र जी ने कहा “मेरी कई कहानियों में उसका प्रतिबिम्ब है। चित्रा मुद्गल ने एक बार मुझे कहा था "तेजेन्द्र! तुम्हारी कहानियों में पत्नी की जो छवि है, उससे मुझे जलन होती है। अवध (अवध नारायण उनके पति हैं) की कहानियों में पत्नी बिल्कुल अलग होती है।" मैंने कहा था कि जिसकी पत्नी इन्दु होगी, उसकी कहानियों में छवि भी वैसी ही आएगी। अगर आप मेरी कहानी पढ़ेंगे... कैन्सर, ईंटों का जंगल या अपराधबोध का प्रेत, पासपोर्ट का रंग..... इन्दु जैसे लोग ज़्यादा दिन नहीं जीते। वो तो जैसे कोई महान आत्मा थी जो कुछ समय के लिये धरती पर आ गई थी.... ताजमहल सिर्फ ईंटों के नहीं बनते, ताजमहल भावनाओं के भी बनते हैं; और मेरी भावनाओं का ताजमहल है कि मैं इन्दु का नाम आसमान पर लिख सकूँ.......
मैं ज़्यादातर बाहर दौरे पर रहता था। तो एक बड़ा अच्छा फायदा इसका ये था कि हमारी रिलेशनशिप हर दस दिन के बाद एक नई रिलेशनशिप होती थी। अगर बीच में ब्रेक मिलता रहता है तो यू कैन गेट ब्रीदिंग स्पेस। मैंने महसूस किया है कि जब आप दूर होते हैं तो आपको अपने पार्टनर की अच्छी बातें याद आती हैं। और जब रोज़ साथ में रहते हैं तो उसकी नेगेटिव बातें भी दिखाई देती हैं। मुझे पता रहता था कि मैं जब फ़्लाइट से वापस आऊँगा तो उस शाम या नेक्स्ट शाम पूरा परिवार बाहर खाना खाने जाएगा। उसका एक भी कपड़ा ऐसा नहीं था जो उसने स्वयं ख़रीदा हो। उसकी हर चीज़ मैं पसन्द करता था, उसके सूट, उसकी साड़ियाँ; डिजाइनिंग करवाने भी मैं उसके साथ जाता था।
जब शादी हुई तो उसके बाल लम्बे थे। एक बार हमें फिल्म देखने जाना था। मैंने कहा कि चलो तैयार हो जाओ। उसके बाल बहुत घने और कर्ली थे तो जब वो कंघी करने खड़ी हुई तो आधा घंटा तो कंघी करने में ही लग गया। उस दिन तो हम फ़िल्म देखने नहीं गये, मगर मैं उसको ओबेराय होटल ले गया और वहाँ जाकर उसके बाल कटवा दिये। मैंने कहा कि अब कभी बालों की वज़ह से फिल्म नहीं छूटेगी। उसने कहा कि "अगर मैं तुम्हें ऐसे ही अच्छी लगती हूँ तो ऐसे ही सही।" आलदो वी हेड ए लव-मैरिज; तो ये नैचुरल था कि वो मुझे नाम लेकर बुलाती, पर उसने कभी मुझे नाम ले कर नहीं बुलाया। हमेशा "सुनो" ही कहा करती थी.....
एक बार की बात है; मेरा एक दोस्त था, धीरेन्द्र अस्थाना, जो कि एक अच्छा कहानीकार है, उसके घर की छत उड़ गई। वो कांदिवली के चारकोप इलाके में रहता था। उसका फ़ोन आया। उसने कोई दस-पन्द्रह लोगों को फोन किया होगा; सबने अफ़सोस किया और बस.... इन्दु को मैंने बताया कि अभी धीरेन का फोन आया है कि घर की छत उड़ गई। उसे एक मिनट भी नहीं लगा, बोली कि उन्हें फ़ोन कीजिये कि हम दोपहर का खाना लेकर आ रहे हैं। उसने जल्दी से खाना बनाया और जब हम लोग चलने लगे तो अलमारी में से दो हज़ार रुपये निकाले और बोली कि "ये जेब में रखिये।" मैंने पूछा, "क्यों" तो बोली कि "ये उन्हें दीजियेगा कि वो अपनी छत ठीक करा लें।"......आमतौर पर मैंने ऐसी बीवियाँ देखीं हैं कि आप किसी दोस्त के लिये कुछ पैसे माँगे तो वो लड़ पड़ें कि भई क्या मतलब है। यहाँ दूसरी ही बात थी... ....
उसको मुझसे ये शिकायत भी रहती थी कि "यू आर नॉट पोज़ेसिव अबाउट मी"। मैं कहता था कि इसका क्या मतलब है। "नहीं, कोई मेरे से बात करता है तो आप जैलस नहीं फ़ील करते।" इन्दु की सोच के मुताबिक जो आदमी प्यार करता है, उसे जैलस होना चाहिये। मैं उसको कहता था कि "भई देखो! क्योंकि मैं जैलस नहीं हूँ, इसलिये तुम इसकी क़दर नहीं करतीं।" मैंने अंग्रेज़ी लिटरेचर में एक नाटक पढ़ा था "ओथेलो"; वह एक जैलस आदमी था। मुझे वह चरित्र कभी अच्छा नहीं लगा। लगता था कि अगर ऐसे नेचर की वज़ह से मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ तो मैं अपने आप को माफ़ नहीं कर पाऊँगा। .... तो ये कुछ बातें हम आपस में किया करते थे..........
उसको लेक्चरर की नौकरी मिल गई थी। पर बच्चे छोटे थे, उनका कुछ इन्तज़ाम नहीं हो पा रहा था, तो उसने वो अपाइन्टमेंट लैटर वापस कर दिया...... कई बातों में हमारे विचार एकदम अलग-अलग थे। उसे नौशाद और शकील बदायूँनी के गीत अच्छे लगते थे और मुझे शंकर-जयकिशन और शैलेंद्र के। वो अमिताभ बच्चन को दुनिया का सबसे श्रेष्ठ अभिनेता मानती थी। उसका कहना था कि जिस सीन को अमिताभ सरलता से कर लेते हैं, उसे कोई और नहीं कर सकता। उनकी प्रिय अभिनेत्री नूतन थी। राजकपूर की ब्लैक एण्ड व्हाइट फ़िल्में हम दोनों को अच्छी लगती थीं। बहुत अच्छा गाती थी... बहुत सुरीली थी और बहुत सुघड़ भी। घर की हर चीज़ सिलनी आती थी उसे। वो पर्दे सिल लेती थी, कपड़े सिलती थी, कढ़ाई करती थी, स्वैटर बुन लेती थी। जैसी पत्नी हर मध्यवर्गीय व्यक्ति चाहता है कि पत्नी मॉड भी हो और ट्रैडीशनल भी; तो वो बिल्कुल ऐसी ही थी... एकदम परफ़ैक्ट। और पढ़ाई में इतनी कमाल थी कि हायर सैकेन्डरी में पूरे सैन्ट्रल बोर्ड में फ़र्स्ट आई तो बी.ए. ऑॅनर्स में पूरी यूनिवर्सिटी में। एम.ए. में भी आती पर उसके पिताजी की मौत हो गई और फिर मैं मिल गया उसको।
विवाह के बाद हम दोनों मुंबई रहने के लिये आ गये। हमने अपना जीवन एक किराए के कमरे से शुरू किया था - 800 रुपये महीने; कफ़ परेड, मुंबई में। बीस रुपये महीने किराए पर एक अल्मारी ली थी और एक डोली (दूध वगैरह रखने के लिये) पन्द्रह रुपये महीने किराए पर। हमारा संघर्ष साझा था। उन दिनों की यादें आज भी ज़िन्दा रखे हैं। जब इंदु अपनी अंतिम यात्रा पर निकली तो हमारे पास एक फ़्लैट मुंबई में था और एक दिल्ली में। और मेरे पास थे मेरी बेटी दीप्ति और बेटा मयंक। आज दीप्ति का विवाह हो चुका है अरुण के साथ और उनका एक छोटा सा पुत्र है यश। मयंक का विवाह मुंबई की उन्नति के साथ तय हो चुका है।
इंदु ने करीब करीब साढ़े चार वर्ष तक कैंसर से लड़ाई की। मुझे याद है कि हम लोग पूरा परिवार लंदन छुट्टियां मनाने गये थे; शायद 1990 की बात है। वहाँ उसने मुझे बताया था कि उसे बाईं ब्रेस्ट में एक लम्प महसूस हो रहा है। वापिस मुंबई आकर चेक करवाया। जिस दिन उसे बायोपसी का रिज़ल्ट मिलना था, मैं रोम की उड़ान पर गया था। जब वहां से फ़ोन पर इंदु से बायोपसी के बारे में पूछा तो बहुत ही सधी हुई आवाज़ में जवाब मिला - अच्छा रिज़ल्ट नहीं है। बता रहे हैं कि कैंसर है। मैं उसी पल भारत वापिस पहुंचा। इंदु की सर्जरी महीने भर के भीतर हो गई। सर्जरी के पहले और बाद की हमारी आपस की बातों से मुझे पता चला कि वह कितनी बुलंद इन्सान है और मैं कितना छोटा। इस विषय को लेकर ’कैंसर’ और ’अपराध-बोध का प्रेत’ नाम की दो कहानियाँ लिखी हैं मैंने। उसके अंतिम दिनों तक टेलिफ़ोन पर कभी कोई नहीं महसूस कर सकता था कि यह आवाज़ कुछ ही दिनों बाद हमेशा के लिये चुप हो जाने वाली है।
इंदु अपने अंतिम दिनों में एक विचित्र स्थिति से गुज़र रही थी। वह जानती थी कि अब कुछ ही दिनों का जीवन बाक़ी है। वह पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखती थी। उसका कहना था जो है बस इसी जीवन में है। मुझे कहा करती थी कि अपने आपको सुधार लो। जब मैं नहीं रहूंगी, कौन तुम्हें याद दिलाएगा कि दराज़ बन्द कर लो, अलमारी बन्द कर दो। मैं रद्दी अख़बार बैठक में रख कर भूल जाता था। कई कई दिन वो अख़बार वहीं पड़े रहते। इंदु की मृत्यु के पश्चात दो हफ़्तों तक अख़बार वहीं पड़े रहे। किसी ने डांट लगा कर उठाने के लिये नहीं कहा। सोच सोच कर रोता रहा और एक कविता लिख डाली।
ज़िन्दगी के हर पहलू के साथ इंदु जुड़ी है। उससे अलग हो की जीवन के बारे में सोच ही नहीं सकता। उसके कमरे में जब उसे ऑॅक्सीजन लगा दी गई तो वह कमरे में लगी दीवार घड़ी को देखती रहती थी। उस घड़ी के डायल में मकड़ी का एक जाला बना था। बस उस जाले का अर्थ समझने का प्रयास करती रहती। अपनी कहानी ‘बेघर आंखें’ में मैंने उस घड़ी और इंदु का चित्रण किया है।
इंदु का जो चित्र पूरी दुनिया देखती है, उसकी मृत्यु से करीब पाँच महीने पहले का है। उन दिनों वह अपनी बाज़ू ऊपर उठा कर ब्लाउज़ तक नहीं बदल सकती थी। उस फ़ोटो में इन्दु ने जो चेन पहन रखी है वो मेरी एअर इंडिया की मित्र मीनाक्षी की है। मीनाक्षी ही हमें जगदीश माली के पास ले कर गई थी फ़ोटो सेशन के लिये। इंदु जैसे लोग रोज़ रोज़ जन्म नहीं लेते। इंदु की मृत्यु के बाद मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखीं थीं कि -
दरख़्तों के साये तले
करता हूँ इन्तज़ार
सूखे पत्तों के खड़कने का
बहुत दिन हो गए
उनको गए घर बाबुल के।
रास्ता शायद यही रहा होगा
पेड़ों की शाखों और पत्तों में
उनके ज़िस्म की ख़ुशबू बस के रह गई है
पत्ते तब भी बेचैन थे
पत्ते आज भी बेचैन हैं
उनके कदमों से लिपट के खड़कने के लिये
पर सुना है
कि रूहों के चलने से
आवाज़ नहीं होती...
गाड़ी चलती रही। हमने इस कविता के बाद इस संदर्भ पर बात नहीं की। मैं पूछना चाहता था कि जब इंदु जी कैंसर से जूझ रही थीं तो उनकी मनोदशा क्या थी? लेकिन मैं उस शाहजहाँ से क्या पूछता जिसे ताजमहल देख कर ही जीना था?
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साभार-
यह बातचीत मुझे काफी पसन्द है। रचनाकार के मन की बात एवं उनके संवेदनशील स्वभाव का पता चला।
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