कहानी कहानी में टि्वस्ट है - प्रमोद कुमार चमोली मैं उससे मिन्नतें कर रहा था कि यार! ये कहानी मैंने आज ही लिखी है। प्लीज सुन ले ना।...
कहानी
कहानी में टि्वस्ट है
- प्रमोद कुमार चमोली
मैं उससे मिन्नतें कर रहा था कि यार! ये कहानी मैंने आज ही लिखी है। प्लीज सुन ले ना। पर वो था कि हमेशा की तरह ना -ना कर मेरे मज़े ले रहा था। ख़ैर एक प्याली चाय पर सौदा तय हुआ। मेरी हर कहानी का पहला श्रोता वो ही होता है और मेरी कहानी का समीक्षक भी। खैर जब सौदा पक्का हुआ तो मैं उसे एकान्त में लेकर बैठ गया। एक कुशल बातपोश की तरह मैंने अपनी कहानी शुरू की।
तो दोस्त! ये कहानी एक गाँव की है। दूर-दराज रेत के धोरों के बीच बसा गाँव, सोने की आभा लिये सूखी रेत के धोरे (टीले)। जहाँ खेती वर्षा आधारित है। वो भी एक दम अनिश्चित! अकाल और रेगिस्तान के गाँवों का गहरा रिश्ता है। वर्षा अच्छी ना हो तो जमाना अच्छा नहीं, तो वो ही अकाल राहत कार्यों की राहत। इस गाँव में आम गाँव की तरह गुवाड़ (चौक) भी है। आम गाँवों की तरह यहाँ पर भी गुवाड़ में बैठने वाले नकारा समझे जाने वाले बुड्ढों। जिन्हें घर की बहुएं सुबह राबड़ी पिलाकर घर के कामों में लग जाती है। इन बुड्ढों के व्यतीत करने के लिए पूरा लम्बा दिन। कटे कैसे? सो गुवाड़ में लफ्फाजी के दौर के साथ हर आने जाने वालों पर इनकी नज़र। हर घर के चूल्हे से लेकर संसार के बड़े से बड़े विवादित मुद्दों पर अपनी क्षमता के अनुसार बहस। गाँव के जवान होते लोग बुड्ढों पर हँसते पर खुद उम्रदराज होने पर यहीं बैठे मिलते। मेरी कहानी की भूमिका जारी थी, पर वो उकता गया था सो उसने नाराज होकर कहा, ‘भाई इसमें कहानी कहाँ है।' मैं हंसा और बोला ‘भई कहानी तो मैं भी ढूंढ रहा हूँ पर तुम सुनो तो सही। इतना कहकर मैंने फिर कहानी शुरू कर दी।
हाँ तो गुवाड़ों और इन पर बैठे झुर्रीदार बुड्ढों का दुनियाँ को देखने का अपना नज़रिया है। ये अलग बात है कुछ के मोटे लैंस वाले चश्मों से सब धुंधला दिखाई देता है। खैर जो भी इनकी बातें बड़ी मजेदार होती है। यहाँ रामायण, महाभारत या भागवत कथा के प्रसंगों की चर्चा तो होती ही है। राष्ट्रीय और अन्तरर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस भी होती है। ये भोले-भाले लोग अभी तक अखबार और टीवी की खबर को खबर मानते हैं। माने भी क्यों ना, विश्वास है, इन्हें इन खबरों पर। विश्वास बड़ी चीज है। विश्वास तो इन्हें अपनी जिन्दगी पर बहुत है। ये अलग बात है कि जब कोई यहाँ से कम हो जाता है, इनकी भाषा में सौ बरस ले लेता है तो एक-दो दिन यहां मौत के डर से मुर्दनी छा जाती है। पर फिर वही शो मस्ट गो ऑन.... शो चलता रहता है।
तो भई अब मुद्दे की बात पर आता हूँ। इस पर मेरा मित्र, तिलमिला गया ''तो अब तक क्या था?'' मैंने समझाते हुए कहा वातावरण निर्माण कर रहा था। वो फिर बोला अब हो गया कि अभी बाकी है? मैंने अपने सब्र के बांध को छलकने नहीं दिया और संयत होकर कहा ये जरूरी होता है। तुम सुनो तो सही। वो फिर सुनने लगा... तो गाँव की ये गुवाड़ें चुनावों में और भी गुलजार हो जाती है। उनकी कीमत भी बढ़ जाती है जनमत का खुफिया आंकलन करने वाले नेताओं के चमचे, पत्रकार और सटोरियों में इनकी चर्चाओं का बड़ा महत्व होता है। अगर चुनाव पंचायत के हों तो गुवाड़े और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। पंचायत चुनाव से पहले गाँव के संभावित पंच सरपंच यहाँ बैठकर अपने पक्ष में जनमत बनवाने का काम करते हैं। तो कुछ मसखरे अपना नाम इनसे उछलवा कर सीरियसली चुनाव लड़ने वालों को तनाव भी दिला देते हैं।
‘‘यह तो हर गाँव की कहानी है। इसमें नया क्या है?'' इतना कहकर उसने अपने होठों में दबाये जर्दे को उंगली से बाहर निकाल कर फेंका। अरे भई! नया है सुनो तो सही। कहानी तो अब शुरू होगी। इस पर वह बोला कि ‘‘बस, समझो तुम्हारी कहानी खत्म हो गयी। इससे आगे कोई नहीं पढ़ेगा। जम कर बोर कर दिया है तुमने।'' अरे भई तुम सुनो तो सही कहानी तो अब शुरू हो रही है।
इसी तरह के एक गाँव की बात है। गाँव का नाम....खैर छोड़ो यार नाम में क्या रखा है? कुछ भी मान लो जैसे रामपुर श्यामपुर इस पर वह झल्लाया ''पर क्यों भई? तुम कहानीकारों के पास ये दो ही गाँव है क्या? रामपुर जो शोले फिल्म में था जहाँ की बसंती ताँगेवाली थी।''
‘‘छोड़ो यार नाम को छोड़ो....।''
‘‘वाह-वाह। कैसे छोड़ो....ये क्यों नहीं कहते कि गाँव का नाम लेने से डर लगता है। सच बोलो ये कहानी तुम्हारे गाँव की ही है ना।'' वह मुस्करा रहा था। ‘‘अच्छा चलो मान लिया डरता हूँ। तुम तो ये मान लो इस गाँव का नाम कृष्ण नगर है।''
अच्छा बाबू, वह ही। गीता के ज्ञान वाला कृष्ण ना।
‘‘हाँ भई वहीं।'' कृष्ण जिन्होंने कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर वाला सिद्धांत दिया था। जो आज कहीं नहीं दिखता। भई मार्केटिंग के इस युग में तो लाँचिंग से पहले उससे मिलने वाले लाभ के बारे में अनुमान लगाया जाता है। अब वह बिफर गया। और बोला, ‘‘देखो मैं तुम्हारा ये ज्ञान बिल्कुल नहीं सुनना चाहता।” वह खड़ा होने लगा। मैंने उसे हाथ पकड़ कर बिठा लिया। बड़ी विनम्रता से निवेदन किया ”भईया तुम मेरे पहले श्रोता हो, समीक्षक हो मैं ज्ञान नहीं दे रहा पर ये कहानी लिखने का नया तरीका है।'' अब वह नरम पड़ चुका था। मैंने कहानी की अगली किस्त सुनानी शुरू की।
पंचायत चुनाव होने वाले थे गाँव में चुनावी सरगर्मियां बढ़ती जा रही थी। गुवाड़ में बैठे बुड्ढों को टाईम पास के लिये नयी बात मिल गयी थी। पर हर काम का तरीका होता है। पंचायत में आरक्षण लागू हो जाने के कारण इस चुनावी घमासान का आरम्भ पंचायतों की लॉटरी निकलने से होता है। जिला मुख्यालय पर लॉटरी निकली तो कृष्ण नगर की किस्मत में अनुसूचित जाति की महिला सरपंच बनने की लॉटरी निकल गयी।
वह दिन गाँव के लिये बड़ा ही नीरस था। खास तौर पर उन दो प्रतिद्वंद्वी परिवारों के लिए जिनके सदस्य वंश परम्परा के सरपंच बनते आ रहे थे। वैसे भी राजनीति और वंश परंपरा का गहरा रिश्ता है। उनके चेहरों की रौनक गायब हो गयी। पर वह अब कुछ नहीं कर सकते थे नियम ही ऐसा था।
कृष्ण नगर की गुवाड़ में मुर्दानी छा गयी फालतू दांत घिसाई करने वाले बुड्ढों के दांतों की वर्जिश नहीं हो पा रही थी। पूरा गाँव अजीब पेशोपेश में था। वर्षों से जिनको दबाते आ रहे थे, उनके सिर पर सरपंची का साफा बाँधना किसी को अच्छा नहीं लग रहा था। कोई उपाय भी नहीं था। अब यहाँ पर कहानी में टि्वस्ट है। कृष्णनगर में अनुसूचित जाति का ही एक परिवार था वह मेघाराम का परिवार। मेघाराम के परिवार में उसकी पत्नी साँवरी , तीन लड़कियां जिनकी शादी हो चुकी थी। तीन पुत्र जिनमें बड़ा चुन्नीलाल उसकी पत्नी रामी तथा दो छोटे पुत्र श्यामू और हरखू। चूंकि श्यामू और हरखू अभी छोटे थे उनका वोट तो था नहीं। सो चुनावों में उनका क्या काम? इस तरह कुल जमा चार वोट वाले परिवार से सरपंच बनना तय था। यानि गाँव में सरपंच के दो ही संभावित उम्मीदवार बचे साँवरी और रामी। परिवार एक ही था सो चुनाव निर्विरोध होना तय था।
अब गाँव की गुवाड़ ने अपने विचार विमर्श के बाद मेघाराम की पत्नी साँवरी को निर्विरोध सरपंच बनना मान लिया। विवाद की कोई गुंजाइश थी ही नहीं।
उसने जम्हाई लेते हुए कहा, ‘‘सो तो ठीक है पर इसमें कहानी कहाँ है?'' वह अब हुंकारा देते देते थक गया था। मैं भी कहाँ हार मानने वाला था। मैंने उससे कहा, ‘‘कहानी है भई सुनो तो सही.....।'' वह अनमना होकर सुनने को तैयार हो गया।
तो भैया गाँव के बुड्ढों का अनुभव कह रहा था कि दोनों परम्परागत पार्टियां चुप रहने वाली नहीं। कुछ तो खटका करेगी ही। गुवाड़ में पांच साल में होने वाले इन पंचायत के चुनावों में फोकट के घी से अपनी आंतों की आयलिंग और ग्रीसिंग करने का ख्वाब संजोने वाले पिछलग्गूओं की मजाक बनाई जाने लगी थी। इस बार चुनाव में सीरे(हलवे) का कोई चांस नजर नहीं आ रहा था। मेघाराम मन ही मन खुश था। सरपंची की मलाई इस बार उसके जो हाथ लगने वाली थी। पांच-पांच साल सरपंच रहकर गाँव में जीप लेकर रेत उड़ाते लोगों को देख उसे भी लगने लगा था वह भी जीप में बैठकर घूमेगा। सपने तो भईया सपने होते हैं। उन्हें कौन रोक सकता है। मेघाराम बड़ी विनम्रता से निरपेक्ष बना रहा। पूछने पर यही कहता ‘‘थांरो हुक्म होसी वह ही कर सूं म्हारी थांरे सामने कोई बिसात हैं।'' पर्चा भरने का दिन कुछ ही दूर था। गुवाड़ आशंकाओं से भरी थी।
गाँव के दोनों पारम्परिक प्रतिद्वंदी पार्टियों को अपनी अखाड़ेबाजी खत्म होती नज़र आ रही थी। सो एक पार्टी ने आकर मेघाराम पर कब्जा जमा लिया। अब गुवाड़ में तय हो गया कि साँवरी कठपुतली सरपंच होगी असली सरपंच तो...। खैर गुवाड़ में बैठे अनुभवी बुड्ढों को जो अन्देशा था ये उसका एक ही भाग था। उन्हें ये मालूम था कि दूसरी पार्टी कोई कबाड़ा तो करेगी। क्योंकि सरपंची कब्जा करने की उनकी आदत भी पुरानी थी।
लोगों का इन्तजार खत्म हुआ। पर्चा भरने का दिन आ गया। आज गाँव की गुवाड़ में कोई नहीं था। गुवाड़ के बुड्ढों गाँव की स्कूल में कब्जा जमाये बैठे थे। ढोल-नगाड़ों की आवाज के साथ साँवरी देवी नामांकन दाखिल करने आ रही थी। मेघाराम, साँवरी और उसका पूरा परिवार इस जुलूस के साथ कुछ सकुंचाये से चल रहे थे। पर प्रथम पार्टी के परिवार वाले अपनी ऐंठ दिखाते हुए चल रहे थे। उन्हें देखकर साफ लग रहा था कि वे विरोधियों का मजाक उड़ा रहे थे। हाँ और साथ ही व्यवस्था का भी। स्कूल में पहुँचकर साँवरी का नामांकन भरवाया गया। पर्चा खारिज न हो जाये इसलिये चुन्नीलाल की पत्नी रामी ने भी डमी उम्मीदवार के रूप में पर्चा दाखिल किया। ढोल नगाड़ों के आवाज तेज दर तेज हो रही थी। पहली पार्टी के लोग खुशी में झूम रहे थे।
गुवाड़ के बुड्ढों आज स्कूल में बैठे ये नजारा देख रहे थे। इन्हीं बुड्ढों में भी दो पार्टियां थी। दूसरी पार्टी उदास थी, तो पहली खुश। इन बुड्ढों के लिये चुनाव में हारजीत का कोई मतलब नहीं था। इनके लिये चुनाव का इतना ही मतलब था कि किस की कही बात सच निकलती है। फिर पार्टी से तो ये वर्षों से जुड़े हुए हैं। जाति के कारण पार्टियों से जुड़ना गाँव में जरूरी भी है और मजबूरी भी।
हालांकि इन नकारा बुड्ढों की अब पार्टियों को जरूरत है तो मात्र इतनी के ये अपना वोट सही जगह डाल दे। इनके कहने से तो कोई वोट देता नहीं। इनके घरवाले भी इनकी कहां सुनते हैं। ये बात पार्टियों को अच्छी तरह मालूम थी।
खैर जो भी हो समय बीत ही रहा था। साँवरी का निर्विरोध सरपंच बनना तय था। दूसरी पार्टी के लोग पूरे परिदृश्य से गायब थे। अब बहुत कम समय बचा था। रामी का अपना पर्चा वापस लेना था। अचानक दूसरी पार्टी के लोग परिदृश्य में एक-एक करके दिखने लगे। स्कूल के मैदान में एक तरफ पहली पार्टी तो दूसरी तरफ दूसरी पार्टी के लोग बैठे थे। देखते ही देखते मैदान में दूसरी तरफ के लोगों की तादाद बढ़ गई। उनमें से एक दो आदमी आये और चुन्नीलाल को किनारे ले गये। अब दूसरी पार्टी की तरफ से ढोल बजने लगे। रामी भी अपने पति की तरफ चली गई। रामी ने पर्चा उठाने से इंकार कर दिया। समझाईश हुई, कोई फायदा नहीं हुआ। जो आजमाईश अब पहली पार्टी कर नहीं सकती थी क्योंकि दूसरी पार्टी भी तैयार थी। समय निकल गया। कल गाँव में चुनाव होना तय हो गया। गुवाड़ के बुड्ढों का अंदेशा सच हो गया। दोनों पार्टियों के बाड़ों में कड़ाव चढ़ाये जा रहे थे। आंते चिकनी करने वालों के लिए थोड़ी राहत थी। रातभर चुनाव प्रचार चला...। उलटा-सीधा सभी हुआ, लेन-देन खरीद-फरोख्त जो भी चुनाव में होता है, वो सब हुआ। चुनाव हुये, गिनती हुई, साँवरी चुनाव जीत गई। यानि प्रथम पार्टी चुनाव जीत गयी। रामी चुनाव हार गयी। हार हमेशा विघटन करती है सो परिवार टूट गया। मेघाराम को लगा जैसे चुनाव ने उसका हाथ ही काट दिया। पर बाप तो बाप हैं सो चुन्नीलाल को समझाकर घर लेकर आ गया। इस पर प्रथम पार्टी के विरोध का सामना करना पड़ा। खैर जैसे-तैसे मेघाराम ने समझाया कि ‘‘मैं तुम्हारा ही रहूँगा।'' इस पर समझौता हो गया। सरपंची मिल गयी।
चुनाव हो गये दांत घिसाई खत्म हो गयी। असली सरपंची कहीं और से संचालित हो रही थी। खैर 26 जनवरी गणतंत्र दिवस आ गया। मेघाराम का वर्षों पुराना सपना स्कूल के झण्डे की डोरी खींचने का आज पूरा होना था। बढ़िया साबुन से धोती धोकर चुनरी का फेंटा बांधे सरपंच पति अपने समर्थकों के साथ स्कूल पहुँच गये। कार्यक्रम शुरू हुआ - सरपंच पति को ध्वज की डोरी खींचनी थी। पर ये क्या हंगामा है क्यूं बरपा ऐसा तो हमेशा ही होता है। महिला सरपंच होने पर सरपंच पति ही इस पुण्य कार्य को अंजाम देते आये थे। दूसरी पार्टी के लोगों ने मेघाराम का हाथ पकड़ लिया। झण्डा तो सरपंच ही फहरायेगी। खैर छिछालेदार हुसी मेघाराम ने वक्त की नजाकत को भांपा और साँवरी को घर से बुलावाया। साँवरी देवी महिला सरपंच ने झण्डा फहराया। यह पहला मौका था जब गाँव में किसी महिला ने झण्डा फहराया हो। दूसरी पार्टी खुश हुई पर्देदारी तो हटी।
मेघाराम के मन में मलाल तो था पर छोटों के मलाल की भी क्या मज़ाल होती है। वक्त चलता रहा। साल भर में मेघाराम और उसके पुत्र चुन्नीलाल ने राजनीति में दक्षता प्राप्त कर ली। अब वे काम स्वयं करते थे। गाँव की गुवाड़ भी परेशान थी। वक्तव्य जारी होने लगे। देखो कैसा जमाना आया है ये राज करने लगे हैं। मेघाराम अपनी पूरी ताकत से सबको खुश रखकर गाँव का विकास बिना किसी भेदभाव के करवा रहा था। गुवाड़ को अब समझ में आने लगा था कि साँवरी सबसे अच्छी सरपंच है। पहले तो काम होते भी थे या नहीं किसी को कानों-कान खबर नहीं लगती थी। गाँव में पहली बार मेघाराम ने सर्वसम्मति बनाकर काम करने शुरू किए। आम आदमी बड़ा खुश था। दोनों पार्टियों के अहंकार को ठेस पहुँच रही थी। मौका तलाशा जा रहा था। मेघाराम और चुन्नीलाल के दिमाग की भी दाद देनी पड़ेगी मौका दे ही नहीं रहे थे। गाँव के समझदार और पारिवारिक सरपंची से उकताये लोगों के हाथ में सत्ता थी। गाँव का चहुँमुखी विकास हो रहा था।
आटे में नमक जितना चल भी रहा था। किसी को ऐतराज नहीं था। अकाल राहत कार्यों में मजदूरी और सामग्री का अनुपात ऐसा था कि कुछ स्थायी काम करवाने में अड़चनें आ रही थी। सो गाँव वालों ने फैसला किया कि मजदूरी के कुछ नाम ज्यादा लिखाकर सामग्री का पैसा निकाल लिया जाये। मेघाराम ने दोनों पार्टियों से भी बात कर ली थी। मस्टररोल में ऐसा कर भी दिया। गाँव में स्कूल में दो जगह तीन कमरे बनवा लिये गये। सब खुश थे। काम नियम से तो नहीं था पर धर्म से जरूर था। कहीं गड़बड़ी नहीं थी।
राजनीति इतनी सरलता से थोड़े ही साँवरी का नाम होने देती। अब दोनों पार्टियों ने गाँव के लोगों के खिलाफ हाथ मिला लिये थे। वो मेघराम से गलत दर गलत केवल नियमों में उलझाते जा रहे थे। पर मेघाराम सच्चे मन से गाँव के विकास में लगा हुआ था।
तभी एक दिन ग्राम सेवक ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गई सूचना की प्रति मेघाराम को दिखायी। मेघाराम के हाथों के तोते उड़ गये। जो गलत था सर्वसम्मति से था पर नियम से नहीं था, नियमों की आड़ में ब्लैकमैलर अपना काम कर रहे थे।
मेघाराम समझाइश करता रहा। गाँव के समझदार समझाइश करते रहे। भैया इस देश में कागज गलत तो सब गलत। कानून में भावनाएँ कहाँ। मुकदमा दर्ज हो गया। अदालती चक्करों में फँसकर मेघाराम परेशान हो गया। अन्ततः साँवरी दोषी घोषित कर दी गयी। आगे सुनवाई कौन करें। पैसा हो तो वकील हाथ डाले। साँवरी को सरपंच पद से बर्खास्त कर दिया गया। मेघाराम अपमान का विष पीता हुआ एक दिन इतना निढाल हो गया कि सोया तो उठा ही नहीं। सरपंची उपसरपंच को मिल गयी। मेघाराम तो अब नहीं रहा पर गुवाड़ में अब भी उसकी कथाएँ जारी हैं। यह सोचा जा रहा है कि दुबारा अनुसूचित जाति की सरपंची आयी तो सरपंच कौन बनेगा? क्या गाँव बिन सरपंच के रहेगा या फिर ये प्रभावी पार्टियां किसी और परिवार को लाकर यहाँ बसाएगी?
खैर प्रश्न तो कई छोड़ गयी है कहानी पर तुम बताओ कहानी है ना जोरदार। इस पर मेरा वो दोस्त पूरी बिखर गया। ‘‘ क्या खाक जोरदार है? अरे! तुम कहानी लिखने वाले क्या सोचते हो? तुम्हारी कहानी से दुनिया बदल जाएगी? बकवास! कोरी बकवास है।'' मैंने धैर्य का दामन अब भी नहीं छोड़ा और संयत होकर कहा ‘‘गर्म क्यों होते हो भाई, मैंने तो कहानी कही है।''
‘‘क्या खाक की कहानी है? जरा सा भी रोमांच नहीं है। मैं होता तो मेघाराम से मर्डर करवा देता सालोें का?''
‘‘फिर...क्या हो जाता?'' मैंने प्रश्न किया।
लोग ऐसे किसी को कानून का सहारा लेकर प्रताड़ित नहीं करते।
मैं इस अन्त पर हँसा, ‘‘अरे भाई विद्रोह है आग है तुम्हारे अन्दर। पर यार तुम्हारा अंत भी शिक्षा ही दे रहा है।''
‘‘क्या खाक की शिक्षा? तुमने पात्र को मारा ही क्यों? क्या बेकार के लेखक हो। कहानी का सारा मठ मार दिया।''
‘‘देखो भईया मैंने तो अपनी कहानी लिख दी। अब इसमें कुछ नहीं करूंगा।''
वह गुस्से से भरा हुआ था, ‘‘बस तुम लेखकों की यही तो समस्या है। अपने से ऊपर किसी को समझते नहीं हो। न्याय में तो सच्चाई की जीत दिखाते?''
अब मुझे गुस्सा आ गया। ‘‘दिमाग खराब कर दिया है। तुम भेजा चाट गये हो। समझते ही नहीं हो, ये देश आजाद हुआ है, सिर्फ भू-भाग ही आजाद हुआ। इसके प्रजातंत्र नाम का है। पहले भी सामन्त थे और अब भी सामन्त है। बस सामन्ती का तरीका बदला है। तुम क्या सोचते हो गरीब को कहीं न्याय मिलेगा? भईया यहाँ हर चीज का पैसा लगता है। हर जगह दलालों से भरी हुई है। हाँ और यह समझ लो जो भी इन सामन्तों से टकरायेगा उसका यहीं अंजाम होगा।''
इस पर वो सोचने लगा। और बोला, ‘‘इसका मतलब कि हम यूं ही ढोते रहेंगे।''
‘‘हाँ यूं ही ढोते रहेंगे।'' बस ये ही क्लाईमेक्स है। तुम कहानी सुनकर सोचने लगे ना, मेरा तो काम पूरा हुआ। अब चलता हूँ। वो धीरे से बोला, ‘‘वाकई कहानी में जबरदस्त टि्वस्ट है। मैं उठकर चला गया वह वहीं बैठा था। उसकी आवाज मेरे कानों में आ रही थी। ‘‘अरे यार फिर कोई ऐसी कहानी बनाओ तो जरूर सुनाना। मैं इन्तजार करूंगा।''
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राधास्वामी सत्संग भवन के सामने,
गली नं. 2, अम्बेडकर कॉलोनी,
पुरानी शिवबाड़ी रोड़, बीकानेर
वाकई जबरदस्त कहानी है.... 'गोदान' की याद दिला गयी...
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