कहानी इम्तिहान परिमल बनाफर सं सार में जितना प्रेम मुझे किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, उतना प्रेम मुझे अपनी माँ से था। रात को जब तक माँ एक...
कहानी
इम्तिहान
परिमल बनाफर
संसार में जितना प्रेम मुझे किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, उतना प्रेम मुझे अपनी माँ से था। रात को जब तक माँ एक कहानी न सुना दे, मुझे नींद आने से रहती। माँ जिला परिषद में शिक्षिका है। सो अगले दिन सुबह पाठशाला जाने देर ना हो जाए, इसलिए जल्दी ही सो जाती। आज मैं कहानी के लिए खूब जिद करने लगा, और माँ मुझे टालने की कोशिश कर रही थी। किन्तु मैं भी चालाक था। माँ बोली, “कल पक्का कहानी सुनाऊंगी और कल अच्छी वाली सुनाऊंगी।” मैं इतने आसानी से न मानने वाला था। मैं बोला, “और अगर ना बतायी तो ?” माँ ने मुझे वादा करते हुए कहा, “कल पक्का सुनाऊंगी। कल अगर तबीयत अच्छी भी नहीं हो, तो भी कहानी पक्की !” इसी के साथ समझौता हुआ और मैं अच्छे बालक की तरह सो गया।
अगले दिन मैं पाठशाला चला गया। पाठशाला का नया सत्र आरम्भ हो चूका था। और मैं झूमते-खेलते मस्ती में पाठशाला से घर लौटा। घर पे मेरी देखभाल हेतु आया रखवाई थी। घर आते ही ताई ने मुझे खाना परोसा। घर में मैंने चारों ओर सामान फेंका और ताई उसे संवारने में जुट गयी। ये रोज की दिनचर्या थी।
पाँचवी कक्षा के पहले सत्र तक कापी में पेंसिल से लिखवाते है। आज दूसरे सत्र का पहला दिन था। सो मैडम ने पेन से लिखना सिखाया था। आज मैं अपनी कापी में पेन से लिखना आरम्भ करनेवाला था। और कल ही पिताजी ने मुझे नया पेन दिलवाया था, जिससे लिखने की मुझे बहुत जल्दी थी। इसीलिए मैंने भोजन भी झटपट निपटा लिया। ये बालमन भी कितना मासूम होता है। छोटी-छोटी बातों में इतना आनंद मिलता है, इसका विश्व ही मानो छोटा सा हो।
एकाएक ताई ने मुझसे कहा, “अरे बेटा पता चला, माँ का आज स्कूल जाते समय अपघात हो गया।”
मैंने ध्यान न देते हुए कहा, “कुछ भी क्या कहती हो ताई ? ये कैसे हो सकता है ?”
ताई – “हाँ बेटा सच बोलती मैं, अभी-अभी थोड़ी देर पहले, तुम्हारे पिताजी माँ को अस्पताल भर्ती किये है। बोले कि माँ के पैरों में पलस्तर भी लगा है। थोड़ी देर पहले फोन आया, बोले माँ को ही घर पे ला रहे है। ईश्वर करे ज्यादा चोट न आयी हो।”
अब तो मैं समझ गया था कि ताई मजाक नहीं कर रही, पर फिर भी अपने दिल को तसल्ली देने हेतु मैं बोला, “तुम कुछ भी बोलती ताई ! झूठ !” ऐसा कहकर मैंने अपना बस्ता खोला और मैडम ने दिया गृहकार्य पूरा करने में मग्न हो गया। हाँ, मग्न हुआ, पर पढ़ाई में नहीं, मन ही मन माँ के बारे में सोचने में। नए पेन से लिखने की उत्तेजना भी मानो कहीं गायब सी हो गयी थी। उस उत्तेजना का स्थान चिंताग्रस्त डर ने ले लिया। इतने में फाटक की आवाज आयी। मैंने उठकर देखना ही चाहा, पर हिम्मत ढीली पड़ गयी। मन में विचार आया, “कहीं ताई ने जो कहा वो सच तो नहीं ? माँ को अस्पताल से ही तो ले नहीं आ रहे ?” फिर सोचा कि ये तो हो ही नहीं सकता। उस विचार को खाद्य न देकर अगले ही पल विचार बदल डाला, “मैं अभी उठकर फाटक पर देखता हूँ और ताई को बतला दूं, कि जो वो कह रही वो सब झूठ है।”
अगले कुछ ही क्षणों में द्वार का दृश्य देखकर अपने विचारों को पूर्णविराम दे दिया। माँ के पैर में पलस्तर लगा हुआ है। माँ कुर्सी पर बैठी हुई है। उस कुर्सी को पिताजी और बड़ी-माँ धकेलते हुए, माँ को घर में ला रहे है। माँ की ये हालत देख मेरा हृदय धक्-धक् करने लगा। लगा, मानो उसपर हथौड़े पड़ रहे हें। खून सर्द हो गया है। कंठ भारी हो गया। मालूम हुआ किसी ने शीशा पिघलाकर पीला दिया हो। आसमान गिर गया हो। अश्रु मानो आँखों के पीछे ही खड़े इंतजार कर रहे हो, जैसे ही बाँध फूटेगा वैसे ही वे अपनी राह बना लेंगे। मैं माँ की ओर उन्ही नेत्रों से तांक रहा था। अगर मैंने अपना मुँह का द्वार नहीं खोला तो आँखों का बाँध फुट जाएगा, इस डर से मैंने फ़ौरन माँ से कहा, “अरे वाह माँ, आज तूने साड़ी तो बहुत खूब पहनी है !” और ऐसा कहकर फिर अपनी ही जिव्हा काट ली। इससे पहले मैं उलझन से बाहर निकलूं, पिताजी और बड़ी-माँ, माँ को अंदर के कमरे में ले जा चुके थे। माँ को गद्दे पर लिटाया और पिताजी कोई दवा लाने तुरंत ही बाहर निकल पड़े। बड़ी-माँ भी माँ की शुश्रुषा करती अंदर ही बैठी रही। और मैं अकेला ही अपने दिल की धड़कनों को गिनते हुए बैठक-खाने में बैठा रहा।
अंदर के कमरे में जाने का मेरा साहस ही नहीं था। डर था, कहीं मैं रोना-धोना न शुरू कर दू। लग तो रहा था कि माँ की बाहों में अपने अश्रुओं को रास्ता मोकला कर दूं। पर फिर सोचा की अगर रोऊंगा तो माँ क्या सोचेंगी ? अजीब कशमकश थी। इस उभयसंकट से पीछा छूटे इसलिए मैं अपना गृहकार्य करते बैठक-खाने में ही बैठा रहा। नए पेन से मैं लिख रहा था। पर हाथ थरथरा रहे थे। पेन की निब कागज़ पर टिकाकर शून्य बैठा रहा। पन्द्रह मिनट बीत गए। लगा जैसे पन्द्रह घंटे बीत चुके हो। कागज़ पर पेन की स्याही फ़ैल गयी, तब जाकर मुझे जाग आया। अंदर जाकर माँ से मिलने का मन कर रहा था। पर फिर वही कशमकश सता रही थी। आख़िरकार मुझे इस परिस्थिति से छुड़ाने की ईश्वर ने ही ठानी। मैं इतनी देर से माँ से मिलने अंदर नहीं आया इसलिए बड़ी-माँ ने मुझे पुकारा। मैं इस तरह दौड़ता अंदर गया मानो कई सालों बाद माँ से मिलने जा रहा हो। कमरे में प्रवेश किया और चुप-चाप जाकर माँ के पड़ोस वाले बिस्तर पर बड़ी-माँ के साथ बैठ गया। माँ की ओर देखने में भी मेरी सारी शक्ति खर्च हो रही थी। मैं अपने आप को अशक्त महसूस कर रहा था। जुबान से एक लफ्ज भी बोलने की ताकत न थी। फिर बड़ी-माँ ने खुद ही से मुझे तसल्ली देना शुरू किया, “कुछ नहीं हुआ बेटा, बस पैर में थोड़ी सी चोट आयी है।” मैंने मौन तोड़ने से मना कर दिया। इससे आगे मैं एक और मिनट वहाँ नहीं रुक सकता था। वरना आँखों का बाँध फुटकर बाढ़ आ जाती। कुछ सामान बाहर रह गया है ये बहाना कर मैं कमरे से बाहर दौड़ा चला आया तो सीधा आँगन में ही जाकर रुका। दीवार से टेककर मर्माहत-सा खड़ा रहा, फिर धीरे-से नीचे बैठ गया, आस पास कोई नहीं ये सुनिश्चित किया और इस तरह फुट-फुटकर रोने लगा मानो, हृदय और प्राणों को आंसुओं से बहा दूँगा।
बहुत देर तक मैंने माँ को अपना मुँह तक नहीं बताया। बाहर खेलने चला गया। जल्द ही बड़ी-माँ अपने घर लौट गयी। पिताजी भी लौट आ गए। देर शाम से मैं भी घर लौटा। बड़ी-माँ खाना पकाकर गयी थी। दिनभर से मैंने माँ को अपनी शक्ल तक नहीं बतायी थी। बड़ी-माँ और पिताजी बाहर गए तो माँ अकेली ही थी। मुझे पता था कि माँ अंदर बैठी रो रही होंगी। सोच रही होंगी कि मैं कितना बेपरवाह हूँ। माँ के हुए अपघात से मेरे हृदय पर दुःख की लकीर ही नहीं आयी, ये सोचकर माँ के दिल पर कितना आघात हुआ होगा ! अपघात में लगी चोट से ज्यादा दर्द तो उसे मेरा छिछोरापन दे रहा होगा। मुझे माँ से कुछ लगाव ही नहीं ये सोच-सोचकर उसे लग रहा होगा जैसे उन ज़ख्मों पर और तीर चल रहे हो।
पिताजी और माँ ने अंदर कमरे में रात का भोजन किया। मैंने दूरदर्शन देखने का बहाना किया और बैठक-खाने में अकेले ही खाना खाया। निवाले गले से नीचे उतर नहीं रहे थे। खाने का मन नहीं था। किसी को पता न चले इसलिए चुपके से अपनी थाली का बचा हुआ खाना बाहर कुत्ते को खिला आया। फिर बहुत देर से माँ के कमरे में सीधा सोने के लिए गया।
अब मन का रुदन शांत हो गया था। माँ से बात किया। फिर माँ को कल उसने मुझसे किये वादे की एकाएक याद आयी। माँ ने कहा, “कल मैं बोली थी बेटा कि आज अगर तबीयत खराब भी हो जाए तो भी कहानी सुनाऊंगी। देख आज सचमुच मेरी तबीयत खराब हो गयी।”
माँ ने किया वादा मुझे याद आया। फिर मेरे बालमन में विचार चक्र दौड़ा, “ईश्वर कितना निष्ठुर है। माँ ने मुझसे किया हुआ वादा वह निभाती है या नहीं, केवल ये देखने के लिए उसने आज माँ की तबीयत सचमुच खराब कर दी। मामूली से वादे के लिए ईश्वर ने माँ का कितना कड़ा इम्तिहान लिया। भगवान को मेरे माँ की जरा भी परवाह नहीं। हाय रे ईश्वर ! तेरा दिल इतना छोटा भी हो सकता है ! आज माँ मुझे कहानी सुनाएगी या नहीं इसका इम्तिहान वो माँ का ले रहा है।”
मैं इन्ही विचारों के चक्रव्यूह में खोया रहा। मेरे बालहृदय ने भी माँ से कहानी सुनाने की जिद नहीं किया। “उस वादे को पकड़कर क्या मैं माँ से कहानी सुनाने की जिद करूँगा ? क्या इस अबोध बालक का मन माँ की उस गंभीर स्थिति को समझ पायेगा ?” मानो ईश्वर ने कुछ ऐसा इम्तिहान शायद मेरा भी ले लिया।
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PAREMAL BANAFARR
Dept. Chem. Engg. (III Year),
VNIT, Nagpur
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