चौमास का गीत देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम' पानी ही पानी खेत-बाग,नदी- ताल,जंगल-पहाड़ ; वर्षा वनकन्या -सी कर रही विहार । जन्मी आषाढ़...
चौमास का गीत
देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'
पानी ही पानी
खेत-बाग,नदी- ताल,जंगल-पहाड़ ;
वर्षा वनकन्या -सी कर रही विहार ।
जन्मी आषाढ़-घर, सावन की पाली ;
भादोँ ने पहनाई चूनर हरियाली ;
पवन मानसूनी है करे छेड़-छाड़ ।
गले मिले चिरक्वाँरी रेवा के पाट ;
लगी गली-खोर कीच-काई की हाट ;
घर-घर चौमास छाए पाहुन-त्योहार।
श्रम के हक-भाग कोदो-कुटकी का भात ;
कर्ज़ चढ़ा धान, मका-ज्वारी के माथ ;
पानी ही पानी दृग-देहरी,दिल-द्वार ।
निजहंता मुक्तिपथ चुना विवशताओँ ने ;
रक्तिम उन्नति रोकी नहीँ आकाओँ ने ;
रुका न, रुकेगा यह सियासती बाज़ार ।
मीनारोँ पर बैठी बहरी ख़ुदाई ;
लंगड़ी-गूँगी लगती सारी प्रभुताई ;
बाज़ारोँ-बनियोँ की गिरवी सरकार ।
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मोतीलाल की कविता
एक रास्ता बचा है
जो गुजरता है
धूल भरे मेड़ोँ से
खादानोँ से
जहाँ बहते हैँ
खून की धार पसीना बनकर
फिरभी वे मुस्कुराते हैँ
और बना लेते हैँ
सबके लिए रास्ते
एक रास्ता और है
जो गुजरता है
लाल-पीली बत्तियोँ से होकर
यूकलिप्टस व गुलमोहर के
महकते हवाओँ के बीच से
जहाँ चलते हैँ
नर्म मुलायम पाँव
परफ्यूम से सराबोर
काकटेल के बीच
और उनके लिए
पनपता है एक ही रास्ता
इन दो रास्तोँ के बीच
बहुत मुश्किल होता है
अपनी जमीन पर खड़ा रहना
मेरे लिए
अब नहीँ बचा है
कोई भी रास्ता
जिसका अपना घर न हो
वो भला क्योँ सोचेगा
रास्तोँ के बारे मेँ
और क्योँ पालेगा
रास्तोँ के सपने
हाँ उन रास्तोँ से
मुझे डर लगने लगा है
जो गुजरता है
मेरे भीतर से होकर
एक तीसरा रास्ता बनकर ।
* मोतीलाल/राउरकेला
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मनोज 'आजिज़' के नज्म व ग़ज़लें
नज़्म
अनकही तसल्ली
बरसात के दिनों में
बादलों से भरा असमान
और कहीं दूर खोया हुआ
शर्माता चाँद का दीदार
बरबस निकाल लेता है जुबाँ से
वाह !
फिर कुछ सितारे भी अपने
मौजूदगी दर्ज कराते
निगाहों में |
कुछ कहते नहीं पर
दे जाते दिल में तसल्ली
कि हम हैं, रहेंगे
ये सच्चाई है
बाकि, कुछ दिन के मेहमान
निकाल फेंको बुजदिली को
डरो मत कुछ काले दिनों से --
वे सब बरसाती बादल हैं |
ग़ज़ल
बागे वतन को जहन्नम कर दिया कुछ ने
दिले वतन में जखम कर दिया कुछ ने
गरीबों का खूं पीकर तंदुरुस्त हैं कुछ
बेशर्मी से खूब दामन भर दिया कुछ ने
कभी रौशन था नाम दुनिया में बेहद
मचाकर लुट झुका सर दिया कुछ ने
इंसां को इंसां से इंसानियत की आस थी
हर शू दह्शती आलम कर दिया कुछ ने
--.
नज़्म
गलत फहमी
आसमान का रंग ख़त्म
फ़ीका पड़ गया है
ऊँचे-ऊँचे नाकों से निकलते सांसों से
हवा लगती नहीं बदन पर
मिट्टी का तेज भी ख़त्म
मन-मिजाज़ भी बाहर लगा हुआ
पानी सुखकर बोतलों में,
खाना जनता-पैकेटों में
खदान ख़त्म , खदान के हीरे ख़त्म
सालों भर आम-जामुन
राजधानी के अमीरों के लिए
पेड़ों की छांव, दिलों का रहम
अब जंजीरों से बंधी हैं, नज़्मों में |
नदी बंधी है सैकड़ों खम्भों से
झरना अब संगमरमर के दीवारों में
और एक खबर--
कलम बाबुओं के दरवाजों पर
कर रही बैठकी
टी.वी स्क्रीनों में सारी कलाकारी |
इन सबके गुनाह क्या ?
गुनाह किसी का नहीं;
शायद ग़लतफ़हमी !
(शायर बहु भाषीय युवा साहित्यकार हैं और ५ साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन
से जुड़ें हैं, पेशे से अंग्रेजी के अध्यापक हैं )
पता-- इच्छापुर, ग्वालापारा
(सान्शाईन स्कूल के पास )
पोस्ट- आर.आई .टी.
जमशेदपुर-- १४
झारखण्ड
इ-मेल-- mkp4ujsr@gmail.com
--
डाक्टर चंद जैन 'अंकुर ' की कविता
मेरा पूर्वज
नैसर्गिक संसद देहरी पर देहमान सा मेरा पूर्वज
वन विधान का हाल अपने निधिओं से पूछ रहा
बरगद का विशाल छत्र ,अपने छाया को फैलाये
चिडियों का कलरव, कोयल का गीत ,वन जन का दर्शक बन
राम राज्य सा अपने प्रधान को देख रहा
शहद, चिरोंजी ,जामुन बेर बादाम का पंचमेल
वनदेवी ने बनवाये
जब विराम काल होगा संसद चर्चाओं का,
होगा मध्यांतर
मेरी माँ वन व्यवहार का पकवान ,
रामदूत को परस रहीं
इतने में कलयुग का मानव ,
अपने अभिमान में चूर
प्रदूषित कलवायु
वन की धरती में फूंक दिया
वन के संसद पर
अपने ह़ी वंशज ने ,
है उग्रवाद फैलाया
संसद भंग हुआ ....,
वनप्रधान ने शिव भृकुटी तान दीये
और मानव के कलरथ पर चढ़कर
मुष्टि प्रहार कर
पांच प्रश्न विकसित विज्ञानी से पूछ दीये
ए धूर्त ,धरा पर क्या केवल तेरा हक़ है
वनजीवन का नैसर्गिक सुख ,
क्यूँ तूने छीन लिया है
तू कैसा विकसित है मानव ,
अस्पताल में मरने वाला
तू है निर्भरता की परिभाषा
एक दिन पूरा गुलाम हो जायेगा
तू अमरबेल बन ,
माँ की छाती में क्यूँ लिपटा है
तू कब समझेगा
मेरा ये श्राप याद रख
मेरी ह़ी पूंछ दे.......ख कर
तुझे तेरा सत्य याद आएगा |
डाक्टर चंद जैन 'अंकुर '
रायपुर
--
-मनोहर चमोली ‘मनु' की कविता
मुझ में सीता तुम में राम
मुझ में भी है सीता
आज तलक जि़न्दा
जो तैयार है तुम्हारे संग
वनवास झेलने के लिए
लोक लाज के डर से
तुम्हारे कहे पर
देश बदर हो सकती है
दे सकती है अग्नि परीक्षा
अपनी पवित्रता के लिए
आज भी-कभी भी
और तुम में
हाँ ! तुम में
भी है राम
आज तलक जि़न्दा
जिसके लिए
उसकी सीता की
अस्मिता से अधिक
खास है समाज में
पुरुषत्व की साख
जो चाहता है
कि उसका
मैं रहे ऊपर
जो चाहता है
कि उसकी सीता
तत्पर रहे
अग्नि परीक्षा के लिए
पल प्रति पल
रहे तत्पर
दिन को रात
कहने के लिए
गलत को सही
मानने के लिए
हाँ! जब तक
तुम में राम
और मुझ में सीता
रहेगी जि़न्दा
एक घुटन रहेगी
साथ-साथ
मरते दम तलक।
--
मनोहर चमोली 'मनु',
भिताई,पोस्ट बॉक्स-23,
पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल.246001
--
प्रमोद कुमार सतीश की कविता
जीव दया
धर्मों ने जीवनदायनी की संज्ञा दी
हमारे वंशजों ने जिसे मां का दर्जा दिया
स्वयं भगवान ने जिसकी आराधना की
वो गाय मां जो हमसे बोल भी नहीं सकती
उसके प्रति क्यों बदल गई हमारी भावना
क्यों इतने निर्दयी हो गए हम
जिसने हमारे जीवन का अमृत दिया
उसी के लिए खोल डाले इतने कत्लखाने
क्यों अपने ही विनाश का रास्ता का चुन लिया हमने
ये सवाल हमें खुद से ही पूछने होंगे
अपने स्वार्थ के लिए हमने क्या-क्या नहीं किया
नहीं की तो बस जीव दया
--
प्रमोद कुमार सतीश
म.नं. 109 तालपुरा झांसी
यह विनम्र अपील है कि रचनाकार बंधु रचना प्रेषण से पूर्व लिंग,काल,क्रिया ,वचनादि या हड़बड़ी मेँ हुई टाइप आदि की भूल त्रुटियोँ को बार बार पढ़ सुधारकर भेजेँ. देवेन्द्र कुमार पाठक जी ने ईमेल से ऊपर कविताओं की त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाया है, जो निम्न है -
जवाब देंहटाएंत्रुटियाँ - :
धूल भरे मेड़ोँ से >धूल भरी ,
खादानोँ >खदानोँ या खानोँ,
महकते हवाओँ > महकती हवाओँ (मोतीलाल) ;
असमान >आस्मान ,आसमान ,
अपने मौज़ूदगी> अपनी भौज़ूदगी ,
बाकि >बाकी,
लुट > लूट ,
नाकोँ से निकलते साँसोँ > निकलती >
सालोँ भर > साल भर, सालोँ- साल (मनोज आजिज़);
देहमान>मेहमान,
तान दीये >दिए(डा.चंद्र जैन)
आदरणीय अग्रज देवेन्द्र पाठक 'महरूम' का सुन्दर वर्षा गीत, जो अंत तक आते आते-आते उनके लेखन की मुख्या धारा से जुड़ता हुआ अर्थगर्भित होकर और भी महत्वपूर्ण हो गया है. पाठक जी को साधुवाद.
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