राजभाषा हिंदी के समसामयिक सरोकार · डॉ. रामवृक्ष सिंह हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर किए जानेवाले उत्सव-धर्मी आयोजन भारतीय केंद्...
राजभाषा हिंदी के समसामयिक सरोकार
· डॉ. रामवृक्ष सिंह
हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर किए जानेवाले उत्सव-धर्मी आयोजन भारतीय केंद्र सरकार के मंत्रालयों, विभागों व निकायों का संस्कार बनते जा रहे हैं। लेकिन इस प्रकार के आनुष्ठानिक अनुप्रयोगों के काम आने के अलावा भी हिंदी का कोई उपयोग भारत या दुनिया के बाकी हिस्सों में हो रहा है या नहीं, इसकी गहराई से पड़ताल करने की ज़रूरत है। इस आलेख का उद्देश्य वैश्विक संदर्भों के साथ-साथ खुद अपने घर में हिंदी के समसामयिक सरोकारों की पड़ताल करना है।
अध्येय विषय के रूप में हिंदी की घटती लोकप्रियता
प्रथमदृष्टया ऐसे प्रमाण मिल रहे हैं कि स्कूल और कॉलेज स्तर पर हिन्दी की पढ़ाई के प्रति छात्रों का रुझान कम हो रहा है। इस वर्ष गो-पट्टी के सबसे बड़ी आबादी वाले, हिंदी भाषी प्रांत उत्तर प्रदेश में बोर्ड की परीक्षा देनेवाले 35 लाख विद्यार्थियों में से 3 लाख से अधिक विद्यार्थी हिन्दी में फेल हो गए। 35 लाख में से केवल 1500 विद्यार्थियों को 91 प्रतिशत से अधिक अंक मिले, जबकि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियों की संख्या में 20 प्रतिशत की कमी आई। सिर्फ 40 प्रतिशत छात्रों के हिन्दी विषय के प्राप्तांक 50 प्रतिशत से अधिक रहे। आलम यह रहा कि जिन बच्चों ने गणित में 90 प्रतिशत से अधिक अंक लिए उनमें से बहुतों के हिंदी विषय के अंक 40-45 प्रतिशत से कम रहे। (स्रोतः डेकन हेराल्ड, 13 जुलाई 2012)
स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी विषय की गंभीरतापूर्वक पढ़ाई करनेवाले छात्रों की संख्या व गुणवत्ता भी दिन ब दिन गिर रही है। बैंकों में अधिकारियों व लिपिकों की भर्ती का दायित्व उठानेवाली संस्था आईबीपीएस द्वारा जारी अर्हता अंकों को देखने से भी यह बात सामने आती है। जहाँ मानव संसाधन, ऋण, विधि, लेखा आदि विषयों के अधिकारियों के अर्हताकारी अंक 130 अथवा उससे अधिक रहे, वहीं राजभाषा अधिकारियों के लिए यह मानदंड मुश्किल से 98 और उससे निम्नतर रखा गया है (देखें -बैंक ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर विशेषज्ञ अधिकारियों की भर्ती के लिए जारी विज्ञापन-से उद्धृत तालिका- परिशिष्ट क पर)।
सरकार से प्राप्त निदेशानुसार विभिन्न बैंकों व संस्थाओं ने राजभाषा अधिकारियों की भर्ती की पुरजोर कोशिशें की हैं। किन्तु यह देखकर खेद होता है कि या तो उपयुक्त अभ्यर्थी मिल नहीं रहे हैं या राजभाषा अधिकारी का पद इतना आकर्षक नहीं रहा कि योग्य युवा उनकी और आकर्षित हों। विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि भारत के एक अग्रणी सरकारी बैंक ने राजभाषा अधिकारी पद की 51 रिक्तियाँ घोषित की थीं, चयन-प्रक्रिया के बाद 28 अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र दिए गए, किन्तु इतनी मशक्कत के बाद केवल एक अभ्यर्थी ने पद भार ग्रहण किया। किस कारण योग्य उम्मीदवार राजभाषा अधिकारी पद के लिए आगे नहीं आ रहे, इस विषय पर ध्यान देने की जरूरत है।
हिंदी में भाषा वैज्ञानिक और व्याकरणिक कमियाँ
बोल-चाल के स्तर पर चाहे हिंदी की लोकप्रियता बढ़ रही हो, किंतु जब लेखन की बात आती है तो संक्षिप्तियों, परिवर्णी शब्दों (ऐक्रोनिम्स), संकेतों, नई संकल्पनाओं के लिए नए शब्दों व अभिव्यक्तियों के अभाव के रूप में उसकी कुछ समस्याएँ और सीमाएं भी सामने आती हैं। अपनी लिपिगत विशेषता के कारण हिंदी में बहुत कम संक्षेपाक्षर बन पाए हैं। जो बने भी हैं, उनका प्रयोग बहुत कम हो रहा है। इसके विपरीत रोमन में लिखी जानेवाली भाषाओं, विशेषकर अंग्रेजी में लगातार ढेरों संक्षिप्तियाँ बनती जा रही हैं। उनके समानांतर हिंदी संक्षिप्तियाँ न बना पाने के कारण अधिकांशतः हमें या तो अंग्रेजी संक्षिप्तियों का विस्तारित अनुवाद करके अथवा उन्हीं को देवनागरी में लिखकर काम चलाना पड़ता है। यही बात परिवर्णी शब्दों के बारे में भी सच है, जो अंग्रेजी में तो सरलता से बना लिए जाते हैं, जबकि हिंदी आदि भारतीय भाषाओं में बहुत विरल हैं। हमारे समक्ष दो विकल्प हैं, या तो हम अपनी भाषा में संक्षिप्तियाँ और परिवर्णी शब्द बनाएं और उनको उदारता एवं परिश्रमपूर्वक सीखें व इस्तेमाल में लाएं, या यह परिश्रम करने के बजाय सुविधापूर्वक अंग्रेजी संक्षिप्तियों व परिवर्णी शब्दों को ही यथावत अपना लें।
यही स्थिति नए शब्दों को लेकर है। जहाँ अंग्रेजी शब्द-कोशों में नए-नए शब्द और अभिव्यक्तियाँ हर दिन जुड़ रही हैं, वहीं हिंदी आदि भारतीय भाषाओं में नवीनता के प्रति बड़ी त्रासद उदासीनता है। उदाहरण के लिए 24X7, @, %, &, K, <, > आदि संकेतों को लें। क्या इनके समानांतर संकेत या इन संकेतों के उच्चार (कथन-पद्धति) देवनागरी में उपलब्ध हैं? टंकण की सुविधा के लिए हमने क से लेकर प वर्ग तक के पंचम वर्ण की जगह अनुस्वार का प्रावधान कर दिया। लेकिन अर्धविवृत्त ध्वनि-युक्त वर्णों जैसे लॉ, कॉ, हॉ के साथ नासिक्य ध्वनि का अंकन कैसे होगा, इस पर ध्यान नहीं दिया। इसीलिए आज हम लाँग कोट, हाँग-काँग आदि लिखने को बेबस हैं, जबकि इनका उच्चारण अलग तरह से होता है। बेहतर होगा कि पाँचों वर्गों के पाँचवें नासिक्य वर्ण का प्रचलन पुनः किया जाए, ताकि लॉङ्ग, रॉङ्ग, सॉङ्ग, लॉञ्च आदि को वैसे ही लिखा जाए, जैसा उनका उच्चारण होता है। देवनागरी की इस खूबसूरत खासियत को हमें कायम रखना ही चाहिए।
बहुत समय से अंग्रेजी-हिंदी का कोई नया मानक शब्द-कोश बनकर नहीं आया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जो नए-नए शब्द हिंदी में आ रहे हैं, उनके सही-सटीक हिंदी प्रतिशब्द खोजे नहीं मिलते। जिस तर्ज़ पर ऑक्सफोर्ड प्रेस अंग्रेजी के कोश तैयार करती है, क्या उसकी टक्कर का कोई प्रयास अपने यहाँ हो रहा है? इस दिशा में कोई ठोस पहल इस सम्मेलन को करनी चाहिए।
कंप्यूटरीकरण और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से हिंदी की कमियाँ
भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित भाषाओं की स्वन-व्यवस्था की अभिव्यक्ति की बड़ी विलक्षण क्षमता देवनागरी में है। इसे कंप्यूटर कुंजी-पटल पर भी अंतरित कर लिया गया है। युनीकोड के आगमन से भारतीय भाषाओं में काम करना बहुत आसान हो गया है। किंतु कतिपय शब्दों की वर्तनी में निहित स्वन-व्यवस्था, आक्षरिकता आदि से अवगत न होने के कारण कंप्यूटिंग करनेवाले विद्वानों ने कुछ भूलें कर दी हैं। यदि वे भाषा के ज्ञाताओं के साथ बैठकर इनका निराकरण कर लें, तो कंप्यूटर पर हिंदी में बड़े त्रुटिरहित तरीके से काम हो सकता है। (उदारण के लिए श्रृंगार, उद्घाटन आदि शब्दों की वर्तनी त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि युनीकोड में इनकी प्रोग्रामिंग ही ऐसी है।)
राजभाषा कार्यान्वयन की समस्याएँ
हिंदी भारत में केंद्र सरकार के कार्यालयों की राजभाषा है {संविधा का अनुच्छेद 343, राजभाषा अधिनियम 1963 (यथासंशोधित 1965), राजभाषा नियम 1976 (यथासंशोधित 1987)}। सरकारी कार्यालयों में राजभाषा के रूप में हिंदी के कार्यान्वयन पर निगरानी के लिए कई उच्च स्तरीय समितियाँ हैं। गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत राजभाषा विभाग पूरे देश में राजभाषा कार्यान्वयन के लिए निर्देश जारी करता है और निरीक्षण आदि के ज़रिए कार्यान्वयन सुनिश्चित करता है।
लगभग सभी सरकारी मंत्रालयों, विभागों, उपक्रमों और निकायों में राजभाषा कार्यान्वयन के लिए कार्मिक नियुक्त किए गए हैं। हालांकि नियम 12 के अनुसार अपने-अपने कार्यालय में राजभाषा संबंधी प्रावधानों को लागू करने की जिम्मेदारी प्रशासनिक प्रमुख की होती है।
भारत के सरकारी दफ्तरों में यह आम भ्रांति बन गई है कि राजभाषा कर्मियों को ही राजभाषा कार्यान्वयन का सारा काम करना है। अपने हाथ से हिंदी का काम करने के बजाय ज्यादातर सरकारी कर्मचारी खुद अंग्रेजी में काम करते हैं और केवल खानापूर्ति के लिए राजभाषा-कर्मियों से कुछ सामग्री का अनुवाद हिंदी में कराकर फाइल में सजा लेते हैं। राजभाषा अधिनियम की धारा 3(3) में परिगणित सभी दस्तावेजों को हिंदी व अंग्रेजी में साथ-साथ जारी करना होता है। इनका मूल अंग्रेजी पाठ तैयार करने में कई-कई दिन खपाए जाते हैं, जबकि उनको अंतिम रूप दिए जाने के तुरन्त बाद अनूदित हिंदी पाठ की माँग की जाती है। इस जल्दबाजी की वजह से कई बार अनूदित पाठ में कथ्य और शिल्प, किसी भी स्तर पर वह परिष्कार नहीं आ पाता, जो मूल पाठ में होता है। ठीकरा फूटता है अनुवादक के सिर। कई बार तो जल्दी मचाकर अंग्रेजी पाठ ही जारी कर दिया जाता है और बाद में अनुवाद कराकर फाइल में रख लिया जाता है। अनेकधा यह जहमत भी नहीं उठाई जाती और आँकड़े पका लिए जाते हैं।
पश्चिम में अनुवाद की लंबी परंपरा रही है। बाइबल का अनुवाद करनेवाले विद्वानों के लिए यह बहुत पवित्र और आध्यात्मिक महत्त्व का काम माना जाता था, जिसे विद्वज्जन खूब नहा-धोकर, अनुष्ठानपूर्वक करते थे। भारत में अनुवाद की परंपरा बहुत नई है और इस काम को वह महत्त्व व सम्मान नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था। यही कारण है कि अच्छे अनुवादकों की कमी यहाँ हमेशा से बनी रही है। जो विद्यार्थी हिंदी-अंग्रेजी का अध्ययन विश्वविद्यालय स्तर पर कर रहे हैं, वे पठन-पाठन, मीडिया आदि में जाना बेहतर समझते हैं। राजभाषा और अनुवाद को कैरियर के विकल्प के रूप में चुनने वाले अभ्यर्थियों की संख्या दिन ब दिन कम होती जा रही है, जिसकी जड़ में निम्नलिखित समस्याएं हैं-
- राजभाषा कर्मियों के कैरियर विकास के अवसरों का बहुत कम होना
- राजभाषा अधिकारियों, हिंदी शिक्षण योजना के प्राध्यापकों व अनुवादकों के वेतन का स्कूली व विश्वविद्यालयीन शिक्षकों के वेतन से बहुत कम होना और सरकारी संस्थाओं में वर्क-लाइफ बैलेंस का अभाव
यही कारण है कि इस क्षेत्र में बहुत-से अगंभीर तथा अपेक्षाकृत अल्प योग्य किस्म के लोग आ गए हैं, जिन्हें भाषा-साहित्य, ज्ञान-क्षेत्र के विविध विषयों और प्रौद्योगिकी का न तो विवेक है न ही सीखने समझने में कोई रुचि है। वे केवल नौकरी के लिए इस लाइन से जुड़े हैं। ऐसे लोग हिंदी का उपकार करेंगे या अपकार, यह समझने की बात है। समस्या का दूसरा पहलू यह है कि कैरियर विकास के बहुत कम अवसरों और कार्यालयीन जीवन में जिम्मेदारियों के बरक्स वास्तविक अधिकारों की न्यूनता के कारण राजभाषा कर्मियों का मनोबल गिरा रहता है। वे हमेशा दूसरों के निर्देशन में काम करते हैं और खुद को कभी सशक्तीकृत अनुभव नहीं कर पाते। हिंदी का काम, हिंदी में अनूदित सामग्री, हिंदी कार्मिक- सभी को सरकारी तंत्र में दोएम दर्जे का समझा जाता है। प्रसंगवश बताते चलें कि इन पंक्तियों के लेखक का चयन भारतीय स्टेट बैंक में महाप्रबंधक (राजभाषा) के पद पर हुआ था। चूंकि अपनी वर्तमान संस्था में उसे प्रस्तावित पद की अपेक्षा अधिक वेतन मिल रहा था, इसलिए उसने स्टेट बैंक से पे-प्रोटेक्शन देने का अनुरोध किया। स्टेट बैंक ने पे-प्रोटेक्शन तो दूर, अग्रिम वेतन-वृद्धियों के ज़रिए आंशिक पे-प्रोटेक्शन देने से भी इनकार कर दिया। इससे पता चलता है कि हिंदी-कर्मी चाहे कितना ही योग्य और अनुभवी क्यों न हो, उसे पे-प्रोटेक्शन जैसा वाजिब हक देने में भी सरकारी उपक्रम और संस्थाओं को गुरेज होता है। कुल मिलाकर सरकारी तंत्र में राजभाषा कार्यान्वयन केवल उत्सव-धर्मी आयोजनों और आँकड़ेबाजी तक सीमित रह गया है। इससे जुड़े राजभाषा-कर्मी इस छद्म की रक्षा में ही अपनी पूरी सामर्थ्य और जीवन लगा देते हैं। नतीज़तन हिंदी जहाँ थी, आज भी वहीं की वहीं कायम है।
शायद यही वे कारण हैं, जिनके चलते युवाओं का राजभाषा-कर्म से मोहभंग हो गया है। इस सम्मेलन को इस स्थिति पर भी गौर फरमाना चाहिए।
सरलता के नारे के कारण उत्पन्न समस्या
हिंदी में लिखना आसान है। शुरू तो कीजिए। यह नारा पढ़ते-देखते हमें आधी सदी गुजर गई है। लेकिन हिंदी की तथाकथित कठिनता-क्लिष्टता कुछ ऐसी जड़ जमा कर बैठ गई है कि जाने का नाम ही नहीं लेती। हिंदी दिवस 2011 के अवसर पर भारत के कुछ गण्य-मान्य महानुभावों द्वारा भेजे गए संदेश यहाँ द्रष्टव्य हैं, जो गत वर्ष राजभाषा विभाग द्वारा जारी किए गए वार्षिक कार्यान्वयन कार्यक्रम से उद्धृत किए जा रहे हैं -
- “सहज, सरल और बोलचाल की हिंदी ही समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों में लोकप्रिय होगी और स्थायी रूप से अधिक विशाल क्षेत्र में प्रयोग में लाई जाएगी।“– माननीय श्री पी. चिदंबरम, गृह मंत्रि, भारत सरकार।
- “कार्यालयों में हम टिप्पणियों तथा पत्रादि के मसौदों में, जहाँ तक हो सके, आसानी से समझ आने लायक शब्दों का अधिक से अधिक प्रयोग करें। बैठकों, चर्चाओं आदि में हिंदी में बातचीत किए जाने को बढ़ावा देने से हिंदी का अधिकाधिक आधार और व्यापक एवं मजबूत होगा। अधिकारी स्वयं हिंदी को अपनाकर अपने मातहतों के लिए एक मिसाल पेश कर सकते हैं।“– मंत्रिमंडल सचिव (उद्धरण के रेखांकित अंश की व्याकरणिक संगति पर, निकटतम अवयव की दृष्टि से गौर करें)।
- सरल हिंदी अपनाने के बारे में राजभाषा विभाग के 17 मार्च 1976 के ज्ञापन सं. 13034 में कहा गया कि सरकारी हिंदी अलग किस्म की हिंदी नहीं है। वह न केवल लिखनेवाले बल्कि पढ़नेवाले की भी समझ में आनी चाहिए। इस ज्ञापन में दूसरी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को अपनाने की सलाह दी गई। 27 अप्रैल 1988 के ज्ञापन सं. 13017 में अनुवाद में सरल और स्वाभाविक हिंदी के इस्तेमाल की बात कही गई। इसी प्रकार 30 जून 1999 के शासकीय पत्र में कहा गया कि अनुवाद की भाषा व शैली सहज, सरल तथा स्वाभाविक होनी चाहिए। 19 जुलाई 2010 के ज्ञापन में अनुवाद के लिए सरल और सुबोध भाषा के इस्तेमाल के साथ-साथ, छोटे-छोटे वाक्य बनाने और शब्दशः अनुवाद करने के बजाय भाव को हिंदी भाषा की शैली में लिखने पर जोर दिया गया। साथ ही अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल का सुझाव भी दिया गया।
- सरल हिंदी के इस्तेमाल के नाम पर सरकारी कर्मचारियों को अंग्रेजी शब्द-मिश्रित हिंदी के इस्तेमाल की प्रेरणा दी गई, जिसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैः-
क) इस प्रोजेक्ट का मकसद साफ तटों की अहमियत को लेकर अवेयरनेस फैलाना है।
ख) कॉलेज में एक री-फारेस्टेशन अभियान है, जो रेगुलर चलता रहता है।
(उक्त सभी उद्धरण वर्ष 2011-12 के लिए जारी वार्षिक कार्यान्वयन कार्यक्रम के साथ प्राप्त सचिव, राजभाषा के संदेश से गृहीत)
उक्त संदेश के पैरा 9 में कुल 80 शब्दों से बना एक वाक्य है, जो छह पंक्तियों में अँटा है। संदेश के पैरा 9.1 में केवल एक वाक्य है। यह वाक्य 66 शब्दों से बना है और साढ़े चार लाइनों का है। वाक्य में सीएसटीटी, सीएचटीआई, सीटीबी आदि अंग्रेजी संक्षेपाक्षरों का इस्तेमाल हुआ है। उक्त दोनों परिच्छेदों का भाषिक विन्यास सरकारी भाषा के अटपटेपन और अनूदित भाषा की सीमाओं, दोनों की बड़ी ही सुन्दर बानगी प्रस्तुत करता है (देखें- परिशिष्ट ख)।
इन उदाहरणों से हमारी कथनी और करनी का अंतर उजागर हो जाता है। सरल हिंदी की पैरोकारी एक बात है। सरल भाषा लिखना दूसरी बात है। कूवत नहीं या कोशिश नहीं। पहली बात कोई नहीं मानेगा, तो दूसरी ही सही होगी। एक विचारणीय बिंदु यह भी है कि अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं के आगत शब्दों को यथावत भर्ती करते जाने और उनके लिए भारतीय स्रोतों से हिंदी प्रतिशब्द नहीं लाने के कारण हिंदी में अनुसंधान और विकास का मार्ग अवरुद्ध नहीं होगा क्या? यह एक प्रकार के भाषिक उपनिवेश की अधीनता नहीं होगी क्या?
भाषा की सरलता व्यक्ति-सापेक्ष अवधारणा है। भाषा शब्दों से नहीं अभिव्यक्ति के अटपटेपन से बोझिल होती है। भाषा के शब्द कठिन या सरल नहीं होते, अलबत्ता वे परिचित अथवा अपरिचित हो सकते हैं। हिंदी के कई लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों ने घुमा-फिराकर बार-बार ये ही बातें कही हैं। भाषा की कठिनता और सरलता संबंधी चिंतन आज का नहीं है। इसकी जड़ें मध्य-काल और उससे भी पूर्ववर्ती काल तक, यानी संस्कृत और प्राकृत तक जाती हैं। हमारे संस्कृत नाटकों के संभ्रांत वर्गीय पात्र संस्कृत बोलते दिखते हैं, जबकि अनपढ़ पात्र प्राकृत। बहुत दिनों तक यह प्रवृत्ति रही। राज-काज की भाषा हमेशा से ही विशिष्ट रही है। राजन्य वर्ग ने आम-फहम की भाषा में सूचनाएं चाहे जारी की हों, किंतु दफ्तरी काम की भाषा, शैली और शब्दावली हमेशा विशिष्ट ही रही है।
सन 1956 में प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक सी.ए. फर्ग्युसन ने डायग्लोसिया शीर्षक अपने निबंध में प्रतिपादित किया था कि प्रत्येक पढ़े-लिखे व्यक्ति का भाषा-ज्ञान औपचारिक व अनौपचारिक, इन दो हिस्सों में बँटा होता है। अनौपचारिक भाषा का अभिगम व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अपने परिवेश से करता है, जबकि शिक्षा-ग्रहण की प्रक्रिया उसे औपचारिक भाषा-रूप से परिचित कराती है। जिस व्यक्ति को जितने अधिक ज्ञान-परिवेशों में रहने का मौका मिलता है, उसके पास भाषा या यों कहें कि परिप्रेक्ष्यगत शब्दावलियों के उतने ही रूप जुटते जाते हैं। मूल व्याकरणिक संरचना के एक होने के बावजूद शब्दावलियों में बदलाव आने के कारण एक ही व्यक्ति अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग भाषा-रूपों का इस्तेमाल करता है। इसी प्रवृत्ति को ‘डायग्लोसिया’ अभिहित करते हुए, फर्ग्युसन ने एक तालिका देकर बताया कि पढ़ाई-लिखाई, सरकारी कामकाज, धार्मिक प्रवचन, राजनीतिक भाषण, कविता आदि में भाषा के औपचारिक रूप का इस्तेमाल होता है, जबकि आपसी बोलचाल, निचली कक्षाओं की पढ़ाई के दौरान किसी विषय को सरल करके समझाने, मजदूरों आदि से बात करने के लिए अनौपचारिक रूप का। हिंदी भाषावैज्ञानिकों ने इस प्रवृत्ति को भाषा-द्वैत नाम दिया है। राजभाषा के रूप में हिंदी का प्रचार-प्रसार करते समय अति सरलता का आग्रह इस भाषावैज्ञानिक सच्चाई से आँखें फेरकर ही किया जा सकता है।
यहाँ मानव-मन की एक अंतर्निहित और नैसर्गिक कमजोरी पर भी निगाह रखने की जरूरत है। क्या वाकई हम नागर जनों, खासकर मध्यवर्गीय सरकारी कर्मचारियों को सरलता अपनी ओर आकर्षित करती है और परिष्कार पीछे धकेलता है? शायद नहीं। कौतुक और मजाक के लिए चाहे हम सरल, गँवारू भाषा को कुछ देर के लिए अच्छा मान लें, किंतु जब सरकारी कामकाज में लिखने की बात आती है, तो हमें परिनिष्ठित, सुसंस्कारित भाषा ही भली लगती है। मानव-जीवन के हर क्षेत्र में परिष्कार का अपना महत्त्व है। आविष्कार और परिष्कार मानव-मात्र की नैसर्गिक चाहत है। सरल भाषा लिखना बहुत कठिन है, सरलता बनाए रखते हुए परिष्कृत और सुरुचिपूर्ण भाषा लिखना और भी कठिन है। सरल भाषा लिखते समय भदेसपन का भय भी बना रहता है। हर सरकारी कर्मचारी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह भाषा का अच्छा ज्ञाता भी हो। इसलिए बहुत संभव है कि सरलता के फेर में वह भदेस भाषा का इस्तेमाल करे। सरलता के आग्रही लोगों को इतना उदार-हृदय होना चाहिए कि वे भदेस प्रयोगों को बिना नाक-भौंह सिकोड़े स्वीकार करें। अंग्रेजी अथवा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों का इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं, किंतु हिंदी के प्रचलित शब्दों को हटाकर फिर से उनके स्थान पर अंग्रेजी शब्दों की प्रतिस्थापना तो किसी भी दृष्टि से काम्य नहीं है।
इस संदर्भ में केवल इतना कहना उचित रहेगा कि अति सरलता के आग्रहवश भाषा को बिलकुल श्रीहीन और अनाकर्षक बना देने की भूल हमें नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार मंगल-चिह्नों से रहित और बिलकुल प्राकृत अवस्था में विद्यमान स्त्री-पुरुष आकर्षक नहीं दिखते, उसी प्रकार निराभरण, निरावरण भाषाएं भी अनाकर्षक लगेंगी। अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में कथन के लालित्य के प्रति प्रशंसा का भाव रखनेवाले हिंदी समाज को खुद अपनी भाषा यानी हिंदी के लिए भी यह आग्रहशीलता और स्वीकार-भाव दिखाना चाहिए।
दूसरी बात यह कि भाषा प्रत्येक व्यक्ति की निजी विषयवस्तु है। हमारी भाषा हमारे व्यक्तित्व का आईना होती है। जो जितना पढ़ा-लिखा होता है, उसकी भाषा भी उतनी ही परिष्कृत होती है। हिंदी में अति सरलता का आग्रह करने के कारण ही हमने हिंदी-भाषियों के मन में यह बीज बो दिया है कि वे यदि पढ़ा-लिखा अथवा सुशिक्षित प्रतीत होना चाहते हैं तो अंग्रेजी बोलें, क्योंकि हिंदी तो हर हिंदी-भाषी बोलता है, जबकि अंग्रेजी केवल सुशिक्षित लोगों को आती है। परिनिष्ठित हिंदी बोलते ही मज़ाक का पात्र बन जाने का भय किस हिंदी भाषी को नहीं सताता! इसका नतीजा यह हुआ कि हमने धीरे-धीरे न केवल परिनिष्ठित हिंदी, बल्कि हिंदी भाषा मात्र को हाशिए पर धकेल दिया और उसकी जगह अंग्रेजी को काबिज होने का न्योता दे दिया, फिर चाहे वह जैसी भी अंग्रेजी हो, और मुकम्मल अंग्रेजी न हो तो चाहे उसके कुछ विरूपित मुहावरे व शब्द ही क्यों न हों। हिंदी को श्रीहीन करके तथाकथित सरल बनाते जाने की इस मुहिम ने हिंदी का अपकार किया या उपकार, इस विषय पर इस सम्मेलन को ज़रा गौर फर्माना चाहिए।
इस आलेख की विषयवस्तु राजभाषा हिंदी के समसामयिक सरोकारों पर केंद्रित रही है। इसलिए पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों और साहित्य-लेखन में हिंदी की स्थिति पर विचार नहीं हो पाया है। यदि उस पक्ष को भी समाहित किया जाता तो स्थिति की भयावहता और भी विकट रूप में उजागर होती, क्योंकि भाषा ऐकांतिक द्वीपों में नहीं पलती-बढ़ती। वह हमारे व्यापक सामाजिक व्यवहार का अभिन्न अंग होती है। इस नज़रिए से भी हिंदी की समसामयिक स्थिति बहुत उत्साहजनक छाप नहीं छोड़ती।
परिशिष्ट-क
Post Code No. |
Name of the Post |
Scale | Minimum IBPSTotal Weighted Standard Score (TWS) Required |
For PWD | |||||
SC | ST | OBC | GEN | OC | VC | HI | |||
01 | MARKETING OFFICER | I | - | 107 | 144 | -- | - | - | - |
02 | LAW OFFICER | II | 113 | 113 | 125 | 130 | - | - | - |
03 | IT OFFICER | I | 141 | - | 142 | 149 | 120 | - | - |
04 | IT OFFICER | II | 127 | 125 | 133 | 143 | - | - | - |
05 | TECHNICAL OFFICER (APPRAISAL) | I | 125 | 113 | 132 | 143 | - | - | - |
06 | HR/IR OFICER | I | 122 | 114 | 126 | 136 | 114 | - | - |
07 | RAJBHASHA ADHIKARI | I | 93 | 91 | 90 | 98 | - | - | - |
08 | AGRICULTURE FIELD OFFICER | I | 112 | 104 | 128 | 134 | - | - | - |
Note : The above said marks should be in combination with required minimum marks for each subject/ category as per IBPS requirement for CWE conducted for various specialist posts.
परिशिष्ट ख
“9. इस पत्र की प्रति राजभाषा विभाग के तीनों अधीनस्थ कार्यालयों/संस्थाओं नामतः सेन्ट्रल हिंदी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट यथा सीएचटीआई (केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान), सेन्ट्रल ट्रांसलेशन ब्यूरो यथा सीटीबी (केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो) तथा रीजनल इम्लीमेंटेशन आफिसिज़ यथा आरआईओज (क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालयों), एवं सेन्ट्रल कमीशन फॉर साइंटिफिक एंड टेक्निकल टर्मिनालोजिज यथा सीएसटीटी (केंद्रीय वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग) जो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन है (और अनुवाद के क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा घोषित शीर्षतम संस्था है), को भेजी जा रही है।“
“9.1 सभी मंत्रालयों/ विभागों/ संगठनों से यह अनुरोध है कि यूज़र (प्रयोगकर्ता) की हैसियत से, वे जिन शब्दों का हिंदी भाषा द्वारा अपनाया जाना उचित समझते हैं, उन्हें लगातार निदेशक, सीएसटीटी, निदेशक, सीएचटीआई, निदेशक, सीटीबी, सचिव, राजभाषा विभाग (गृह मंत्रालय), सचिव, स्कूली शिक्षा तथा साक्षरता, तथा सचिव, उच्च शिक्षा (मानव संसाधन विकास मंत्रालय), को उपलब्ध कराते रहें, ताकि यह प्रक्रिया निरंतर और स्थायी रूप से चलती रहे।“
--
डॉ. आर.वी. सिंह
ईमेल/email-rvsingh@sidbi.in
यथार्थ को ईमानदारी से प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं