पारुल भार्गव की कहानी - किस्मत

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कहानी किस्‍मत पारुल भार्गव मेरी जिन्‍दगी बिल्‍कुल मेरे मन मुताबिक चल रही थी ऐसा हर व्‍यक्‍ति के साथ नहीं होता कि जो वो चाहे उसे उसकी जिन...

कहानी

किस्‍मत

पारुल भार्गव

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मेरी जिन्‍दगी बिल्‍कुल मेरे मन मुताबिक चल रही थी ऐसा हर व्‍यक्‍ति के साथ नहीं होता कि जो वो चाहे उसे उसकी जिन्‍दगी से वह सब मिलें लेकिन पता नहीं क्‍यूं मेरी किस्‍मत मुझ पर कुछ ज्‍यादा ही मेहरबान थी। मेरा जन्‍म एक उच्‍च वर्गीय परिवार में हुआ जहां सुख -सुविधाओं का कोई अभाव नहीं था, माता-पिता का सम्‍पूर्ण स्‍नेह, दो बड़ी बहनें जिन्‍हें अपने आप से ज्‍यादा मेरी फिक्र रहती थी। मैं अपने परिवार में सबसे अलग थी, हम तीनों बहनों में सबसे छोटी होने का मुझे हमेशा से ही बहुत फायदा मिला, मेरा रहन-सहन, मेरी सोच सब अलग था। परिवार के साथ-साथ मुझे मेरे दोस्‍त भी बहुत ही अच्‍छे मिलें थे जो हमेशा मेरे साथ खड़े रहते थे, मेरी सभी सहेलियों में मेरी एक सहेली जिसका नाम रिद्धिमा था मेरे सबसे ज्‍यादा करीब थी, वो मेरा चेहरा देखते ही मेरे मूड का या मेरे दिमाग में क्‍या चल रहा है बता देती थी । रिद्धिमा से मेरी जिन्‍दगी का कोई राज नहीं छुपा था। बस ! यह कह लो की में वो खुशनसीब लड़की थी जिसको जिन्‍दगी की सारी खुशियां मिली थीं। कभी-कभी मेरी सहेलियां यहां तक कह देती थी कि किस्‍मत हो तो तमन्‍ना जैसी और मैं नजर न लग जाए इसलिए जल्‍दी से ‘‘टचवुड'' कर लेती थी।

वक्‍त अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था और मैं अपनी जिन्‍दगी में मस्‍त अपनी आने वाली दुनिया के सपने देखती जा रही थी। मेरे कॉलेज के दिन शरु हो गए थे और इसी बीच मेरी बड़ी दीदी की शादी हो गई थी उनके जाने के बाद में घर पर बहुत रोई थीं क्‍योंकि मुझे जब भी कोई परेशानी होती मैं सबसे पहले उन्‍हीं को बताती और वो उसे पल भर में ही दूर कर देतीं थीं। लेकिन वक्‍त के साथ सब पहले जैसा हो गया था।

सब अपनी जगह ठीक चल रहा था कि एक दिन सुबह मैं और मेरी सहेली रिद्धिमा सैर के लिए जा रहे थे घर से थोड़ी दूर जाने पर ही हमें लगा कि हमारे एकदम पीछे कोई वाइक पर हैं लेकिन हमने ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया और अपनी ही धुन में आगे बढ़ते चले जा रहे थे कि अचानक मेरे पीछे से आवाज आई ‘तमन्‍ना'। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मेरी ही उम्र का एक लड़का मेरे सामने बाइक पर था, मैंने नॉर्मली उससे कहा - हां बोलो, वो मेरे लिए बिल्‍कुल अंजान था। मेरे यह कहते ही वह एक ही सांस में बोल गया कि ‘तमन्‍ना मैं तुमसे दोस्‍ती करना चाहता हूं और अगर तुम भी मुझसे दोस्‍ती करना चाहती हो तो ये चॉकलेट ले लो। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था और पता नहीं क्‍यूं मैंने कुछ बिना सोचे समझें उसके हाथ से वो चॉकलेट लेते हुए हां कर दिया, जैसे ही मैंने हां कहां वो एक छोटी - सी मुस्‍कान देकर आंखो के सामने से ऐसे गायब हो गया मानो एक हवा का झोंका हो। उसके जाने के बाद मैंने वो चॉकलेट रिद्धिमा और मेरे बीच बांटकर खत्‍म कर दी, रिद्धिमा ने हंसते हुए कहां चलो आज का दिन अच्‍छा जाएगा सुबह-सुबह ही मुंह मीठा हो गया और फिर हम वापस घर आ गए। मेरे लिए यह कोई नयी बात नहीं थी लेकिन इस तरह मैंने कभी किसी लड़के से हां नहीं कहा था मेरी सिर्फ अपने स्‍कूल टाइम के लड़कों से ही दोस्‍ती थी और मैं किसी भी अजनबी लड़के से दोस्‍ती करने से दूर ही रहती थी लेकिन कुछ चीजों पर हमारा वश नही चलता।

मैंने यह सब नॉर्मली लिया इसका मुझ पर कोई ज्‍यादा असर नहीं हुआ था मैं अपनी ही दुनिया में मस्‍त रहने वाली लड़की थी। उस दिन की मुलाकात के बाद मैं जहां जाती मुझे वही लड़का कहीं न कहीं टकरा ही जाता लेकिन न तो वह मुझसे बात करता और न ही मुझे देखकर कोई प्रतिक्रिया करता, मैं सोचती कैसा अजीब लड़का है ये कोई दोस्‍ती होती है। एक दिन सुबह सैर पर जाते वक्‍त मैंने ही उसे बीच रास्‍ते में रोका और जाने क्‍या -क्‍या उससे कह डाला वो बिचारा चुपचाप सुनता रहा फिर मेरे थोड़ा शान्‍त हो जाने पर उसने मेरा फोन न. मांगा और वहां से चला गया। 2-3 दिन के बाद उसका फोन आया तो मुझसे बोला कि तुम्‍हारा नाराज होना सही है लेकिन मैं रास्‍ते में मैं तुमसे इसलिए बात नहीं करता क्‍योंकि हमारा शहर बहुत छोटा है और हर तरफ कोई न कोई पहचान का मिल ही जाता है और इस चीज का असर अच्‍छा नहीं पड़ता, यह सुनते ही मैं आग बबूला हो गई और उससे कहने लगी कि कोई इतनी परवाह करता है क्‍या किसी की, दोस्‍ती ही तो की है और जाने क्‍या-क्‍या बोल गईं वह एक बार फिर कुछ नहीं बोला। बस्‌ इसी तरह फोन पर बात होना शुरु हो गई और बात करने का सिलसिला ऐसा शुरु हुआ कि न तो दिन का होश रहता था और न ही रात का। मैं उसके लिए कुछ महसूस नहीं करती थी फिर भी न जाने क्‍यूं अपने आप सब कुछ होता चला जा रहा था कुछ था जो मुझे उसकी तरफ खींचता चला जा रहा था।

इसी सब में कब एक साल बीत गया पता ही नहीं चला हमारी सिर्फ फोन पर ही बात होती थी। फिर एक दिन उसने मुझे प्रपोज कर दिया लेकिन मुझे बिल्‍कुल अजीब नहीं लगा क्‍योंकि एक साल की बात के दौरान मैं ये जान चुकी थी कि वह मुझे मन ही मन पसन्‍द करता है मुझे ऐसा लग रहा था कि यह लड़का हर कदम बहुत ही सोच समझ कर आगे बड़ा रहा है। लेकिन उस वक्‍त मेरे मन में उसके लिए ऐसा कुछ नहीं था मैं बस उसे अपना एक अच्‍छा दोस्‍त मानती थी, शायद वह मेरा जबाव जानता था इसलिए उसने कुछ नहीं पूछा। मैं अरमान को अच्‍छी तरह समझना चाहती थी इसलिए मैंने कोई जल्‍दबाजी नहीं की लेकिन जैसे-जैसे वक्‍त बीतता जा रहा था मुझे एहसास होता चला जा रहा था कि अरमान मुझे इतने अच्‍छे से समझने लगा था कि मेरी आवाज सुनते ही मेरा हाल वयां कर देता था और उसमें उसकी उम्र के हिसाब से गजब की समझदारी थी वो हर बात को मुझे इस तरह से समझाता कि मैं सोचती ही रह जाती की ऐसा मेरे दिमाग में क्‍यूं नहीं आया। और पता नहीं कब में भी उसे पसंद करने लगी पता ही नहीं चला। वो मुझे सबसे अलग लगने लगा और वो था भी। जिस दिन मैंने उससे अपने प्‍यार का इजहार किया उस दिन उसकी खुशी का ठीकाना नहीं था मानों उसे सारे जहान की खुशियां मिल गई हो। वो सबसे अलग था जहां मेरी दूसरी सहेलियों के बायफ्रेंडस उन्‍हें होटलों और रेस्‍टोरेन्‍ट जैसी जगहों पर मिलने बुलाते थे उन पर न जाने कितनी तरह की पाबन्‍दियां लगाते कि जीन्‍स मत पहना करो, मेरे अलावा दूसरे लड़कों से बात मत किया करो, यहां मत जाया करो, वहां मत जाया करो आदि। मैं सोचती अरमान मुझसे क्‍यूं कुछ नहीं कहता क्‍या उसे मुझसे कोई मतलब नहीं ? मेरे मन में उठ रहे सवालों को जब मैंने अरमान को बताया तो उसने जो मुझसे कहां वो मेरे दिल को अंदर तक छू गया। अरमान ने कहां - देखो तमन्‍ना मैंने तुम्‍हें जिस तरह तुम रहती हो जैसी तुम हो वैसे ही पसंद किया है मैं तूमको क्‍यूं बदलना चाहूंगा, मैं क्‍यूं तुम्‍हारी इच्‍छाओं को खत्‍म करुं। रही दूसरे लड़कों से बात करने की बात तो मुझे तुम पर पूरा विश्‍वास है और वैसे अभी यही टाइम है जब तुम अपनी पसन्‍द से रह सको फिर शादी के बाद तो जाने कितनी तरह की पाबन्‍दियां लग ही जाती है तो मैं क्‍यूं अभी से तूम्‍हें वह सब करने के लिए कहूं। एक बार मैं फिर सोचने लगी कि वास्‍तव मैं मेरी किस्‍मत बहुत अच्‍छी है।

अरमान के बारे में मेरे घर में मेरी दोनों दीदीयों को पता था और वो दोनों भी उससे खुश थी उनकी अक्‍सर अरमान से बात होती रहती थी। अरमान का अपना बिजनेस था जिससे उसे महीने के 20 से 25 हजार रुपये इनकम हो जाती थी जो हमारे शहर के हिसाब से काफी थी, जहां तक मैं अरमान को जान पाई थी वह अपने काम के प्रति बहुत ईमानदार था और पूरी लगन से अपना बिजनेस चला रहा था। इसी सब में हमको पांच साल पूरे हो गए थे और हम एक-दूसरे के इतने करीब आ चुके थे कि अब अलग होना हमारे लिए बहुत मुश्‍किल था इसी बीच मेरी दूसरी दीदी की भी शादी हो गयी थी। अब मेरे घर में मेरी शादी की बातें चलने लगी थी जिस तरह के लड़को के बारे में मम्‍मी मुझसे बात करती मुझे वह सब अरमान में नजर आता। अरमान की फैमिली को हमारे बारे में पता था और उन्‍हें कोई परेशानी नहीं थी। अरमान की फैमिली की सोच बहुत अच्‍छी थी मेरी अक्‍सर अरमान की दीदी और भाभी से फोन पर बात होती रहती थी और मुझे लगता था कि मैं अरमान की फैमिली में आसानी से एडजस्‍ट कर लूंगी।

एक दिन मैं और रिद्धिमा बैठे बाते कर रहे थे कि आज कल लड़कों को तो बस लड़कियों से एक ही चीज चाहिए आज के जमाने को देखते हुए अच्‍छे लड़के मिलना बहुत ही मुश्‍किल है, तभी रिद्धिमा बोली -तमन्‍ना मुझे तो मेरी अब तक कि लाइफ में सिर्फ तीन ही लड़के सही लगे है, दो मेरे दोस्‍त और तीसरा अरमान। अरमान का नाम सुनकर मुझे ताज्‍जुब हुआ कि रिद्धिमा ने अपने लवर का नाम नहीं लिया। सच में अरमान था ही ऐसा जब कभी हम रास्‍ते में टकरा जाते तो वो मुझे अनदेखा करके निकल जाता, इन पांच सालों में हम न ही कभी किसी रेसटोरेन्‍ट में या किसी अन्‍य जगह पर मिले थें, बस या तो मेरे घर के किसी फैमिली फंक्‍शन में या फिर अरमान के घर के किसी फैमिली फंक्‍शन में मिलना हो पाता वो भी ऐसा कि मैं उसे छोड़कर उसकी फैमिली के दूसरे लोगों से बात करती और वो मुझे छोड़कर सबसे बात करता। कभी-कभी मुझे बहुत गुस्‍सा आता तो वो मुझसे कहता कि ‘तमन्‍ना मैं नहीं चाहता कि अपनी शादी में कोई भी अड़चन आए एक गलत कदम सब खत्‍म कर सकता है और हम दोनों ही यह नहीं चाहते थे। अरमान जो कुछ भी करता बहुत सोच समझ कर ही करता मेरी सोच जहां खत्‍म होती थी उसकी वहीं से शुरु होती थी। मेरी अब जिन्‍दगी से यही तमन्‍ना रह गई थी कि बस कैसे भी मुझे अरमान मिल जाए और मुझे कुछ नहीं चाहिए।

एक दिन मैंने फैसला किया कि अब वो वक्‍त आ गया है कि मैं अपने और अरमान के बारे में मम्‍मी-पापा को बता दूं लेकिन कुछ ऐसी कमीयां थी कि जिससे मुझे लगता था कि शायद मम्‍मी-पापा हमारी शादी के लिए राजी न हो। एक तो सबसे बड़ी कमी हमारी कास्‍ट थी जो अलग-अलग थी लेकिन दोनों ही सामान्‍य वर्ग में आते थे, दूसरी अरमान की फैमिली बड़ी थी और मम्‍मी-पापा का यह सोचना था कि मैं बड़ी फैमिली में एडजस्‍ट नहीं कर पाउंगी, और तीसरी यह कि हमारे शहर में हमारी फैमिली का नाम शहर के कुछ चुनिंदा परिवारों में आता था। मैं इन सब बातों के बारे में सोचती थी लेकिन मेरा सोचना था कि इन्‍सान के लिए सबसे ज्‍यादा जरुरी उसकी मानसिक संतुष्‍टि है जिसके होने से वह अपनी जिन्‍दगी खुशी से व्‍यतीत कर सकता हैं और वो मानसिक सुकून मुझे सिर्फ अरमान से ही मिलता।

मैंने अपने घर में अपने और अरमानों के बारे में बताने से पहले अरमान से ऐसे ही बातों-ही-बातों में पूछा कि अरमान तुम मेरा हर वक्‍त में साथ दोगे न। यह सुनते ही अरमान ने बड़े प्‍यार से कहां- हां तमन्‍ना यह कोई पूछने की बात है मैं अपनी जिन्‍दगी में सबसे ज्‍यादा तूमसे प्‍यार करता हूं और इस बात की लाइफटाइम गारण्‍टी देता हूं कि मेरी और मेरे परिवार की तरफ से तुम्‍हें कोई परेशानी नहीं होगी, यह सुनते ही मेरी हिम्‍मत और बड़ गई और दूसरे ही दिन घर में बताने की बात मैंने अरमान से कहीं तो अरमान ने कहां - मैं तो कब से इंतजार कर रहा था इस दिन का, मैं तो तुम्‍हारे पापा से आमने-सामने बैठ कर बात करने को भी तैयार हूं, फिर मैंने कहां तूमको डर नहीं लगेगा पापा के सामने तो उसने कहां- नहीं डर किस बात का आज तक मैंने कोई गलत काम नहीं किया, मेरा परिवार भी मेरे साथ है और मैं इस लायक हूं कि तुम्‍हें उनसे मांग सकूं। यह सुनकर मुझे लगने लगा कि कोई परेशानी नहीं आएगी अब तो। जब कभी भी हम अपनी शादी को लेकर आपस में बात करते तो अरमान मुझे हमेशा यहीं समझाता कि हम दोनों परिवारों की रजामंदी के साथ ही शादी करेंगे क्‍योंकि मां-बाप जो करते है सोच समझ कर ही करते है उन्‍हें दुख पहुंचाकर हम सुखी नहीं रह सकते।

अब बस मुझे सुबह का इंतजार था मैं चाहती थी कि जिस दिन मैं अपने घर में यह बात बताउं मेरी दोनों दीदीयां मेरे साथ हो लेकिन कुछ कारणों के चलते ऐसा हो नहीं पाया। सुबह होते ही मैं हिम्‍मत जुटाने लगी कि कैसे कहूं- फिर हिम्‍मत कर मैंने यह बात सबसे पहले मम्‍मी को बता दी यह सुनकर मम्‍मी थोड़ी टेन्‍सन में आ गई फिर मम्‍मी ने जाकर सबकुछ पापा को बता दिया। 1-2 दिन तक घर का माहौल बिल्‍कुल अच्‍छा नहीं था मैं मम्‍मी-पापा का सामना नहीं कर पा रही थी मै जानती थी की आज तक मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे मेरे पापा की इज्‍जत खराब हो लेकिन फिर भी मैं उनका सामना नहीं कर पा रही थी मेरी दीदीयां मम्‍मी को समझा रही थी कि मेरी खुशी अरमान में ही है और वह एक अच्‍छा लड़का है लेकिन मम्‍मी-पापा को कहीं न कहीं समाज और रिश्‍तेदारों के तानों का डर था, हम अपनी सोच को चाहें कितना ही क्‍यूं न बदल लें लेकिन समाज से लड़ने की हिम्‍मत हर कोई नहीं जुटा पाता । इसी दबाव के चलते पापा ने मेरे इस फैसले को नजरअंदाज कर दिया, मुझे विश्‍वास नहीं हो रहा था कि आज तक जिस इंसान ने मेरी कोई बात नहीं टाली थीं, मेरी हर जिद्‌द को पूरा किया था आज वहीं इंसान अपनी बेटी की पसंद से एक बार मिलना भी नहीं चाहता उसे सुनना भी नहीं चाहता, मैंने बहुत कोशिश की लेकिन कुछ नहीं हो पाया पापा ने साफ-साफ मना कर दिया था। एक पल में ही मेरी दुनिया बदल गई थी मेरे सारे सपने टूट गये थे अब कुछ नहीं बचा था अरमान भी कुछ न कर पाने के लिए मजबूर था उसने हमेशा से ही मेरी इज्‍जत का ख्‍याल पहले किया था फिर खुद के बारे में सोचा था। उसने किस्‍मत का फैसला मान लेने में ही ठीक समझा और मुझसे कहां-तमन्‍ना शायद मैं तुम्‍हारे काबिल नहीं,पापा ने जो फैसला लिया है कुछ सोच-समझ कर ही लिया होगा और तुम्‍हारे पापा ने तुम्‍हारी दीदीयों की भी कितने अच्‍छे घरों में शादी की है तुम भी उनकी पसंद के साथ खुश रहोगी और हमेशा खुश रहने का वादा लेकर उसने फोन रख दिया। मैं जानती थी कि वो मेरा और सामना नहीं कर पा रहा है मुझे अपनी कोई चिंता नहीं थी फिक्र थी तो अरमान की, कि कैसे वह अपने आप को सम्‍भाल पाएगा जिसने मुझे पाने के लिए शुरु से ही पूरी सजगता और समझदारी के साथ एक-एक कदम रखा था उसे इसका क्‍या नतीजा मिला।

आनन-फानन में मेरा रिश्ता हमसे भी उच्‍च परिवार में तय हो गया लेकिन मेरे मन में अपनी शादी को लेकर कोई तमन्‍ना नहीं थी आखिर कैसे अरमान को भुलाकर मैं किसी ओर व्‍यक्‍ति के साथ अपने आप को जोड़ पाती मुझमें इतनी शक्‍ति नहीं थी अब तक शायद मैं कोई गलत कदम उठा लेती लेकिन अरमान से किये वादे ने मुझे रोक लिया।

देखते ही देखते मेरी शादी भी हो गई। उस घर में कोई कमी नहीं थी शहर के मशहूर परिवारों में गिनती होती थी, घर में हर छोटे काम को करने के लिए 10-10 नौकर-चाकर, सारे ऐशो आराम जो शायद मुझे अरमान के घर में नहीं मिलते लेकिन शादी की पहली रात को ही मेरी जिसके साथ शादी हुई थी उसने मुझे साफ-साफ समझा दिया था कि उसके लिए शादी जैसी फालतू चीज का कोई महत्‍व नहीं है वो तो उसने अपने मां-बाप के दबाव में आकर मुझसे शादी की थी उस व्‍यक्‍ति के मां-बाप का सोचना था कि शायद शादी हो जाने के बाद उस इंसान का जिन्‍दगी के प्रति नजरिया बदल जाएगा, उस इंसान को केवल पैसे से प्‍यार था और वो दिन रात पैसे कमाने में ही डूबा रहता था। उस दिन मुझे फिर से एहसास हुआ कि मेरी किस्‍मत शायद मुझ पर बहुत ज्‍यादा मेहरबान थी। शादी के 2 साल बीत जाने के बाद भी मुझे याद नहीं था कि कब मेरे पति ने मुझे आंख भरकर देखा भी था। आज मेरे पास सुख-सुविधाओं के नाम पर किसी भी चीज की कोई कमी नहीं थी, कमी थी तो उस प्‍यार भरे साथ की जो मुझे अरमान से मिला था। शायद आज इतने आगे निकल जाने के बावजूद भी हम समाज की बेड़ियों से खुद को नहीं छुड़ा पाते, कहीं न कहीं समाज का डर इंसान के जेहन में छुपा ही रहता है

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पारुल भार्गव

जीवन-परिचय

नाम ः- कु. पारूल भार्गव

पिता का नाम ः- श्री प्रमोद भार्गव

माता का नाम ः- श्रीमती आभा भार्गव

जन्‍म तिथि ः- 16 दिसम्‍बर, 1988

जन्‍म स्‍थान ः- शिवपुरी (म.प्र.)

शिक्षा ः- विधि संकाय में द्वितीय वर्ष में अध्‍ययनरत

रूचियां ः- खेल, लेखन, ड्राइविंग

प्रकाशित कृति ः- विज्ञान के नये प्रयोग, दोस्‍ती कुछ इस तरह !

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रचनाकार: पारुल भार्गव की कहानी - किस्मत
पारुल भार्गव की कहानी - किस्मत
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