अरे कितने दिन हो गए उसकी कोई खबर नहीं ... ।बीतते दिनों के साथ अचानक उसका मन आन्दोलन करने लगा था ।’एक फोन भी तो कर देती ।’ "एक फोन।’ मन...
अरे कितने दिन हो गए उसकी कोई खबर नहीं ... ।बीतते दिनों के साथ अचानक उसका मन आन्दोलन करने लगा था ।’एक फोन भी तो कर देती ।’ "एक फोन।’ मन कुतर्क पर उतरना चाहा ‘एक फोन ही तो आता है उसका और क्या ...।’ ‘हां वही ...महानगर में वही काफी है. ।’दूसरे तर्क ने मन को खामोश किया था ।
वैष्णवी कहां से आई थ़ी. क्या पता़. पहले की तरह तो अब दिल खोल कर लोग बात नहीं करते हैं न. नया चलन ह़ै ...कब मिली थी ये भी याद नहीं ... मगर एक बार की मुलाकात ने जैसे भविष्य के द्वार खोल दिए थ़े. पता नहीं क्यों मुझमें उसे अपनी अजन्मी बहन सी नजर आई थी ।
‘हलो ... वर्किंग वूमन हॉस्टल में जगह मिल गयी ह़ै ...किसी सज्जन : की कृपा स़े ।’वह सज्जन शब्द के बाद खूब जोर से हंसी थी । ‘चलो अच्छा हुआ . एक ढंग का रैन बसेरा तो मिल गया. ।’ अलका ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा था ।कुछ दिन बाद फिर फोन की ‘हलो यहॉ की सुपरिनटेन्डेन्ट बड़ी खूसट किस्म की बुढ़िया है। जैसे किसी होरर फिल्म की चुडैल़ .।’
"यह कौन सी नई बात है हर जगह की हॉस्टल सुपरिन्टेन्डेन्ड एक ही तरह की होती है ।मगर तुम्हें क्या़ .... कोई स्कूल या कालेज के होस्टल में तो हो नहीं जो
निराशावादी, रूढ़िवादी नियम कानून से डऱो ।’
‘आज यहॉ दो बहनजी टाईप की महिलाएं आई हैं।’ यह उसका आठवां फोन था "बहुत खूब़.. अब सब तुम्हारी तरह सिन्ड्रेला बन कर तो नहीं आती धरती पर।’उसके जवाब पर वह जोर से ठहाका लगाई थी । यानी उसको अपने हुस्न पर नाज भी बहुत था ।
तड़ातड़ डायरी के पन्ने बदलते गए ।मौसम अपने साजो सामान के साथ कई बार चेहरा बदल बदल कर आया ।शहर के माहौल में थोडा और जहर घुलता रहा ...हवा पानी जहरीली होती रही थी आदमी थोडा और खॅूखाऱ. ।
अपने अपने खोल में सिमटे लोग ...।एक दिन अचानक उसका फोन आया ‘अलका ... मैं वैष्णव़ी .।’ ‘बोल़. दूज की चांद ... कब कहॉ बादलों की ओट से निकल पडती ह़ै.।’ "हॉ यार ये कलम घिसाई अब नहीं भा रही है जरा भी. दूसरे असाइनमेंट़..चाह रही हॅ़ू ...कोई डिप्लोमेटिक जॉब़.. बताउंगी ...बाद में. आजकल एक खाकी वर्दी शहीद हो गया है मुझपर । रोज अपनी गाड़ी में छोड़ने आता है मुझे ।’ मगर बोलते बोलते अचानक उसकी आवाज अवरूद्ध होने लगी थी ।सपनों के हिंडोले पर झुलाते झुलाते कहीं बीच गर्त्त में न फेंक दे.सोच कर शायद । वह देर तक उसके बारे में ऐसी ऐसी बातें बताती रही थी जो सुन कर उसके रोंगटे खडे हो गए़ । ‘आग से खेल रही है जल जाएगी बुरी तरह ।’चिन्तित होकर अलका ने बस इतना ही कहा था । "आज क्या हो गया इसे कहीं ज्यादा तो नहीं गटक ली है।’ मन ने निराश होकर सोचा था ।
दिन को पकड़ने की कोशिश में उसने डायरी के हजारों पृष्ठ दाग डाले थे ।
जाड़े की धूप का इंतजार करते हुए वह अपने सामने वाले बालकनी में बैठी थी कि डोर बेल बज उठी. । कुछ पुलिस वाले दरवाजे पर खड़े थे ।"हमारे साहब आपसे कुछ बातें करना चाहते हैं ...।’ दरवाजा खोलकर उसने गरदन टेढ़ी किया. ...मिथुन चक्रवर्ती का लेटेस्ट मॅाडल दो अंगुली में सिगरेट फंसाए बड़ी अदा से धुंआ उड़ाते हुए खड़ा था। आंखों पर काला चश्मा़..। उसके मन में एक पल के लिए भय उत्पन्न हुआ़..साधु और पुलिस दोनों के वेश से उसे डर लगता था ...इसलिए वह उन्हें अपने घर में पांव भी नहीं रखने देना चाहती थी । मगर यह पुलिस कोई साधु तो नहीं कि कुछ ले कर बाहर से ही वापस चला जाए।
अन्दर आकर वे सोफे पर बैठ तो गए थे मगर सिगरेट पीते ही रहे ।अकेले थे और लोग बाहर ही खड़े रहे ।
कुछ पल के बाद बाहर जा कर सिगरेट फेंक दिया था । अपना कार्ड जेब से निकाल कर दिखाया "सी 0 बी0 आई0 के वरिष्ठ पदाधिकारी ... । वैष्णवी के सेल पर आपका नंबर मिला ... । मुझे उन्हीं के बारे में आप से कुछ पूछना ह़ै. ।’
"वैष्णवी की क्य़ों ।’ वह अवाक रह गई थी । मगर वह खामोश था जैसे कुछ सुना ही नहीं. ।कुछ पल वह वैसे ही उसे घूरती रह गई थी ।उसने अपना प्रश्न फिर दोहराया़. इसबार थोडी संजीदगी से । ‘वैष्णवी से आपकी दोस्ती कैसे हुई़. ।’ उसके कानों में जोर जोर मृदंग बजने लगे ...। बिना सोचे विचारे बोल दिया ‘जैसे आपकी हुई थी.।’उसके जवाब पर वह कुछ चौंक सा गया था। अलका ने अपने आप को संभालते हुए कहा ‘मैं भी एक पत्रकार हूं वह भ़ी. समान प्रोफेशन वाले कभी न कभी कहीं न कहीं टकरा ही जाते हैं ।’ उसने उसकी ओर अनमनस्कता से देखते हुए बातें बढाई थी । ‘आप को मालूम है वह किन किन लोगों से मिलती थी. ।’ ‘एक क्राईम रिपोर्टर भला अपनी योजना सड़क पर क्यों निर्धारित करने लगे। दस बीस लोगों से तो दिन में मिलती ही होगी ।’
"आखिरी बार आपकी बातचीत उनसे कब हुई थी ।’ ‘उसके गोवा से आने के बाद ...।’ उसने अपने पेंट की जेब से रूमाल निकाल कर माथे के पसीने पोंछे थे। ‘क्या बताया था़. ।’ ‘वही सब जो उस अधिकारी के साथ वहां हुआ़. इंटरपोल की मदद से माताहारी बनाने का सुनहरा जाल जो फेंका गया था।’ ‘किसने फेंका था जाल।’ ‘अब नाम तो याद नहीं मगर उसने कहा था कि उसका आशिक उस पर दिलोजान से फिदा है और उसे जमीन से आसमान पर बैठाने की तमन्ना रखता है ।’ अर्थपूर्ण निगाहों से उसने उसकी आंखों में देखते हुए ये बातें पूरी होशो हवास में कहा था ।
गंभीर चिन्ता में डूबा वह सोफे पर से उठा. मगर फिर बैठ गया था ‘ देखिए आप से वैष्णवी ने बहुत कुछ कहा है
मगर आप की बातों पर हम यकीन भी करें तो कैस़े. कोई प्रमाण़.. ।’ ‘यकीन करें या न करें ...चलकर तो आप मेरे पास आए हैं. ।मगर उसके साथ जो कुछ हुआ उसका बदला ईश्वर अवश्य लेगा़. ।’ आफीसर अभी तक उसकी बातें बिना क्रोध के सुन रहा था ।वह उस पर क्रोध भी कैसे कर सकता था़. एक तो पत्रकार उपर से बड़े नेता की पत्नी ।मजबूर हो कर मुस्कुराया भर था । ‘रहने दीजिए़. हम अपराधी तक पहुंचने की पूरी कोशिश करेंगे।’ खट् खट् खट् सरकारी जूते आवाज करते सीढ़ी से उतर कर नीचे चले गए थे ।
उस दिन के बाद एक हजार पांच सौ चालीस दिन गुजर गए थे ।एक दिन अखबार में पढ़ा ‘सबूतों के अभाव में वैष्णवी हत्या कांड का केस बन्द किया जा रहा है।’
तड़पते हुए पाखी की तरह वह धराशायी हो गई । आंखों से पश्चाताप के अश्रु बह चले थे । ‘काश वह अपनी और वैष्णवी की पूरी बात चीत टेप कर लेती तो आज वह खाकी हत्यारा फांसी पर या यातना गृह में जहां भी न्यायाधीशों की मर्जी होती ... होता. मगर यॅू सबूत ढूंढने के लिए स्वयं हर टेलीफोन नंबर के पास न जा पाता। वैष्णवी खुद जानती थी तभी तो उसने ही कहा था ‘न इनकी दोस्ती अच्छी न इनकी दुश्मनी अच्छी’ ।
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