ह मारे देश में बीते चौंसठ सालों के भीतर जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा ...
हमारे देश में बीते चौंसठ सालों के भीतर जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है उतनी ही तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का या तो क्षरण हुआ है या उनकी उपलब्धता घटी है। ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में से एक है ‘‘पानी''। ‘जल ही जीवन है' की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरंतर कम होती रही है। आजादी के दौरान प्रति व्यक्ति सालाना दर के हिसाब से पानी की उपलब्धता छः हजार घनमीटर थी, जो अब घटकर करीब डेढ़ हजार घनमीटर रह गई है। जिस तेजी से पानी के इस्तेमाल के लिए दबाव बढ़ रहा है और जिस बेरहमी से भूमि के नीचे के जल का दोहन नलकूपों से किया जा रहा है उससे यह निश्चित-सा हो जाता है कि अगले कुछ साल बाद जल की उपलब्धता घटकर बमुश्किल सोलह सौ कि जगह हजार-ग्यारह सौ घनमीटर रह जाएगी। टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) के अनुसंधानपरक अध्ययनों से साबित हुआ है कि भूमिगत जल के आवश्यकता से अधिक प्रयोग से भावी पीढि़यों को कालांतर में जबरदस्त जल समस्या और जल संकट का सामना करना होगा। नलकूपों के उत्खनन संबंधी जिन आंकड़ों को हमने ‘क्रांति' की संज्ञा दी, दरअसल यह संज्ञा तबाही की पूर्व सूचना थी, जिसे हम नजरअंदाज करते चले आ रहे हैं। हांलाकि नलकूप क्रांति वाकई तबाही की पूर्व सूचना थी है बात अब सच्चाई में बदल गई है।
खद्यान्न सुलभता के आंकड़ों को पिछले चौसठ साल की एक बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है, लेकिन इस खाद्यान्न उत्पादन के लिए जिस हरित क्रांति प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है उसके कारण नलकूपों की संख्या कुकुरमुत्त्ाों की तरह बढ़ी, फलस्वरूप उतनी ही तेजी से भूमिगत जल की उपलब्धता घटी केंन्द्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार नलकूप खुदाई की आमतौर से प्रचलित तकनीक गलत है। इस के लिए जमीन के भीतर तीस मीटर तक विधिवत सीलिंग होनी चाहिए ताकि जमीन की इस गहराई वाले हिस्से का पानी अपने क्षेत्र में सुरक्षित रहे। इसके बाद नीचे की खुदाई जारी रखनी चाहिए। इस तकनीक के अपनाने से खर्च में पन्द्रह हजार रूपये की बढ़ोत्त्ारी जरूर होती है, लेकिन भूजल स्तर में गिरावट नहीं आती। लेकिन इस तकनीक के अनुसार नलकूपों का उत्खनन हमारे देश में नहीं किया गया। जिसके दुष्परिणाम अब सामने हैं।
अध्ययन के अनुसार 1947 में कोई एक हजार के करीब नलकूप पूरे देश में थे, जिनकी संख्या अब दो करोड़ पन्द्रह लाख से ऊपर है। सस्ती अथवा निःशुल्क बिजली देने से नलकूपों की संख्या में और बढ़ोत्त्ारी हुई है। पंजाब और मध्यप्रदेश की सरकारों ने किसानों को मुफ्त बिजली देकर नलकूप खनन को बेवजह प्रोत्साहित किया हुआ है। इसी तर्ज पर अब उत्त्ारप्रदेश सरकार इस उत्खनन के चलते पंजाब के 12, हरियाणा के 3, मध्यप्रदेश के 15 जिलों से पानी ज्यादा निकाला जा रहा है, जबकि वर्षाजल से उसकी भरपाई नहीं हो पा रही है। गुजरात के मेहसाणा और और तमिलनाडु के कोयम्बतूर जिलों में तो भूमिगत जल एकदम खत्म ही हो गया है। हरियाणा के कुरूक्षेत्र और महेन्द्रगढ़, मध्यप्रदेश के खण्डवा, खरगोन और भिण्ड जिलों में प्रति वर्ष जल की सतह आधा मीटर नीचे खिसक रही है। जल के नीचे उतर जाने से इस जल को ऊपर खींचने में ज्यादा बिजली खर्च हो रही है। जिन जल क्षेत्रों में पानी का अत्याधिक दोहन हो चुका है, वहां पानी खींचने के खर्च में 1000 करोड़ रूपये का इजाफा हुआ है।
अकेले मध्यप्रदेश में प्रतिवर्ष खोदे जा रहे कुओं और नलकूपों पर विचार करें तो आंकड़े देखने पर पता चलता है कुंओं और नलकूपों के जरिए धरती से जल दोहन के सिलसिले में जैसे क्रांति आई हुई है। ये खनन सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही मोर्चों पर युद्धस्तर पर हो रहे हैं। प्रदेश के 45 जिलों में हरेक साल लगभग दो लाख 80 हजार कुएँ और 20 हजार नलकूपों का खनन किया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक इस खनन में प्रदेश के सहकारी बैंकों का करीब एक हजार करोड़ और प्रदेश भर में शाखाऐं खोले बैठे राष्ट्रीयकृत बैंकों का करीब नौ सो करोड़ रूपया लगा हुआ है। इस धनराशि में वह राशि शामिल नहीं है जो 1990 से 93 के बीच प्रदेश में ऋण मुक्ति अभियान के अंतर्गत माफ कर दी गई थी। इसके अलावा निजी स्तर पर करोड़ों रूपये नलकूप खनन में लगाए जा रहे हैं। बिखरे हुए उद्योगों के रूप में मौजूद यह खनन क्रांति बतौर एक जज्बाती जुनून की तरह परवान चढ़ती चली जा रही है। इस क्रांति के परिणाम समष्टिगत लाभ की दृष्टि से उतने लाभकारी नहीं रहे, जिस अनुपात में खनन क्रांति से जलस्तर घटा है और जल प्रदूषण की संभावनाएं बढ़ी हैं।
नलकूपों के बड़ी मात्रा में खनन से कुओं के जलस्तर पर जबर्दस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कुओं की हालत यह है कि 75 प्रतिशत कुएं हर साल दिसम्बर माह में, 10 प्रतिशत जनवरी में और 10 प्रतिशत अप्रैल माह में सूख जाते हैं। पूरे प्रदेश में केवल दो प्रतिशत ऐसे कुएं हैं, जिनमें बरसात के पहले तक पानी रहता है। ग्राम सिंहनिवास (शिवपुरी) के कृषक बुद्धाराम कहते हैं इस इलाके में जबसे ट्यूबवैल बड़ी मात्रा में लगे हैं तबसे कुओं का पानी जल्दी सूखने लगा है। शिवपुरी जिला पंचायत के पूर्व अध्यक्ष रामसिंह यादव का कहना है, ‘एक ट्यूबवैल 5 से 10 कुओं का पानी सोख लेता है।' जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् भी अब मानने लगे हैं कि जल स्तर को नष्ट करने और जलधाराओं की गति अवरूद्ध करने में नलकूपों की मुख्य भूमिका रही है। नलकूपों के खनन में तेजी आने से पहले तक कुओं में लबालब पानी रहता था, लेकिन सफल नलकूपों की पूरी एक श्रृंखला तैयार होने के बाद कुंए समय से पहले सूखने लगे।
भूमि संरक्षण विभाग के अधिकारियों का इस सिलसिले में कहना है कि भूमि में 210 से लेकर 330 फीट तक छेद (बोर) कर दिए जाने से धरती की परतों में बह रही जलधाराएँ नीचे चली गइर्ं। इससे जलस्तर भी नीचे चला गया और ज्यादातर कुएं समय से पूर्व ही सूखने लगे। नलकूपों का खनन करने वाली रिग्ग और गेज मशीनों के चलने में धरती की परतों का बहुत बड़ा क्षेत्र प्रकंपित होता है। इससे अविरल बह रही जलधाराओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और जलधाराओं की पूरी संरचना अस्त-व्यस्त होकर बिखर गई जो जलस्तर स्थिर बनाये रखने में सहायक रहती थी। अब हालात इतने बदतर हो गये हैं कि ये मशीनें जलस्तर तीन सौ से आठ सौ फीट तक और आठ इंच तक का चौड़ा छेद करती हैं। लिहाजा यह तो निश्चित है कि ये मशीनें जलस्तर की समस्या बढ़ाएंगी ही जल प्रदूषण की समस्या भी खड़ी करेंगी, क्योंकि अधिक गहराई से निकाले गए जल में अनेक प्रकार के खनिज व लवण घुले होते हैं और जल की सतह पर जहरीली गैसें छा जाती हैं, जो अनेक रोगों को जन्म देती हैं। ये गैसें गहरे कुओं के लिए और भी घातक होती हैं।
भिण्ड जिले के कुओं में हर साल जहरीली गैसों का रिसाव होता है। पिछले 10 साल के भीतर यहां दो सैकड़ा से ज्यादा लोग जहरीली गैसों की गिरफ्त में आकर प्राण गँवा चुके हैं। भिण्ड जिले के ग्रामों में कुएं 75 से 125 फीट तक गहरे हैं। पानी खींचने के लिए पानी की मोटरें लगी हुई हैं। जब कभी मोटर खराब हो जाती है तो किसान को खराबी देखने के लिए कुओं में उतरना होता है और अनजाने में ही किसान जल की सतह पर निकलकर फैली गैस की चपेट में आकर बेहोश होकर प्राण गंवा देता है।
कृषि वैज्ञानिकों और अधिकारियों का इस सिलसिले में कहना है कि कुएं में जहरीली गैसों से मौतें इसलिए होती हैं क्योंकि गहरे कुओं में कार्बनडाई-ऑक्साईड, कार्बन मोनोक्साइड और मीथेन गैसें होती हैं। नतीजतन कुंओें में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। कुओं में ऑक्सीजन की कमी की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि कुओं के भीतर जो भी मौतें हुईं, उन मृतकों के मुंह खुले और त्वचा का रंग नीला पाया गया। जहरीली गैसें निकलने का प्रमुख कारण जल स्तर लगातार गिरते जाना है। ये घटनाएं इस बात की भी चेतावनी हैं कि जल स्तर इसी तरह नीचे गिरता रहा और कुओं का गहरीकरण होता रहा तो जहरीली गैसों का और ज्यादा रिसाव हो सकता है। कृषि वैज्ञानिक कुओं में जहरीली गैस का पता लगाने के लिए उपाय सुझाते हैं कि जब भी गहरे कुओं में उतरना हो तो पहले कुओं में जलती हुई लालटेन रस्सी में बांधकर पानी की सतह तक उतारें। यदि लालटेन बुझ जाती है तो समझिए कुए में जहरीली गैसें हैं।
कठोर चट्टानों की जटिल संरचना वाले मध्यप्रदेश में भू-जल संर्वद्धन की अवधारणा इसकी विविधता के कारण विशिष्ट पहचान रखती है। उत्त्ार भारत में हिमालय से निकलने वाली नदियों के तंत्र के विपरीत प्रदेश की सभी छोटी-बड़ी नदियां भू-जल से जलमग्न एवं प्रवाहित रहती हैं। प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा लावा निर्मित बेसाल्ट चट्टानों से निर्मित है। जिसका सकल क्षेत्रफल 1․43 लाख वर्ग किलोमीटर है, जो प्रदेश के क्षेत्रफल का करीब एक तिहाई है। भू-जल की उपलब्धि, भू-स्तर के नीचे पाये जाने वाले जल भण्डारों के गुणों की असमानता पर निर्भर होती है। भू-जल उपलब्धि की समस्या झाबुआ जैसे जिलों में, जहां वर्षा का औसत 80 सेंटीमीटर से कम है, वर्षा की कमी के कारण और जटिल हो जाती है। वर्षाऋतु में बहने वाले पानी के उपयुक्त संरक्षण द्वारा भू-स्तर के नीचे जो जल भण्डार रीत गए हैं। उनकी जल आपूर्ति की जा सकती है। स्थानीय परिस्थियों में स्थान भेद के कारण होने वाले अंतर के बावजूद मोटे तौर पर बेसाल्टी चट्टानों में 90 फीट गहराई तक उपलब्ध जल भण्डारों का जल पीने योग्य है, परन्तु गहरे नलकूप जिनका छिद्रण 500 फीट के करीब है, ऐसे नलकूपों में खारे पानी की मात्रा ज्यादा है। इस कारण पानी की शुद्धता के लिए भू-स्तर के नीचे उपलब्ध रीते जल भण्डारों को वर्षा जल से भरकर पुनर्जीवित किया जाना जरूरी है।
अंधाधुंध नलकूपों के गहरीकरण पर तत्काल नियंत्रण लगाकर इसके वैकल्पिक उपाय नहीं तलाशे गए तो कालांतर में जबर्दस्त संकट जल की कमी और जल प्रदूषण का होगा। इस समस्या के निराकरण के सार्थक उपाय बड़ी मात्रा में पारंपरिक जलग्रहण के भण्डार तैयार करना है। पारंपरिक मानते हुये जलग्रहण की इन तकनीकों की हमने पिछले चौसठ सालों में घोर उपेक्षा की है, नतीजतन आज हम जल समस्या से जूझ रहे हैं, जबकि इन्हीं तकनीकों के जरिए स्थानीय मिट्टी और पत्थर से पद्मश्री और पद्मविभूषण से सम्मानित अण्णा हजारे की अगुआई में महाराष्ट्र के गांव रालेगन सिद्धि में जो जल भण्डार तैयार किए गए हैं, उनके निष्कर्ष समाज के सर्वांगीण विकास, समृद्धि और रोजगार के इतने ठोस आधार बने हैं कि वे जल संग्रहण की अभियांत्रिकी तकनीक (वाटर रिर्सोसेज इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी) और रोजगारमूलक सरकारी कार्यक्रमों के लिए जबर्दस्त चुनौती साबित हुये हैं।
अण्णा हजारे द्वारा ईजाद किए कुशल जल प्रबंधन पर्यावरण की एक साथ तीन समस्याओं का निदान खोजने में भी सहायक हैं। इस तकनीक से भूगर्भीय जलस्तर बढ़ा है। भू-क्षरण रूका है और बड़े बांधों के जल रिसाव से खेती के लिए उपयोगी जो हजारों बीघा जमीन दलदल बन जाती है, उसकी कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसी तकनीक इजाद करने में हमारे वैज्ञानिक और इंजीनियर नाकाम रहे हैं। जल संग्रहण की इन तकनीकों की एक खासियत यह भी है कि इनकी संरचना के निर्माण में किसी भी सामग्री को बाहर से लाने की जरूरत नहीं पड़ती है। स्थानीय मिट्टी, पानी और पत्थर से ही जल संग्रह की ये सफल तकनीकें तैयार होती हैं। यदि इन तकनीकों का गंभीरता से अनुसरण नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल समस्या से कोई अन्य तकनीक नहीं उभार सकती ?
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
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