लोक जीवन की लय को स्पंदित और अभिव्यक्त करती शैलेन्द्र चौहान की नई किताब ‘पांव जमीन पर’ एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति है। कवि कथाकार शैलेन्द्र का ल...
लोक जीवन की लय को स्पंदित और अभिव्यक्त करती शैलेन्द्र चौहान की नई किताब ‘पांव जमीन पर’ एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति है। कवि कथाकार शैलेन्द्र का लेखन एक सचेत सामाजिक कर्म है। उनका चिन्तन प्रतिबद्धता का चिन्तन है। वह जन प्रतिबद्ध लेखक हैं। विवेच्य पुस्तक में शैलेन्द्र चौहान ने भारतीय ग्राम्य जीवन की जो बहुरंगी तस्वीर उकेरी है उसमें एक गहरी ईमानदारी है और अनुभूति की आंच पर पकी संवेदनशीलता है। ग्राम्य जीवन के जीवट, सुख-दु:ख, हास-परिहास, वैमनस्य, खान-पान, बोली-बानी, रहन-सहन आदि को बहुत जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है। यह सब मिलकर पाठक के समक्ष सजीव चित्र की सृष्टि करते हैं और चाक्षुष आनंद देते हैं। लोक जीवन का उत्सव इनमें कदम-कदम पर झलकता है।
पीपलखेड़ा गाँव के पोस्टमास्टर ‘बड़े भैया’ हों, कोठीचार के पूरण काका, रघुवंशी जी, तोमर माट साब हों या क्रूर बजरंग सिंह या गाँव में आया साधु हो - सबका सजीव चित्रण हुआ है। नदी, झरने, जंगल, तालाब, पहाड़, गाँव के गैल - गलियारे, पशु-पक्षी, खेत किसान और फसलें हों, मंडी बामोरा का हायर सेकेंडरी स्कूल, सहपाठी, शिक्षक और वहां का परिवेश हो, विदिशा का बहुविध वर्णन हो, शैलेन्द्र ने पूरी ईमानदारी और इन्वोल्वमेंट के साथ इन्हें सृजा है। शैलेन्द्र के स्वयं अपने गाँव के लोग, परिजन, सम्बन्धी, मित्र और परिचित, गढ़े-गढ़ाये चरित्र न होकर जीते-जागते एवं गतिशील चरित्र हैं। ‘पांव जमीन पर’ जिस अंदाज में लिखी गई रिपोर्ताज कथाएं है वे हिन्दी साहित्य में विरल हैं - जनमुखी होने के साथ-साथ।
प्रस्तावना के रूप में कथाकार उदय प्रकाश कहते हैं- शैलेंद्र के लिए लोकजीवन किसी सेमिनार या किताब के जरिये सीखा गया शब्द नहीं है। लोकधर्मिता अपने बचपन के साथ उसकी शिराओं में बहने वाली एक अदृश्य नदी का नाम है। ऐसा बचपन जिसमें चॉकलेट और मल्टीप्लेक्स नहीं हैं, वीडियोगेम, मोबाइल और साइबर कैफे नहीं हैं, टाई, जूते, रंगीन बैग, टिफिन और स्कूल बसेज़ नहीं हैं। वहाँ एक प्रायमरी पाठशाला है, कच्ची-पक्की पहली कक्षा है, जिसमें एक चकित-सा बेहद संवेदनशील बच्चा है, जो अपनी काठ की पट्टी को घोंटना और चमकाना सीख गया है, जो बर्रू से वर्णमाला लिखना सीख रहा है। घर के ओसार या स्कूल के आसपास किसी पेड़ के नीचे सबसे अलग बैठा हुआ ब्लेड से कलम की नोक छील रहा है। जितनी अच्छी कलम की नोक होगी, अक्षर और शब्द उतने ही सुंदर बनेंगे।
स्वयं शैलेन्द्र इन रिपोर्ताज के बारे में बताते हैं - एक गाँव से दूसरा गाँव, एक स्कूल से दूसरा स्कूल, वहां की भौगोलिक स्थितियां, वेश-भूषा, परिवेश और वे लोग जिन्होंने मुझे सहज ज्ञान से परिचित कराया, आत्मीय, परिजन, सम्बन्धी, गुरुजन,सहपाठी, और शुभचिंतकों की लम्बी फेहरिस्त रही है, जिनसे मेरे व्यक्तित्व में कुछ न कुछ समृद्ध हुआ है।
प्रेमचंद का ग्रामीण किसान कुलीन जमींदारों के अन्यायों, सूदखोर व्यापारियों के शोषण, सत्ता के निचले पायदान पर बैठे कर्मचारियों के दबावों और दमन के बावजूद आत्महत्या नहीं करता था। वह आखिरी दम तक हिम्मत न हारकर संघर्षपूर्ण स्थितियों कि चुनौती स्वीकारता था और जब व जैसे हो संभव प्रतिरोध भी करता था फिर उसकी चाहे कितनी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। गाँव अब पहले जैसे नहीं रह गए हैं वहां नगरों, महानगरों जैसा विकास चाहे न पहुंचा हो उनकी वे विसंगतियां जरुर पहुँच गईं हैं जिन्होंने उनके जीवन को अब उतना सरस, आत्मीय और जिंदादिल नहीं रहने दिया है जितना पहले वह थे। खुली अर्थ व्यवस्था वाले भूमंडलीकरण ने तो गांवों के अस्तित्व को ही नकार दिया है, किसानों और खेतिहर मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर कर दिया है। विकास के नाम पर जब चाहे उन्हें उजाड़ा जा सकता है वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाया जा सकता है। उनके जीवन स्तर को बढ़ाने व सुधारने की बात एक मरीचिका भर बन गई है गुजिश्ता एक दशक से किसानों में बढती आत्महत्या की प्रवृत्ति ने उन्हें और गांव को एक बार फिर आर्थिक, सामाजिक समस्या के केंद्र में ला दिया है। बावजूद इसके वह हमारे साहित्य में मुकम्मल तरीके से प्रतिबिंबित नहीं हुआ है, बल्कि इधर के कथा साहित्य से गांव धीरे-धीरे कम होता चला गया है। उन कथाकारों में से हैं जिनके कथा साहित्य में गांव बार-बार आया है। गरीबों, पिछड़े वर्ग के लोगों, दलितों और छोटे व मझोले किसानों पर इतना प्रमाणिक वर्णन फिलहाल अन्यत्र नहीं मिलेगा जितना कि यहाँ है। खेतिहर किसान की समस्यायें और उनके सुख-दु:ख, राग-द्वेष पूरी प्रामाणिकता के साथ उभर कर सामने आए हैं। दरअसल गांव-किसान से उनके लगाव की अहम् वजह अपनी मिट्टी से गहरा रिश्ता है जो उन्हें आज भी बांधे रखता है।
मैं आज भी मानता हूँ कि असली भारत गांव में ही है। बावजूद इसके कि आज गांव लगभग पूरी तरह से टूट चुका है उसका एक बडा हिस्सा महानगरों से जुड़ गया है। अगर आज की कहानी में गांव कम हुआ है तो उसका एक कारण शहरीकरण है। हालांकि आठवें दशक के पश्चात की कहानी में गांव जरूर था लेकिन उस सीमा तक किसान वहां नहीं था। आजादी के बाद गांव का बहुत तेजी से विखण्डन हुआ था, परिणामस्वरूप जिस वर्ग ने गांव से तेजी से पलायन किया उसमें सीमांत किसान और कृषि आधारित कुटीर उद्योगों से जुडे लोग ज्यादा मात्रा में थे। इसलिए किसान की अपेक्षा उस वर्ग पर कहानी में ज्यादा फोकस हुआ। दूसरा कारण यह है कि किसान की समस्यायें स्वयं उसके द्वारा पैदा की हुई समस्यायें नहीं थीं। वे साहूकार ने पैदा की थीं, राजनीति ने पैदा की थीं या अधिकारी वर्ग ने पैदा की थीं लिहाजा कहानियां, किसान के नाम से नहीं, बल्कि एक बड़े कैनवास गांव के आदमी के नाम से लिखी गई। उनका एक कहानी संग्रह नहीं यह कोई कहानी नहीं सन १९९६ में प्रकाशित हुआ था जिसकी कुछ कहानियां इस पुस्तक कि पूर्वपीठिका थीं यथा दादी, मोहरे और उसका लौट आना. उस संग्रह में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर एक बेमिसाल कहानी थी 'भूमिका', अब तक ऐसी कहानी कहीं अन्यत्र नहीं देखने में आई है।
शैलेन्द्र ग्राम जीवन के चितेरे रचनाकार हैं। हिन्दुस्तान की सामाजिक संस्कृति की हिमायत, जायज हकों की लडाई और सकारात्मक जीवन मूल्यों के प्रति निरंतर संघर्ष, उनकी रचनाओं की विशेषता है। वे प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, अमरकांत, मार्कण्डेय, शैलेश मटियानी, पुन्नी सिंह, जगदीश चन्द्र की तरह आंचलिक परिवेश के रचनाकार हैं। अपने कथा साहित्य में स्थानीय बोली के प्रयोग पर जोर देते हुए वे कहते हैं, यद्यपि ऐसा माना जाता है कि आदमी का शोषण, उत्पीडन, दारिद्र, अभाव, अशिक्षा, बेरोजगारी इत्यादि सभी जगह पर एक जैसे हैं, लेकिन मेरा मानना है कि एक जैसे होते हुए भी इनमें बहुत बारीक अंतर भी है और यदि उस बारीकी को हम सफलतापूर्वक पकड़ना चाहें तो हमारे पास लोक बोलियों से शक्तिशाली अन्य कोई औजार नहीं है। मूलधारा से अलग दूरदराज स्थान पर रहकर जीवन व्यतीत करने वाले आदमी की पीडा को अभिव्यक्त करने वाले शब्द खड़ी बोली के पास नहीं हैं और अगर हैं भी तो वे किसी बोली से ही आए होंगे। जिस परिवेश में आदमी रहता है उसी के अनुरूप आदमी की पीडा को उसी के शब्दों में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।
जाहिर है ये रिपोर्ताज न तो कोरे दृश्यचित्रण हैं न मात्र संस्मरण। इनमें भारतीय ग्राम्य परिवेश, कई-कई आयामों में, ईमानदारी और सजगता से बहुविध सृजित एवं दृष्टव्य है। ग्रामीण भाग की आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थितियां, संरचना, मानसिक बुनावट, श्रम और संस्कृत जिस सहजता से शैलेन्द्र ने उकेरे हैं वह समसामयिक हिंदी साहित्य में अद्वितीय है।
निश्चित रूप से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के लिए रचनाकार साधुवाद का पात्र है। सोने पर सुहागा यह कि पुस्तक की छपाई एवं गेट अप अत्यंत सुन्दर और मनमोहक है।
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कथा रिपोर्ताज : पांव जमीन पर / शैलेन्द्र चौहान, मूल्य - रुपये 80/- प्रकाशन वर्ष - 2010
प्रकाशन : बोधि प्रकाशन, एफ-77, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर - 302006
-प्रो. मोहन सपरा, E.G.1083, Gobindgarh, SD College Rd. Jalandhar (Punjab), M-
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