प्रे मचन्द सृजन पीठ, उज्जैन के माननीय निदेशक श्री जगदीश तोमर के कुशल निर्देशन में तथा प्रख्यात साहित्यकार एवं आलोचक श्री बी. एल. आच्छा के अत...
प्रेमचन्द सृजन पीठ, उज्जैन के माननीय निदेशक श्री जगदीश तोमर के कुशल निर्देशन में तथा प्रख्यात साहित्यकार एवं आलोचक श्री बी. एल. आच्छा के अतिथि संपादन में एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय कार्य हुआ है जिसका प्रतिफ़ल, लघुकथाओं पर केन्द्रित 242 पृष्ठों का विशेषांक “संवाद-सृजन” के रुप में ढलकर आपके-हमारे सामने आया है. देश के ख्यातनाम तथा उदीयमान रचनाकारों का संयोजन एक ऐसे केनवास की संरचना करता है,जिसमें हम पूरे भारतवर्ष के दिग्दर्शन कर सकते हैं. ऐसा कहा गया है कि “बेहतर जिन्दगी के सपनों और संकल्पों से जुड़ा सृजनकर्म और विचार की दुनियां, आने वाले समय का नक्शा तैयार करती है.”. श्री जगदीश जी ने संकल्प लिया और एक सपना देखा कि लघुकथाओं के रुप में एक वृहद संरचना सामने आए और श्री आच्छाजी ने उस सपनों में अद्भुत रंग भरे और एक साकार रुप में जो परिणति आयी, वह निश्चित ही आने वाले समय का नक्शा तैयार करने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करेगा. साहित्य की दुनिया में इस नये-नवेले “विशेषांक” का पुरजोर स्वागत किया जाना चाहिए. समय और समाज की नब्ज टटोलती लघुकथाओं में --घर-परिवार, रिश्ते-नाते, पैसों का अभाव, अनिश्चितताएं, अपूर्णताएं, अनिर्णय, दुनियादारी की जरुरतें, साहस, विफलताएं, स्वप्न, प्रेम, आत्मग्लानियां, हताशाएं, छिपे हुए संकल्प, दैनिक जीवन के दवाबों की प्रत्यक्षतता, उसकी छायाएं,, दुनिया की एब्सर्डिटी के पार जाने की छटपटाहट, कभी गीला तो कभी सांवला दुख, तो कभी जटिल रुपक को साथ लेकर चलती लघुकथाएं ,पाठक को न जाने किन-किन भूलभुलैया की अंधी, तो कभी उजली सुरंग में ले जाती है.
सत्ता और ताकत की दुनिया की बर्बरता, प्रकृति, राजनीतिक संस्थाओं के समक्ष साधारण मनुष्य की नियति, सर्वसत्तावाद, प्रचार आधारित सच के खोखलेपन और मूल्य विश्रृंखलित दुनिया को नयी तथा पुरानी पीढी के रचनाकारों ने देखा-भोगा और उन्हें कागज पर उतारने का उपक्रम किया है. उनकी भाषा की आन्तरिक तहों में एक खास किस्म की विकलताएं भी कहीं-कहीं देखने को मिलती है. कई रचनाएं बाहरी और भीतरी द्वंद्वों को उजागर करती अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं. ऐसी एक नहीं, अनेकों मौलिक उद्भावनाएं हैं जो स्थितियों को नए सिरे से देखने का निमंत्रण भी देती हैं.
विशेषांक में प्रेमचन्दजी की मात्र एक लघुकथा”देवी”का प्रकाशन किया गया है. मेरे मतानुसार कम से कम पांच लघुकथाएं यहां दी जानी चाहिए थी. उनकी लघुकथाओं में --राष्ट्र का सेवक, बंद दरवाजा, बाबाजी का भोग, कशमीरी सेव, दूसरी शादी, जादू, शादी की वजह, गमी, गुरुमंत्र, यह भी नशा,वह भी नशा आदि-आदि. इस आग्रह के पीछे मेरा अपना मंतव्य है. प्रेमचंद जयंती के अवसर पर एक कार्यक्रम में मुझे भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ. सारे वक्ताओं ने प्रेमचन्दजी के सभी पहलुओं पर विस्तार से चर्चाएं कीं, लेकिन उनके लघुकथाकार रुप के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला गया. यह एक स्वर्णिम अवसर था (प्रकाशन का) जिसमें उनकी एक नहीं, कम से कम पांच रचनाओं को प्रकाशित किया जाना चाहिए था. इसे केवल अनुरोध समझा जाए,क्योंकि संपादक का अपना क्षेत्र और सीमाएं होती है, उसमें अतिक्रमण करने का मेरा कोई हक नहीं बनता. संग्रह के अंत में लघुकथा संग्रहों की सूची दी गई है,जो अब तक प्रकाशित हुए हैं. यह एक सार्थक पहल है. इससे पाठकों के ज्ञान में अभिवृद्धि ही होगी.
मेरी अपनी जानकारी के अनुसार डा. भारती खुबालकर (बिलासपुर) ने “बदले हुए शब्द”:श्री पवन शर्मा (जुन्नारदेव-छिन्दवाडा) का “ “जंग लगी कीलें”का प्रकाशन हुआ है. इन महानुभावों के नाम यथासमय सूची में दर्ज किए जाने चाहिए..इसके अलावा और भी रचनाकारों की कृतियों को स्थान दिया जाना चाहिए, जिन्होंने लघुकथा संग्रह प्रकाशित करवाए हैं. इसी क्रम में “अविराम”(त्रै) के संपादक डा. महादोषी तथा रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, “शोध –दिशा” (त्रै.) के संपादक डा. श्री गिरिराजशरण अग्रवाल, ने लघुकथा विशेषांक प्रकाशित किए हैं. इसी तरह “सरस्वती सुमन” के संपादक कुंवर विक्रमादित्य सिंह, प्रधान संपादक आनन्द सुमन सिंह ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय योगदान देते हुए ,श्री कृष्णकुमार यादव (आई.पी.एस.) निदेशक डाक सेवाएं को अतिथि संपादक का गुरुतर प्रभार सौंपते हुए एक लघुकथा विशेषांक का प्रकाशन किया है, जो काफ़ी लोकप्रिय तथा चर्चित हुआ और उस पर अनेकों समीक्षकों ने समीक्षाएं लिखीं. आज इंटरनेट का जमाना है. कई ई-पत्रिकाएं भी लघुकथा के प्रचार एवं प्रसार में अहम भूमिका का निर्वहन कर रही है,उन्हें भी स्थान दिया जाना चाहिए. यह शिकायत नहीं, वरन सुझाव भी है कि भविष्य में जो भी विशेषांक प्रकाशित हों, उनमें इन्हें जोड़ने का उपक्रम किया जाना चाहिए.
अंत में मैं यह कामना करता हूँ कि यह लघुकथा संग्रह सामान्यजन को प्रगतिशील जीवन मूल्यों के प्रति सचेत तो करेगा ही, साथ ही उन तमाम पाखंडों को भी उद्घाटित करेगा, जो रोड़ा बन कर मार्ग अवरुद्ध करने का प्रयास करते हैं. मेरी समझ में साहित्य ही वह माध्यम है,जो सामान्यजन को सामाजिक और राजनैतिक समझदारी देने और सड़ी-गली जीवन-व्यवस्था को नष्ट कर एक नयी समाज-रचना का संकल्प दिलाता है.
पुनः प्रेमचन्द सृजन पीठ के निदेशक श्री जगदीश तोमरजी और श्री बी. एल. आच्छाजी को साहित्यिक बिरादरी की ओर से साधुवाद-धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ,जिनके अथक परिश्रम से यह विशेषांक प्रकाशित हुआ है. साथ ही मुद्रक “ग्राफ़िक्स पार्क”: को भी जिसने त्रुटिहीन शब्द संयोजन कर इसे अद्वितीय बना दिया है.
समीक्षक : गोवर्धन यादव (संयोजक राष्ट्रभाषा प्रचार समिति) १०३,,कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.) 480001
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