हिन्दी दिवस पर हिन्दी के सम्बन्घ में कुछ विचारः प्रोफेसर महावीर सरन जैन स्वा धीनता के लिए जब-जब आन्दोलन तीव्र हुआ, तब-तब हिन्दी की ...
हिन्दी दिवस पर हिन्दी के सम्बन्घ में कुछ विचारः
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
स्वाधीनता के लिए जब-जब आन्दोलन तीव्र हुआ, तब-तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तीव्र गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बन गई। हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता उन नेताओं के कारण प्राप्त हुई जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी।
स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600-700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही हैं; यह संतों ,फकीरों ,व्यापारियों ,तीर्थ यात्रियों ,सैनिकों द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।
जब संविधान सभा ने देश की राजभाषा के सम्बन्ध में विचार किया तब तक राष्ट्रीय चेतना की धारा का प्रवाह इतना तेज था जिसके कारण उसने एकमतेन हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया । संविधान सभा के सदस्यों में हिन्दी भाषा को लेकर कभी विवाद नहीं हुआ। विवाद का मुद्दा यह था कि राजभाषा का स्वरूप क्या हो।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सत्ताधीशों ने सामान्य जन से अपनी दूरी दिखाने तथा सामान्य जन को अपनी प्रभुता दिखाने के लिए सामान्य जन की भाषा को प्रशासन एवं शिक्षण की भाषा नहीं बनने दिया। तर्क दिया गया - हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का अभाव है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग का गठन कर दिया गया। काम सौंप दिया गया - शब्द बनाओ, शब्द गढ़ो।
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का समापन करते हुए मैंने यह मत व्यक्त किया था कि 19वीं शताब्दी फ्रें चभाषा की थी, 20 वीं शताब्दी अंग्रेजी भाषा की थी तथा 21 वीं शताब्दी हिन्दी की होगी। इस मत की स्थापना के कारणों में मैंने निम्नलिखित कारणों की विवेचना की थी - भाषा बोलने वालों की संख्या, भाषा व्यवहार क्षेत्र का विस्तार, हिन्दी भाषा एवं लिपि व्यवस्था की संरचनात्मक विशेषताएंँ, भविष्य में कम्प्यूटर के क्षेत्र में 'टैक्स्ट टू स्पीच' तथा 'स्पीच टू टैक्स्ट' तकनीक का विकास, भारतीय मूल के आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीयों की संख्या, श्रमशक्ति, मानसिक प्रतिभा में निरन्तर अभिवृद्धि।
संसार के विभिन्न देशों में हिन्दी का व्यवहार एवं अध्ययन, अध्यापन एवं अनुसंधान का प्रसार निरंतर बढ़ रहा है तथा भारत के हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी की स्वीकार्यता की मानसिकता में वृदि्ध एवं हिन्दी सीखने के रुझान में अभिवृदि्ध हो रही है। मगर आज के दिन इससे बहुत उल्लसित होने की जरूरत नहीं है। इसका कारण यह है कि कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं। हिन्दी के प्रेमीजनों एवं शुभचिंतकों को इस दृष्टि से सजग, सावधान एवं सचेष्ट होने की जरूरत है। हिन्दी के अपने घर को पहचानने एवं हिन्दी को तोड़ने वालों को तार्किक एवं सशक्त जबाब देने की जरूरत है।
‘हिन्दी भाषा क्षेत्र' के अन्तर्गत भारत के निम्नलिखित राज्य ध् केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं - 1 ़उत्तर प्रदेश 2 ़उत्तराखंड 3 ़ बिहार 4 ़ झारखंड 5 ़मध्यप्रदेश 6 ़ छत्तीसगढ़ 7. राजस्थान 8. हिमाचल प्रदेश 9. हरियाणा 10. दिल्ली 11. चण्डीगढ़।
भारत के संविधान की दृष्टि से भी यही स्थिति है।‘ हिन्दी भाषा क्षेत्र ' में हिन्दी भाषा के जो प्रमुख क्षेत्रगत रूप बोले जाते हैं उनकी संख्या 20 है। भाषाविज्ञान का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि प्रत्येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्नताएँ होती हैं। किसी ऐसी भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती जो जिस ‘भाषा क्षेत्र' में बोली जाती है उसमें किसी प्रकार की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। भिन्नत्व की दृष्टि से तो किसी भाषा क्षेत्र में जितने बोलने वाले व्यक्ति रहते हैं उस भाषा की उतनी ही ‘व्यक्ति बोलियाँ' होती हैं। इसी कारण यह कहा जाता है कि भाषा की संरचक ‘बोलियाँ' होती हैं तथा बोलियों की संरचक ‘व्यक्ति बोलियाँ'। इसी को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ‘व्यक्ति बोलियों' के समूह को ‘बोली' तथा ‘बोलियों' के समूह को भाषा कहते हैं। बोलियों की समष्टि का नाम ही भाषा है। किसी भाषा की बोलियों से इतर व्यवहार में सामान्य व्यक्ति भाषा के जिस रूप को ‘भाषा' के नाम से अभिहित करते हैं वह तत्वतः भाषा नहीं होती। भाषा का यह रूप उस भाषा क्षेत्र के किसी बोली ध् बोलियों के आधार पर विकसित उस भाषा का ‘मानक भाषा रूप'/'व्यावहारिक भाषा रूप' होता है। भाषा विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति इसी को ‘भाषा' कहने लगते हैं तथा ‘भाषा क्षेत्र' की बोलियों को अविकसित, हीन एवं गँवारू कहने, मानने एवं समझने लगते हैं। भारतीय भाषिक परम्परा इस दृष्टि से अधिक वैज्ञानिक रही है। भारतीय परम्परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को ‘देस भाखाध् देसी भाषा' के नाम से पुकारा तथा घोषणा की कि देसी वचन सबको मीठे लगते हैं - ‘ देसिल बअना सब जन मिट्ठा '। ( विश्ोष अध्ययन के लिए देखें - प्रोफेसर महावीर सरन जैन ः भाषा एवं भाषा विज्ञान, अध्याय 4 - भाषा के विविधरूप एवं प्रकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1985 ) हिन्दी भाषा क्षेत्र में हिन्दी की मुख्यतः 20 बोलियांँ अथवा उपभाषाएँं बोली जाती हैं। इन 20 बोलियों अथवा उपभाषाओं को ऐतिहासिक परम्परा से पाँच वर्गों में विभक्त किया जाता है - पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाड़ी हिन्दी।
1 ़ पश्चिमी हिन्दी - 1 ़खड़ी बोली 2 ़ ब्रजभाषा 3 ़ हरियाणवी 4 ़ बुन्देली 5 ़कन्नौजी
2 ़ पूर्वी हिन्दी - 1 ़अवधी 2 ़बघेली 3 ़ छत्तीसगढ़ी
3 ़राजस्थानी - 1 ़मारवाड़ी 2 ़मेवाती 3 ़जयपुरी 4 ़मालवी
4 ़ बिहारी - 1 ़ भोजपुरी 2 ़ मैथिली 3 ़ मगही 4 ़अंगिका 5 ़बज्जिका ( इनमें ‘मैथिली' को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है हॉलाकि हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्यापति पढ़ाए जाते हैं तथा जब नेपाल मेें मैथिली आदि भाषिक रूपों के बोलने वाले मधेसी लोगों पर दमनात्मक कार्रवाई होती है तो वे अपनी पहचान ‘हिन्दी भाषी' के रूप में उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मुम्बई में रहने वाले भोजपुरी, मगही, मैथिली एवं अवधी आदि बोलने वाले अपनी पहचान ‘हिन्दी भाषी' के रूप में करते हैं। )
5 ़ पहाड़ी - डॉ ़ सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘पहाड़ी' समुदाय के अन्तर्गत बोले जाने वाले भाषिक रूपों को तीन शाखाओं में बाँटा - पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली, मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी एवं पश्चिमी पहाड़ी। हिन्दी भाषा के संदर्भ में वर्तमान स्थिति यह हेै कि हिन्दी भाषा के अन्तर्गत मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी की उत्तराखंड में बोली जाने वाली 1 ़ कूमाऊँनी 2 ़गढ़वाली तथा पश्चिमी पहाड़ी की हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्दी की अनेक बोलियाँ हैं जिन्हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।
हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्य रूप से इन्हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है किन्तु लेखक ने अपने ग्रन्थ ‘ भाषा एवं भाााविज्ञान' में इन्हें
उपभाषा मानने का प्रस्ताव किया है। ‘ - - क्षेत्र, बोलने वालों की संख्या तथा परस्पर भिन्नताओं के कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। ( भाषा एवं भाषाविज्ञान, पृष्ठ 60)
इसी ग्रन्थ में लेखक ने पाठकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि हिन्दी की कुछ उपभाषाओं के भी क्षेत्रगत भेद हैं जिन्हें उन उपभाषाओं की बोलियों अथवा उपबोलियों के नाम से पुकारा जा सकता है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्येक दो उपभाषाओं के मध्य संक्रमण क्षेत्र विद्यमान है।
विश्व की प्रत्येक भाषा के विविध बोली अथवा उपभाषा क्षेत्रों में से विभिन्न सांस्कृतिक कारणों से जब कोई एक क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है तो उस क्षेत्र के भाषा रूप का सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र में प्रसारण होने लगता है। इस क्षेत्र के भाषारूप के आधार पर पूरे भाषाक्षेत्र की ‘मानक भाषा' का विकास होना आरम्भ हो जाता है। भाषा के प्रत्येक क्षेत्र के निवासी इस भाषारूप को ‘मानक भाषा' मानने लगते हैं। इसको मानक मानने के कारण यह मानक भाषा रूप ‘भाषा क्षेत्र' के लिए सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतीक बन जाता है। मानक भाषा रूप की शब्दावली, व्याकरण एवं उच्चारण का स्वरूप अधिक निश्चित एवं स्थिर होता है एवं इसका प्रचार, प्रसार एवं विस्तार पूरे भाषा क्षेत्र में होने लगता है। कलात्मक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम एवं शिक्षा का माध्यम यही मानक भाषा रूप हो जाता है। इस प्रकार भाषा के ‘मानक भाषा रूप' का आधार उस भाषाक्षेत्र की क्षेत्रीय बोली अथवा उपभाषा ही होती है, किन्तु मानक भाषा होने के कारण चूँकि इसका प्रसार अन्य बोली क्षेत्रों अथवा उपभाषा क्षेत्रों में होता है इस कारण इस भाषारूप पर ‘भाषा क्षेत्र' की सभी बोलियों का प्रभाव पड़ता है तथा यह भी सभी बोलियों अथवा उपभाषाओं को प्रभावित करता है। उस भाषा क्षेत्र के शिक्षित व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं। भाषा के मानक भाषा रूप को सामान्य व्यक्ति अपने भाषा क्षेत्र की ‘मूल भाषा', केन्द्रक भाषा', ‘मानक भाषा' के नाम से पुकारते हैं। यदि किसी भाषा का क्षेत्र हिन्दी भाषा की तरह विस्तृत होता है तथा यदि उसमें ‘हिन्दी भाषा क्षेत्र' की भंॅांति उपभाषाओं एवं बोलियों की अनेक परतें एवं स्तर होते हैं तो ‘मानक भाषा' के द्वारा समस्त भाषा क्षेत्र में विचारों का आदान प्रदान सम्भव हो पाता है। भाषा क्षेत्र के यदि आंशिक अबोधगम्य उपभाषी अथवा बोली बोलने वाले परस्पर अपनी उपभाषा अथवा बोली के माध्यम से विचारों का समुचित आदान प्रदान नहीं कर पाते तो इसी मानक भाषा के द्वारा संप्रेषण करते हैं। भाषा विज्ञान में इस प्रकार की बोधगम्यता को ‘पारस्परिक बोधगम्यता' न कहकर ‘एकतरफ़ा बोधगम्यता' कहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने क्षेत्र के व्यक्ति से क्षेत्रीय बोली में बातें होती हैं किन्तु दूसरे उपभाषा क्षेत्र अथवा बोली क्षेत्र के व्यक्ति से अथवा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा के द्वारा बातचीत होती हैं। इस प्रकार की भाषिक स्थिति को फर्गुसन ने बोलियों की परत पर मानक भाषा का अध्यारोपण कहा है (डायग्लोसियाः वॅर्ड,15 पृष्ठ 325-340) तथा गम्पर्ज़ ने इसे ‘बाइलेक्टल' के नाम से पुकारा है। (स्पीच वेरिएशन एण्ड दः स्टडी अॉफ इंडियन सिविलाइज़ेशन, अमेरिकन एनथ्रोपोलोजिस्ट, खण्ड 63,पृष्ठ 976-988)।
हिन्दी भाषा क्षेत्र में अनेक क्षेत्रगत भेद एवं उपभेद तो है हीं; प्रत्येेक क्षेत्र के प्रायः प्रत्येक गाँव में सामाजिक भाषिक रूपों के विविध स्तरीकृत तथा जटिल स्तर विद्यमान हैं और यह हिन्दी के सामाजिक संपे्रषण की वास्वविकता है। ये हिन्दी पट्टी के अन्दर सामाजिक संप्रेषण के
विभिन्न नेटवर्कों के बीच संवाद के कारक हैं। इस हिन्दी भाषा क्षेत्र अथवा पट्टी के गावों के रहनेवालों के वाग्व्यवहारों का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि ये भाषिक स्थितियाँ इतनी विविध, विभिन्न एवं मिश्र हैं कि भाषा व्यवहार के स्केल के एक छोर पर हमें ऐसा व्यक्ति मिलता है जो केवल स्थानीय बोली बोलना जानता है तथा जिसकी बातचीत में स्थानीयेतर कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता वहीं दूसरे छोर पर हमें ऐसा व्यक्ति मिलता है जो ठेठ मानक हिन्दी का प्रयोग करता है तथा जिसकी बातचीत में कोई स्थानीय भाषिक प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। स्केल के इन दो दूरतम छोरों के बीच बोलचाल के इतने विविध रूप मिल जाते हैं कि उन सबका लेखा जोखा प्रस्तुत करना असाध्य हो जाता है। हमें ऐसे भी व्यक्ति मिल जाते हैं जो एकाधिक भाषिक रूपों में दक्ष होते हैं जिसका व्यवहार तथा चयन वे संदर्भ, व्यक्ति, परिस्थियों को ध्यान में रखकर करते हैं। सामान्य रूप से हम पाते हैं कि अपने घर के लोगों से तथा स्थानीय रोजाना मिलने जुलने वाले घनिष्ठ मित्रों से व्यक्ति जिस भाषा रूप में बातचीत करता है उससे भिन्न भाषा रूप का प्रयोग वह उनसे भिन्न व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में करता है। सामाजिक संपे्रषण के अपने प्रतिमान हैं। व्यक्ति प्रायः वाग्व्यवहारों के अवसरानुकूल प्रतिमानों को ध्यान में रखकर बातचीत करता है।
हम यह कह चुके हैं कि किसी भाषा क्षेत्र की मानक भाषा का आधार कोई बोली अथवा उपभाषा ही होती है किन्तु कालान्तर में उक्त बोली एवं मानक भाषा के स्वरूप में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र के शिष्ट एवं शिक्षित व्यक्तियों द्वारा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा का प्रयोग किए जाने के कारण तथा साहित्य का माध्यम बन जाने के कारण स्वरूपगत परिवर्तन स्वाभाविक है। प्रत्येक भाषा क्षेत्र में किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर उस भाषा का मानक रूप विकसित होता है, जिसका उस भाषा-क्षेत्र के सभी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। हम पाते हैं कि इस मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में बढ़ रहा है तथा प्रत्येक हिन्दी भाषी व्यक्ति शिक्षित, सामाजिक दृष्टि से प्रतिष्ठित तथा स्थानीय क्षेत्र से इतर अन्य क्षेत्रों के व्यक्तियों से वार्तालाप करने के लिए इसी को आदर्श, श्रेष्ठ एवं मानक मानता है। गाँव में रहने वाला एक सामान्य एवं बिना पढ़ा लिखा व्यक्ति भले ही इसका प्रयोग करने में समर्थ तथा सक्षम न हो फिर भी वह इसके प्रकार्यात्मक मूल्य को पहचानता है तथा वह भी अपने भाषिक रूप को इसके अनुरूप ढालने की जुगाड़ करता रहता है। जो मजदूर शहर में काम करने आते हैं वे किस प्रकार अपने भाषा रूप को बदलने का प्रयास करते हैं - इसको देखा परखा जा सकता है। पूरे भाषा क्षेत्र में इसका व्यवहार होने तथा इसके प्रकार्यात्मक प्रचार-प्रसार के कारण विकसित भाषा का मानक रूप भाषा क्षेत्र के समस्त भाषिक रूपों के बीच संपर्क सेतु का काम करता है तथा कभी-कभी इसी मानक भाषा रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है।
हिन्दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्नताएँ भी बहुत अधिक हैं।‘खड़ी बोली' हिन्दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है, जिस प्रकार हिन्दी भाषा के अन्य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उपभाषाएँ हैं जिनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है किन्तु ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस भाषा-भाषी क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने क्षेत्रगत भेदों को हिन्दी भाषा के रूप में मानते एवं स्वीकारते आए हैं। कुछ विद्वानों ने इस भाषा क्षेत्र को हिन्दी पट्टी के नाम से पुकारा है तथा कुछ ने इस हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासियों के लिए 'हिन्दी जाति' का अभिधान दिया है। वस्तु स्थिति यह है कि हिन्दी, चीनी एवं रूसी जैसी भाषाओं के क्षेत्रगत प्रभेदों की विवेचना यूरोप की भाषाओं के आधार पर विकसित पाश्चात्य भाषाविज्ञान के प्रतिमानों के आधार पर नहीं की जा सकती।
अपने 28 राज्यों एवं 07 केन्द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारतदेश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्यों एवं शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्दी भाषा क्षेत्र है, उस हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उनकी समाष्टि का नाम हिन्दी भाषा है। हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग में व्यक्ति स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्तर-क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग होता है। आप विचार करेेंं कि उत्तर प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्नौजी, अवधी, बुन्देली आदि भाषाओं का राज्य है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है। जब संयुक्त राज्य अमेरिका की बात करते हैं तब संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्तर्गत जितने राज्य हैं उन सबकी समष्टि का नाम ही तो संयुक्त राज्य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है, मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है ः मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्दी का विकास अवश्य हुआ है किन्तु खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है। तत्वतः हिन्दी भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्टि का नाम हिन्दी है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षडयंत्र को विफल करने की आवश्कता है तथा इस तथ्य को बलपूर्वक रेखांकित, प्रचारित एवं प्रसारित करने की आवश्यकता है कि 1991 की भारतीय जनगणना के अंतर्गत भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का जो ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या का प्रतिशत उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड राज्य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्ड राज्य सहित) में 80.86, मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ राज्य सहित) में 85.55, राजस्थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00, दिल्ली में 81.64 तथा चण्डीगढ़ में 61.06 है।
हिन्दी एक विशाल भाषा है। विशाल क्षेत्र की भाषा है। अब यह निर्विवाद है कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी संसार में दूसरे नम्बर की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, भारत सरकार)
123, हरि एन्कलेव, बुलन्द शहर - 203 001
आपका आलेख निःसन्देह हिन्दी भाषा के आबादीबहुल जनमत का नेतृत्व करता है। लेकिन प्रश्न है कि इसकी उपेक्षा के पराक्रम भी कम नहीं हो रहे हैं। आपने हिमाचल प्रदेश का भाषा के बरास्ते ग्राफ खींचा है; वाज़िब तथ्य दिए हैं; लेकिन वहां स्थित हिमाचल केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने मुझे यह कहकर निराश किया कि-‘आपकी अकादमिक योग्यता अच्छी है, आपके हिन्दी में प्रस्तुत प्रकाशित सामग्री उम्दा एवं स्तरीय हैं...लेकिन, हमें अच्छी हिन्दी नहीं अच्छी अंग्रेजी चाहिए!’ यह मुझसे तब कहा गया जब सहायक प्राध्यापक पद के साक्षात्कार हेतु बुलाए गए एक भी अंग्रेजीदान आवेदक हिन्दीभाषी विद्यार्थियों से योग्यता/स्तरीयता के मुकाबले बीस नहीं थे। काश! किसी ब्रिटिशियन या अमेरिकन पात्र ने आवेदन किया होता, तो चयनकर्ताओं को अमुक पद को पुनः विज्ञापित करने की नौबत नहीं आती। दूसरी बार इस विज्ञापित पद के सन्दर्भ में मैंने स्पष्ट शब्दों में वाइस-चांसलर प्रो. फुरकन कमर के समक्ष जिरह की भाषा में अपनी बात विस्तारपूर्वक रखा जो आपकी गूंजाइश होने पर निम्नवत प्रस्तुत है....ऐसे हमारी सुनता कौन हैः
जवाब देंहटाएंRajeev Ranjan
Thu, May 16, 2013 at 7:57 PM
To: "vc.cuhimachal"
सेवा में
कुलपति,
हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय।
महोदय, 30 अक्तूबर 2012 को मेरी मुलाकात आपसे हुई थी। मैं, राजीव रंजन
प्रसाद; आपके विश्वविद्यालय में ‘पत्रकारिता एवं सर्जनात्मक लेखन’
पाठ्यक्रम में सहायक प्राध्यापक पद पर नियुक्ति के लिए आयोजित हो रहे
साक्षात्कार-कार्यक्रम में साक्षात्कार देने हेतु उपस्थित हुआ था जिसमें
अंतिम रूप से मेरा चयन नहीं किया जा सका।
महोदय, हिन्दी भाषा आपकी प्राथमिकता में नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि आपके
विश्वविद्यालय वेबसाइट के हिन्दी संस्करण से स्पष्ट हो जाता है।(रिसर्च
मेथडोलाॅजी=शोध प्रविधि; केस विश्लेषण=वैयक्तिक विश्लेषण जैसे सामान्य
शब्दावलियों को भी आपके यहाँ अनुप्रयुक्त संचाार के अन्तर्गत शामिल नहीं
किया जाता है) आपके विश्वविद्यालय वेबसाइट के हिन्दी संस्करण की स्थिति
इतनी दयनीय है कि कोई भी हिन्दीभाषी विद्यार्थी अंग्रेजी की मुख्य
वेबसाइट से ही वांछित सूचनाएँ प्राप्त कर लेने में अपने को अधिक सहज
महसूस कर सकता है।
चूँकि मैं प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता विषय में परास्नातक
उत्तीर्ण(स्वर्ण-पदक प्राप्त) हँू तथा इसी विषय में काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय में कनिष्ठ शोध अध्येता(JRF) के रूप में वर्ष 2009 से
पंजीकृत होकर शोधकार्य कर रहा हँू। अतः हिन्दी भाषा से सहज जुड़ाव-लगाव
स्वाभाविक है जैसे आप अपनी आँख ‘प्राग स्कूल’, ‘फ्रैंकफुर्त स्कूल’,
‘शिकागो स्कूल’, ‘टोरंटो स्कूल’ इत्यादि के ज्ञान-मीमांसाओं पर टिकाते
हैं जो आपकी दृष्टि में आधुनिक ज्ञान-परम्परा में अग्रणी और अपेक्षातया
ज्यदा विश्वसनीय एवं स्वीकार्य हो सकता है।
महोदय, ‘पत्रकारिता एवं सर्जनात्मक लेखन’ में सहायक प्राध्यापक के पद के
लिए विज्ञापन पुनःप्रकाशित हुए हैं। मैं आपसे जानना चाहता हँू कि:
1. क्या मैं इस पद के लिए पात्रता रखता हूँ उस स्थिति में जब मैंने राॅबिन
जेफ्री(भारत में समाचारपत्र क्रान्ति) या रेमण्ड विलियम्स(संचार माध्यमों
का समाज-शास्त्र) जैसे संचाार-शास्त्रियों को भी सिर्फ हिन्दी में पढ़ा और
अपनी स्मृति में सुरक्षित-संरक्षित कर रखा है।
2. आई.सी.टी., इनोवेशन, कन्वर्जेन्स, सोशल मीडिया, न्यू मीडिया, इम्बेडेड
जर्नलिज़्म, पेड न्यूज़, नाॅलेज हेजेमनी, इन्टेलेक्चुअल प्राॅपटी
राइट....आदि से सम्बन्धित वस्तुपरक/वस्तुनिष्ठ जानकारियाँ और तत्सम्बन्धी
बुनियादी अवधारणाओं को समकालीन परिघटना के सन्दर्भ में पढ़ते-गुनते अवश्य
रहे हैं और इस पर सहर्ष बातचीत करने का हर आमंत्रण स्वीकार करते हैं
किन्तु अपनी भाषा हिन्दी में।
3. वैसे स्थिति में जब मैंने अभी-अभी अंग्रेंजी में अपनी गति-मति,
रुचि-अभिरुचि को तीव्र किया है...क्या आप इस सचाई से अवगत होते हुए भी
अपने यहाँ सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति के लिए पहलकदमी कर सकते
हैं।....