रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) प्रोफेसर महावीर सरन जैन रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की 51 प्रतिशत की सीमा के साथ...
रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई)
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की 51 प्रतिशत की सीमा के साथ मंजूरी प्रदान करने से नाराज तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता ने ताल ठोंककर ऐलान कर दिया कि यदि सरकार अपना फैसला वापस नहीं लेगी तो वह अपने मंत्रियों को मंत्रिमंडल से हटा लेगी तथा यूपीए से भी हट जाएगी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने सरकारी फैसले को उचित ठहराते हुए उसको वापस लिए जाने की सम्भावनाओं को खारिज कर दिया। फलितार्थ - ममता की तृणमूल तथा यूपीए का अलगाव।
वर्ष 2011 में 24 नवम्बर को केंद्रीय केबिनेट द्वारा रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मल्टी ब्राण्ड में 51 प्रतिशत तथा सिंगल ब्रांड में 100 प्रतिशत की मंजूरी दी गई थी किंतु ममता के विरोध के कारण 29 नवम्बर को सरकार को इसके क्रियान्वयन का निर्णय स्थगित करना पड़ा। 14 सितम्बर, 2012 को जब सरकार ने रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के संबंध में फैसला लिया तो उसे मालूम था कि 24 नवम्बर 2011 से 14 सितम्बर 2012 के बीच सहयोगी एवं विरोधी दलों के दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं आया है तथा इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सरकार ने यह फैसला बहुत सोच विचार के बाद लिया होगा।
रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की मानसिकता को समझना जरूरी है। वामपंथी दल अपने सैद्धांतिक दर्शन के प्रति प्रतिबद्ध होने के कारण सरकार की बाजारोन्मुखी नए आर्थिक सुधारों का कट्टर विरोध करते रहे है। उनका सरकार के इस फैसले का विरोध स्वाभाविक है। इस मुद्दे पर भाजपा के विरोध का औचित्य समझ के परे है। भाजपा हमेशा से बाजारोन्मुखी अर्थ व्यवस्था की पक्षधर तथा नए आर्थिक सुधारों की वकालत करती रही है। क्या भाजपा के विरोध का कारण केवल यह है कि वह इस मुद्दे पर लोगो की भावनाओं को सरकार के खिलाफ भड़काकर सत्ता की कुर्सी पर तत्काल काबिज होना चाहती है। मुझे लगता है कि इसका कारण यह भी है कि भारत के रिटेल व्यापारियों के अलावा अनाज एवं अन्य वस्तुओं की थोक मंडियों के साहूकारों का बहुमत भाजपा का वोटबैंक है। भाजपा के विरोध के ये प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं। ममता की तृणमूल कांग्रेस तथा कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के विरोध का प्रमुख कारण यह नजर आता है कि उनका आकलन है कि लोक सभा के लिए तत्काल चुनाव होने पर उनकी पार्टी को वर्तमान की अपेक्षा अधिक सीटें मिल जायेंगी।
वर्तमान में भारतीय अर्थ व्यवस्था काफी दबाव में है। औद्योगिक विकास की दर ठहर सी गई है। अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियाँ रेटिंग घटा रहीं है। सरकार द्वारा यह फैसला लेने के पहले विदेशी निवेशकों एवं वित्तीय संस्थानों में यह धारणा बन गई थी कि वर्तमान में सरकार लाचार है तथा निर्णय लेने में असमर्थ है। आर्थिक सुधारों का फैसला करना अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उसी प्रकार जरूरी लगता है जिस तरह रोगी को ठीक करने के लिए उसे कड़वी दवा देना।
किसान की किसी उपज को यदि उपभोक्ता दस रुपए में खरीदता है तो किसान को अपनी उस उपज का केवल दो रुपया ही मिल पाता है। उत्पादक एवं उपभोक्ता के अलावा आठ रुपए कौन चट कर जाता है। इस संदर्भ में मुझे धूमिल की कविता की निम्न पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं -
एक आदमी रोटी बेलता है। एक आदमी रोटी खाता है। एक तीसरा आदमी भी है। जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है। वह सिर्फ रोटी से खेलता है।
रोटी से खेलने वाला एक नहीं, कई होते हैं जिनके कई स्तर हैं। हरेक स्तर पर मुनाफावसूली का धंधा होता है। रिटेल व्यापार में मिलावट करना, घटिया तथा डुप्लीकेट माल देना, कम तौलना आदि शिकायतें आम हैं। हमारी अर्थ व्यवस्था में जैसी दुर्दशा किसान की है वैसी ही स्थिति अन्य कामधंधों / पेशों के कामगारों/ कारीगरों की है।
रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में सरकार द्वारा 30 प्रतिशत माल लघु उद्योगों एवं छोटे उत्पादकों से खरीदने की शर्त के कारण उनको प्रोत्साहन मिलेगा। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का 50 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के इंफ्रास्ट्रक्चर में उपयोग होने से हमारे गाँवों की हालत एवं तस्वीर बदलेगी। किसान की उपज खेत से सीधे मल्टी स्टोर में आएगी जिससे अनाज, सब्जी, फल आदि का जितना प्रतिशत भाग खराब हो जाता है, सड़ जाता है; वह खराब होने तथा सड़ने से बच जाएगा। यदि किसी नीति के लागू होने के कारण उत्पादकों को उपज का वाजिब दाम मिले तथा उपभोक्ताओं को कम दाम चुकाना पड़े तो ऐसी नीति के क्रियान्वयन से भी नुकसान होने का तर्क समझ के परे है। भारत में जो इंफ्रास्ट्रक्चर निर्मित होगा, उसे विदेशी लोग किस प्रकार भारत के बाहर ले जायेंगे - यह तर्क भी समझ के परे है।
विदेशी कंपनियों द्वारा संपूर्ण अर्थ व्यवस्था पर आधिपत्य जमाने, बाजार पर छा जाने, रिटेल का कारोबार करने वाले दुकानदारों को उजाड़ने आदि के भयावह चित्र हाल में विरोधी दलों के नेताओं के अलावा ब्रिटिश पार्लियामेंट के भारतीय मूल के मेम्बर तथा भारत के पूर्व थल सेनाध्यक्ष जैसी हस्तियों द्वारा खींचे गए हैं। इनको पढ़कर सरकारी फैसले के बारे में आम आदमी के मन में आशंका, संशय, दुविधा एवं चिंता पैदा होना स्वाभाविक है। सरकार द्वारा रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की जो शर्तें रखी गई हैं उनका गहन अध्ययन करने पर विरोध की जो दलीलें प्रस्तुत की गई हैं, वे गले के नीचे नहीं उतरतीं। सरकार द्वारा 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में ही विदेशी मल्टी स्टोर खोलने की अनुमति दी गई है। ये स्टोर उन्हीं राज्यों में खुलेंगे जहाँ की सरकारें उन्हें खोलने की अनुमति देंगी।
जिन राज्यों के 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में ये विदेशी मल्टी स्टोर खुलेंगे क्या वहाँ के रिटेल व्यापारी बेरोजगार हो जायेंगे। यह अत्यंत भावात्मक मुद्दा है और कौन ऐसा निष्ठुर एवं निर्दयी होगा जो यह स्वीकार करेगा कि देश में ऐसी व्यवस्था लागू हो जिससे रिटेल के व्यापारी बेरोजगार हो जायें। मैंने योरोप के 18 देशों तथा अमेरिका के विभिन्न शहरों के बाजारों को निकट से देखा एवं परखा है। वहाँ के हर शहर में बहुत बड़े बड़े मल्टी स्टोर स्थित हैं मगर साथ साथ हर स्ट्रीट में रिटेल व्यापारियों की छोटी दुकानें भी हैं। यह हो सकता है कि इंगलैण्ड के किसी शहर में किसी नामी गिरामी स्टोर के खुलने के कारण उस शहर के रिटेल व्यापारियों की सेहत पर प्रभाव पड़ा हो मगर हमें अपने देश के 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की स्थिति को ध्यान में रखकर इस विषय पर विचार करना चाहिए। मेरी दृष्टि में भारत में ऐसा होने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके निम्न कारण हैःं
1- संसार का कोई भी स्टोर 10 लाख ग्राहकों को नहीं संभाल सकता। यदि विदेशी स्टोरों में इतनी क्षमता होती, फिर तो मल्टी स्टोरों के भारतीय मालिकों को सरकार द्वारा फैसले की घोषणा करने का तथा उसे लागू करने का विरोध करना चाहिए था। मगर यह शीशे की तरह साफ है कि उन सबने तहे दिल से तथा एक स्वर से रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के सरकारी फैसले का स्वागत किया है तथा इसे अर्थ व्यवस्था के विकास के लिए उचित एवं कारगर कदम बताया है।
2- ये विदेशी स्टोर शहरों की वर्तमान आबादी के बीच नहीं, शहर की वर्तमान सीमा के बाहर खुलेंगे। इसका कारण यह है कि उन्हें जितना स्थान चाहिए उतना स्थान उन शहरों के बाहर ही मिलना संभव होगा।
3- उन स्टोरों में समाज के उस वर्ग के लोग ही जा सकेंगे जिस वर्ग के लोगों के पास अपनी कार होगी, वहाँ आने जाने में खर्च होने वाले पेट्रोल को भरवाने के लिए उसका मूल्य चुकाने की कूवत होगी तथा वहाँ आने जाने के लिए फालतू का समय होगा।
4- कोई भी मल्टी स्टोर हमारी गली, अड़ोस पड़ोस, स्ट्रीट, कालोनी में स्थित रिटेल अथवा खुदरा की दुकान का स्थान नहीं ले सकता। मल्टी स्टोर में हमारी कोई पहचान नहीं होती, वहाँ के किसी कर्मचारी से कोई रिश्ता नहीं होता। गली की दुकान से हमारा रिश्ता कायम हो जाता है। उसके मालिक से अपनापन हो जाता हैं। वह जो सुविधायें हमें प्रदान कर देता है, वे मल्टी स्टोर में कल्पनातीत हैं।
5- गली की दुकान में हम दिन में जितनी बार जाना चाहें, जा सकते हैं। घर बैठे समान प्राप्त करने की सुविधा भी वह प्रदान कर देता है। मल्टी स्टोर में तो स्वयं जाना ही पड़ता है तथा वहाँ जाने के लिए सौ बार सोचना पड़ता है।
अंत में, हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के सरकार के फैसले का अंध विरोध राजनैतिक लाभ उठाने के लिए नहीं होना चाहिए। इस फैसले के क्रियान्वयन से होने वाले लाभ अथवा हानि का आकलन निष्पक्ष, वैज्ञानिक, वस्तुनिष्ठ एवं तथ्यपरक होना चाहिए; हमारे विचार का फोकस देश की अर्थ व्यवस्था का विकास, देश की तरक्की एवं खुशहाली तथा उत्पादक एव उपभोक्ता का फायदा होना चाहिए। ध्यातव्य है, दल से बड़ा देश है।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
सेवा निवृत्त निदेशक, केंद्रीय हिन्दी संस्थान
123, हरि एन्कलेव, चाँदपुर रोड
बुलन्द शहर - 203001 ;
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