|| श्री कृष्णाय नम: || || श्री गोपीजन वल्लभाय नम:|| || श्रीमद आचार्यचरण कमले भ्यो नम:|| || जय श्री कृष्ण || श्रीनाथजी: जतीपुरा से श्री नाथद्...
|| श्री कृष्णाय नम: ||
|| श्री गोपीजन वल्लभाय नम:||
|| श्रीमद आचार्यचरण कमले भ्यो नम:||
|| जय श्री कृष्ण ||
श्रीनाथजी: जतीपुरा से श्री नाथद्वारा कैसे?
श्री वल्लभ, श्री विठ्ठल नाम वस्तु अति भारी. अंतरंग श्रीजी के परम भाजन अधिकारी श्री वल्लभ, श्री विठ्ठल के नाम अति रहस्यमय हैं. जो श्रीजी के अन्तरंग हैं केवल वे ही उन नामों के अधिकारी हैं.
आज हम सब श्रीनाथजी के पवित्र धाम में एकत्रित हुए हैं. प्रभु की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता. आज हम सब श्रीनाथजी के सान्निध्य में हैं यह आप की इच्छा व कृपा है. पुष्टिमार्ग में प्रभु की कृपा ही नियामक है. पुष्टि का मतलब ही कृपा है, प्रभु की कृपा के द्वारा प्रभु को पाने का मार्ग ही पुष्टिमार्ग है.
पुष्टि ही भक्तों का सर्वस्व है. निकुंज नायक श्रीनाथजी, जिन का स्वरूप आनंदमय है, रसमय है: 'रसौ वै: सह'. श्रीनाथजी पुष्टि पुरुषोत्तम परब्रह्म सदा सर्व को आनंद प्रदान करते हैं. मनुष्य में यदि कोई कमजोरी है तो वह है स्वयं में रहे आनंद के अभाव की, और उस आनंद को पाने के लिए वह निरंतर छटपटाता रहता है. परन्तु हमें कहीं पर भी सच्चा आनंद नहीं मिलता, सच्चा आनंद हमें केवल श्रीनाथजी के सान्निध्य में ही प्राप्त होता है. जो आनंदमय स्वरूप यहाँ निजमंदिर में विराजमान है उस की एक झलक पाते ही हम धन्य हों जाते हैं.
कैसे है यह श्रीजीबावा? कैसा है स्वरूप आपका ? यह जानने की हमें सहज ही इच्छा होती है.
यहाँ निजमंदिर में विराजमान श्रीजीबावा, जिन के अत्यंत भक्तिभाव से दर्शन कर के हम कृतार्थ होते हैं, आनंदमय बन जाते हैं, वे आज से ५००० वर्ष पहले प्रथम सारस्वतकल्प में, ब्रज में, श्री गोकुल में नन्द यशोदा के गृह प्रकट हुए साक्षात पूर्ण पुरुषोत्तम श्री कृष्ण ही है. श्री गोकुल में प्रकट हो कर प्रभु ने कईं लीलाएं कीं और ब्रजवासियो को एवं नन्द यशोदा को सुख दिया था. आपने मक्खन चोरी की लीला, गौओं को चराने की लीला, दान लीला, गोवर्धन लीला, वस्त्रहरण लीला, रास लीला इ. अनेक अलौकिक लीलाओं के द्वारा सर्व भक्तजनों के मनोरथ पूर्ण किए है. कइं जीवों का उद्धार किया है. यह वही कृष्ण है जो आज के कलियुग के कठिन समय में आज से ५०० वर्ष पहले फिर ब्रज में, जतीपुरा में, श्री गिरिराज की कन्दरा से स्वयं प्रकट हुए हैं. नन्दरायजी के समय की धुम्मर गाय के कुल की एक गाय रोज गिरिराज पर्वत पर जा कर अपने आप दूध श्रवण करती (बहाती) है. यह जानकर ब्रजवासियों को जाँच करने पर पता चला की यहाँ पर्वत पर कोई देव बिराजते हैं. सब से पहले आपकी ऊर्ध्व भुजा के दर्शन हुए. और ब्रजवासी उस भुजा का पूजन करने लगे.
समय बीतता रहा...
विक्रम संवत १५३५ के चैत्र वदी ११ व रविवार के दिन चम्पारण्य में अग्निकुंड में जब श्री महाप्रभुजी वल्लभाचार्यजी का प्राकट्य हुआ, ठीक उसी दिन यहाँ जतीपुरा में श्री गिरिराज पर्वत से प्रभु के मुखारविंद का प्राकट्य हुआ. श्री महाप्रभुजी प्रभु के मुखारविंद रूप है. ब्रजवासी प्रभु को दहीं, दूध का भोग-नैवेद्य चढ़ाते और पूजन अर्चन करते थे.
कालान्तरे...
कुछ वर्ष बाद, जब श्री महाप्रभुजी प्रथम पृथ्वी परिक्रमा के दौरान झारखंड में विराजमान थे तब, प्रभु ने स्वप्न में आदेश दिया की हम ब्रज में गिरिराज पर्वत पर प्रकट हुए है, हमें पर्वत से बाहर लाकर मंदिर में प्रतिष्ठित करके हमारी सेवा का नित्य क्रम प्रारंभ करो.
प्रभु की आज्ञा को शिरोमान्य करके श्री महाप्रभुजी वल्लभाचार्यजी परिक्रमा छोड़ कर ब्रज में आकर उपस्थित हुए. और अन्योर के ब्रजवासी सदुपांडे के साथ वार्ता विमर्श करके प्रभु जिस स्थान में बिराजते थे उसे खोज कर मिट्टी का छोटा सा मंदिर सिद्ध कर के प्रभु को पाट (तख़्त) पर प्रस्थापित किया गया. सब से पहले मुकुट दान और गुंजा का श्रृंगार कर के भोग लगाया और उस दिन से प्रभु की सेवा के नित्य क्रम की शुरुआत की गई. यह प्राचीन मंदिर आज भी श्री गिरिराज पर्वत पर विद्यमान है. इस पर्वत के देव का नाम पहले 'देवदमन' था जिसे श्री महाप्रभुजी ने श्री नाथजी रखा. श्री का अर्थ है स्वामिनिजी और नाथ का अर्थ है पति. श्रीजीबावा हमारे स्वामी है और राधाजी ही स्वमिनिजी है. आज भी श्रीनाथजी के श्रृंगार में स्त्री के कइं श्रृंगार अर्पित किए जाते हैं. श्रीनाथजी का स्वरूप स्वामी और स्वमिनिजी के रूप में है. क्यों कि श्री नाथजी का मुखारविंद श्री महाप्रभुजी का है और श्री महाप्रभु का एक अलौकिक रूप श्री स्वमिनिजी का है. यह रहस्यमय जटिल सी अलौकिक लीला है. रामदास चौहान श्री महाप्रभुजी कि आज्ञा के अनुसार सेवा करते थे.
तत्पश्चात आगरा के एक वैष्णव पूरनमल क्षत्रिय को श्रीनाथजी ने स्वप्न में एक नया मंदिर सिद्ध करने की (बनवाने की) आज्ञा दी. पूरनमल क्षत्रिय ने ब्रज में आ कर, श्री महाप्रभुजी की अनुमति पा कर, एक नया शिखरबंद मंदिर सिद्ध किया (बनवाया). और श्री महाप्रभुजी ने श्रीनाथजी को विक्रम संवत १५७६ बैशाख सुदी ३, याने कि अक्षय तृतीया के दिन उस छोटे से मंदिर से इस नए मंदिर में पाट पर प्रस्थापित किया और तब से सुव्यवस्थित रूप से श्रीनाथजी की सेवा का प्रारंभ किया गया. इसी बीच चरणाट में श्रीगुसाइंजी का प्राकट्य विक्रम संवत १५७२ मार्गशीर्ष वदी ९ के दिन हो चुका था.
श्री महाप्रभुजी भूतल पर रहे तब तक आपने श्री गिरिराजजी पर बिराजते श्रीनाथजीबावा की सेवा की और आपने कईं दैवी जीवों का उद्धार किया. इस के बाद श्री गुसाईजी, श्री विठ्ठलनाथजी ने श्रीजी की सेवा का विस्तार किया. श्रीजी की सेवा में राग, भोग, प्रसाद, कीर्तन, श्रृंगार इ. का प्रबंध किया. आपने श्रीजी के कीर्तन के लिए अष्टछाप कीर्तनकारों की भी व्यवस्था की, ऋतु के अनुसार और वर्ष के उत्सवों के अनुसार शृंगार, भोग और कीर्तन का क्रम निश्चित किया. सेवा में विविधता ला कर श्रीगुसाईजी ने श्रीजी को बहुत सुख दिया.
हमारे श्रीनाथजीबावा का राजस्थान से अटूट सम्बन्ध है. राजस्थान के सिहाड राजपूत घराने की बेटी, अजबकुंवरबा को श्रीनाथजी और श्री गुसाईजी, दोनों के प्रति असीम स्नेह व प्रेम था. श्री गुसाईजी ने अजबकुंवरबा का ब्रह्मसम्बन्ध किया था. आपने श्रीनाथजीबावा की एकनिष्ठ रूप से, तन-मन-धन से सेवा की है. और श्रीनाथजीबावा को भी अजबकुंवरबा के प्रति बहुत भक्त-वत्सलता थी. प्रेम था. आप जब जतीपुरा के गिरिराजजी के मंदिर में आती थी तब स्वयं श्रीनाथजी सिहाड़ में अजबकुंवरबा के महल में चौसर (चोपड़) खेलने के लिए प्राय: पधारते थे. श्री गुसाईजी ने जब यह बात जानी, तब आपने श्रीनाथजी को कष्ट न उठाना पड़े इसीलिए राजभोग दर्शन में चौसर प्रस्तुत करने की शुरुआत की. आज भी श्रीजीबावा को, राजभोग दर्शन के समय, चौसर प्रस्तुत किया जाता है. प्रभुजी की अपने ऊपर इतनी परम कृपा है यह जानकर अजबकुंवरबा ने एक दिन श्रीनाथजी से प्रार्थना की कि आपको आने जाने में कष्ट उठाना पड़ता है तो आप मेवाड़ में विराजे तो मुझे आप के नित्य दर्शन होते रहेंगे और हम आप की सुचारू रूप से सेवा करेंगे. तब श्रीजी ने प्रत्युत्तर में कहा कि श्री गुसाईजी जब तक भूतल पर बिराजते हैं तब तक तो यह संभव नहीं होगा. उन के लीला में पधारने के बाद उन के प्रथम पुत्र श्री गिरधरजी और उन के पूर्वज मुझे यहाँ प्रतिष्ठित करेंगे तत्पश्चात मैं यही पर विराजमान रहूँगा.
श्रीनाथजीबावा की लीला दुर्बोध है जिसे हम पामर जीव समज नहीं पाते. स्वयं श्री गुसाईजी ने भी भविष्यवाणी की थी कि भविष्य में श्रीनाथजीबावा राजस्थान, मेवाड पधारेंगे. क्योंकि श्रीनाथजीबावा का मेवाड के साथ निकट का सम्बन्ध श्रीगुसाईंजी के समय से ही है. जतीपुरा में श्रीजीबावा की सेवा का नित्य क्रम श्री गुसाईजी के प्रबंध के अनुसार नेग (प्रसाद) और नैवेद्य निरंतर चल रहा था.
समय व्यतीत होता रहा...
विक्रम संवत १६४२ में प्रभुचरण श्री गुसाईजी सदेह गिरिराज की कन्दराओं में गोविन्दस्वामी के साथ आये और नित्यलीला में पधारे. और तत्पश्चात श्रीजीबावा की सेवा आपश्री के प्रथम पुत्र श्री गिरिधरजी करने लगे. विक्रम संवत १६७७ में श्री गिरिधरजी नित्यलीला में पधारे. इस के बाद श्री गुसाईजी भविष्यवाणी को सिद्ध करने के लिए और अजबकुंवरबा को दिए गए अपने वचन को परिपूर्ण करने के लिए श्रीनाथजी ने मुग़ल वंश के उस समय के राजा औरंगझेब के आक्रमण को निमित्त बनाया. उस समय औरंगझेब ने हिंदू मंदिरों का ध्वंस करने की शुरुआत की थी. अब श्रीनाथजी का जतीपुरा के मंदिर से श्रीनाथद्वारा पधारने का समय आ गया था. औरंगझेब को निमित्त बनाते हुए उस समय के श्री गिरिधरजी के वंश के नौवें पू.तिलकायतश्री ने श्री दामोदरजी (बड़े दाउजी) ने, विक्रम संवत १७२६ में श्रीनाथजी की आज्ञा से भगवदीय गंगाबाई को साथ ले कर श्रीनाथजी के स्वरूप को और श्री गोकुल में राजा ठाकुर के मंदिर में बिराजते श्री नवनीतप्रियाजी को एक रथ में स्थापित कर के राजस्थान, मेवाड की ओर प्रस्थान किया और आगरा, दंडोतिधार, कोटाबुन्दी, चम्पासेनी, उदयपुर, घसियार इ. से होते हुए श्रीनाथजी यहाँ श्रीनाथद्वारा में पधारे और आज का यह वर्तमान मंदिर सिद्ध कर के उस समय के पू. तिलकायत श्री पू. बड़े दाउजी ने विक्रम संवत १७२८ में महा वदी ७ के दिन श्रीनाथजी और श्री नवनितप्रियाजी को वेद विधि के अनुसार प्रस्थापित कर के पाट पर पधराए गए और श्री गुसाईजी ने सेवा का जो क्रम और नेग निश्चित किया था तदनुसार श्रीजी सेवा का क्रम शुरू किया गया जिसे आज दिन पर्यंत वर्तमान तिलकायत श्री पूज्यपाद गोस्वामी १०८ श्री राकेशजी महाराजश्री निभा रहे है. श्रीजीबावा को महा वदी ७ के दिन पाट पर पधराए गए थे इसीलिए महा वदी ७ के दिन श्रीजीबावा का पाटोत्सव मनाया जाता है. और उस दिन श्रीजीबावा छप्पन भोग स्वीकार करते हैं. यह उपक्रम आज भी कायम है. यहाँ, इस मंदिर में श्रीनाथजी और श्री नवनीतप्रियाजी लगभग ३४० वर्ष से विराजमान हैं.
मेवाड के पहाड़ और चारों तरफ का वातावरण श्रीजीबावा को ब्रज जैसा ही लगता है. यहाँ का वायुमंडल भक्तिमय और अलौकिक लगता है. यहाँ कण कण में कृष्ण के दर्शन होते हैं.
श्रीजीबावा का वाम (बायाँ) हस्त ऊपर उठा हुआ है. उसी श्रीहस्त से श्रीजी ने ब्रज की रक्षा करने के लिए सारस्वतकल्प में श्री गिरिराज पर्वत धारण किया था. दायाँ श्रीहस्त कटी के ऊपर रखा है जो कि भक्तों के मन को मोह लेता है. और दृष्टि नीचे की तरफ है, मानो कौन सा भक्त-जीव अपनी शरण में आया है यह देखने के लिए उस पर दृष्टि कर रहे हो. सवेरे मंगला से शयन तक श्रीनाथजी हमें अलौकिक दर्शन देते हैं. यह अष्टयाम सेवा सारस्वतकल्प के कृष्णावतार के नंदालय भाव से की जाती है.
श्री महाप्रभुजि ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की है. आपश्री का आदेश है कि हमारे चित्त का श्रीकृष्ण में लग जाना ही सेवा है. हमारा मुख्य धर्म श्रीकृष्ण की सेवा करना ही है, और यह सेवा भी कृष्ण को पाने की अपेक्षा से नहीं करनी है. सेवा का फल सेवा. हमारे लौकिक कार्य करते हुए प्रभु को ह्रदय में रख कर जीवन जीने का श्री महाप्रभुजी का आदेश है. "सबकुछ मैं ही कर रहा हूँ" ऐसा मानना अहंता है और "सब कुछ मेरा है" ऐसा मानना मोह-ममता है. ये दोनों गलत हैं. क्योंकि मनुष्य अपनी शक्ति या इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकता, करवाने वाले श्रीकृष्ण ही है. इस प्रकार श्री महाप्रभुजी ने हमारे ऊपर बहुत ही, अनहद कृपा की है. और हमें जीवन जीने की सही राह दिखाइ है. श्री वल्लभ की और वल्लभ परिवार की पुष्टि जीवों के ऊपर इतनी असीम कृपा है कि श्रीजीबावा श्री वल्लभ के ब्रह्मसंबंध के मंत्र के समय दिया हुआ वचन आज भी निभा रहे है. यह वल्लभकुल कि बलिहारी है. यह सच ही कहा गया है कि :
गुरु गोविन्द दोनोँ खड़े, काको लागु पाय ?
बलिहारी गुरुदेव की जिन्हें गोविन्द दियो दिखाई !
श्री वल्लभ ने हमारे ऊपर कृपा कर के श्रीनाथजी की सेवा का अधिकार हमें दिया है. हमारे ऊपर श्री वल्लभ की और श्री वल्लभ कुल-परिवार की बहुत ही बड़ी कृपा है. इसीलिए श्री कृष्ण भगवान हमें यहाँ पर दर्शन देते हैं. श्रीनाथजी ही श्रीकृष्ण है. श्री गोकुल में जो मनमोहक कनैया प्रकट हुआ, वही कनैया फिर से जतीपुरा में श्री गिरिराज पर्वत से प्रत्यक्ष प्रकट हुआ और आपने कईं मनोहारी लीलाएं की, वही कनैया आज, यहाँ, श्री नाथद्वारा में विराजमान है और हमें रोज नित नये श्रृंगार धारण कर के दर्शन देता है जिस का श्रेय श्री वल्लभ और श्री वल्लभ कुल-परिवार को जाता है.
यदि मैं कुछ विशेष कहना चाहूँ तो इतना कह सकता हूँ कि सारस्वतकल्प के कृष्ण, जतीपुरा गिरिराज पर बिराजे थे वह कृष्ण और आज यहाँ इस निजमंदिर में बिराजमान कृष्ण श्रीवल्लभ की कृपा से आज हमारे घर में भी बिराजते हैं और हमारी सेवा स्वीकार करते हैं, यह कोई अलग कृष्ण नहीं हैं, यह वही कृष्ण हैं, वही श्रीनाथजी हैं और हमारे घर में बिराजते कृष्ण भी वही हैं. जहां श्रीकृष्ण बिराजे वही ब्रज का गोकुल है ऐसा श्री महाप्रभुजी कहते हैं. ठीक उसी प्रकार हमारा घर भी श्री गोकुल वृन्दावन है.
आप सब शिक्षकगण सरस्वती के उपासक हैं. हम प्रभु की सेवा करते हैं, श्री वल्लभ की सेवा करते हैं, हम सेवक हैं. सरस्वती प्रभु की शक्ति का रूप है. प्रभुचरण श्री गुसाईजी ने सर्वोत्तम स्तोत्र में श्री महाप्रभुजी का एक नाम दर्शाया है 'वाकपति', वाक् का अर्थ है वाणी और वाणी का अर्थ है सरस्वती, श्री महाप्रभुजी सरस्वती के पति है. सरस्वती की आराधना करने वालों को ज्ञान प्राप्त होता है. और वे वाणी के द्वारा अपने ज्ञान का सदुपयोग कर सकते हैं. ज्ञान प्राप्त करने के लिये भी प्रभु कृपा आवश्यक है. मुझे आज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस पवित्र धाम में, यहाँ सेवकों और उपासकों का अलौकिक मिलन हुआ है यह सुखद घटना श्रीजीबावा स्वयं देख रहे है. यहाँ उपासक और सेवक दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं हैं. श्री नाथजी के इस पवित्र भक्तिधाम में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. दोनों की मंजिल एक है. श्रीजीबावा की कृपा पाने की इच्छा हम सब को हैं! श्रीजी कृपा के सागर है. आप के लिए कोई पराया नहीं है, आप सब के है. यदि हम एक कदम आगे बढे तो आप चार कदम आगे बढ़ने के लिए उत्सुक है.
आज भी वैष्णवों को श्रीनाथजी का प्रत्यक्ष अनुभव होता है. यदि कोई दिये से दूर रहता है तो उसे प्रकाश का अनुभव नहीं होता, इस में दिये का क्या दोष? परन्तु जो श्रीनाथजी के सम्मुख होता है उसे अवश्य प्रकाश का अनुभव होता है. श्रीनाथद्वारा वैष्णव सम्प्रदाय का प्रधान तीर्थक्षेत्र है. यहाँ आने पर जैसे ब्रजमंडल में आ गये है ऐसा लगता है. और हम अपने सारे सांसारिक कार्य भुला बैठते हैं. यह श्रीनाथजीबावा के सम्मुख होने का प्रताप है, आपके प्रभुत्व का प्रभाव है.
और अंत में, मैं श्रीनाथजीबावा से, श्री वल्लभकुल से, ह्रदयपूर्वक प्रार्थना करता हूँ कि हे प्रभु जिस तरह अजबकुंवरबा की बिनती सुन कर आप यहाँ श्रीनाथद्वारा में बिराजते हैं वैसे ही हम सब की आप से बिनती है कि आप हमारे ह्रदय में पधार कर सदा सर्वदा वहीं बिराजमान रहे, हम पर इतनी कृपा कीजिए.
|| जय श्री कृष्ण ||
श्रीमान हर्षद दवे को श्रीनाथजी बावा के परिचय व विस्तृत विवरण के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंभरत कापडीआ