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प्रत्येक वर्ष विश्व में 7.80 लाख लोग दलदली बुखार यानि मलेरिया से मरते हैं। भारत में लगभग 2.5 लाख लोग और झारखंड़ में लगभग 15 हजार लोग हर वर्ष इस बीमारी के शिकार होते हैं। डब्लूएचओ ने अप्रैल 2012 के अपने रिपोर्ट में यह माना है कि वर्त्तमान विश्व में 3.3 अरब लोग मलेरिया से प्रभावित होते हैं जिसमें सबसे ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे शामिल हैं, दूसरे नंबर पर गर्भवती महिलाएं आती हैं।
मलेरिया मादा एनोफिलिस मच्छर के काटने से होने वाली एक खतरनाक बीमारी है। सरकार द्वारा इस बीमारी के रोकथाम के लिए अरबों रूपए खर्च किए जाते हैं फिर भी मलेरिया हर वर्ष और भी विकराल रूप में सामने आ रहा है।
उल्लेखनीय है कि मलेरिया नामक बीमारी का इतिहास मानव इतिहास जितना ही प्राचीन है। इस बीमारी का जिक्र चीन के इतिहास में 2700 ई.र्पू. के आसपास मिलता है। इटालियन भाषा का यह शब्द ‘मलेरिया' या ‘माला एरिया' का अर्थ ‘बुरी हवा' होता है, इसे दलदली बुखार भी कहा जाता है। 1880 ई. में एक फ्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चाल्से लुई अल्फोन्स लेबेरेन ने सबसे पहले अल्जीरिया में यह पता लगाया था कि एक प्रोटोजोआ परजीवी है जो रक्त में लाल रक्त कोशिका को संक्रमित करता है। 1907 ई. में उक्त चिकित्सक को मलेरिया कीटाणु व अन्य खोजों के लिए चिकित्सा का नोबेल पुरूस्कार दिया गया था। यद्यपि मलेरिया की पहली कारगर दवा क्लोरोक्वीन की खोज एक जर्मन वैज्ञानिक हेन्स अन्डरसेंग ने 1934 ई. में किया था जिसे ब्रिटिश व अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा भी मान्यता 1946 ई. में दे दी गयी थी। मच्छरों से बचाव के लिए डीडीटी पाउडर की खोज 1939 ई. में एक जर्मन रसायन विज्ञान शोधार्थी आथमर जेइडलर ने किया था जिसका प्रयोग हम आज भी करते हैं।
चिकित्सा की होम्योपैथी पद्धति से मलेरिया का बहुत गहरा संबंध है। सर्वविदित है कि होम्योपैथ के संस्थापक सेमुयअल हनीमैन ;1755-1843द्ध थे, वे बहुत ही प्रतिभाशाली व्यक्ति थे और एलोपैथ के जाने माने चिकित्सक थे। जब हनीमैन कालेन लिखित अंग्रेजी के मैटीरिया मेडिका का जर्मन भाषा में अनुवाद कर रहे थे तो एक स्थान पर ‘सिनकोना' का जिक्र आया जिसे मलेरिया ज्वर के निवारण का कारण बताया गया था। इस औषधि का जब उन्होनें प्रयोग किया तो मलेरिया ज्वर के लक्षण उत्पन्न हो गए, बस यही पर हनीमैन ने जो सोचा वही आगे चलकर होम्योपैथिक पद्धति का सिद्धांत बना, वह था, ‘‘स्वस्थ्य व्यक्ति में औषधि जिन लक्षणों को उत्पन्न करती है, वही औषधि अस्वस्थ्य व्यक्ति में उन लक्षणों के उत्पन्न होने पर उन्हें दूर कर देती है। इस विचार को लेकर हनीमैन कई परीक्षण करते रहे और इस नतीजे पर अन्ततः पहुंचे कि होम्योपैथ चिकित्सा का यही आधारभूत सिद्धांत है और इसके पश्चात हनीमैन एलोपैथ चिकित्सा पद्धति छोड़कर होम्योपैथ के जन्मदाता बने। हनीमैन से प्रभावित होकर जर्मन एलोपैथ चिकित्सक बोनिनघाउसन, अमेरिकन चिकित्सक कौनस्टेनटाइन हेंरिग, केरोल डनहम एवं ब्रिटिश चिकित्सक बर्नेट होम्योपैथीक चिकित्सा पद्धति के शरण में आए और एलोपैथीक चिकित्सा पद्धति छोड़कर प्रसिद्ध होम्योपैथ हो गए।
हनीमैन ने सिनकोना को सर्वप्रथम शक्तिकृत कर जो औषधि होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति को दिया उसे ‘चायना' के नाम से जाना जाता है, जो कमजोरी दूर करने का बेहतरीन औषधि माना जाता है। एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में भी मलेरिया की पहली कारगर दवा क्लोरोक्वीन है जो कुनैन या सिनकोना से ही बनाया जाता है। गौरतलब है कि क्लोरोक्वीन की खोज जर्मन वैज्ञानिक हेन्स अन्डरसेंग ने 1934 ई. में की थी जबकि हनीमैन कुनैन या सिनकोना से मलेरिया की औषधि एक सौ साल पहले ही बना चुके थे तथा आज भी होम्योपैथीक चिकित्सा पद्धति में मलेरिया के लिए रोगी को लक्षणानुसार कुनीका क्यू, सिनकोना क्यू आदि दिए जाते हैं।
मलेरिया बीमारी के संबंध में जानकारी हासिल करने के क्रम में मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि एंटीबायोटिक दवाओं की खोज के पहले यानि 20वीं सदी के प्रारंभ में सिफलिस या उपदंश से पीड़ित रोगियों के उपचार के लिए पहले मलेरिया से संक्रमित किया जाता था इसके बाद कुनैन देने से मलेरिया और सिफलिस दोनों ठीक हो जाते थे परंतु कुछ रोगियों की इस प्रक्रिया से मौत तक हो जाया करती थी। यद्यपि इस प्रक्रिया को इसलिए अपनाया जाता था क्योंकि सिफलिस नामक बीमारी से निश्चित मौत से वैकल्पिक तौर पर मलेरिया संक्रमित कर ठीक होने की संभावना बढ़ जाती थी।
एलोपैथीक व होम्योपैथीक चिकित्सा पद्धतियों के अतिरिक्त आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में मलेरिया के लिए जूडी ताप नामक आयुर्वेदिक लिक्विड एक बेहतरीन औषधि मानी गयी है जिसे एक माह तक नियमित सेवन करने से मलेरिया जड़ से समाप्त हो जाता है।
कुछ दिनों पहले जापान की जीकी मेडिकल यूनिर्वसिटिज में हुए शोध के बाद वैज्ञानिकों ने एक ऐसा जेनेटिकली मोडिफाइड मच्छर बनाने का दावा किया है जो मलेरिया का वैक्सिन फैलाते हुए उड़ेगा और जब इंसानों को काटेगा तो उसके मुंह से वैक्सिन इंसानों के रक्त में चला जाएगा और मलेरिया से बचाव के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी।
आज भी पेरू के एनडीज पर्वतमाला के तराई में सिनकोना वृक्ष बहुताय में पाया जाता है तथा वहां के निवासी सिनकोना वृक्ष छाल से कुनैन निकाल कर मलेरिया ज्वर का उपचार करते हैं।
मलेरिया के वैसे तो लक्षणों में ज्वर, कंपकपी, जोड़ो व कमर में दर्द, उल्टी, खून की कमी आदि प्रमुख है परंत कभी-कभी उपरोक्त कोई भी लक्षण नहीं रहने पर भी सिर्फ सर दर्द या सांस की तकलीफ में भी मलेरिया की बीमारी हो सकती है। मलेरिया की जांच स्लाइड, कीट और ओप्टीमल पद्धतियों के द्वारा की जाती है। जांच विश्वसनीय पैथोलोजिकल लैब में करानी चाहिए। कुकुरमुत्ते की तरह फैले हुए जांच घरों से किए गए जांच में सत्यता की कमी पायी जाती है। मलेरिया नहीं होने के सूरत में जांच का पॉजिटिव आना कभी-कभी जानलेवा साबित होता है। दूसरी एक और महत्वपूर्ण बात लक्षणों के आधार पर बिना चिकित्सक से राय लिए और बिना जांच करवाये, मेडिकल स्टोर्स के तथाकथित चिकित्सक समझने वाले दुकानदारों की राय से मलेरिया की औषधि का सेवन किसी भी चिकित्सकीय पद्धति में नहीं करना चाहिए।
मलेरिया के पीडित रोगी को कुछ भी खाने की इच्छा नहीं होती है परंतु खान-पान पर खास ध्यान रखना अतिआवश्यक है अन्यथा अत्यधिक कमजोरी से दूसरे रोग का हमला शरीर पर होने का खतरा बना रहता है। संतरे का जूस व गुनगुना पानी का सेवन करना चाहिए। तुलसी की पत्तियां व काली मिर्च पानी में उबालकर छान लेनी चाहिए इसके पश्चात थोड़ा-थोड़ा दिन भर पीना चाहिए। खिचड़ी व दलिया तथा आसानी से पचने वाले खाद्य पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। मुंह का स्वाद तीता या खराब होने की सूरत में कागजी नींबू को थोड़ा आग में गर्म कर उसपर काली मिर्च का थोड़ा चूर्ण या सेंधा नमक डाल कर दो-एक बार चूसना चाहिए।
नोटः- कुछ दिनों से मैं मलेरिया से पीडित था, ठीक होने के पश्चात पुनः मलेरिया का शिकार हो गया। निरोग होने के प्रयास में मैं मलेरिया को समझने की कोशिश किया जिसका परिणाम यह लेख है।
बिना चिकित्सकों की राय के और देखरेख के बिना लेख में प्रयोग किए गए औषधियों का सेवन उचित नहीं होगा।
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