समीक्षा जमाने की ‘ भैंस ' और कक्का की ‘ लाठी ' डा 0 रमाशंकर शुक्ल 30 मई 2011 को राबर्ट्सगंज (सोनभद्र) के विवेकानंद प्रेक्षागृ...
समीक्षा
जमाने की ‘भैंस' और कक्का की ‘लाठी'
डा0 रमाशंकर शुक्ल
30 मई 2011 को राबर्ट्सगंज (सोनभद्र) के विवेकानंद प्रेक्षागृह में ‘कक्का' जी से महज पीछे मुड़कर दो मिनट के लिए बात हुई। हम दोनों जन अपनी-अपनी पुस्तकों का विमोचन कराने आये थे और हमें मंच पर बैठने लायक भी नहीं समझा गया था। मैं अपनी ‘एक प्रेतयात्रा' लिए दूसरी कतार में बैठा था और कक्का जी अपनी ‘अक्ल बड़ी या भैंस' लिए तीसरी कतार में ठीक मेरे पीछे। बाद में जब विमोचन होने लगा तो आयोजक कार्यकर्ताओं की फौज इस तरह फोटो खिंचाने के लिए मचल उठे, मानो किताब उन्होंने ही लिखी है। दो पोज में विमोचन पूरा हुआ और हम दोनों लेखक कार्यकर्ता देवों के कदों में दबे हुए केवल सिर बाहर निकालकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाये। बोलने के लिए संचालक ने पहले ही ‘संक्षेप' की रस्सी में हमें बांध दिया। इससे मेरा ‘प्रेत' मन मार कर चुप हो गया और कक्का जी की ‘भैंस' थोड़ी देर के लिए बिदकी, लेकिन बंधी होने के कारण तुरंत नियंत्रण में आ गयी। बस इतनी सी ही थी अजय चतुर्वेदी ‘कक्का' से मुलाकात। न वे खाली थे और न मैं खाली था।
कुछ माह बीते एक दिन उनका फोन आया। बोले, ‘फलां अधिवक्ता से ‘अक्ल बड़ी या भैंस' भेजा हूं, कृपया उनसे ले लीजिएगा। जो कुछ कहना होगा, लिखित कहिएगा, मौखिक में क्या रखा है।'
भैंस के साथ लैपटाप वाले आदमी की फोटोयुक्त किताब का मुखपृष्ठ चौंकाए बिना नहीं रहा। पन्ने खोले और पढ़ते गये। कालेज और सामाजिक कार्यों के साथ पूरे चार दिन में किताब के सारे पन्ने पलट डाले। तब एक बात समझ आयी कि जनाब का उपनाम ‘कक्का' क्यों है। दरअसल, ‘कक्का' अनुभव और उम्र में पके व्यक्ति के रूप में सामान्य जनमानस में रूढ़ है। रावट्र्सगंज में खिचड़ी बालों वाले दुबले-पतले लंबे कद वाले कक्का जी का हुलिया सामने तैर गया। कोई बनावट न थी। खांटी गंवई माटी के आदमी। शायद पूरे जमाने की रंगीनियों असलियत समझ-बूझ चुकने के बाद उन्होंने अपने को एकदम प्राकृतिक बना लिया है। साहित्यकार का कोई लिबास नहीं, भाषा की कोई मठार नहीं।
‘अक्ल बड़ी या भैंस' उसी समझ के बाद की अभिव्यक्ति है। भीड़ भैंस है और अक्ल बड़े लोग। बड़े लोग जिस खूंटे से बांधकर भीड़-भैंस को चराते हैं, वह चरती जाती है। भैंस दुही जाती है, खूंटे में बांधी जाती है, ठांठ होने पर कसाई के हाथ बेची जाती है। कभी-कभी भैंस विरोधियों के खेतों को भी चरने के लिए छोड़ दी जाती है, जहां जानकारी होने पर ‘जानवर' की मजबूरी दिखाकर जुबान भी बंद करायी जाती है। और भी जाने क्या-क्या भैंस अक्ल वालों के लिए काम करती रहती है। भैंस की खासियत यह है कि वह अन्य जानवरों की अपेक्षा भोंदी होती है और विरोध कम करती है। गांव से सरोकार रखने वाले कम से कम उस दृश्य को को तो नहीं भूले होंगे, जहां भैंसे ‘भैंसवारी' में दो-दो फीट तक के खुद के बनाये दलदल में लोटती रहती हैं और मच्छरों का झुंड उन्हें चबा रहा होता है। तब वे कीचड़ सनी पूंछ से उन्हें भगाने की असफल कोशिश करती रहती हैं। भैंस को कपड़ा, घर, पान-बीड़ी, साबुन-तेल और पंखा आदि नहीं चाहिए। हां, खुराक के मामले में वे समझौता नहीं करतीं। वह भी कोई कीमती शौक नहीं, बल्कि सस्ते भूसे से अपनी क्षुधा मिटा लेती है। यह सच है कि उनकी खुराक अन्य जानवरों की अपेक्षा ज्यादा है, पर महंगा नहीं। अक्ल वालों के घरों में निवास करने वाले कुत्तों से कम ही खर्च बैठता है। यह दीगर बात है कि कुत्ता कोई दूध नहीं देता और भैंस भूसे के अनुपात में काफी दूध देती है। अक्ल वालों और उनकी पीढ़ियों को पोसते हुए मोटा करती रहती है। हां, कुत्ता घर आये मेहमानों को कभी चाटकर और कभी काटकर पिण्ड छुड़ाने में जरूर काम आता है।
कक्का की इस पुस्तक में इन्हीं प्रतीकों की आड़ में गांव से लेकर वैश्विक स्तर पर अक्लवालों के षड्यंत्रों का आईना व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। समकालीन अखबारी जगत में अभिव्यक्ति की परंपरा से इतर अनेक विधाएं अपनायी जा रही हैं, किन्तु उनकी दीर्घजीविता ऐसी नहीं होती, जिसे पुस्तकाकार देकर बचाई जा सके। प्रायः इन विधाओं में लिखे विचार किसी घटनाक्रम विशेष में प्रसंगवश होते हैं, जो एक निश्चित अवधि के बाद अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। हां, प्रभाष जोशी जैसे जैसे कुछ ही ऐसे स्वनामधन्य लेखक रहे हैं, जिनकी रचनाएं पुस्तक का आकार ग्रहण करने की मांग करती हैं। मैंने जोशी जी की पुस्तक ‘हिन्दू होने का धर्म' पढ़ी, किन्तु आत्मकथन के बाद के अंश प्रासंगिकता के परे समझ आने लगे। कक्का इस मामले में सजग हैं। ‘अक्ल बड़ी या भैंस' पुस्तक में उन व्यंग्य टिप्पणियों का संकलन किया है, जो वर्ष 2003-04 के बीच एक दैनिक अखबार ‘युनाइटेड भारत' में नियमित कालम के लिए लिखा था। साहित्य के लोग इस बात से बखूबी अवगत होंगे कि बहुत कम ही व्यंग्य कालम ऐसे होते हैं, जो भविष्य में भी अपनी प्रासंगिकता को बरकरार रखते हों।
कक्का के व्यंग्य में कहीं हंसोड़ प्रवृत्ति नहीं मिली। उसमें केवल व्यंग्य और केवल व्यंग्य है। मुनीर बख्श आलम ने फ्लैप पर अपना अभिमत देते समय इसे ‘हास्य-व्यंग्य' कहा है। पर ढूंढने पर भी कहीं हास्य नहीं मिला। सर्वत्र व्यंग्य की ही प्रधानता। सन् 1993 में डा0 मूलशंकर शर्मा ने केबी कालेज, मीरजापुर की एम0ए0 की कक्षा में हम छात्रों को व्यंग्य और हास्य में फर्क बताया था- ‘‘हास्य विदू्रपताओं का मजाकिया आख्यान है। वह पाठक या श्रोता के हास नामक स्थाई भाव को उद्दीप्त करता है, लेकिन मानसपटल पर कोई दीर्घकालीन प्रभाव नहीं छोड़ता। जबकि व्यंग्य कराह से उत्पन्न एक ऐसी विवश अभिव्यक्ति है, जिसे सुनने या पढ़ने के बाद व्यक्ति घंटों, दिनों कुढ़ता रहता है। जो अकेले में भी मन की केामल परतों को कुरेदता रहता है और अव्यवस्था के खिलाफ ताल ठोंक कर खड़े हो जाने को बेचैन करता है।''
‘अक्ल बड़ी या भैंस' पढ़ते समय डा0 शर्मा की वे मौखिक पंक्तियां सहज ही याद हो आयीं। अखबार की टिप्पणियों का संकलन साहित्य का हिस्सा बनकर लोगों के मन को मथे, यह लेखक की बड़ी उपलब्धि है। कक्का ने एक वर्ष के दौरान कुल 39 टिप्पणियों में जिन मुद्दों को शामिल किया है, वे समाज, साहित्य, राजनीति, विदेश नीति, स्वदेशनीति, अर्थनीति, भारतीय सरकारों की कार्यशैली, राजनीति और नौकरशाही के भीतर के षड्यंत्रों पर आधारित है। जैसे कक्का हर जगह पहुंचे हों। सुसज्जित भोले चेहरों की आंत के भीतर पक रही कुटिलताओं को पढ़ रहे हों। जहां सहज है वहां विचार गद्य की मानक शैली में अभिव्यक्त हो गये, जहां असहज है लेखक कुढ़ने लगता है। वह चिंता की ऐसी तलहटी में डूब जाता है कि प्रत्येक अभिव्यक्ति काव्यमय हो जाती है। इसे ‘धन्य हमारा हिन्दुस्तान' शीर्षक व्यंग्य से महसूसा जा सकता है ः ‘‘भाषा बदली, संस्कृति बदली, रहन-सहन-नैतिकता बदली, जाति बन गयी अगड़ी-पिछड़ी, पिछड़ी में भी पिछड़ी-अगड़ी, कील ठोंककर लोकतंत्र की छाती में देखो ऐंठे हैं, कौवे गिद्ध अनेक राष्ट्र की डाली-डाली पर बैठे हैं, आरक्षण की वैशाखी पर देश चल रहा सीना तान, धन्य हमारा हिन्दुस्तान।'' (पृष्ठ 106)
इसी तरह साहित्य के अंदरखाने की विद्रूपताओं को भी उन्होंने काव्यमय शैली में ‘तेरा क्या होगा कालिया' शीर्षक में लिख डाला ः ‘‘न दुआ, न सलाम। आते ही जंग-सा एलान। ‘तेरा क्या होगा कालिया' का ‘डायलॉग' वेदान्ती ने मेरे मुंह पर उछाल दिया। बात-चीत में भूले से भी फिल्म का नाम मात्र आ जाने से, भाजपा का नाम लेने पर वामपंथियों की तरह चिड़क उठने वाले वेदांती के मॅुंह से शोले फिल्म का ‘डॉयलाग' सुन जितना आश्चर्य हुआ, उतना मन मोहन सिंह को अचानक प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित किये जाने पर नहीं हुआ था।.....................वे बोले, जाग मियाँ जल्दी जाग। आज-कल बड़े-बड़ों की ऐसी-तैसी हो रही है। तू किस खेत की मूली है। अगर अब से भी तेरी आँखें नहीं खुली तो तुम्हारे लिए सीधे-सीधे इंतजार कर रही सूली है। मित्र होने के नाते मैं तुमसे पूछता हूं कि आखिर दिन-रात जाग, मेहनत कर क्यों लिखता-पढ़ता है? इससे तुम्हें क्या मिलता है?'' काव्यमयता प्रायः कई टिप्पणियों में प्रवाहित हुई है।
एक बात और कक्का मुहावरों के बड़े धनी प्रयोगकर्ता हैं। देशज से देशज लोकोक्तियों और मुहावरों को परिष्कृत कर नये रूप में ढालते हुए अपनी बात को जिस चाल से ठोंक देते हैं, वह कभी-कभी सहज परिपक्वता से कहीं ज्यादा करिश्माई सा प्रतीत होता है। भाषा पर उनकी पकड़ का अंदाज इससे भी लगाया जा सकता है कि बड़ी से बड़ी बात कहने में भी कहीं लयभंग दोष नजर नहीं आता। यहां तक कि पौराणिक मिथकों का प्रयोग करते समय भी उनकी ध्वन्यार्थता में कोई व्याघात नहीं उत्पन्न होता।
लोकतंत्रात्मक भारतीय समाज की विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति में कक्का ने जिस नयी विधा और शैली का प्रयोग किया है, वे बहुत से संशयग्रस्त साहित्यिकों और लेखकों के लिए समस्या का समाधान भी है। आम तौर पर लेखक के समक्ष एक यक्ष प्रश्न होता है कि इतनी छोटी-सी बात को किस विधा में लिखें? अक्सर ऐसे विचार अभिव्यक्ति न पाकर बेचैनी के साथ मर जाते हैं। मुझे मुक्त कंठ इस बात को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि कक्का ने मेरे लिए भी एक मार्ग दिखा दिया है। यह भी कि इस विधा में लिखते हुए अपने बहुविध विचारों को पुस्तकाकार रूप में समाज को अर्पित किया जा सकता है।
संपर्क ः ए0 एस0 जुबिली इण्टर कालेज, मीरजापुर, 231001, मो0- 09452638649,
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