कोई कहता है जिन्दगी एक खुशी है, कोई कहता है जिन्दगी कांटों का ताज है, कोई कहता है जिन्दगी एक संघर्ष है, कहने का तात्पर्य है कि जितने मु...
कोई कहता है जिन्दगी एक खुशी है, कोई कहता है जिन्दगी कांटों का ताज है, कोई कहता है जिन्दगी एक संघर्ष है, कहने का तात्पर्य है कि जितने मुंह उतने फलसफे, अब यह तो जिन्दगी ही बता सकती है कि वह क्या है? यहां मैं जिस घटना को बताने जा रहा हूँ वह कोई दस बारह वर्ष पुरानी बात है उस समय नये राज्यों को गठन नहीं हुआ था। मैं चूकि एक फ्री लान्सर पत्रकार हूँ इसलिये मुझे कभी पोस्ट मार्टम हाउस जाना पड़ता है, कभी किसी नेता या विधायक की बेटे बेटी की शादी में, कभी किसी सड़क दुर्घटना को कवर करने के लिये जाना पड़ता है। अक्सर दिन में एक दो चक्कर तो मेरे किसी पुलिस चौकी या कोतवाली में भी लग ही जाते हैं, अब उनके बारे में उनके खिलाफ कुछ लिख देने का मतलब था कि बनी बनाई खबर से हाथ धोना । लेकिन फिर भी मैं दबी जबान में उनके खिलाफ कुछ न कुछ लिख देता था और फिर दस पन्द्रह दिनों तक मेरा वहां जाना बन्द हो जाता था।
शहर का नाम लिखने में कुछ परेशानी आ सकती है अतः मैं उस शहर का काल्पनिक नाम बता रहा हूँ। उसका नाम था आराघर.......बड़ा शहर है कई चौकियां हैं कई थाने है, एस.पी., डी.एस.पी., पुलिस के आला अधिकारी इसी शहर में रहते है। एक छोटी सी चौकी में मेरा अक्सर आना जाना लगा रहता था कारण था कि खुफिया एजेन्सी ने यह बात बताई थी कि वहां पर कुछ पाकिस्तानी नागरिक रहते हैं, तथा कुछ बंगलादेशी भी अवैध रूप से उस इलाके में रहते हैं, और कमोबेश उनकी बात सही भी थी,.... उसी पुलिस चौकी में एक सिपाही थे सुदामा प्रसाद पाण्डे, पण्डित आदमी थे, इसलिये किसी भी प्रकार के एैब से दूर थे, अपनी डयूटी के पाबन्द थे, साफ लकदक वर्दी पहनते थे, कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि चौकी इन्चार्ज से ज्यादा उनकी चलती थी। कोई भी व्यक्ति उन्हें किसी भी समय अपनी बात कह सकता था, हां जरायम पेशे वालों से उनका 36 का आंकड़ा था। मेरी उनकी अच्छी जमती थी,एक दिन बातों बातों में उन्होंने बताया कि मैं अब सेवानिवृत्ति चाहता हूँ। मुझे सुनकर हैरानी हुई मैंने पूछा पाण्डे जी आप की सर्विस कितने दिन की हो गई, बोले....साहब 20 साल की तो होगी, मैंने कहा अभी तो आप काफी साल और नौकरी कर सकते हैं....फिर अचानक नौकरी छोड़ने का कारण नहीं समझ पा रहा हूँ। पाण्डे जी ने बताया कि मैं लखनऊ का रहने वाला हूँ, शहर का नहीं बल्कि लखनऊ के एक देहात का....थेाड़ी बहुत खेती है...अब इस नौकरी में अवकाश मिलना तो न मिलने के बराबर है..... इसलिये अब घर जाकर खेती वगैरह देखूंगा...बच्चों को पढ़ाना लिखाना है, और घर की थानेदारनी का भी हुक्म बजाना है...... मैंने कहा पाण्डे जी सोच समझ कर कदम उठाना यहां बंधी बधाई तन्खा है...थोड़ा रूतबा भी है...शायद गांव जाने पर आपको कुछ परेशानी होगी .......
लेकिन पाण्डे जी तो पाण्डे जी थे जो सोच लिया उसमें किसी अगर मगर को लगाना उनका स्वभाव ही नहीं था.....और उन्होंने अपनी वालिन्टरी सेवा निवृत्ति का आवेदन कर ही दिया। सभी ने काफी समझाया....एस.पी. साहब ने तो यहां तक कहा कि पाण्डे जी आप बहुत पछतायेगें...मेरा कहना मानों दो चार महीने की छुट्टी लेकर गांव चले जाओ अगर मन लगा तो मत आना और नहीं लगा तो वापस आ जाना......शायद एस.पी.साहब पाण्डे जी के स्वभाव को नहीं जानते थे, वह अपनी जिद पर अड़े रहे अन्ततः एक दिन पाण्डे जी सेवानिवृत्त होकर चले गये, उनका अवकाश नकदीकरण, जी.पी.एफ. उन्हें उसी दिन दे दिया गया पाण्डे जी सभी से गले मिलकर अपने गांव लौट गये।
गॉव जिस दिन पाण्डे जी पहुंचे, उसी दिन एक हरिजन कन्या का जो मात्र 14 साल की थी बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी। चूंकि पाण्डे जी को अपनी विगत नौकरी का अनुभव था उन्होंने अपने प्रयासों से बलात्कारियों को पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया बलात्कारी ऊंची पहुंच के थे अतः मात्र 10 दिन बाद वह फिर पाण्डे जी के गांव लौट आये। इस बात से पाण्डे जी काफी दुखी थे, और एक दिन उन्हीं बदमाशों ने पाण्डेजी को अकेला पाकर उन पर हमला कर दिया तथा उनके दोनों पैर तथा एक हाथ काट दिया। अब पाण्डे जी न तो खेती कर सकते थे, न शिकायत कर सकते थे, सिर्फ बच्चों का डाटना डपटना ही उनका काम रह गया। पत्नी भी उन्हें रोज घर में देखकर अलग से जलती बुझती रहती थी......पास का पैसा भी खत्म होने की कगार पर था....अब पत्नी तथा बच्चे उनके मुंह लगते थे, बाकी सारे काम कर सकते थे लेकिन पाण्डे जी की बात को अनसुना कर दिया जाता।
एक दिन पड़ोस की एक स्त्री से बात करते हुए पाण्डे जी की पत्नी ने कहा एक यह मरा हाथ पैर कटवा लिये, नौकरी छोड़ दी, पैसा पल्ले में है नहीं लेकिन पुलिसिया रंग नहीं गया, कम्बख्त मरता भी तो नहीं......यह बात पाण्डे जी के कानों में पड़ गयी.......और एक दिन रात को पाण्डे जी न जाने कहां चले गये......दो चार दिन देखा परखा गया और जिन्दगी घर के सभी सदस्यों की वैसी ही चलती रही जैसा वो चाहते थे.....मतलब जिन्दगी एक मौज है, उसे मौज से जियो Life is enjoy enjoy it किसी को पाण्डे जी की चिन्ता नहीं थी।
चूंकि राज्यों का बटवारा हो चुका था, मैं देहरादून का रहने वाला था अतः मैं भी सपरिवार रिषिकेश में आकर रहने लगा काम मेरा भी अभी तक वही था.....एक दिन मैं एक चौकी में खबर के जुगाड़ में बैठा था....अचानक तीन चार पुलिस के आदमी आये जो नीलकण्ठ की यात्रा पर गये थे और दिल्ली से आये थे.....वापसी में उन पर जंगल में कुछ बदमाशों ने हमला कर दिया उनका एक साथी मारा गया, तथा बाकी लोग किसी तरह जानबचाकर अपनी रिपोर्ट लिखवाने आ गये। चौकी प्रभारी ने अपने तीन चार सिपाहियों को लिया मुझे भी कहा सिन्हा साहब चलो शायद कोई काम की खबर हाथ लग जाये...मैं खबर के चक्कर में उनके साथ हो लिया। सभी लोग जंगल में काम्बिंग कर रहे थे लेकिन बदमाशों का कहीं पता नहीं था, यह उचित समझा गया कि एक साथ नहीं अलग अलग रहकर काम्बिंग की जाये, मैं भी उनसे अलग होकर काम्बिंग करने लगा करीब तीन चार किलोमीटर चलने के बाद मुझे एक झोपड़ी दिखाई दी....मैं समझा कि शायद यह बदमाशों के छुपने का स्थान है...मैं उसी ओर बढ़ गया मेरे पेशे में थोड़ा खतरा तो रहता ही है....देखा जायेगा जो होगा। मैं जब उस टपरी के पास पहुंचा तो वहां एक दाढ़ी-बाल बढ़ाये एक बुजुर्ग आदमी बैठा था......उसने अपने शरीर पर एक कम्बल डाल रखा था....मैंने जरा कड़ककर पूछा....लूटपाट के बाद बड़े आराम से बैठे हो बड़े मियां.....उसने कुछ न कहकर अपने ऊपर से कम्बल हटा दिया, उसके दोनों पैर और एक हाथ नहीं था....मैं समझ गया कि यह बदमाश नहीं हो सकता....उनका साथी तो हो सकता है.....मैंने फिर कहा, तुम्हारे साथी कहां है...अभी पुलिस आ रही है.....तब बता देना.....उसने कहा......न मैंने लूटपाट की है...न मेरा कोई साथी है.....उसके बोलते ही मुझे लगा कि यह आवाज मैंने कहीं सुनी है...गौर से देखने पर लगा कि मैंने इस आदमी को कहीं देखा है......कहां देखा है यह मेरे जहन में नहीं आ रहा था......मैंने पूछा आप कौन है......इस बार मेरी आवाज में थेाड़ी नरमी थी......उसने कहा...सिन्हा साहब...मैं पाण्डे हूँ.....सिपाही भूतपूर्व.....आराघर चौकी...... अब चौंकने की मेरी बारी थी...अरे पाण्डे जी आप....और इस हालत में....आप तो लखनऊ चले गये थे...अपने घर...अपनी पत्नी,अपने बच्चों....अपने खेतों के पास......फिर यहां इस जंगल में.....मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.....
पाण्डे जी ने कहा........सुर नर मुनि सबकी यह रीति ,स्वार्थ लगहिं करहिं सब प्रीति.......सिन्हा साहब कोई किसी का नहीं होता...एस.पी.साहब...मेरे साथी लोग सभी ठीक कहते थे....आपने भी तो कितनी बार समझाया था कि नौकरी मत छोड़़ो.......लेकिन जिन्दगी का एक यह रंग भी तो देखना था.......
उसके बाद पाण्डे जी ने जो ऊपर लिखा जा चुका है वह सब विस्तार से बता दिया......मैंने कहा पाण्डे जी ऐसे कोई जिन्दगी से हार तो नहीं मान लेनी चाहिये....चलिये आप मेरे घर रहिये अभी तो आपको आपका विभाग और पैसा भी देने वाला है, उसे ग्रहण कीजिये आराम से रहिये..... पाण्डे जी बोले....अब मैं उसका क्या करूंगा........अगर आप कर सके तो एक काम कर दें कि वह पैसा मेरे घर भिजवा दें, न जाने वो बेचारे किस हाल में होंगे....मैं यहीं ठीक हूँ.......
काफी मान मनौव्वल के बाद मैं पाण्डे जी को लेकर अपने घर आ गया, मेरे पुराने सम्बन्ध उनके विभाग में होने के कारण 10-15 दिनों उनका पैसा आ गया........मैंने कहा.....आप इसमें कुछ रख लीजिये बाकी घर भेज दें, पाण्डे जी ने कहा.......यह जिन्दगी उन्हीं लोगों के लिये मिली थी, इसलिये इस पर अब उनका हक है.....मेरा क्या......
मैंने उनका पता वगैरह पूछकर पैसे उनके घर भिजवा दिये मुझे हैरत इस बात की हुई उन्होंने पैसे तो रख लिये लेकिन पाण्डे जी के बारे में मुझसे कुछ नहीं लिखा न पूछा सिर्फ मेरा धन्यवाद किया कि उन्होंने मुश्किल के दिनों में हमारी मदद की......लेकिन पाण्डे जी कहां हैं यह किसी ने नहीं पूछा.....
पाण्डे जी को मैंने सारे हालात बता दिये, उनके चेहरे पर एक गम्भीर शान्ति थी.......दो चार दिन के बाद मुझे पुलिस ने एक खबर कवर करने के लिये बुलाया......रेल की पटरी पर एक आदमी रेल से कटकर मर गया......मैंने जब लाश को देखा तो उसके दोनों पैर नहीं थे, एक हाथ नहीं था, तथा घड़ दो टुकड़ों में कटा पड़ा था ।
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह मेरे लिये एक खबर है......एक कहानी है.....या जिन्दगी का वीभत्स रूप.........
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RK Bhardwaj,
151/1 Teachers’ colony
Govind Garg,Dehradun(Uttarakhand)
Email: rkantbhardwaj@gmail.com
बहुत कड़वी सच्चाई बयान करती है यह कहानी.यथार्थ के नजदीक है यह.
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