** आलोचना की परवाह मत करो. संसार मे आलोचकों के स्मारक नहीं बनते. जो तना अपनी कोंपल का स्वागत नहीं करता, वह ठूंठ हो जाता है** --------बालक...
** आलोचना की परवाह मत करो. संसार मे आलोचकों के स्मारक नहीं बनते. जो तना अपनी कोंपल का स्वागत नहीं करता, वह ठूंठ हो जाता है**
--------बालकवि बैरागी
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(बालकवि बैरागी)
एक ऐसा मस्तमौला कवि, जो बड़ी से बड़ी बात को, अपनी कविता में सहज और सरल ठंग से कह जाता हो, जिसे व्यक्त करने में हम अपने आपको असमर्थ पाते हैं, जिसकी कविता में भारतीय ग्राम्य संस्कृति की सोंधी-सोंधी गंध रची-बसी हो, जो लोगों के जुबान पर चढ़कर बोलती हो, एक ऐसा हाजिर जवाबी कवि, जिसने गली-कूचों से चलते हुए, देश की सर्वोच्च संस्था,जिसे हम संसद के नाम से जानते है,सफ़र तय किया हो, जिसे घमंड छू तक नहीं गया हो., जो खास होते हुए भी आम हो, ऎसे जनकवि के लिए अतिरिक्त परिचय की दरकार नहीं होती. ऎसी ही एक अजीम शख्सियत का नाम है-बालकवि बैरागी.
दस फ़रवरी सन उन्नीस सौ इकतीस में, मनासा जिले की तहसील के रामपुर में जन्में दादा बालकवि, अपने बचपन से ही कविता रचते और उसे पूरी तन्मयता के साथ गाते थे. विक्रम विश्वविद्यालय से हिन्दी में आपने एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की. साहित्य में जितनी पकड आपकी रही,राजनीति में भी आप हमेशा अव्वल ही रहे. वे मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री भी रहे. दौरे में जहां भी जाते, अपने साहित्यकार मित्रों से मिलते और फ़िर जमकर काव्य-रस की बरसात होती रहती राजनीति में उन्हें जितनी शोहरत मिली,मंचों पर भी उन्हें उतना ही प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ. किसी शुभचिंतक ने इन्हीं बातों को लेकर उनसे प्रश्न किया तो उन्होंने जवाब में कहा-“साहित्य मेरा धर्म है, और राजनीति मेरा कर्म”. गहनता लिए हुए उनके इन्हीं शब्दों से, उनके व्यक्तित्व कॊ नापा जा सकता है. मुझे कई बार दादा को मंचॊं पर सुनने का मौका मिला है. उस समय पर होने वाले कवि-सम्मेलनॊं की आन-बान-शान अलग ही होती थी.मंचों पर आलदर्जे के कविगण होते थे. श्रोताओं को साहित्य से भरपूर रचनाएं सुनने को मिला करती थी. कवि-सम्मेलन तो अब भी हो रहे हैं,लेकिन उनमें केवल चुटकुले ही सुनने को मिलते है. जब तक रचनाओं में साहित्य का पुट नहीं होगा,कोई भी रचना सरस कैसे हो सकती है?.ग्राह्य कैसे हो सकती है?
आपके अब तक चार-पांच काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं,-गौरव गीत, दरस दीवानी,दोदुका, भावी रक्षक देश के आदि-आदि. “ मैं अपनी गंध नहीं बेचूंगा” काफ़ी लोकप्रिय कविता है, इस कविता से सहज ही उनके आत्मगौरव को, देश के प्रति उनके समर्पण को देखा-समझा जा सकता है.
दादा ने मंचों पर गीत ही नहीं पढे, अपितु फ़िल्मों के लिए भी गीत लिखे.” रेशमा और शेरा” का वह गीत ,कोई भुलाए कैसे भूल सकता है. ” तू चन्दा....मैं चांदनी- तू तरुवर ..मैं शाख रे...तू बादल ....मैं बिजुरी...तू पंछी.... मैं पांख रे....... लताजी की खनकदार आवाज, जयदेव का संगीत और दादा के बोल. तीनॊं मिलकर एक ऎसा कोलाज रचते हैं,जिसमे श्रोता बंधा चला जाता है. ..गीत सुनते ही लगता है जैसे आपके कानों में किसी ने मिश्री घोल कर डाल दी हो. इस गीत में मिठास के साथ-साथ, एक तड़प है,,,एक दर्द है. गीत के बोल ही कुछ ऎसे हैं,जो आपको अन्य लोक में ले जाते हैं..वसन्त देसाई की संगीत-रचना, दिलराज कौर की सुरीली आवाज मे फ़िल्म” रानी और लालपरी का गीत “ अम्मी को चुम्मी....पप्पा को प्यार” वाला गीत हो, अथवा संगीतकार (आशा भॊंसले के सुपुत्र) हेमन्त भॊंसले की संगीत रचना में फ़िल्म “जादू-टोना” का गीत हो, अथवा दो बूंद पानी, अनकही, वीर छत्रसाल, अच्छा बुरा के गीत हो, दादा की शब्दरचना आपको मंत्र मुग्ध कर देने में सक्षम है. सन १९८४ में “अनकही”फ़िल्म का गाना---“मुझको भी राधा बना ले नंदलाल,”सुनते ही बनता है. दादा को जब भी सुना, मंचों पर सुना. कभी ऎसा मौका नहीं आया,जब उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात अथवा बातचीत हुई हो. जुलाई 2008 के अंत में मेरा दूसरा कहानी संग्रह “तीस बरस घाटी” वैभव प्रकाशन रायपुर से प्रकाशित होकर आया. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली पावस व्याख्यानमाला के निमंत्रण पत्र आदि छापे जा चुके थे, और मैं चाहता था कि इस पावन अवसर में मेरे संग्रह का विमोचन हो जाना चाहिए. मैंने अपनी समस्या से माननीय पंतजी को अवगत कराया और अपनी मंशा जाहिर की. दादा पंतजी ने मुझसे कहा कि संग्रह की कम से कम दस प्रतियाँ लेकर आप आ जाना. उसका विमोचन हो जाएगा. दादा का आश्वासन पाकर मैं प्रसन्न था, लेकिन इस बात को लेकर चिंतित भी था कि विमोचन किन महापुरुष के हस्ते विमोचित होगा?
तृतीय विमर्श सत्र के विषय-शती स्मृति-राष्ट्रीय उर्जा के कवि रामधारी सिंह “दिनकर” पर अपना वक्तव्य देने के लिए मंच पर श्री अनिरुद्ध उमट, डा. श्री कृष्णचन्द्र गोस्वामी, श्री बी.बी.कुमार, श्री केशव “प्रथमवीर”, डा.श्रीराम पारिहार, श्री शंभुनाथ, श्री अरुणेश नीरन और कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे हमारे दादा श्री बालकवि बैरागीजी. इसी सत्र में मेरे संग्रह का विमोचन होना था. सत्र शुरु होने से पहले सारी औपचारिकता पूरी कर ली गई थी. (कहानी संग्रह “तीस बरस घाटी” को विमोचित करते बैरागीजी तथा अन्य सदस्य)
मैं रोमांचित था. वह दुर्लभ क्षण नजदीक आता जा रहा था और वह समय भी आया,जब दादा ने उसे विमोचित किया. मेरे लिए यह प्रथम अवसर था जब मैं दादा से रुबरु हो रहा था. उसके बाद से नजदीकियां बढ़ीं और अब कम से कम माह मे एक अथवा दो बार दादा से फ़ोन पर वार्ता हो जाती है. इस कार्यक्रम के काफ़ी समय पश्चात मुझे नाथद्वारा जाने का अवसर प्राप्त हुआ. नाथद्वारा मे स्थित साहित्यिक मंच”साहित्य-मण्डल नाथद्वारा” द्वारा मुझे सम्मानित किया जाना था. मैं अपने मित्र मुलताई निवासी श्री विष्णु मंगरुलकर जी के साथ यात्रा कर रहा था. यात्रा का सारा कार्यक्रम इटारसी आने के पहले ही गडबडा गया. संयोग यह बना कि मुझे भोपाल रात्रि विश्राम करना पड़ा. आगे की यात्रा में रतलाम रुकना पड़ा. फ़िर अगली सुबह छः बजे की ट्रेन से आगे की यात्रा करनी पड़ी. रास्ते में “मनासा” स्टेशन पड़ा. दादा की याद हो आयी. दरअसल वहाँ रुकने का कार्यक्रम पहले से ही तय था, लेकिन समय साथ नहीं दे रहा था. वैसे ही हम एक दिन देरी से चल रहे थे, और हमें अभी आगे सफ़र जल्दी तै करना था. स्टेशन से दादा को फ़ोन लगाया और अपने नाथद्वारा जाने का प्रयोजन बतलाया. मेरा मन्तव्य सुनने के बाद उन्होंने कहा-“गोवर्धन भाई, समय मिले तो जरुर आना”. उन्होंने बड़ी ही आत्मीयता के साथ मुझे अपने गांव आने का निमंत्रण दिया था,लेकिन चाहकर भी हम मनासा रुक नहीं सकते थे. मुझे विश्वास है कि वह समय एक दिन जरुर आएगा,जब हम दादा के गांव में होंगे. उनके साथ.....अपने साथियों के साथ.
तीन दिनी (22 सितम्बर से 24 सितम्बर 2012) नौवां विश्व हिन्दी सम्मेलन जोहान्सबर्ग-दक्षिण अफ़्रीका मे शुरु होने जा रहा है. माननीय दादा श्री बैरागीजी, इस ऎतिहासिक अवसर पर सम्मानीत होने जा रहे हैं. दक्षिण अफ़्रीका में गांधी के नाम से विख्यात श्री नेलसन मंडेला के हस्ते आपको सम्मानित किया जाएगा. मैं अपने परिवार की ओर से, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जिला इकाई छिन्दवाड़ा के समस्त पदाधिकारियों-सदस्यों तथा जिले में कार्यरत सभी साहित्यिक संस्थाओं की ओर से आपको कोटिशः बधाइयां और शुभकामनाएं देता हूँ. अपनी उम्र के अस्सीवें पड़ाव पर, दादा आज भी उतने ही सक्रीय हैं,जितने वे पहले रहे हैं.. परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि वे दीर्घायु प्राप्त करें और देश की सेवा के साथ-साथ, साहित्य सृजन करते रहें और गीतों के नायाब मोतियों की अनुपम सौगातें, हमें देते रहें. //आमीन// ,
सन्दर्भों और सूचनाओं में सुधार/परिवर्धन की अपार सम्भावनाओं के बावजूद लेख सुन्दर बन पडा है।
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