स्मृति ः डा 0 भवदेव पाण्डेय इतिहास सुरक्षित है डा 0 रमाशंकर शुक्ल यही कोई पांच माह पहले की बात है। घूमते हुए गुरुदेव के पास यूं ही ...
स्मृति ः डा0 भवदेव पाण्डेय
इतिहास सुरक्षित है
डा0 रमाशंकर शुक्ल
यही कोई पांच माह पहले की बात है। घूमते हुए गुरुदेव के पास यूं ही चला गया। तब वे भले चंगे थे। प्रभुनारायण श्रीवास्तव, ब्रजदेव पाण्डेय जी बैठे थे। गप्पें चल रही थीं देश-दुनिया की। मुझे देखा तो गदगद हो गये। प्रतिभा और बच्चों का कुशल क्ष्ोम पूछे। स्वभाव के अनुसार ढेर सारी तारीफें की और जिद के साथ चाय भी पिलाई। तसल्ली हुई कि डाक्टर साहब ठीक हैं और आज भी उनके हृदय में मेरे लिए वही पुरानी जगह बरकरार है।
29 जनवरी 2011
लेकिन आज तो डाक्टर साहब के यहां का सारा दृश्य ही बदल गया है। क्या हो गया इनको? मैं और प्रतिभा उनकी दशा देखकर सहम से गये थे। झक् सफेदी से नहाये कुर्ता-धोती में डाक्टर साहब की गौरवर्ण काया, चेहरे की लुनाई, ललाट पर एक खास तरह की दमक, बाल सुलभ हल्की-हल्की मुस्कान, कुछ भी तो नहीं। घर के बाहर वाली सड़क से लगी कोठरी में रजाई में लिपटे पड़े थे। आस-पास चिरई का पूत भी नहीं। कमरे का सामान बिखरा पड़ा था। आलमारियों में पुरानी फटी-चिथी किताबें मुंह चिढ़ा रही थीं। कुछेक प्रकाशकों के यहां से समीक्षार्थ आयी नयी किताबें भी झांक रही थीं। डाक्टर साहब निश्चेष्ट पड़े थे। चेहरा सूज कर बेडौल हो गया था। मक्खियां मुंह पर तब तक बैठी रहतीं, जब तक कि घड़र-घड़र की आवाज के साथ सांस ट्रेन की तरह न गुजर जाती। सांस रुकती, मक्खियां फिर छा जाती। गुरुदेव प्लेटफार्म थे, मक्खियां यात्री और सांसें ट्रेन। एक गुजरती, यात्री गायब हो जाते। फिर दूसरी की प्रतीक्षा में उतने ही आ धमकते।
करीब दसेक मिनट हम उन्हें यूं ही ताकते रह गये। समझ में न आता था कि रुकें या जायें। क्या पता कि डाक्टर साहब की अंतिम सांस चल रही हो। कुछ हो हवा गया तो इल्जाम हमारे पर ही जायेगा।
अचानक उनकी आंखें खुल गयीं। एक मिनट तक यूं ही देखते रहे, फिर बंद हो गयीं। सांसों का आना-जाना पूर्ववत हो गया। फोल्डिंग चारपाई पर पड़ी विशाल काया ने एक नया दृश्य उपस्थित कर दिया। मुंह खुला और काफी देर तक खुला रह गया। मालूम हुआ कि हिमालय की कोई गुफा का उन्नत द्वार हो, जिसका ऋषि जल्दी में कपाट बंद करना भूल गया। हमसे रहा न गया। बारी-बारी उनके पैरों पर माथ रख दिये। दिल से खुद-ब-खुद आवाज निकली, ‘गुरुदेव, आप कहते थे न कि देखना एक दिन यह लड़का बड़ी लकीर खींचेगा। उतना तो नहीं कर पाया, पर ये तीन किताबें उसी कड़ी की हिस्सा हैं। इन्हें आपके चरणों में अर्पित करने आया हूं। आप ही इनकी प्रेरणा हैं और आप ही का उत्साह, जिसे कुछ लोगों ने कुछ साल पहले अपने शालीन तिरस्कारों से एक चुनौती देते हुए हाशिये पर फेंकने की कोशिश की थी।'
आंखें फिर खुलीं तो एकटक हमें देखती रहीं। कोई पुरानी स्नेह की डोर अपनी ओर खींचे जा रही थी। फासले भूल गये। पैंताने बैठ गया और उनके दोनों पैर अपनी गोंद में रख लिये। प्रतिभा उनके सिर के सामने कुर्सी पर बैठ गयीं। उनकी हथेलियों को अपने हाथों में ले लीं और सहलाने लगीं। तभी एक महीन सी आवाज निकली-‘मेरे सिर के पास बैठो।'
प्रतिभा समझ न पायीं कि क्या कह रहे हैं गुरूदेव। मैंने संकेत में कहा ‘सिर के पास बैठ जाओ।' उन्होंने गुरुदेव के सिर को गोंद में रख लिया। मामूली बचे बालों को सहलाती रहीं। फिर वही महीन आवाज लटपटाते हुए निकली, ‘कैसे हो तुम लोग?'।
प्रतिभा ने आवाज थोड़ी ऊंची करते हुए बताया- ‘आपके शिष्य की तीन किताबें छपी हैं। (तीनों की प्रतियां दिखाते हुए) यही आपको भेंट करने आये थे।' .....................कैसे हो गये हैं आप?'
लेकिन उधर खामोशी छा गयी। पांच मिनट तक सांसें घड़र-घड़र का शोर करती हुईं गुजरती रहीं।
फिर खुलीं आंखें और वही लड़खड़ाती आवाज, ‘अच्छा है। अच्छा लग रहा है। इतिहास सुरक्षित है।' सासों की यात्रा घड़र............।
इस बार काफी देर गुजर गये, पर आंखें न खुलीं। तभी गुरुदेव के सबसे छोटे पुत्र यथार्थ आ गये। शायद उन्होंने हमारी आवाज सुनी हो।
उन्होंने बताया कि बाबूजी ठीक हैं। उम्र तो ज्यादा है ही। थोड़ा चलते हैं तो थक जाते हैं। अभी दवा लिये हैं, इसलिए सो रहे हैं। अन्यथा अन्यथा लोगों से मिलते-जुलते हैं। शाम को तो रोज ही सबके साथ बतियाते हैं। आपसे भी बात करते, पर शायद पहचाने नहीं।
हम चौंके, ऐसा कैसे हो सकता है? क्या सब कुछ अनजाने बोल रहे थे वे?
यथार्थ को विश्वास न हुआ। उन्होंने गुरुदेव को पुकार कर हिलाते हुए जगाया। पूछे-‘पहचान रहे हैं कौन आया है?'
महीन आवाज उभरी- ‘प्रतिभा, रमाशंकर।'
यथार्थ फिर घर के भीतर चले गये। हम थोड़ी देर तक यूं ही बैठे रहे। अकेले मरीज के पास कब तक बैठते, क्या बतियाते। भरे मन से फिर वैसे ही प्रणाम अर्पित किये और सड़क पर आ गये।
डाक्टर साहब ने मुझे कभी पढ़ाया न था। पर मेरे लिए शुरू से ही वे जिज्ञासा के केंद्र रहे। वर्ष 92 में केबी कालेज में निराला जयंती पर उन्हें वक्ता के रूप में बुलाया था। उन्होंने मुझे जांचा और मैंने उन्हें सुना। उन दिनों मैं कालेज के हिन्दी साहित्य परिषद का अध्यक्ष था। अपने वक्तव्य में उन्होंने मेरे प्रयासों की जब सराहना की तो मन खूब सरसराया। कार्यक्रम के बाद उनके साथ ही पैदल तिवराने टोला उनके घर तक आया। विदा के वक्त पैर छूने लगा तो कुछ देर बैठने को कह दिया। यहां-वहां की बातें करते रहे। कोई घनिष्ठता न होने के बावजूद ऐसे बतिया रहे थे, मानो हम उनके बड़े अपने और सगे हों। घंटे भर में मेरा सारा परिचय ले लिये। चलने लगा तो बोले, ‘आते रहा करो। तुममें बड़ी ऊर्जा है, उसको मैं तरासूंगा। एक दिन तुम बड़े लेखक बनोगे।'
ये बातें आम नौसिखिये साहित्यकार की तरह मेरे भी कान में मिसिरी घोलने लगीं। मैं नियम से उनकी साहित्य चौपाल का हिस्सा बनने लगा। डाक्टर साहब के भतीजे ब्रजदेव जी, भोलानाथ कुशवाहा, लल्लू तिवारी, गणेश गंभीर, धूमिल जी के बेटे रत्नशंकर पाण्डेय, प्रभुनारायण श्रीवास्तव, राजकुमार पाठक आदि भी उस चौपाल में नियमित शरीक होते। कवि गोष्ठी गोष्ठी के लिए किसी न किसी को फांसने के उपाय होते। हम सब उसमें शरीक होते। अखबारों में डाक्टर साहब के भाषणों के साथ हम सब के नाम छपते। आत्ममुग्धता में पढ़ने का चस्का बढ़ता गया। कविताएं भी लिखता गया, सुनाता गया। दावे के साथ कह सकता हूं कि डाक्टर साहब की वजह से भले ही कविताएं गोष्ठियों में सुनाता था, पर कविता की समझ न के बराबर थीं।
यह सब सिलसिला 98 तक जारी रहा। डाक्टर साहब के साथ मैं बहुत ज्यादा व्यस्त हो गया। इतना कि ओलियर घाट के कमरे से मेरा नाता केवल खाने-सोने और पढ़ने का रहने लगा। उन्हें मुझे पाकर एक छोटे दोस्त की तसल्ली होती और मुझे एक वजन भरे वरदहस्त का सुकून। उनकी उंगली पकड़कर मैंने साहित्य के अंदरखाने का बहुत बड़ा सच प्रयोग होते हुए देखा। चिढ़ता, मन भिनकता। कट-पिस के पैंतरे, दावें और सफेदपोशों, बड़े नामों के छोटे-छोटे करतब, करतबों को बड़ा बनाकर पेश करने की कला, बड़े को छोटा करने की तकनीक, छपने-छपाने के छद्म- यह सब डाक्टर साहब के साथ ही रहने के कारण देख सका। अन्यथा भीतर न तो आग जलती और न धधकने पाती। एक जंगली कंगाल घराने का अधपका युवक कम किशोर को डाक्टर साहब ने कैसे भी साहित्य के रणक्ष्ोत्र में लड़ने को उतार दिया। एक बात और कि डाक्टर साहब न होते तो प्रतिभा आज जीवन संगिनी भी न होतीं। परंपरा और शास्त्रों की जातीय व्यवस्था के एकदम विपरीत की यात्रा की संघर्षमय शुरुआत।
25 फरवरी 2011
विद्यालय से लौटकर चाय की प्याली उठाया ही था कि एक गैर साहित्यिक मित्र का फोन आया- ‘क्या डाक्टर भवदेव पाण्डेय का देहान्त हो गया?
‘क्या, कैसे पता?'
‘लोकल चैनल पर पट्टी चल रही है।'
गुरुदेव बीमार तो महीनों से थे। यह भी पता था कि सांसों की लड़ी कभी भी टूट सकती है। शिक्षक संघ के चुनाव व सम्मेलन के चलते देखने भी इलाहाबाद न जा सका। बस लोगों से हाल-चाल लेता रहता। शायद कोई अवरोध था, जो वहां जाने से रोक भी रहा था। अकेले गुरुदेव ही तो हैं उस घर में जो अपने सगे जैसे हैं, बाकी किसी से कोई आत्मीयता नहीं। सारा रिश्ता केवल जान-पहचान तक ही। और गुरुदेव तो आइ.सी.यू में हैं। उनकी यह हालत कैसे देख पाऊंगा?
दिन गुजरते रहे कि उनके मौत की खबर आ गयी। चाय की घूंट जैसे तैसे निगली। समुचित जानकारी के लिए भोलानाथ जी को फोन किया। पता चला कि तीन बजे ही सांस थम चुकी है। साढ़े तीन बजे वहां से लोग मीरजापुर के लिए चल दिये हैं। अधिकतम् शाम सात बजे तक पहुंच जायेंगे।
लल्लू तिवारी समेत कुछ और साहित्यकार और पत्रकार मित्रों को खबर की। आठ बजे राजेश के साथ पहुंचा तो बाहर वाले बैठक में पूर्व नगरपालिकाध्यक्ष अरुण कुमार दूबे, पूर्व सांसद उमाकांत मिश्र के अलावा कुछेक चैनलों के रिपोर्टर, नगर के कतिपय प्रतिष्ठित लोग और शिक्षक जमा थे। डाक्टर साहब का शव का आंगन में संस्कार हो रहा था। बाहर के चबूतरे पर सबसे छोटे पुत्र यथार्थ से पंडितजी प्राथमिक संस्कार करा रहे थे। लोग समय काटने के लिए यहां-वहां की बातें करते जा रहे थे। डाक्टर साहब की पुरानी किताबें पांच आलमारियों में बिखरी पड़ी थीं। किसी सज्जन ने अफसोस जताया, कितना पढ़ते थे पंडिज्जी। अब कौन संभालेगा इन्हें।'
कांग्रेस के नगर अध्यक्ष आशीष बुधिया का इस परिवार से गहरा नाता रहा है। बोले, ‘सलिल जी ही संभालेंगे सब।'
मुझसे रहा न गया। बात मुंह से फिसल गयी, ‘कौन संभालता है किसी बड़े के जाने के बाद। सौ गज की दूरी पर प्रेमघन जी की कोठी देख रहे हैं। खण्डहर हो गयी। सैकड़ों का उनका खानदान है। किसी को आयी इसकी सुधि?'
शायद बात मौके की नहीं थी, लोगों ने सुर बदल दिये। कारपेट व्यवसायी राजकुमार सिंह ने बताया, ‘पण्डिज्जी ने ही इसका सौदा कराया था छह लाख में। लेकिन बड़ा झमेला था। वो भट्टाचार्य आकर गिड़गिड़ाने लगा कि रहने दीजिए। आप इसे मत खरीदिये। हम रह रहे हैं, रहने दीजिए। बाद में मालूम हुआ कि इसे किसी चंदर कारपेट वाले ने खरीद लिया है।'
थोड़ी देर बाद सूचना मिली कि शव बाहर निकाला जा रहा है। जिसको माल्यार्पण करना हो कर दे। सबने उमाकांत जी से पहले माल्यार्पण कराने का सुझाव दिया। करीब 88 साल के बुजुर्ग व्यक्ति अब तक एक कोने में सोफे पर धंसे हुए थे। कांग्रेस में डाक्टर साहब के साथ ही राजनीति की थी। अंतिम बिदाई के लिए घंटों से प्रतीक्षारत थे। कांपते हुए बढ़े और माला पहनाकर मुंह फेर लिए। फिर हम सबने एक-एक कर माला-फूल अर्पित किया। नौ बज गये थे। दिन भर बरसात और मुख्यमंत्री के जनपद आगमन के कारण सड़क पर सन्नाटा पसरा हुआ था। उसी सन्नाटे को चीरते हुए ‘रामनाम सत्य है' की एक घ्वनि आसपास गूंजने लगी। 70 साल पहले डाक्टर साहब गोरखपुर के भस्मा गांव से मीरजापुर आये थे और फिर यही के हो कर रह गये। इसी घर में रहते हुए उन्होंने प्राथमिक, सीटी ग्रेड, एलटी ग्रेड, प्रवक्ता, फिर डिग्री कालेज के लेक्चरर पद पर नौकरी करते हुए राजनीति के साथ ही साहित्य की सेवा की। इसी घर से एक-एक कर बुलंदियों की ऊंचाई नापते रहे। एक दिन इतनी ऊंची यात्रा पर निकल गये, जहां से कोई फिर उसी रूप में नहीं लौटता।
कलम के सिपाही को न मिली तरजीह
गुरुदेव के चाहे जितने भी रूप थे, पर सबमें कलम शीर्ष पर थी। नौकरी, राजनीति, पत्रकारिता, शिक्षा और साहित्य- सबमें। लेकिन इस कलम के सिपाही को अखबारों के कलमकारों ने ठीक से अंतिम सलाम करना भी मंजूर न किया। 26 फरवरी की सुबह अखबारों की खबरें देख बड़ी निराशा हाथ लगीं। एक अखबार ने चार कालम में पासपोर्ट साइज की तस्वीर के साथ निधन तथा शोक संवेदना की खबरें प्रकाशित कीं तो दूसरे ने दो कालम में निधन पर शोक जताने वाली खबर। अन्य ने भी इसी तरह का अनुशरण किया। खबरिया चैनलों पर भी कुछ न दिखा। हम सभी हतप्रभ थे कि आखिर यह हो क्या रहा है। अखबार में करीब 15-17 साल काम करने के कारण मुझे थोड़ा बहुत तजुर्बा था कि समकालीन पत्रकारिता विज्ञप्तिजीवी हो चुकी है। न मिली तो उनको कोई गरज नहीं कि किसी खबर की खोज करेंगे। इसीलिए मैंने एक फौरी खबर सभी अखबारों को जारी कर दी थी, पर उसे भी छापने की फुर्सत किसी को न थी। अलबत्ता मुख्यमंत्री के एक-एक पल के कामकाज को काफी विस्तार से लिखा हुआ जरूर मिला। डा0 भवदेव पाण्डेय रेलबजट और मुख्यमंत्री मायावती के दौरे में दबकर रह गये।
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अखबारों में सुबह डाक्टर साहब को तलाशते हुए याद ताजा हो गयी- ‘देखिएगा, एक दिन इसके जैसा होनहार साहित्यकार अपने मीरजापुर में कोई न होगा। यह तो शुक्ल (आचार्य रामचंद्र शुक्ल) की परंपरा को आगे बढ़ाएगा।' मैं हर बार झेंप जाता। खिसियाहट होती कि बुढ़ऊ सठिया गये हैं। न् न, नहीं। सठियाता तो वह है, जो पहले ऐसा न हो, लेकिन सब कहते हैं कि ये जनाब हमेशा से ऐसे ही रहे हैं। पीठ पीछे चाहे जो भी बुराई करें, चाहे जितना रसातल भेजें, लेकिन सामने आने पर हर कोई गदगद होकर ही जायेगा। क्या मजाल कि 88 साल की उमर तक किसी ने कभी इन्हें कहीं भी अपमानित करने का दुस्साहस किया हो। डाक्टर साहब शब्दों के टॉपर खिलाड़ी हैं। लेड़ार कुत्ते को भी शब्दों से झाड़-पीटकर हाण्ड बना देंगे। नाराज हैं तो कहो शेर को भी लेड़ार कुक्कुर बना दें। लेकिन, तारीफ की भी कोई तो हद होती होगी, जहां पहुंचकर आदमी रुकने को विवश हो जाये। या रुक ही जाये। अब कहां आचार्य शुक्ल और कहां मैं। यानी कहां दाढ़ी और कहां.............. मैं (गुप्तांग के बालों का सभ्यजन नाम नहीं लिया करते। हालांकि वहां का भी बाल दाढ़ी वाले बाल की तरह व्यर्थ में ही सेवा लेता है। बाल होता है कि बवाल होता है)। फिर सोचता कि कहीं डाक्टर साहब मौज तो नहीं ले रहे हैं। यदि ऐसा भी होता तो भी मेरे पास प्रतिवाद का अवसर न रहता। क्योंकि डाक्टर साहब और आचार्य शुक्ल का बड़ा घनिष्ठ संबंध था। चौंकिये नहीं, सशरीर नहीं, बल्कि लेखन संबंधी। सन् 1993 तक तक डाक्टर साहब का लेखन से नाता कुछ वैसा ही था, जैसा नदी के किनारे रोज बैठने या फिर हाथ-पांव धोकर लौट आने वाले का होता है। तैराक का नहीं था। डूबने वाले का नहीं था। तब आचार्य रामचंद्र शुक्ल के नाम से संचालित रमइर्पट्टी तथा नारघाट की संस्थाओं के वे पदाधिकारी या सदस्य हुआ करते थे। शुक्ल जयंती और पुण्यतिथियों पर डाक्टर साहब के शुक्लसिक्त व्याख्यान बड़ी श्रद्धा से सुने जाते थे। उन्हीं व्याख्यानों को सुनकर थोड़ी बहुत श्रद्धा मुझे भी शुक्लजी से हो गयी थी। शायद डाक्टर साहब से जुड़ने का एक कारण यह श्रद्धा भी थी। वो तो बाद में जब उन्होंने कलम हाथ गही, तब मालूम हुआ कि शुक्ल की पूंछ पकड़कर साहित्य की वैतरिणी पार करने चलोगे तो मझधार में ही डूबने का खतरा है। इसलिए बेहतर होगा कि शुक्ल के पट्टीदार आचार्य द्विवेदी परंपरा के महंथोंं- नामवर सिंह, राजेंद्र यादव आदि की बाह गहो। डाक्टर साहब ने राजेंद्र यादव की बांह गह ली। हंस में पहला धांसू लेख छपा- ‘निराला साहित्य में दलित चेतना'। तब दलित चेतना का उभार शुरू हुआ था। राजेंद्र यादव भी नारी और दलितों को लेकर खूब चर्चा मंे थे। उन्हें ऐसे लेखकों की दरकार थी, जो जूता भिंगोकर धर्मशास्त्रों को धूने। पंडित परंपरा के पाखंड की चीर-फाड़ करे। उन्हें दलित व नारी शोषण का दस्तावेज प्रस्तुत करना था। इसके लिए उन्हें हिन्दी साहित्य के शीर्ष कवियों और लेखकों का भी सपोर्ट चाहिए था। निराला जी क्रांतिदर्शी और क्रांतिकारी तो थे, लेकिन उनके साहित्य की दलित पीड़ा से लोग अनजान थे। डाक्टर साहब ने चतुरी चमार से लगायत अनेक उदाहरणों द्वारा निराला (त्रिपाठी- यानी ब्राह्मण) को दलित समर्थक साबित किया। वाकई खोज उम्दा थी। हिन्दी जगत के लिए भी नयी। हंस में खूब प्रतिक्रियाएं छपीं। राजेंद्र जी का दिल-बाग-बाग था। उस समय शुक्ल परंपरा के पंडित रामस्वरूप चतुर्वेदी, डा0 रामविलाश शर्मा और विद्यानिवास मिश्र जिंदा थे। शर्मा जी और नामवर सिंह की मुठभेड़ पत्रिकाओं में छपती रहती थी। शर्मा जी नामवरी भाषा की फब्ती कसते तो नामवर जी विलासी खोज की। फिर भी नामवर जी दिल्ली में छाये थे। वाणी और राजकमल प्रकाशन पर उनकी मजबूत पकड़ थी। अनेक और ख्यातिलब्ध प्रकाशन थे, जो नामवर जी के सागिर्द हुआ करते थे। राजेंद्र जी भी कहां कम थे। लेकिन, सुविधा के हिसाब से नामवर जी कुछ सरल थे, जबकि राजेंद्र जरूरत से ज्यादा टेढ़े। उनके मानकों पर डाक्टर साहब बहुत दूर तक खरे नहीं उतर रहे थे। डाक्टर साहब के साथ बड़ी दिक्कत यह थी कि न तो वे महिला थे और न ही दलित। और न ही मौलिक साहित्य सर्जक। (हंस का कोई भी पाठक इन अयोग्यताओं को समझ सकता है)। डाक्टर साहब शुद्ध रूप से समीक्षक थे और समीक्षा के आकाश में अभी उड़ान भरने की कोशिश कर रहे थे।
डाक्टर साहब के केबी स्नातकोत्तर महाविद्यालय से सेवानिवृत्त हुए करीब सात साल गुजर गये थे। दूसरे पुत्र शिशिर पाण्डेय जेएनयू से पी-एच0डी0 कर रहे थे और वह भी नामवर जी के ही अंडर में। उन्होंने पिता को परामर्श दिया कि नामवर जी से मिलें, क्योंकि स्वतंत्र पहचान बनाने के मामले में राजेंद्र जी बहुत बड़े वट वृक्ष हैं। इतनी घनी छाया देंगे कि धूप और रोशनी- सब उन्हीं के शिखर पर अटक जाएगी। डाक्टर साहब को सुझाव सही समझ में आया। वे नामवर जी से मिलने दिल्ली गये। यहां राजेंद्र यादव जैसी ठसक न थी। एक सरलता थी, एक तरलता थी। छोटा स्वार्थ था- आचार्य शुक्ल साहित्य की खामियां खोजना। डाक्टर साहब शुरू से ही अध्यवसायी रहे। मतवाला पत्रिका की बहुमूल्य फाइलें, प्रेमघन जी की पास वाली कोठी से अर्जित अनेक आउट आफ प्रिंंट भारतेंदु और द्विवेदी युगीन ग्रंथ, लाला लाजपत राय लाइब्रेरी नारघाट और मेमोरियल लाइब्रेरियों सहित केबी कालेज की लाइब्रेरी से अर्जित अनेक दुर्लभ पुस्तकों का उनके पास निजी भण्डारण था। इन ग्रंथों की मूल्यवत्ता को वे भली-भांति समझते थे। इसलिए डाक्टर साहब ने इन्हीं करीब सौ वर्षों की भूली जा चुकी थातियों को पलटना शुरू किया।
डाक्टर साहब की सदैव से नया कहने की आदत रही है। इस नया कहने के आवेग में वे प्रायः भाषा को आदिकालीन बना दिया करते। वर्ष 1993 के पहले तक डाक्टर साहब मीरजापुर जनपद में एक कुशल संचालक की छवि रखा करते थे। जिस मंच पर वे संचालक रहते, उसकी गरिमा बढ़ जाती। श्रोता समूह को एक बड़े और विद्वान व्यक्ति के संचालन का जबर्दस्त भरोसा रहता। डाक्टर साहब के पास पब्लिक को रिझाने का एक से बढ़कर एक नुस्खा रहता। कभी पब्लिक हंसते-हंसते लोटपोट रहती तो कभी गंभीर और कभी एकदम चौंक जाती। किसी भी बात की एकदम नयी व्याख्या। यह दीगर बात होती कि कभी-कभी यह नयी व्याख्या किसी को अति प्रसन्न करने के आवेग में जरूरत से ज्यादा प्रशंसनीय हो जाती। तब श्रोताओं के सामने यह मुश्किल होती कि मुख्य अतिथि महोदय की जो स्थानीय छवि है, वह यहां कैसे आकर एकदम से बदलकर नयी हो गयी। फिर भी एक बात तो साफ रहती कि डाक्टर साहब बोलने के मामले में सदैव भारी रहते। डाक्टर साहब के बतौर संचालक मंच पर सवार रहने से मुख्य, विशिष्ट अतिथियों और अध्यक्षों के सामने बड़ी समस्या हो जाती। डाक्टर साहब इतनी बड़ी-बड़ी चीजें पहले ही पेश कर चुके होते और इस ढंग से कि उनके पास बोलने को कुछ बचता ही न था। तब वे मजबूरी में चंद शब्दों में यह कहते हुए अपनी वाणी को विराम दे देते कि ‘अब डाक्टर साहब जैसे विद्वान व्यक्ति के सर्वांग प्रकाश डालने के बाद बचता ही क्या है।' वैसे भी भाषा के महाव्यापारी के समक्ष टुटपुजिये आखिर कौन सा उत्पाद पेश करेंगे। वे जब भी मंचों का संचालन कर रहे होते, अतिरिक्त प्रभाव डालने की उनकी चेष्टा जारी रहती। एक दफे की बात है। 1988 में यही कोई इंटर में पढ़ रहा था। गिरधर के चौराहे पर एक हिंग्लिस (हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित) स्कूल का वार्षिकोत्सव चल रहा था। उस जमाने में ढेर सारी गाड़ियां शहरों में भी कम ही एकत्र दिखती थीं। डाक्टर साहब संचालन कर रहे थे और कांग्रेस के वरिष्ठ जनपद स्तरीय नेता माता प्रसाद दूबे जी उसके मुख्य अतिथि थे। डाक्टर साहब ने अतिथियों का परिचय कराना शुरू किया तो माता प्रसाद पर आकर भाषा का पिटारा खोल दिये- ‘माता प्रसाद। यानी माता का प्रसाद। संसार की सबसे बड़ी माता विन्ध्यवासिनी देवी का यह शक्ति पीठ है और मां विन्ध्यवासिनी की कृपा से ही माता प्रसाद जी का जन्म हुआ। माता ने वरदान दिया कि जाओ और शक्ति का बीज कमजोरों में बांटो। इसलिए माता प्रसाद जी अब तक गरीबों, असहायों, कांग्रेसियों और आम जनता को शक्ति का प्रसाद बांट रहे हैं। इनके शक्ति वितरण का ही प्रभाव है कि आज कांग्रेस जो मीरजापुर में इतनी सशक्त है, वह माता प्रसाद जी के कारण है। अब जब खुद माता का प्रसाद यहां का मुख्य अतिथि है तो यह अपने आपमें साबित हो गया कि आज का कार्यक्रम सबसे शक्तिशाली कार्यक्रम है। इसलिए इसकी विशिष्टता अपने आपमें प्रमाणित है।' इंटर के छात्र के लिए शब्दों की इतनी धारावाहिक व्याख्या की कल्पना तक न थी। गांव पहुंचे तो चाचा को बताये। वे डाक्टर साहब के विद्यार्थी थे। किसी को आकाश पहुंचाने या पाताल में ठूंसने की कला उनमें भी गुरु की ही तरह थी। फिर तो वे घंटों हमें बैठाकर डाक्टर साहब की अनेक विशिष्ट रहस्यमयी और तिलस्मी कहानियां सुनाते रहे। हम पांच-छह किशोर टुकुर-टुकुर चाचा को ताकते हुए अनुपम कथा सुन रहे थे। डाक्टर साहब की महानता के आकाश में विचरण कर रहे थे। मन ही मन डा0 भवदेव पाण्डेय बनने की कल्पना कर रहे थे। चाचा के प्रति भी श्रद्धा उमड़ी जा रही थी कि इत्ते बड़े विद्वान के ये डायरेक्ट शिष्य हैं।
हालांकि, डाक्टर साहब को कभी-कभी यह नयी व्याख्या महंगी भी पड़ जाती थी। प्रभुनारायण श्रीवास्तव (‘अनाज का दाना चुप है' के रचनाकार) एक बार डाक्टर साहब के साथ बनारस से लौटे थे। यह शायद साल 2002-03 की बात होगी। एक-दो दिन बाद मैं उनसे मिलने पहुंचा तो वे हंसते-हंसते लोटपोट होने लगे। वे बताते कम हंसते ज्यादा थे। वो तो पूरी बात सुनने के बाद पता चला कि जिस कार्यक्रम में ये लोग शामिल हुए, उसमें डाक्टर साहब के व्याख्यान पर श्रोताओं ने बड़ी खिल्ली उड़ाई। प्रभु नारायण जी काफी देर बाद प्रकृतस्थ हुए तब कहीं जाकर वहां की स्थिति बता पाये। उनके अनुसार, नामवर जी संभवतः बीएचयू के एक कार्यक्रम में आये थे। किसी समसामयिक मुद्दे पर व्याख्यानमाला थी। नामवर जी के विशेष निर्देश पर आयोजकों ने डाक्टर साहब को भी आमंत्रित किया था। प्रभु जी के पास कार थी। डाक्टर साहब ने जुगाड़ में प्रभु जी और ब्रजदेव जी के अलावा किसी एक और साहित्यिक मित्र संभवतः गणेश गंभीर जी या फिर कोई और ठीक से याद नहीं, को साथ लेकर व्याख्यान कक्ष पहुंचे। प्रमुख लोग मंचासीन हुए और एक-एक कर व्याख्यान शुरू हुआ। डाक्टर साहब की बारी आयी तो माइक पकड़ते ही मुद्दे की बजाय नामवर जी की यश पताका फहराने लगे। वक्ताओं को अपनी बात कहने का समय बहुत अल्प दिया गया था। पता चला कि डाक्टर साहब निर्धारित समय तक नामवर जी की नामवरी के कसीदे ही पढ़ते रह गये। बड़ा बवाल हुआ। श्रोता दीर्घा से हूटिंग होने लगी। काफी टोका-टोकी के बाद डाक्टर साहब को मंच छोड़ना पड़ा। इसके बाद अवधेश प्रधान को बोलना था। उन्होंने माइक पर पहुंचकर डाक्टर साहब के व्याख्यान को चारण भाषा करार दे दिया। डाक्टर साहब तुनक गये। बड़ी मुश्किल से कार्यक्रम का समय काटे। उसके बाद निकले तो सबको लेकर चलते बने। नामवर जी से औपचारिक विदा भी न मांगने गये।
मंचों पर डाक्टर साहब की दबंगई भी खूब चलती थी। जहां पहुंचते, आयोजकों की योजना को परे धकेलते हुए अपने मनमाफिक कार्रवाई शुरू कर देते। चहेतों को विशिष्ट अतिथि, अध्यक्ष और संचालक बना देते। मुख्य अतिथि तो उनके द्वारा नियुक्त संचालक उन्हें खुद ही बना देता। इस संबंध में एक घटना का उल्लेख यहां जरूरी है। संभवतः वर्ष 95-96 की बात है। नगरपालिका के चुनाव के कुछ माह पहले संस्कार भारती की ओर से एक साहित्यकार सम्मान समारोह का कार्यक्रम आयोजित हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व लोकनिर्माण मंत्री और स्थानीय विधायक डा0 सरजीत सिंह डंग को मुख्य अतिथि और बाद के नगर पालिका अध्यक्ष गोपाल चुनाहे को अध्यक्षता करनी थी। मैं, राजकुमार पाठक, गणेश गंभीर और भोलानाथ कुशवाहा जी डाक्टर साहब के यहां जुटे। वहीं से सब लोग कार्यक्रम के लिए साथ चले। त्रिमोहानी स्थित खत्री धर्मशाला पहुंचे तो मंच लकदक सजा हुआ था। डा0 डंग अभी आये नहीं थे, लेकिन गोपाल चुनाहे जी मौजूद थे। संचालन डा0 अवस्थी को करना था। संस्कार भारती के कार्यकर्ता व्यवस्था में लगे हुए थे। प्रभु नारायण, भवेश, विनीत, नीरस, पहले से ही विराजे थे। डाक्टर साहब के कमरे में दाखिल होते ही प्रणाम, चरणस्पर्श, नमस्ते का सिलसिला समाप्त हुआ तो वे सीधे मंच पर जा विराजे। मैंने केबी कालेज के अपने सबसे काबिल प्राध्यापक डा0 टीएन सिंह से घर के सामने कार्यक्रम होने के नाते विशेष अनुरोध किया था कि वे सम्मान समारोह में जरूर आयें। टीएन सिंह जी बड़े तानाशाह आदमी थे। हिन्दी के प्राध्यापक थे, पर साहित्यिक गोष्ठियों में कभी न जाते। कहते कि ‘भाषा के लूले लंगड़ों की लार पीने जाऊं? फिर भी बहुत आग्रह करने पर वे इस कार्यक्रम में आ ही गये थे। इसलिए मैं उन्हीं के बगल जाकर बैठ गया। पैर छुआ तो उन्होंने एक सवालिया निगाह मुझ पर डाली। संकोच और डर से घबराकर मैंने कहा कि सर, बस अब शुरू ही होने वाला है। तब तक माइक से आवाज निकली- ‘भाई जो लोग यहां-वहां टहल रहे हैं, अब अपना स्थान ग्रहण कर लें।' उधर निगाह गयी तो देखा कि डाक्टर साहब माइक पर सवार हो चुके हैं और जारी हैं- ‘आज का दिन बड़े गौरव का है। शहर के जाने-माने साहित्यकार गोपाल चुनाहे जी मंच पर पधार चुके हैं और मैं उनसे विशेष प्रेमपूर्ण आग्रह करता हूं कि वे आज के कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वीकार करें।'
इसके पहले कि कोई कुछ समझे, तालियां बज उठीं और डाक्टर साहब बिना किसी की परवाह किये जारी रहे- ‘सबसे बड़ी बात है कि आज इस कार्यक्रम में केवल मीरजापुर ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के सबसे यशस्वी मंच संचालक डा0 राजकुमार पाठक स्वयं यहां मौजूद हैं। उन्होंने इस कार्यक्रम के संचालन का हमारा विशेष अनुरोध स्वीकार भी कर लिया है। इसलिए मैं उनसे आग्रह करता हूं कि वे आयें और संचालन का गुरुतर दायित्व स्वीकार करें।
डा0 पाठक तो जैसे हाथ-पैर धोकर इसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। वे कूद कर मंच पर जा विराजे। परस्परं प्रशंसयंति अहो रूपं अहो ध्वनिम्। अब डाक्टर साहब को महिमामंडित करने की बारी पाठकजी की थी। वे शुरू हुए-‘यह कार्यक्रम तो स्वतः धन्य हो गया, जब यहां अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विद्वान डाक्टर भवदेव पाण्डेय जी विराजमान हो गये। यह सुखद आश्चर्य ही है कि जिस परंपरा को आचार्य रामचंद्र शुक्ल और प्रेमघन जैसे मनीषियों ने शुरू किया था और करीब पचास साल से वह ओझल थी, उसके ध्वजवाहक डा0 पाण्डेय जी बनकर इस समय पूरी दुनिया में छा गये हैं। क्या कविता, नवगीत, बल्कि शोध के क्ष्ोत्र में डाक्टर साहब ने अनेक नये कीर्तिमान हिन्दी में खड़े कर दिये हैं और जिसका लोहा बड़े-बड़े नामवर साहित्यकार मान रहे हैं। ऐसे महान और यशस्वी साहित्यकार के लिए जोरदार तालियां।'
तालियां बजीं। इसलिए कि कुछ खास लोग तालियां बजाने के लिए पहले से ही सहेजे गये थे और कुछ लोग श्रद्धा से बजा रहे थे। डा0 पाठक फिर शुरू हुए, ‘अब मैं बड़ी विनम्रता से डाक्टर साहब से अनुरोध करूंगा कि जैसे उन्होंने आयोजकों के आग्रह को स्वीकार कर यहां समय दिया है, उसी तरह एक और कष्ट करें कि आज के मुख्य अतिथि पद को स्वीकार करने की कृपा प्रदान करें।'
सब अवाक्। खुसुर-फुसुर शुरू हो गयी। अरे, मुख्य अतिथि तो डंग को बनना था। डा0 अवस्थी दौड़े, नीतिन, रवींद्र आदि कार्यकर्ता संचालक के कान में कुछ बोलने पहुंचे, लेकिन कहां, पाठक जी ने जो बोल दिया, उसे कौन टालेगा। यदि टालने की कोशिश की गयी तो साहित्यकारों का खेमा नाराज हो जायेगा और फिर महफिल भंग। डाक्टर साहब का क्या, तुनक कर चल दिये तो उनके साथी भी फूट लेंगे। तब क्या होगा? जाने दीजिए, जो हुआ सो हुआ। चुनाहे का चेहरा लाल हो गया। वे क्षोभ और ग्लानि से भरे जा रहे थे, पर स्वयंभू मुख्य अतिथि के आगे किसी की चलनी भी तो नहीं।
थोड़ी देर बाद डंग जी आ गये। संचालक ने उनके स्वागत में कुछ कसीदे पढ़ते हुए विशिष्ट अतिथि का तमगा भेंट कर दिया। उन्हें मंचासीन होने का आह्वान किया और वे चुपचाप जाकर एक किनारे बैठ गये। डाक्टर साहब अपनी रणनीति में सफल हो गये थे। आराम से मसनद खींचे और उसी पर आरूढ़ हो सबसे ऊंचा तख्तेताउस बना लिये। संचालक जारी थे। संस्था के हिसाब से साहित्यकारों का जो चयन हुआ था, अब उसका कोई मायने नहीं रह गया। राजकुमार जी ने एक वाक्य में निपटा दिया-‘अब सभी कवियों से अनुरोध है कि वे मंच पर आकर आसन ग्रहण करें।' कौन-कौन? इसका हिसाब करने की जरूरत नहीं। जो कवि है, वह मंच पर बैठेगा। अचानक सभी उठ खड़े हुए और मंच की ओर चल पड़े। अरे बाप रे, इसका मतलब कि श्रोता थे ही नहीं। आखिर इतने कवि शहर में आये कहां से। पता चला कि हर महंथ टाइप का कवि अपने साथ एकाध चेला भी लेता आया है, जिसे कवि बनाने का वह लंबे समय से आश्वासन दे रहा था। सो, ऐसा मौका भला कहां कोई जाने देता है। अब कविता की कसौटी तो बताई नहीं गयी थी कि ऐसी कविता सुनाओगे, तभी सम्मान मिलेगा। मंच ठसाठस भर गया। भोलानाथ और प्रतिभा जी उसी मंच पर विराजमान थीं। महिला होने के नाते उनके अगल-बगल एक-एक बित्ता जगह छोड़कर लोग जम गये। मैं अपनी जगह से न उठा। हालांकि उस समय मैं भी कविता में पंख खोल रहा था और लोग मुझे भी डाक्टर साहब के मठ का ही चेला मान रहे थे, इसलिए मेरे मंचासीन होने में कोई दिक्कत न थी। लेकिन, डा0 टीएन सिंह को छोड़कर जाना क्या उचित होगा? ना। हिन्दी का इतना बड़ा महारथी भला दरी पर बैठा रहे और मैं टुटपुजिया जाकर मंच पर सम्मान हासिल करूं, संभव नहीं। लेकिन डाक्टर साहब कहां मानने वाले थे। वे वहीं से तेज आवाज में पुकारना शुरू कर दिये- ‘रमाशंकर आओ। तुम वहां क्यों बैठे हो।'
मैंने वहीं से विनम्रता में प्रतिवाद किया- ‘ठीक हूं सर। जब कविता पढ़ने की बारी आयेगी तो आ जाऊंगा। अभी सर से बात कर रहा हूं।'
राजकुमार जी का नया स्वर उभरा- ‘अब संस्कार भारती के संयोजक से अनुरोध है कि वे अतिथि साहित्यकारों का माल्यार्पण करें और अंगवस्त्रम प्रदान करते हुए सम्मानित करें।' एक दर्जन का इंतजाम था और दो दर्जन साहित्यकार मंच पर। आनन-फानन दर्जन भर माला और शाल और मंगायी गयी। एक-एक कर सम्मान होता गया। आखिर में बारी आयी मुख्य अतिथि की। माला पहनने के बाद शाल पर मुख्य अतिथि महोदय अड़ गये, ‘ये क्या? जो शाल सभी कवियों के लिए, वही शाल मुख्य अतिथि के लिए भी? यह भी कोई तरीका है। तुम्हारे पास अच्छी शाल न हो तो मत दो, लेकिन एक बराबर न तौलो।'
अब क्या किया जाये? एक सज्जन आगे बढ़े- ‘बाबू जी, अभी इसे ले लीजिए, लड़के को भेज रहा हूं। वह दूसरा लेकर आयेगा तो बदल लीजिएगा।'
‘नहीं, जब आयेगा, तभी सम्मान करना। ये वाली शाल उस लड़के रमाशंकर को दे दो।'
फिलहाल, मैंने अंगवस्त्रम लेने से मना कर दिया। पता नहीं क्यों यह नौटंकी बर्दाश्त नहीं हो रही थी। कवियों की श्रेणी में अपने भी शामिल होने पर उस दिन पहली बार कुछ घृणा सी होने लगी। लगा कि मामूली से उपहार पर जब ये गिरे जा रहे हैं तो भला राजाओं-महाराजाओं के दरबारी कवि गांव-गज-तुरंग-मुद्रा आदि के लोभ का संवरण कैसे करते। यदि वे राजा की चापलूस कारखाने के कुशल शब्द बुनकर थे, तो क्या बुरा करते थे। सारे तमाशे पर टीएन सिंह की भृकुटी लगातार टेढ़ी हो रही थी। आखिर में वे तुनक ही गये-‘चलता हूं शुक्ला। ये मक्कारी हम नहीं देख सकते।'
मैं गिड़गिड़ाया, ‘सर जब इतना सब देख ही लिए हैं तो सम्मान की काबिलियत भी देख लीजिए।'
वे मान गये। राजकुमार जी ने निचले पायदान से कवियों को काव्य पाठ का आह्वान करना शुरू किया। तब तक श्रोताओं की संख्या काफी बढ़ चली थी। अब जिस भी कवि को पाठ का निर्देश दिया जाता, वह एक कविता निर्देश पर और तीन-चार अपने मन से बिना श्रोताओं की परवाह किये सुनाता चला जाता। जब चौतरफा टोकाटोकी शुरू हो जाती, तभी वह जगह छोड़ता। मेरी भी बारी आयी। पाठक जी ने आवाज दी। मंच पर पहुंचा, एक कविता सुनाई और आकर टीएन सर के बगल बैठ गया। वहां किसकी कविता में कितना दम था, इसका कोई मतलब न था, क्योंकि हर कविता पर एक ही तरह की वाह-वाह निकल रही थी। यह तो बहुत बाद में समझ में आया कि यह काव्य गोष्ठी का सामान्य शिष्टाचार है। आप वाह-वाह नहीं करोगे तो आपके पाठ पर दूसरे लोग भी वाह-वाह नहीं करेंगे। रात के 11 बज चुके थे। एक-एक कर सभी कवि चुक गये तो मुख्य अतिथि ने लपक कर माइक खींच ली-‘अब मंच काव्य की पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है। अब मैं आपके सामने उस सख्शियत को आमंत्रित करता हूं, जिसे सुनने के लिए आप लोग काफी देर से बेचैन हैं। व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर डा0 राजकुमार पाठक जी आयें और महफिल का मिजाज बदलें। प्रिय डा0 पाठक जी।'
पाठक जी धोती की फुनगी पकड़े मंच पर बज्रासन में बैठ गये। स्पीकर पकड़े और पब्लिक की ओर देखने लगे। पब्लिक उन्हें देखने लगी। पूरे मिनट देखा-देखी के बाद अचानक जोर से पाठक जी बम पटकते हुए से बोले-‘मेरी एक-एक कविता पर/चाय समोसा धर दे/वीणा वादिनि वर दे।' सारे कवि एक साथ वाह-वाह कर उठे। पाठक जी गदगद। उन्होंने दूसरी बार पंक्तियों को और भी तेज आवाज में दुहराया-‘मेरी एक-एक कविता पर/चाय-समोसा धर दे/ वीणा वादिनि वर दे।'
टीएन सिंह का संयम भहरा गया। पिनपिनाते हुए उठे, ‘स्साले की खोपड़ी पर दस जूता भी धर दे' और पलटकर महफिल से चले गये। साथ में मैं भी। गली में आया तो वे अपने सामने वाले मकान की सीढ़ियां चढ़ने लगे। समझ गया कि गुरू का दिमाग सनक चुका है। इसलिए पीछे से ही पांव छुआ और उल्टे पांव भागा। बाद में मालूम हुआ कि जबानी दस जूते का पाठक जी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था और कार्यक्रम अपने समय पर ही समाप्त हुआ।
वर्ष 1995 तक डाक्टर साहब संचालक से पदोन्नत होकर मुख्य अतिथि और अध्यक्ष बनाये जाने लगे थे। हालांकि अपने जिले में सीधे-सीधे इस पद पर नवाजने में लोगों को थोड़ी हिचक जरूर होती थी। फिर भी जब कोई आइर्एएस, पीसीएस, आइर्पीएस अधिकारी न मिलता तो डाक्टर साहब विकल्प के रूप में मुख्य अतिथि बना लिये जाते। यही कोई 96 की घटना थी। डाक्टर साहब के कई लेख तब तक हंस आदि में प्रकाशित हो चुके थे। यश में 20-25 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी थी। 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाने के लिए उनके ज्येष्ठ पुत्र सलिल पाण्डेय और उनके कुछ सागिर्द विष्णु मालवीय, एलआइर्सी वाले मिश्रा जी, पत्रकार आशुतोष दूबे, शिवशंकर आदि ने तैयारी की थी। तब सलिल और डाक्टर साहब में छत्तीस का व्यवहार चल रहा था। मुझे इस कार्यक्रम के बारे में कोई जानकारी न थी। रोजाना की तरह उस दिन भी शाम को साढ़े चार बजे डाक्टर साहब की बैठक में दाखिल हुआ तो प्रभुनारायण, गणेश गंभीर, राजकुमार पाठक, लल्लू तिवारी जी आदि साहित्यकार पहले से ही विराजमान थे। और, सभी ‘देवता-सो बैठे सब साधि-साधि मौन हैं'। मंडली गंभीर तो मेरी क्या बिसात जो कुछ बोलूं, लेकिन डाक्टर साहब देखते ही चहक पड़े-‘आओ, आओ, रमाशंकर, बैठो'।
मैंने पांव छुए और सबको हाथ जोड़कर एक कोने में चुपचाप बैठ गया। डाक्टर साहब हमेशा की तरह मोटे मशनद पर अन्य लोगों से ऊंचाई बनाते हुए विराजमान थे। आदत के मुताबिक दोनों मोटी सफेद भौंहों पर हाथ फेरने के बाद अपने ही हाथ से सफाचट चेहरे को सहला गये। सभी को पता है कि जब वे ऐसा कर रहे होते हैं तो उसके बाद कुछ बोलना तय है। लेकिन, इसी बीच सलिल जी ने इसारे से मुझे बाहर बुला लिया। कंधे पर हाथ रख बरामदे के कोने में ले गये। मेरी हालत पतली हो रही थी। न जाने क्या बात हो, पिता-पुत्र में खटास तो पहले से ही है, आज कुछ बड़ी तो नहीं हो गयी। वरना इतने लोग बैठे हैं और कोई कुछ बोल क्यों नही रहा?
सलिल जी ने बात करने से पहले सड़क पर सुर्ती की एक पिच्ची मारी और बास का एक भभका मेरे चेहरे पर छोड़ते हुए बोले, ‘चुकला जी, ज़या इनको चमजाइए। अम लोग कबचे चिपायिच् कय् यहे हैं औय ये ऐटें जा यहे हैं।'
‘किस बात के लिए भाई साहब?' मैंने जानना चाहा।
‘अये हां, आपको तो बतान्या ही भूल गये थे। आज चउदह सितंबय है न, चो हिन्जी जिवच पर अम चबने केएम के बगय वायी स्कूय में एक कायकम अक्खा ऐ। पहये डीयम को मुख्य अतिथि बनाना था, पय् वे नई आ यये यैं। चो, छोचा कि इन्ये यी मुख्य अतिथि बना दें। अब ये एैं कि नौटंकी कय् यये यैं।'
मैं हतबुद्धि क्या करता। डाक्टर साहब को मनाने की बात कर रहे हैं। भला जिसे प्रभुजी, व्रजदेव जी, गंभीर जी और कुशवाहा जी जैसे भारी-भरकम लोग नहीं मना पाये, मेरे जैसे पिद्दी से छोकरे से मान जायेंगे? पता नहीं क्यों सलील जी को यह भरोसा हो गया कि हम कहेंगे तो वे चल देंगे। पैर में जैसे मन भर की चकरी बांध दी गयी हो। बड़ी मुश्किल से फिर बैठक में दाखिल हुआ और कोने वाली जगह में धंस गया। हिम्मत बटोरी और भूमिका शुरू की-‘कहीं की तैयारी है क्या सर?'
‘ऐं, न् नहीं। बस यूंही बैठ लिए थे।'
व्रजदेव जी ने बात खींची- ‘अरे वो आज हिन्दी दिवस पर सलील वगैरह ने एक कार्यक्रम रखा है, लेकिन बड़ी देर हो गयी है।
मैंने डोर पकड़ी- ‘कहां देर हुई है, अभी तो पांच बजे ही हैं।'
डाक्टर साहब ने फिर मोटी सफेद भौहों पर हाथ फेरा- ‘अरे, उसकी बात नहीं है जी। ये लोग घर की मूली साग बराबर समझ रहे हैं।'
सलील जी की मंडली हमारी बात पर कान लगाये दरवाजे से बगल खड़ी थी।
डाक्टर साहब जारी थे- ‘अब तुम ही बताओ, नामवर सिंह को दिल्ली से बुलाते तो गाड़ी, पैसा और होटल खर्चा देते कि न देते?'
‘देते।'
‘मान लो बनारस से काशियैनाथ को बुलाते तो खर्चा देते कि न देते?'
‘देते।'
‘रामस्वरूप चतुर्वेदी को बुलाते तो यह सब करते कि न करते?'
‘करते क्यों नहीं।'
‘तो क्या मैं इन लोगों से कम हूं? चलो, पैसे नहीं दे रहे हो कोई बात नहीं, कम से कम एक ठो कारै सही, जाने आने के लिए देना चाहिए था कि नहीं?'
‘बिल्कुल।'
‘एक तरफ तो मुझे मुख्य अतिथि बना रहे हो और दूसरी तरफ जाने के लिए एक ठो वाहन तक नहीं दे सकते।'
बता दें कि डाक्टर साहब के घर से कार्यक्रम स्थल मात्र डेढ़ किलोमीटर था। अब इतने के लिए कार की मांग, कितना बचकाना या हल्का था, किन्तु डाक्टर साहब कह रहे हैं तो उसकी कीमत है। दूरी चाहे जितनी हो।
मैंने बीच का रास्ता निकाला-‘सर, तो चलिए मैं आपको ले चलता हूं।'
डाक्टर साहब लपके-‘तुम कोई वाहन ले आये हो क्या?'
‘हां सर, मेरे मित्र की स्कूटर है।'
‘तो फिर बाकी लोग कैसे चलेंगे?'
‘तीन चार स्कूटर हैं, सभी निकल चलेंगे।'
‘अच्छा तो चलो, लेकिन मेरी एक शर्त है। इन लोगों को अभी समझा दो।'
‘क्या सर?'
देखो अगर छह बजे तक कार्यक्रम शुरू न हुआ तो मैं नहीं रुकूंगा।'
‘ठीक सर।'
डाक्टर साहब उठते, इसके पहले ही मैं तपाक से बाहर आया और सलील जी को जल्दी-जल्दी सब समझा दिया। वे लोग तुरंत सक्रिय हो गये। मैं लपका अपनी स्कूटर के पास और किक मार स्टार्ट कर दिया। गाड़ी सड़क पर सीढ़ी के सामने ऐसे खड़ी कर दिया, जैसे वह स्कूटर नहीं, कार ही हो। डाक्टर साहब उतरे और धोती बचाते हुए टांग फेंककर पीछे वाली सीट पर सवार हो गये। गंभीर जी ने संकेत किया कि निकल लीजिए, हम सब कदम-ताल करते हुए आ रहे हैं।
पांच मिनट बाद हम दयानंद पब्लिक स्कूल के सामने थे। लेकिन यह क्या, यहां तो एक पखेरू भी नहीं। एक दुबला-पतला आदमी आंख मिचमिचाते हुए बाहर खड़ा था, पूछा तो उसने बताया कि साउंड सिस्टम लेकर आया है। मैं लपककर हाल में पहुंचा। पाया कि हाल में दरी और सफेदा बिछा है। दो-तीन मसनद भी लगे हैं। फौरन भाग कर बाहर आया। डाक्टर साहब को बताया कि सारी व्यवस्था दुरुस्त है, बस लोग आते ही होंगे। दस मिनट में सब हो जायेगा।
डाक्टर साहब के चेहरे पर तनाव तारी हो गया। मुख्य अतिथि सबसे आखिर में आता है और जनसमूह खड़े होकर आगवानी करता है। तुरंत माला पहनाने, स्वागत गीत आदि की रस्में शुरू होती हैं, लेकिन यहां तो मुख्य अतिथि ही पहले आ विराजे और जनसमूह का पता ही नहीं। उन्हें ही आने वालों का स्वागत करना पड़ेगा। बहरहाल, डाक्टर साहब ने एक की बजाय दो मसनद खींचा। एक पर एक जोड़कर ऊंचा किया और इस तरह बैठे कि राजगद्दी पर विराजमान हो। इत्मिनान होने पर मेरी तरफ मुखातिब हुए, ‘सुनो, मैं आधे घंटे से ज्यादा नहीं बैठूंगा। कार्यक्रम शुरू न हुआ तो मुझे तुरंत घर पहुंचा देना।'
‘जी।' कहते हुए आज्ञाकारी शिष्य की तरह सलिल जी को देखने के बहाने सड़क पर भाग आया। आयोजकों की टीम परेशान थी। सब चकर-पकर श्रोताओं को खोज रहे हैं, पर किसी की गंध नहीं लग रही। उस समय मोबाइल का चलन नहीं था। फोन भी हर जगह उपलब्ध नहीं कि दस लोगों को ऐसे ही बुला लेते। जोहते-जोहते 15-20 मिनट गुजर गये। आयोजकों के साथ मैं भी निराश होने लगा। इतने में डाक्टर साहब बाहर आ धमके। बेटे की ओर देखे बिना ही मुझे सुनाते हुए बोले- ‘मैं जा रहा हूं। यह भी कोई कार्यक्रम है।
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सहायक अध्यापक
ए0एस0 जुबिली इण्टर कालेज
मीरजापुर, उत्तर प्रदेश
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