कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -92- राजीव सागरवाला की कहानी : मां अब....

SHARE:

कहानी मां अब.......  राजीव सागरवाला       उसने एक आफ व्हाईट मटमैले थैले से, जिसका रंग यक़ीनन कभी सफेद रहा होगा एक प्लास्टिक का आयताकार ड...

image

कहानी

मां अब....... 


राजीव सागरवाला

 

    उसने एक आफ व्हाईट मटमैले थैले से, जिसका रंग यक़ीनन कभी सफेद रहा होगा एक प्लास्टिक का आयताकार डिब्बा निकाला और उसमें से एक इंकपेड, दो तीन रबर स्टेम्प, बालपेन, लिफाफे में रखे कार्बन पेपर और मोड़ कर रखे गये छपे फार्म एक-एक कर इत्मीनान से निकाल अपने सामने रखे। सारी चीज़ें वह इस समय डाईनिंग टेबुल पर फैलाए, कुर्सी पर बैठा था जिस पर एक मटमैली होती हुई चाकलेट-रंगी काड्राय की गद्दी बिछी थी, जिसे उसकी दिवंगत पत्नी ने सालों पहले अपने हाथों से बनाया था

 
    बदन पर सोते समय पहनी हुई बुशशर्ट और पैजामा था। पास ही लोहे का फोल्डिंग पलंग, जिसकी प्लास्टिक की निवाड़ बदरंग हो चली थी..और जिस पर उसने पिछली रात सोने की असफल कोशिश की थी, एक तकिये के साथ पंखे के नीचे फैला हुआ था। चादर नहीं थी।


    समय..........? भोर हुआ चाहती थी...... कोई पांच एक बजा होगा। अंधेरे की गहराई कुछ कम हो चुकी थी।


    डाईनिंग टेबुल पर, जहां वह इस समय बैठा था वहां........उसके सामने.. .. एक दीवार थी जिसके उस पार इस दीवार से लगी... .. .. साथ के मास्टर बेडरूम की बाकी तीन दीवारें थीं जिनमें से एक में बगीचे की तरफ खुलती खिड़की और दूसरी में दो दरवाज़े थे, एक अटेच्ड बाथरुम का और दूसरा ड्राईंगरूम में आने-जाने के लिये खुलता। तीसरी दीवार सपाट बेनूरी थी जिसमें सिर्फ एक ट्यूबलाईट लगी थी। दीवारों का रंग पेस्टल ग्रीन था। इस तीसरी दीवार के पल्ली तरफ कभी रसोईघर था जिसका इस्तेमाल अब दीगर सामान के भंडार के साथ अलमारी के एक खाने में रखीं भगवान की फोटुओं, मूर्तियों, गीता-रामायण की प्रतियों के चलते मंदिर की तरह होता है। रसोई को मकान बनने के बाद, वास्तुदोषों के निस्तार के लिये घर के सामने के दूसरे बेडरूम में अस्थाई प्लेटफार्म लगा कर रसोई बना दिया था, रोज-रोज की घर में चिक-चिक से बचने के लिये।


    ड्राईंग रूम के उस कोने से जहां डाईनिंग टेबुल थी...और जहां वह इस समय बैठा था..... बेडरूम में जाने का यह दरवाज़ा दिखाई नहीं देता है। इस ड्राईंगरूम के दूसरे सिरे से जहां एक टी वी रखा है और जिसके बगल में घर का मुख्य दरवाज़ा है, इस बेडरूम के दरवाज़े से कमरे में रखा एक पलंग दिखलाई देता है। पलंग कमरे के बीचों बीच है पंखे के ठीक नीचे, और उसके चारों तरफ आने-जाने की जगह है, कोई दो-ढाई फुट की .... दरवाज़े की तरफ शायद कुछ ज्यादा रही होगी। पलंग का बेक-रेस्ट  पांयते से  करीब एक डेढ़ फुट ऊंचा होगा और  जिसके किनारे की उधड़ती प्लाई पर पेकिंग-टेप लगा था जिससे किसी को फांस न लग जाय।


    पलंग पर डकबेक का वाटर-बेड बिछा है। सिराहने की तरफ से बिस्तर को उठाने के लिये अस्पताल से लाया हुआ लोहे का स्प्रिंगदार फ्रेम है जिससे सिराहने की ऊंचाई घटाई-बढाई जा सकती है।


    मां उस पर लेटी हुई है... या यह कहना अब ठीक होगा कि अब से कुछ घंटे पहले तक वह लेटी थी। इस समय उसका शव वहां लेटा हुआ है।


पर ऐसा लिखना भाषा के हिसाब से ठीक नहीं होगा। शव कैसे लेट सकता है? ठीक होगा कि लिखा जाय कि उसका शव उसी पलंग पर रखा है जहां वह लेटी थी या कि जिस पलंग पर वह लेटी थी उसी पर उसका शव रखा हुआ है।

    यह बहस कि क्या लिखना तर्कसंगत होगा अब उसके लिये कोई मायने नहीं रखता। संगत या असंगत, तर्क या कुतर्क वह पीछे छोड़ चुकी है।


    कुछ घंटे पहले वह गुज़र गई।
    कितना आसान है अब हमारा यह कहना.. .. .. गुजर गई। गुज़रने के पहले वो कितने कुछ से गुज़र चुकी थी इसका इल्म उससे इतर शायद ही किसी को होगा। उसका अंदाज़ लगाना हमारे लिये भी, जो उसके बच्चे हैं नामुमकिन है। घर परिवार की खुशहाली के लिये अपनी ज़ाती इच्छाओं और ज़रूरतों को नज़रंदाज़ करते रहना.. .. ताज़िंदगी.. .. वही कर सकती थी। खुद आधे पेट रह कर सुदामा की हांड़ी भरे रखना उसने किया और हमें उस मुक़ाम पर पहुंचा दिया जहां भूख के मायने ही हमारे लिये बदल गये। अपनी चाहतें हमेशा अपनी ज़िंदगी के आलों में सहेज कर रखती गई और उन्हें समेट कर अब चली गई।


    इस घर की चहारदीवारी में उसके अलावा और भी हैं, बड़े भाई और भाभी। भाई साहेब इसी डाईनिंग टेबुल के दूसरी छोर पर उसके सामने कुर्सी पर पसरे हैं ...पीठ उनकी उसी दीवार की तरफ है जिसके उस पार मां का शव रखा है। वो अपनी बांये हाथ की कुहनी टेबुल पर टिकाए हथेली पर ठोड़ी संभाले सामने दीवार में बने कांच के शोकेस की तरफ देख रहे हैं। देख क्या रहे हैं ........बस ......... निगाहें हैं...... खाली।


    भाभी साथ के कमरे में लेटी हैं या सो रहीं है या कि एक झपकी लेने की कोशिश कर रही हैं, कह नहीं सकता।  

  
    सांई बाबा का केलेंडर जो भाई साहेब के पीछे दीवार में लगे स्विचबोर्ड के पास एक कील से लटका था पंखे की हवा से फड़फड़ाता, रात के सन्नाटे को तोड़ता अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है।

 
       उसने एतिहायत के साथ एक राईटिंग-पेड के दस्ते से... जो मोड़ कर रखा हुआ था, कागज़ के दो पन्ने फाड़े और टेबुल पर रख हथेली से उनकी सलवटों को निकालने की कोशिश की.... फिर इत्मीनान से दोनों कागज़ों के बीच कार्बन पेपर लगाया...... उनके कोने से कोने मिलाये, डिब्बी से निकाल कर एक आलपिन उसमें लगायी, और एक बार फिर कागज़ों पर हाथ फेर सलवटें हटाने की कोशिश की।

 
       मां गुजर गई।
       वह मन ही मन हिसाब लगाने लगा कि सुबह होने तक क्या-क्या करना है, उसे किन-किन को खबर देना है, कहां से सामग्री और पंडित का इंतजाम करना है......अस्पताल में खबर देनी है कि नहीं आ सकूंगा........हर्स का इंतजाम करना है.. .. आदि।


     बालपेन हाथ में लिया और एक क्षण नीचे रखे पन्नों की तरफ देखा फिर कुछ सोचते हुए उसी दीवार की ओर देखा जो उसके सामने थी और जिसके परली तरफ मां का शव रखा था, उसी पलंग पर जिस पर उसने अंतिम सांसें ली थीं।
भाई और भाभी को कमरे से बाहर कर मां के शरीर में लगी सारी नलियां निकाल, साफ-सफाई कर उसे दूसरे धुले कपड़े पहना कर उसी पलंग पर रख कर आया था। उस समय वह बहुत भावुक हो गया था और यकायक आंसू आ गये थे। अपने को बहुत अकेला महसूस कर रह था। मां थी तो घर में किसी के होने का आभास लगा रहा करता था। वो भी नहीं रहा अब। घर दूसरी बार फिर सूना हो गया........एक अजीब तरीके का सूना।

    शाम से ही उसे लग गया था कि मां अब चंद घंटों की मेहमान रह गई है, जिस तरह से वह किसी भी दवाई और इंजेक्शन से रिस्पांस नहीं दे रही थी और जिस तरह से उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी, उसे देखते हुए और गले से थूक फंसे हुए होने की घरघराहट जिस तरह से बढ़ रही थी उसने पहचान लिया था कि ये डेथ थोर्स हैं और अब उसका बचना मुमकिन नहीं है। आये दिन अपने अस्पताल में अपने सामने मरीजों को अंतिम सांसें लेते वह बहुत देख चुका है। हर बार किसी की मौत से उसे एक तरह का विषाद होता है जो थोड़ा बहुत उसे असहज कर देता है। वो सब तो गैर थे पर मां.... उसे लगा कि वह मां की टूटती सांसें देख पायेगा। कहीं भावुकता उस पर हावी न हो जाय इसीलिये शाम को वह बहनोई को छोड़ने के बहाने घर से निकल जाना चाहता था पर भाभी ने शायद भांप लिया और गाड़ी में बैठते-बैठते उसे वापस बुला लिया। गुस्सा तो उसे बहुत आया पर कुछ बोल न सका और मेहमानों को नुक्कड़ से ही बिदा कर दिया कर मां के पास भाई और भाभी के साथ कमरे में बैठ गया था। क्या वास्तव में वह असहज हो चला था?

 
    उसने फिर फार्म की तरफ देखा जो उसके हाथ के नीचे दबा था और जिसके ऊपर अंगुलियों में फंसा पेन चलने के लिये आमदा था।
    फार्म पर तमिल और अंग्रेज़ी में लिखा था ......मॄतक का नाम....जन्मतिथि........मृत्युतिथि....


    उसे मालूम है कि इस सर्टिफिकेट के किस खाने में क्या भरना पड़ता है........आये दिन भरता ही है, ......फिर भी हाथ एक बार रुक गया।


    मॄतक का नाम....उसे मन हुआ कि लिख दे........ ..माँ .. .. जन्मतिथि...... अनंत...........मॄत्यु तिथि..... शाश्वत...उम्र......भला मां की कोई उम्र होती है? 
    फिर अपने डाक्टरी कर्तव्य निभाते भरना शुरू कर दिया।
    मृतक का नाम...गिरिजा ....जन्म तिथि.... एन .ऐ .......उम्र.......तेरांन्वे साल .......बीमारी..... बुढ़ापा........, पति का नाम..... उसके बाद खाने भरते गये अपने आप।
    जिंदगी चाहे कितने ही खानों में जी गई हो सिमट कर इन्हीं चंद खानों में रह जाती है।


    दस्तखत करते वक्त उसका हाथ एक बार फिर हिचका........आंखों के आगे आ गया वह दिन जब मेडिकल में दाखिला लेने घर से जा रहा था.....मां ने टीका किया था ... टीका कर मुंह में मिश्री के दाने रखते-रखते उसने देखा था कि उसकी आंखें भर आयीं थीं ...उसने रुंधे गले से किसी तरह कहा था.. .. .. खूब पढ़ो...बेटा...खूब सेवा करो लोगों की .. .. ..और अपने हल्दी में लिपटे पल्लू से आंखें पोंछते हुए वह मुड़ गई थी।.......खुद वह भी हंसने की नाकाम कोशिश करते हुए, आंखें चुरा कर, नम आंखों से ऑटो की ओर बढ़ गया था उस दिन.................उस दिन उसके ख्याल में भी नहीं था कि इस तरह एक दिन उसे ही मां का डेथ सर्टिफिकेट देना होगा।

*

    मैं इस समय छोटे भाई को डाईनिंग टेबुल के दूसरे छोर पर कागज़ों पर दस्तख़त करते बैठे देख रहा हूं। शायद डेथ सर्टिफिकेट है । भरे हुए फार्म्स पर दस्तखत किये... उसने, काग़जों के बीच से कार्बन निकाला और  उस लिफाफे में रख दिया जहां दूसरे कार्बन रखे थे ।  और फिर रबरस्टेम्प उठाया, इंकपेड का ढक्कन खोला और स्टेम्प को उस पर दो-तीन बार ठोंका और फिर उसका उल्टा-सीधा देख अपने दस्तखतों के नीचे फार्म पर लगा.....एक दो मिनट उसने इंक सूखने दी..... दस्तखत किये कागज़ एक तरफ दबा कर रखने के बाद उसने केरी-बेग से निकाला सारा सामान वापस अंदर रख दिया और उसे अपनी गाड़ी की डिक्की में रख आया, जहां वह समान्यतः रखा करता है।  यह सारा काम इस सहजता से किया जैसे कि रोज़मर्रा का काम है, दातून-ब्रश करने जैसा.......शायद होगा भी।


     कुछ समय पहले, यह कह सकते हैं कि कल शाम से ही, मां की तबियत लग रहा था कि बिगड़ती जा रही है।  हम जल्दी-जल्दी  कुछ खा कर उसके पास कमरे में आ गये थे। छोटा भाई इस समय सोफे की उसी भारी भरकम  कुर्सी पर बैठा था जहां बैठ मां की तीरमारदारी पिछले दो-तीन महीनों से वह करता रहा था।


    पत्नी जो कि खुद भी डाक्टर है, पलंग के सिराहने खड़ी हुई थी। मैं पलंग के दूसरी ओर खाली जगह में बैठे हुआ था, दायां पैर मोड़ कर ऊपर किया हुआ और दूसरा नीचे लटका हुआ। हम परेशान थे मां की तकलीफ देख कर पर नहीं समझ आ रहा था कि क्या करें कि उसे आराम मिले। कभी भाई कोई इंजेक्शन देता, कभी उसके पपड़ाते होठों पर मैं पानी।


    पिछले दो-तीन दिनों से मां को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। हमें लगा कि उसे काफी तकलीफ हो रही होगी हांलाकि उसको देखने से नहीं लगता था कि उसे कोई परेशानी हो रही थी। सिर्फ सांस लेने के साथ ही भारी आवाज़ आ रही थी। गले से निकलती हुई घरघराहट कम होने का नाम नहीं ले रही थी । आंखें अधखुली थीं। जब कभी हम उसे जोर से पुकारते.... अम्मा जीः उसकी पलकें थोड़ा और खुल जातीं पर पुतलियां स्थिर ही रहतीं, दूर सामने देखते। ऐसा मुझे लगा कि उस नीम बेहोशी के हालात में भी वह इतना तो समझ रही थी कि उसके बच्चे पास में हैं। यह भी हो सकता है कि उसका आवाज़ सुन कर पलकें और खोल लेना शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही हो जिससे हम अनुमान लगा रहे हैं कि शायद वह हमारी आवाज़ सुन रही है और उसे मालूम चल रहा है कि लोग हैं उसके पास। खैर अगर वो सुन भी नहीं रही होगी तब भी कम से कम हमें यह मुगालता हमारे लिये शायद काफी था। हाथ से छूटती हुई डोर का अहसास तो दुखदायी होता है।


         करीब एक महीने पहले अचानक मां की बीमारी की खबर पा कर जब मैं यहां आया और इस कमरे में दाखिल हुआ था, मां उसी पलंग पर लेटी हुईं थी जो कमरे के बीचों-बीच रखा हुआ था पंखे के ठीक नीचे। आंखें मुंदी थीं......बाल अस्त-व्यस्त तकिये पर फैले .. .. .. नाक में पड़ी राईल्स ट्यूब का दूसरा सिरा सिर के पास तकिये पर पड़ा था। पैताने पर नेबुलाईज़र रखा हुआ था और उसके पास ही सक्शन मशीन। पलंग के दूसरी तरफ एक आक्सीजन सिलेंडर स्टेंड में खड़ा हुआ  था।  पेशाब की थैली पलंग के किनारे से लटकी हुई थी जिस पर आने-जाने वालों की निगाहें चाहे-अनचाहे पड़ ही जाती हैं। पलंग के सिराहने एक ड्रेसिंग टेबुल पर दवाईयां, टिशू पेपर, पाऊडर, हेंड सेनेटाईज़र, सर्जिकल ग्लव्स आदि बीमार  आदमी की तीरमदारी के इस्तेमाल की दीग़र चीज़ें बिखरी हुईं .. .. ..रखी हैं।


इस ड्रेसिंग टेबुल से लगी एक पहियेवाली लगी टेबुल और है जिस पर स्टेथो और ब्लड प्रेशर मापने का यंत्र रखा हुआ है। एक टू इन वन भी रखा है कपड़े से ढ़का और पास में एक डब्बे में रामायण, गीता और टी सिरीज़ के भक्ति संगीत के केसेट।


पलंग के पास ड्राईंगरूम से खींच कर लाई, सोफे की एक कुर्सी रखी हुई है ।
    सामने की जालीदार खिड़की के बाहर सड़क पर आवाजाही है, अहाते में नरियल के पेड़ हैं, खुला आस्मां है, पालाघाट (पलक्कड़) की पहाड़ियां हैं, केरला से आती नम हवा है और सूरज की रोशनी है। खिड़की के बाहर भरी-पूरी दुनिया है, रिश्ते-नातीदारी है।
मां इस सब से बेखबर सी लेटी थी।


       उसने शायद चौंक कर आंखें खोलीं जब छोटे भाई ने कमरे में घुसते ही हल्के-फुलके लहजे में, जैसी कि उसकी आदत है, पुकारा..... अम्माजी..... .... राज भाई आ गये। उसने अधखुलीं आंखों से समझने की शायद कोशिश की। आंखें प्रश्न करती हुईं सी थीं।


    मैं भी उसके ऊपर झुका और उसकी आंखों में देखते, जैसा कि अमूमन होता है किसी बीमार से बात करते, जरा जोर से बोला मैं हूं ......राजीव.....हम आ गये.....मंजू भी है ...।  आवाज़ सुन कर उसकी पलकें जरा और खुलीं। मुझे नहीं पता कि उसकी समझ में कुछ आया या नहीं। वो मेरी आंखों में अपनी जमी निगाहों से देखती रहीं .. ..पुतलियों में हलकी सी हरकत हुई। शायद पहचानने की कोशिश कर रही हो...... उसकी भोंहों के ऊपर बल पड़ने लगे। उसकी आंखें मेरे चेहरे पर शायद टिकीं...कुछ खोजती हुईं सी लगीं........ एक  पल लगा कि उसने पहचान लिया है....पर निश्चित कहना मुशकिल था। मैंने फिर दुहराया.....जोर से........ राजीव बोल रहा हूं........। मां के चेहरे पर जो भाव आये उससे लगा कि उसने पहचान लिया है.. .. .. पर निश्चित कहना मुश्किल था। मैंने निश्चित करने के लिये अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए  उससे  कहा...... अपना दांया हाथ बढ़ाओ ... हां .... हां... दो अपना हाथ मेरे हाथ में....। मां के दाहिने हाथ में कुछ जुम्बिशी हरकत हुई, और फिर कंपकंपाते हुए उसने अपना हाथ उठाया और मेरे हाथ में दे दिया। मैंने उसका हाथ, जिससे उसने न जाने कितनी बार मेरे सिर को सहलाया होगा, अपने हाथों में लिया और उसे सहलाया। मैं समझ गया कि पहचान उसकी अभी बाकी है और इस संतोष ने कि उसने मुझे पहचान लिया, मुझे हल्की सी आशा बंधी। आंखें आहिस्ता से उसने बंद कर लीं। उसके चेहरे को देखने से लगा कि उसे अच्छा लगा, राहत सी मिली....... दूसरों का तो पता नहीं, ऐसा मुझे महसूस हुआ........ कम से कम।


    उस दिन के बाद न जाने कितनी बार मैंनें कोशिश की वह अपना हाथ बढ़ाए.....कहने पर.........पर लगता है कि वह तंद्रा में जा चुकी थी। आंखें खुली होते हुए भी ऐसा नहीं लगता था कि कहीं देख रही हैं। उसके बाद से चाहे जैसे उठा-बैठा लो वैसे ही बैठ रहेगी। हां आवाज़ देने पर अधखुलीं पलकें कुछ और खुल जातीं थीं। चम्मच से थोड़ा-थोड़ा पानी मैं देता तो गटक लेती थी। पुतलियां जड़ रहतीं, किसी की तरफ न देखतीं....... जैसे मुंह मोड़ लिया हो सबसे। मोह-माया छोड़ दी या.....अपने को सब से काट लिया हो जैसे.. .. ..
.. .. ..मैं सोचता हूं कि आश्वस्त हो गई थी कि चला-चली का समय अब आ गया है।

    दौड़-दौड़ कर दिन-रात काम करने वाली मां, इस समय वह निरीह सामने लेटी है, मुश्किल से सांस लेती। हाथ-पैर लकड़ी से, नसें उभरी हुईं,  खाल लटकी हुई .....गाल बिना दांतों के अंदर धंसे हुए.... पोपटा मुंह..... ओंठ पपड़ाए हुए.......आंखें खुली हुईं...... चेहरे पर कोई भाव नहीं....पर शांत।

    मां निहायत ही धार्मिक मिजाज की रहीं । उनकी परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई थी जो तुलसीदास की कर्मस्थली सोरों में रहता था और जहां का माहौल व्रत, पूजापाठ, कर्मकांड वाला था। नहा धो कर रामायण गीता का नित्य पाठ और पूजा किये बिना अन्न न लेना उसकी जिन्दगी का अहम हिस्सा बन गया था। हिन्दू धर्मशास्त्रों का अध्ययन-मनन कर चुकी थी। नित्य प्रति रामायण-गीता- चालीसे का पाठ, कल्याण पढ़ना और सारे त्योहारों पर व्रत रखना उसके जीवन का हिस्सा बन गया था। गीता का गोरखपुरी गुटका उसके एक अलमारी के खाने में भगवानों के फोटू लगे कामचलाऊ मंदिर में रखा रहता था। गीता, जो उम्र के इस पड़ाव तक आते-आते उसकी तरह ही जर्जर हो चुकी थी...... जिल्द खुल चुकी थी और पन्ने उससे मुक्ति पा चुके थे..... इस समय भी अलमारी के उसी खाने में रखी है जो उसका मंदिर है और जहां वह नहा-धो कर हर दिन पूजा के लिये आती थी ......। यह और बात है कि पिछले कुछ समय से अशक्त होने के कारण नहीं जा पायी थी।


    याद आता है कि मां सालों साल बदस्तूर हम सब का जन्मदिन मनाती थी। घर में चाहे कितनी भी तंगी हो, उसकी अपनी तबियत ठीक हो न हो, उस दिन वह चावल की खीर जरूर बनाती और जिसका जन्मदिन होता उसे टीका कर के उसकी सलामती और तरक्की की दुआ मांग उसे और हम सब को खिलाती। हमारे वालिद के जन्मदिन तो पूरा जश्न का माहौल होता था घर में। हमारे सारे चचाजान मतलब, वालिद के सहपेशा, दोस्तों को दावत का न्योता दिया जाता। सबेरे से सा्नन-ध्यान पूजा-पाठ करने के बाद जो वो जुटती रसोई में तो शाम तक लगी रहती खाना-पकवान बनाने में । सबकी आवभगत और खान पान के बाद वह इतनी थक गई होती थी कि मुश्किल से दो कौर मुंह मे डाल सो रहती।


    हम इतना मशगूल थे.. .. .. अपने में.. .. ..कि बचपन तो छोड़ बडे होने पर भी कभी हमें नहीं लगा कि मां का भी कोई तो जन्मदिन होगा और हमें उसे मनाना चाहिये। अब सोचता हूं तो एक अपराधबोध घर कर जाता है मन में.........सब भूल गये कि मां का भी साल के तीन सौ पेंसठ दिनों में से कोई एक दिन तो होगा जो उसका नितान्त अपना होगा.....जन्मदिन....... उसे हमें मनाना चाहिए था। पर किसी ने उसे खीर बना कर न खिलाई न टीका किया। दरअसल हक़ीक़त यह थी कि किसी को, यहां तक कि उसे खुद भी, पता नहीं था कि किस दिन हुआ था उसका जन्म। मां से जब पूछो तो यही जबाब कि जब शादी हुई तो तुम्हारे पापा से यही कोई चार-पांच साल छोटी हूंगी ङ्घ....बस।


    मां दोनों लोकों के बारे में सजग रही थी और खासकर जीवन के आखिरी पड़ाव में परलोक के बारे में कुछ चिंतित रहती थी। उसकी सबसे बड़ी चिंता या कि कहें समस्या.. .. .. हालांकि उसने कभी स्पष्ट नहीं कहा.. .. .. मैं ही था। होता यह था कि उसकी इतने पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा, व्रत आदि रखने के बावजूद भी घर की माली हालत सुधरती मुझे दिखाई नहीं देती और मैं ईश्वर की उपस्थिति को नकारते हुए उससे बहस करता और राम और कृष्ण के किरदारों में, आचरण की उनकी विसंगतियां निकालने लगता था और गिन-गिन कर ब्राह्मण-पंडित, पूजा-पाठ, धर्म-कर्म को कोसते बैठ जाता। वह प्रायः निरुत्तर हो जाती थी और हार कर कहती कि तुम्हें तो तुम्हारे पापा ने बिगाड़ दिया है। न जाने कैसी-कैसी किताबें पढ़ने देते रहते हैं। तुम भी उनके नक्शे क़दम पर चल निकले हो।

    दरअसल पिता जी ने, जिन्हें हम पापा कहा करते थे, वेद, बाईबिल, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों का विषद अध्ययन किया था पर वो इन ग्रंथों को पुस्तकों के आगे मानने के लिये तैयार नहीं थे। सभी धर्मों के मूल तत्वों में, जो कि एक ही हैं, आस्था तो थी पर ईश्वर को पूर्णतः नकारते हुए पंडितों के ढ़ोंगीपन और सभी तरह के कर्मकांडों से तीव्र वितृष्णा थी। वे खुद ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे और जिन्दगी भर उन्होनें किसी मंदिर में, घर में पूजा अर्चना नहीं की, न किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लिया। और तो और जीवन के अंतिम लगभग छः वर्ष लकवे से ग्रस्त हो अंत समय तक पूरे होश-ओ-हवास में पड़े रहे.. .. ..पीठ पर जख्म हो गये.. .. .. चींटियां काटती रहतीं.. .. .. पर क्या मजाल कि कभी खुदा से यही दुआ मांगते कि वह जल्दी उठा ले और कष्टों से निज़ात दे।

उनकी इस सोच के चलते हम बच्चों को पूरी छूट थी कि हम आगे चल कर क्या करें और इस सोच का भरपूर फायदा उठाते हुए सब बच्चों में मैं सबसे ज्यादा अधर्मी बन गया था। मां की बातों में जब बहस ज्यादा हो जाती तो वो मुझे ठेल देती थी सिर पर एक चपत मार कर।
बड़े होते-होते मैं ईश्वर और उसके वज़ूद के बारे में पूरा नास्तिक हो गया था।  मां के मन में मुझे ले कर कुछ संशय था। मैं मां के संशय को समझता हूं। वो कभी भी मेरी तरफ से आश्वस्त नही रहीं। हमेशा मुझे मेरी हरकतों के चलते बिगड़ैल समझती थी। धर्म और पोंगापंथी के बारे में मेरे विचारों से वह भली भांति परिचित थी और उसे अच्छी तरह से मालूम था कि मैं किसी धर्म को नहीं मानता। पहले जब कभी वह बीमार पड़ती या यह दुआ मांगती कि बुढ़ापा अच्छी तरह से निकल जाय...कि कहीं दुर्गत न हो आखिरी समय....तो मैं पूरी संज़ीदगी से कहता कि दुर्गत क्या होनी है .....अस्पताल में ले जा कर डाल दूंगा....करेंगी नर्सें देखभाल.....तो उसके चेहरे पर ऐसे भाव होते कि जैसे मेरी बात की सच्चाई को पकड़ने की कोशिश कर रही हो। कभी-कभी सुनाते हुए कहती भी कि पता नहीं उसकी मिट्टी की क्या दुर्गत हो? कौन करेगा ... कौन लगायेगा नैय्या पार?


      उसका यह वाजिब संशय मेरी समझ में आ गया.. .. ..जब मेरे हाथों में उसने अपना हाथ बढ़ाया........  शायद यह भांपने  की कोशिश कर रही हो कि मैं क्या करूंगा। बोल तो नहीं पा रही थी पर आंखों में एक आशा की किरण दिखाई दी जो शायद निराशा में बदलती अपने को नियति पर छोड़ती सी लगी। आंख के कोर पर एक कतरा आ टिका। 


     अबः.. इस समय......जब वह कुछ क्षण की ही मेहमान रह गई है एक यक्ष-प्रश्न मेरे चारों ओर घूम रहा है, तांडव करता.. .. ..मैं क्या करूं...... नहीं समझ में आता। जब मैं यहां आया था तब मैंनें सोचा था कि मैं उससे ही पूछूंगा कि वह क्या सोचती है। पर उसने तो एकदम चुप्पी साध ली।


       समस्या यह है कि मैं ठहरा एक नस्तिक और मां नव्वे साल की पूरी जिन्दगी में...... जब से उसने होश संभाला है, नितांत धार्मिक। क्या उस धर्मपरायण मां का क्रियाकर्म मुझ नास्तिक के हाथों हो? विधि-विधान से? क्या यह ठीक होगा? पापा के इंतकाल पर कोई दुविधा मेरे मन में नहीं आयी थी क्योंकि वो खुद नास्तिक थे और कर्मकांडों के घोर विरोधी। मैंने बिना पूजा-पाठ के उनका संस्कार किया था। पर मां ?......उसके बारे में किससे पूछूं? घर में बड़ा होने के नाते मुझे ही निर्णय लेना है।

 
       सामने लेटी है, मां.... हल्के प्रिंट की नाईटी पहने हुए है। उसकी सूत की साड़ी नहीं है। साड़ी जिसके पल्लू से हम सब बच्चे और खासकर मैं खाना खाने के बाद हमेशा हाथ-मुंह पोंछता था और जिसमें से चूल्हे के सामने बैठने से आये पसीने और मसालों की गंध भरी रहती थी.. .. .. आज वह पहने नहीं है। वह बांह जिससे लटक कर बचपन में उससे अपने मन की बात हां करा लेते थे, इस समय ठंडी है, निःस्तेज है। मांस लटक गया है। मैं उसकी बांह पर हाथ रखता हूं।


       मैं अपने आप से लड़ रहा हूं। उठा कर मां से ही पूछना चाहता हूं कि बता मां..... मैं क्या करूं?.. .. .. किस आस्था से तूने जिंदगी भर जिस धर्म की पोथियां बांची, पूजा-पाठ-वृत किये.. .. .. कि उसकी एक कड़ी तुझे दगा देने के लिये तैयार बैठी है.. .. .. अपना ऋण अदा करने से हिचक रही है।  

 
       मां के गले से निकलती घरघराहट बढ़ रही है। लिटाने बिठाने या किसी और तरह भी वह कम नहीं हो रही है। सक्शन मशीन से गला साफ भी कर दिया है।   
       मां को आवाज़ देता हूं .. .. ..
कल तक आवाज़ देने पर उसकी पलकें थोड़ी सी और खुल जाती थीं पर आंखें यह देखने की कोशिश नहीं करतीं थी कि आवाज़ कौन दे रहा है.........कहां से आ रही है.. ... .. अब वे अनंत में स्थिर थीं.. .. ..आवाज़ देने पर पलकों में कोई हरकत नहीं होती।


       मैं मां के माथे को अंगुलियों से सहलाता हूं। शायद उसे कुछ आराम मिले। नाक पर आक्सीजन मास्क लगा है.......सांस लेने में उसे काफी मशक्कत करनी पड़ रही है।
       मन ही मन मां के सामने अपनी दुविधा रखता हूं .. .. ..
       .. .. ..तुम्हीं बोलो मां मुझे क्या करना चाहिये। मुझे मालूम है तुम तो कह दोगी.. .. .. हमेशा की तरह, जो ठीक लगे , करो। पर ठीक क्या है?.. .. .. एक नास्तिक का धर्म सम्मत क्रिया-कर्म करना उसके लिये जो पूर्णतः धर्मपरायण है? बिना विश्वास और श्रद्धा से किया कार्य कहां तक उचित है। क्या यह महज़ दिखावा नहीं होगा...एक धोका....?
      बोलो...?


      .. .. .. मां मेरा मन नहीं करता कि  जिस धार्मिक कर्मकांड़ों पूजापाठ, क्रिया-कर्म, यज्ञ-शांति और पंडितों से एक नकारात्मक रिश्ता रखता हूं, उन मान्यताओं को दरकिनार कर तुम्हारा संस्कार धार्मिक विधि-विधान से करूं। यह ठीक है कि तुम चाहती हो कि ऐसा हो पर मैं अपनी मान्यताओं, जो इतने जतन से मैनें अर्जित की है उनको कैसे छोड़ दूं....... तुम्हीं बोलो..... कहा करती थीं न तुम कि जो अंतरात्मा कहे वही करो। क्या तुम चाहोगी कि धर्म से नाता तोड़ चुके आदमी के हाथों से तुम्हारा क्रिया कर्म हो। हो सकता है कि तुम इसके लिये तैयार हो जाओ पर मुझे गवारा नहीं है कि कुछ अनर्थ मुझसे हो जाय।


    उसके माथे को मैं सहलाना जारी रखे था। 
कल तक खुली आंखों के बीच माथे पर सहलाता था तो पलकें बंद कर कर लेती थी।  या कि हो जाती होंगी, कह नहीं सकता पर अब वह भी नहीं कर रही है। मैं आंखों के बीच उंगली से ठकठका चुका हूं। पलकों पर कोई हलचल नहीं होती।
    गले से आती घरघराहट की आवाज़ में थोड़ी कमी आयी। शायद मेरे.. .. .. माथे को सहलाने से आराम मिला होगा...सोचता हूं .. .. ..मैं बोलता भी हूं...... लगता है कि आराम आ रहा है।


    मेरा एक तरफा संवाद और द्वंद्व जारी था.. .. ..
    .. .. ..तुम कहा करती थीं कि समाज़ में रह कर करना पड़ता है.....कई बार नहीं चाहते हुए भी। पर यह कैसी लाचारी है। क्या मैं इससे छूट नहीं सकता?.. .. .. नहीं मां.. .. .. एक बार और मुझे माफ नहीं कर सकतीं, इस जिद्दी बेटे को?
    भाई ने, जो बांये हाथ की नब्ज पकड़े हुए बैठा था, ब्लड प्रेशर नापने के लिये पट्टा मां कि बांयी बाजू पर लपेट दिया और फिर स्टेथो कान पर लगा पारा चढ़ाने लगा।
    मेरी अंगुलियां मां के माथे पर और उसकी भौहों पर आहिस्ता-आहिस्ता घूमती रहीं।
घरघराहट और कम हो गई। आराम आ रहा है .. .. .. सोचा मैंने
.. .. ..सांस के साथ छाती का उतार चढ़ाव भी कम हो गया।


    भाई की नज़र गिरते हुए पारे पर थी। एक बार फिर उसने पारा उपर चढ़ाया।
    पत्नी ने पूछा.. .. ..  कितना है ? ............उसने पारा चढ़ाते हुए सिर्फ इतना ही कहा...... कम है। 
    घरघराहट और कम हो गई।
मैने सोचा कि........मां ने......मेरी बा.. .. ..सुन.. .. ..
    भाई ने.... पारा नीचे आते-आते ......  हवा निकाल.....चुपचाप हाथ से पट्टा खोलना शुरू कर दिया......
    मैं अभी भी उसका माथा सह.. .. ..
.. .. ..पत्नी ने मां की कलाई पकड़ नब्ज देखना शुरू किया...फिर टार्च से पुतलियों में झांका.......
और भाई से पूछा.....  गंगाजल?...... 
    .. .. .. मां अब.. .. .. लेटी नहीं थी।

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. A lot of my childhood memories have come flooding back..... Chachiji and her ways , her smile .....in campus standing leaning to the kitchen door ... ensuring that all have eaten and are looked after....Chachaji's janamdin celebrations......She would bring Suran specially for his birthday ... at makronia looking after the house and chachaji singlehandedly....there was so much to learn and take from her.....This article has taken me to a time in her life which I missed out ....

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -92- राजीव सागरवाला की कहानी : मां अब....
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -92- राजीव सागरवाला की कहानी : मां अब....
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8yYASdx7tnrm3Ur7YjAw7nBBjoMwTghBLMUUP6a1pVn-kOfkyibQOlkcRpZdfguCVDvihya0MXw6Ruzr5CmAqSwUz5wys89cBg3z8yNeXEvrB1p6zH0xcMtVf3YMxl4z1U5Qr/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8yYASdx7tnrm3Ur7YjAw7nBBjoMwTghBLMUUP6a1pVn-kOfkyibQOlkcRpZdfguCVDvihya0MXw6Ruzr5CmAqSwUz5wys89cBg3z8yNeXEvrB1p6zH0xcMtVf3YMxl4z1U5Qr/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2012/09/92.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2012/09/92.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content