कहानी मां अब....... राजीव सागरवाला उसने एक आफ व्हाईट मटमैले थैले से, जिसका रंग यक़ीनन कभी सफेद रहा होगा एक प्लास्टिक का आयताकार ड...
कहानी
मां अब.......
राजीव सागरवाला
उसने एक आफ व्हाईट मटमैले थैले से, जिसका रंग यक़ीनन कभी सफेद रहा होगा एक प्लास्टिक का आयताकार डिब्बा निकाला और उसमें से एक इंकपेड, दो तीन रबर स्टेम्प, बालपेन, लिफाफे में रखे कार्बन पेपर और मोड़ कर रखे गये छपे फार्म एक-एक कर इत्मीनान से निकाल अपने सामने रखे। सारी चीज़ें वह इस समय डाईनिंग टेबुल पर फैलाए, कुर्सी पर बैठा था जिस पर एक मटमैली होती हुई चाकलेट-रंगी काड्राय की गद्दी बिछी थी, जिसे उसकी दिवंगत पत्नी ने सालों पहले अपने हाथों से बनाया था।
बदन पर सोते समय पहनी हुई बुशशर्ट और पैजामा था। पास ही लोहे का फोल्डिंग पलंग, जिसकी प्लास्टिक की निवाड़ बदरंग हो चली थी..और जिस पर उसने पिछली रात सोने की असफल कोशिश की थी, एक तकिये के साथ पंखे के नीचे फैला हुआ था। चादर नहीं थी।
समय..........? भोर हुआ चाहती थी...... कोई पांच एक बजा होगा। अंधेरे की गहराई कुछ कम हो चुकी थी।
डाईनिंग टेबुल पर, जहां वह इस समय बैठा था वहां........उसके सामने.. .. एक दीवार थी जिसके उस पार इस दीवार से लगी... .. .. साथ के मास्टर बेडरूम की बाकी तीन दीवारें थीं जिनमें से एक में बगीचे की तरफ खुलती खिड़की और दूसरी में दो दरवाज़े थे, एक अटेच्ड बाथरुम का और दूसरा ड्राईंगरूम में आने-जाने के लिये खुलता। तीसरी दीवार सपाट बेनूरी थी जिसमें सिर्फ एक ट्यूबलाईट लगी थी। दीवारों का रंग पेस्टल ग्रीन था। इस तीसरी दीवार के पल्ली तरफ कभी रसोईघर था जिसका इस्तेमाल अब दीगर सामान के भंडार के साथ अलमारी के एक खाने में रखीं भगवान की फोटुओं, मूर्तियों, गीता-रामायण की प्रतियों के चलते मंदिर की तरह होता है। रसोई को मकान बनने के बाद, वास्तुदोषों के निस्तार के लिये घर के सामने के दूसरे बेडरूम में अस्थाई प्लेटफार्म लगा कर रसोई बना दिया था, रोज-रोज की घर में चिक-चिक से बचने के लिये।
ड्राईंग रूम के उस कोने से जहां डाईनिंग टेबुल थी...और जहां वह इस समय बैठा था..... बेडरूम में जाने का यह दरवाज़ा दिखाई नहीं देता है। इस ड्राईंगरूम के दूसरे सिरे से जहां एक टी वी रखा है और जिसके बगल में घर का मुख्य दरवाज़ा है, इस बेडरूम के दरवाज़े से कमरे में रखा एक पलंग दिखलाई देता है। पलंग कमरे के बीचों बीच है पंखे के ठीक नीचे, और उसके चारों तरफ आने-जाने की जगह है, कोई दो-ढाई फुट की .... दरवाज़े की तरफ शायद कुछ ज्यादा रही होगी। पलंग का बेक-रेस्ट पांयते से करीब एक डेढ़ फुट ऊंचा होगा और जिसके किनारे की उधड़ती प्लाई पर पेकिंग-टेप लगा था जिससे किसी को फांस न लग जाय।
पलंग पर डकबेक का वाटर-बेड बिछा है। सिराहने की तरफ से बिस्तर को उठाने के लिये अस्पताल से लाया हुआ लोहे का स्प्रिंगदार फ्रेम है जिससे सिराहने की ऊंचाई घटाई-बढाई जा सकती है।
मां उस पर लेटी हुई है... या यह कहना अब ठीक होगा कि अब से कुछ घंटे पहले तक वह लेटी थी। इस समय उसका शव वहां लेटा हुआ है।
पर ऐसा लिखना भाषा के हिसाब से ठीक नहीं होगा। शव कैसे लेट सकता है? ठीक होगा कि लिखा जाय कि उसका शव उसी पलंग पर रखा है जहां वह लेटी थी या कि जिस पलंग पर वह लेटी थी उसी पर उसका शव रखा हुआ है।
यह बहस कि क्या लिखना तर्कसंगत होगा अब उसके लिये कोई मायने नहीं रखता। संगत या असंगत, तर्क या कुतर्क वह पीछे छोड़ चुकी है।
कुछ घंटे पहले वह गुज़र गई।
कितना आसान है अब हमारा यह कहना.. .. .. गुजर गई। गुज़रने के पहले वो कितने कुछ से गुज़र चुकी थी इसका इल्म उससे इतर शायद ही किसी को होगा। उसका अंदाज़ लगाना हमारे लिये भी, जो उसके बच्चे हैं नामुमकिन है। घर परिवार की खुशहाली के लिये अपनी ज़ाती इच्छाओं और ज़रूरतों को नज़रंदाज़ करते रहना.. .. ताज़िंदगी.. .. वही कर सकती थी। खुद आधे पेट रह कर सुदामा की हांड़ी भरे रखना उसने किया और हमें उस मुक़ाम पर पहुंचा दिया जहां भूख के मायने ही हमारे लिये बदल गये। अपनी चाहतें हमेशा अपनी ज़िंदगी के आलों में सहेज कर रखती गई और उन्हें समेट कर अब चली गई।
इस घर की चहारदीवारी में उसके अलावा और भी हैं, बड़े भाई और भाभी। भाई साहेब इसी डाईनिंग टेबुल के दूसरी छोर पर उसके सामने कुर्सी पर पसरे हैं ...पीठ उनकी उसी दीवार की तरफ है जिसके उस पार मां का शव रखा है। वो अपनी बांये हाथ की कुहनी टेबुल पर टिकाए हथेली पर ठोड़ी संभाले सामने दीवार में बने कांच के शोकेस की तरफ देख रहे हैं। देख क्या रहे हैं ........बस ......... निगाहें हैं...... खाली।
भाभी साथ के कमरे में लेटी हैं या सो रहीं है या कि एक झपकी लेने की कोशिश कर रही हैं, कह नहीं सकता।
सांई बाबा का केलेंडर जो भाई साहेब के पीछे दीवार में लगे स्विचबोर्ड के पास एक कील से लटका था पंखे की हवा से फड़फड़ाता, रात के सन्नाटे को तोड़ता अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है।
उसने एतिहायत के साथ एक राईटिंग-पेड के दस्ते से... जो मोड़ कर रखा हुआ था, कागज़ के दो पन्ने फाड़े और टेबुल पर रख हथेली से उनकी सलवटों को निकालने की कोशिश की.... फिर इत्मीनान से दोनों कागज़ों के बीच कार्बन पेपर लगाया...... उनके कोने से कोने मिलाये, डिब्बी से निकाल कर एक आलपिन उसमें लगायी, और एक बार फिर कागज़ों पर हाथ फेर सलवटें हटाने की कोशिश की।
मां गुजर गई।
वह मन ही मन हिसाब लगाने लगा कि सुबह होने तक क्या-क्या करना है, उसे किन-किन को खबर देना है, कहां से सामग्री और पंडित का इंतजाम करना है......अस्पताल में खबर देनी है कि नहीं आ सकूंगा........हर्स का इंतजाम करना है.. .. आदि।
बालपेन हाथ में लिया और एक क्षण नीचे रखे पन्नों की तरफ देखा फिर कुछ सोचते हुए उसी दीवार की ओर देखा जो उसके सामने थी और जिसके परली तरफ मां का शव रखा था, उसी पलंग पर जिस पर उसने अंतिम सांसें ली थीं।
भाई और भाभी को कमरे से बाहर कर मां के शरीर में लगी सारी नलियां निकाल, साफ-सफाई कर उसे दूसरे धुले कपड़े पहना कर उसी पलंग पर रख कर आया था। उस समय वह बहुत भावुक हो गया था और यकायक आंसू आ गये थे। अपने को बहुत अकेला महसूस कर रह था। मां थी तो घर में किसी के होने का आभास लगा रहा करता था। वो भी नहीं रहा अब। घर दूसरी बार फिर सूना हो गया........एक अजीब तरीके का सूना।
शाम से ही उसे लग गया था कि मां अब चंद घंटों की मेहमान रह गई है, जिस तरह से वह किसी भी दवाई और इंजेक्शन से रिस्पांस नहीं दे रही थी और जिस तरह से उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी, उसे देखते हुए और गले से थूक फंसे हुए होने की घरघराहट जिस तरह से बढ़ रही थी उसने पहचान लिया था कि ये डेथ थोर्स हैं और अब उसका बचना मुमकिन नहीं है। आये दिन अपने अस्पताल में अपने सामने मरीजों को अंतिम सांसें लेते वह बहुत देख चुका है। हर बार किसी की मौत से उसे एक तरह का विषाद होता है जो थोड़ा बहुत उसे असहज कर देता है। वो सब तो गैर थे पर मां.... उसे लगा कि वह मां की टूटती सांसें देख पायेगा। कहीं भावुकता उस पर हावी न हो जाय इसीलिये शाम को वह बहनोई को छोड़ने के बहाने घर से निकल जाना चाहता था पर भाभी ने शायद भांप लिया और गाड़ी में बैठते-बैठते उसे वापस बुला लिया। गुस्सा तो उसे बहुत आया पर कुछ बोल न सका और मेहमानों को नुक्कड़ से ही बिदा कर दिया कर मां के पास भाई और भाभी के साथ कमरे में बैठ गया था। क्या वास्तव में वह असहज हो चला था?
उसने फिर फार्म की तरफ देखा जो उसके हाथ के नीचे दबा था और जिसके ऊपर अंगुलियों में फंसा पेन चलने के लिये आमदा था।
फार्म पर तमिल और अंग्रेज़ी में लिखा था ......मॄतक का नाम....जन्मतिथि........मृत्युतिथि....
उसे मालूम है कि इस सर्टिफिकेट के किस खाने में क्या भरना पड़ता है........आये दिन भरता ही है, ......फिर भी हाथ एक बार रुक गया।
मॄतक का नाम....उसे मन हुआ कि लिख दे........ ..माँ .. .. जन्मतिथि...... अनंत...........मॄत्यु तिथि..... शाश्वत...उम्र......भला मां की कोई उम्र होती है?
फिर अपने डाक्टरी कर्तव्य निभाते भरना शुरू कर दिया।
मृतक का नाम...गिरिजा ....जन्म तिथि.... एन .ऐ .......उम्र.......तेरांन्वे साल .......बीमारी..... बुढ़ापा........, पति का नाम..... उसके बाद खाने भरते गये अपने आप।
जिंदगी चाहे कितने ही खानों में जी गई हो सिमट कर इन्हीं चंद खानों में रह जाती है।
दस्तखत करते वक्त उसका हाथ एक बार फिर हिचका........आंखों के आगे आ गया वह दिन जब मेडिकल में दाखिला लेने घर से जा रहा था.....मां ने टीका किया था ... टीका कर मुंह में मिश्री के दाने रखते-रखते उसने देखा था कि उसकी आंखें भर आयीं थीं ...उसने रुंधे गले से किसी तरह कहा था.. .. .. खूब पढ़ो...बेटा...खूब सेवा करो लोगों की .. .. ..और अपने हल्दी में लिपटे पल्लू से आंखें पोंछते हुए वह मुड़ गई थी।.......खुद वह भी हंसने की नाकाम कोशिश करते हुए, आंखें चुरा कर, नम आंखों से ऑटो की ओर बढ़ गया था उस दिन.................उस दिन उसके ख्याल में भी नहीं था कि इस तरह एक दिन उसे ही मां का डेथ सर्टिफिकेट देना होगा।
*
मैं इस समय छोटे भाई को डाईनिंग टेबुल के दूसरे छोर पर कागज़ों पर दस्तख़त करते बैठे देख रहा हूं। शायद डेथ सर्टिफिकेट है । भरे हुए फार्म्स पर दस्तखत किये... उसने, काग़जों के बीच से कार्बन निकाला और उस लिफाफे में रख दिया जहां दूसरे कार्बन रखे थे । और फिर रबरस्टेम्प उठाया, इंकपेड का ढक्कन खोला और स्टेम्प को उस पर दो-तीन बार ठोंका और फिर उसका उल्टा-सीधा देख अपने दस्तखतों के नीचे फार्म पर लगा.....एक दो मिनट उसने इंक सूखने दी..... दस्तखत किये कागज़ एक तरफ दबा कर रखने के बाद उसने केरी-बेग से निकाला सारा सामान वापस अंदर रख दिया और उसे अपनी गाड़ी की डिक्की में रख आया, जहां वह समान्यतः रखा करता है। यह सारा काम इस सहजता से किया जैसे कि रोज़मर्रा का काम है, दातून-ब्रश करने जैसा.......शायद होगा भी।
कुछ समय पहले, यह कह सकते हैं कि कल शाम से ही, मां की तबियत लग रहा था कि बिगड़ती जा रही है। हम जल्दी-जल्दी कुछ खा कर उसके पास कमरे में आ गये थे। छोटा भाई इस समय सोफे की उसी भारी भरकम कुर्सी पर बैठा था जहां बैठ मां की तीरमारदारी पिछले दो-तीन महीनों से वह करता रहा था।
पत्नी जो कि खुद भी डाक्टर है, पलंग के सिराहने खड़ी हुई थी। मैं पलंग के दूसरी ओर खाली जगह में बैठे हुआ था, दायां पैर मोड़ कर ऊपर किया हुआ और दूसरा नीचे लटका हुआ। हम परेशान थे मां की तकलीफ देख कर पर नहीं समझ आ रहा था कि क्या करें कि उसे आराम मिले। कभी भाई कोई इंजेक्शन देता, कभी उसके पपड़ाते होठों पर मैं पानी।
पिछले दो-तीन दिनों से मां को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। हमें लगा कि उसे काफी तकलीफ हो रही होगी हांलाकि उसको देखने से नहीं लगता था कि उसे कोई परेशानी हो रही थी। सिर्फ सांस लेने के साथ ही भारी आवाज़ आ रही थी। गले से निकलती हुई घरघराहट कम होने का नाम नहीं ले रही थी । आंखें अधखुली थीं। जब कभी हम उसे जोर से पुकारते.... अम्मा जीः उसकी पलकें थोड़ा और खुल जातीं पर पुतलियां स्थिर ही रहतीं, दूर सामने देखते। ऐसा मुझे लगा कि उस नीम बेहोशी के हालात में भी वह इतना तो समझ रही थी कि उसके बच्चे पास में हैं। यह भी हो सकता है कि उसका आवाज़ सुन कर पलकें और खोल लेना शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही हो जिससे हम अनुमान लगा रहे हैं कि शायद वह हमारी आवाज़ सुन रही है और उसे मालूम चल रहा है कि लोग हैं उसके पास। खैर अगर वो सुन भी नहीं रही होगी तब भी कम से कम हमें यह मुगालता हमारे लिये शायद काफी था। हाथ से छूटती हुई डोर का अहसास तो दुखदायी होता है।
करीब एक महीने पहले अचानक मां की बीमारी की खबर पा कर जब मैं यहां आया और इस कमरे में दाखिल हुआ था, मां उसी पलंग पर लेटी हुईं थी जो कमरे के बीचों-बीच रखा हुआ था पंखे के ठीक नीचे। आंखें मुंदी थीं......बाल अस्त-व्यस्त तकिये पर फैले .. .. .. नाक में पड़ी राईल्स ट्यूब का दूसरा सिरा सिर के पास तकिये पर पड़ा था। पैताने पर नेबुलाईज़र रखा हुआ था और उसके पास ही सक्शन मशीन। पलंग के दूसरी तरफ एक आक्सीजन सिलेंडर स्टेंड में खड़ा हुआ था। पेशाब की थैली पलंग के किनारे से लटकी हुई थी जिस पर आने-जाने वालों की निगाहें चाहे-अनचाहे पड़ ही जाती हैं। पलंग के सिराहने एक ड्रेसिंग टेबुल पर दवाईयां, टिशू पेपर, पाऊडर, हेंड सेनेटाईज़र, सर्जिकल ग्लव्स आदि बीमार आदमी की तीरमदारी के इस्तेमाल की दीग़र चीज़ें बिखरी हुईं .. .. ..रखी हैं।
इस ड्रेसिंग टेबुल से लगी एक पहियेवाली लगी टेबुल और है जिस पर स्टेथो और ब्लड प्रेशर मापने का यंत्र रखा हुआ है। एक टू इन वन भी रखा है कपड़े से ढ़का और पास में एक डब्बे में रामायण, गीता और टी सिरीज़ के भक्ति संगीत के केसेट।
पलंग के पास ड्राईंगरूम से खींच कर लाई, सोफे की एक कुर्सी रखी हुई है ।
सामने की जालीदार खिड़की के बाहर सड़क पर आवाजाही है, अहाते में नरियल के पेड़ हैं, खुला आस्मां है, पालाघाट (पलक्कड़) की पहाड़ियां हैं, केरला से आती नम हवा है और सूरज की रोशनी है। खिड़की के बाहर भरी-पूरी दुनिया है, रिश्ते-नातीदारी है।
मां इस सब से बेखबर सी लेटी थी।
उसने शायद चौंक कर आंखें खोलीं जब छोटे भाई ने कमरे में घुसते ही हल्के-फुलके लहजे में, जैसी कि उसकी आदत है, पुकारा..... अम्माजी..... .... राज भाई आ गये। उसने अधखुलीं आंखों से समझने की शायद कोशिश की। आंखें प्रश्न करती हुईं सी थीं।
मैं भी उसके ऊपर झुका और उसकी आंखों में देखते, जैसा कि अमूमन होता है किसी बीमार से बात करते, जरा जोर से बोला मैं हूं ......राजीव.....हम आ गये.....मंजू भी है ...। आवाज़ सुन कर उसकी पलकें जरा और खुलीं। मुझे नहीं पता कि उसकी समझ में कुछ आया या नहीं। वो मेरी आंखों में अपनी जमी निगाहों से देखती रहीं .. ..पुतलियों में हलकी सी हरकत हुई। शायद पहचानने की कोशिश कर रही हो...... उसकी भोंहों के ऊपर बल पड़ने लगे। उसकी आंखें मेरे चेहरे पर शायद टिकीं...कुछ खोजती हुईं सी लगीं........ एक पल लगा कि उसने पहचान लिया है....पर निश्चित कहना मुशकिल था। मैंने फिर दुहराया.....जोर से........ राजीव बोल रहा हूं........। मां के चेहरे पर जो भाव आये उससे लगा कि उसने पहचान लिया है.. .. .. पर निश्चित कहना मुश्किल था। मैंने निश्चित करने के लिये अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए उससे कहा...... अपना दांया हाथ बढ़ाओ ... हां .... हां... दो अपना हाथ मेरे हाथ में....। मां के दाहिने हाथ में कुछ जुम्बिशी हरकत हुई, और फिर कंपकंपाते हुए उसने अपना हाथ उठाया और मेरे हाथ में दे दिया। मैंने उसका हाथ, जिससे उसने न जाने कितनी बार मेरे सिर को सहलाया होगा, अपने हाथों में लिया और उसे सहलाया। मैं समझ गया कि पहचान उसकी अभी बाकी है और इस संतोष ने कि उसने मुझे पहचान लिया, मुझे हल्की सी आशा बंधी। आंखें आहिस्ता से उसने बंद कर लीं। उसके चेहरे को देखने से लगा कि उसे अच्छा लगा, राहत सी मिली....... दूसरों का तो पता नहीं, ऐसा मुझे महसूस हुआ........ कम से कम।
उस दिन के बाद न जाने कितनी बार मैंनें कोशिश की वह अपना हाथ बढ़ाए.....कहने पर.........पर लगता है कि वह तंद्रा में जा चुकी थी। आंखें खुली होते हुए भी ऐसा नहीं लगता था कि कहीं देख रही हैं। उसके बाद से चाहे जैसे उठा-बैठा लो वैसे ही बैठ रहेगी। हां आवाज़ देने पर अधखुलीं पलकें कुछ और खुल जातीं थीं। चम्मच से थोड़ा-थोड़ा पानी मैं देता तो गटक लेती थी। पुतलियां जड़ रहतीं, किसी की तरफ न देखतीं....... जैसे मुंह मोड़ लिया हो सबसे। मोह-माया छोड़ दी या.....अपने को सब से काट लिया हो जैसे.. .. ..
.. .. ..मैं सोचता हूं कि आश्वस्त हो गई थी कि चला-चली का समय अब आ गया है।
दौड़-दौड़ कर दिन-रात काम करने वाली मां, इस समय वह निरीह सामने लेटी है, मुश्किल से सांस लेती। हाथ-पैर लकड़ी से, नसें उभरी हुईं, खाल लटकी हुई .....गाल बिना दांतों के अंदर धंसे हुए.... पोपटा मुंह..... ओंठ पपड़ाए हुए.......आंखें खुली हुईं...... चेहरे पर कोई भाव नहीं....पर शांत।
मां निहायत ही धार्मिक मिजाज की रहीं । उनकी परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई थी जो तुलसीदास की कर्मस्थली सोरों में रहता था और जहां का माहौल व्रत, पूजापाठ, कर्मकांड वाला था। नहा धो कर रामायण गीता का नित्य पाठ और पूजा किये बिना अन्न न लेना उसकी जिन्दगी का अहम हिस्सा बन गया था। हिन्दू धर्मशास्त्रों का अध्ययन-मनन कर चुकी थी। नित्य प्रति रामायण-गीता- चालीसे का पाठ, कल्याण पढ़ना और सारे त्योहारों पर व्रत रखना उसके जीवन का हिस्सा बन गया था। गीता का गोरखपुरी गुटका उसके एक अलमारी के खाने में भगवानों के फोटू लगे कामचलाऊ मंदिर में रखा रहता था। गीता, जो उम्र के इस पड़ाव तक आते-आते उसकी तरह ही जर्जर हो चुकी थी...... जिल्द खुल चुकी थी और पन्ने उससे मुक्ति पा चुके थे..... इस समय भी अलमारी के उसी खाने में रखी है जो उसका मंदिर है और जहां वह नहा-धो कर हर दिन पूजा के लिये आती थी ......। यह और बात है कि पिछले कुछ समय से अशक्त होने के कारण नहीं जा पायी थी।
याद आता है कि मां सालों साल बदस्तूर हम सब का जन्मदिन मनाती थी। घर में चाहे कितनी भी तंगी हो, उसकी अपनी तबियत ठीक हो न हो, उस दिन वह चावल की खीर जरूर बनाती और जिसका जन्मदिन होता उसे टीका कर के उसकी सलामती और तरक्की की दुआ मांग उसे और हम सब को खिलाती। हमारे वालिद के जन्मदिन तो पूरा जश्न का माहौल होता था घर में। हमारे सारे चचाजान मतलब, वालिद के सहपेशा, दोस्तों को दावत का न्योता दिया जाता। सबेरे से सा्नन-ध्यान पूजा-पाठ करने के बाद जो वो जुटती रसोई में तो शाम तक लगी रहती खाना-पकवान बनाने में । सबकी आवभगत और खान पान के बाद वह इतनी थक गई होती थी कि मुश्किल से दो कौर मुंह मे डाल सो रहती।
हम इतना मशगूल थे.. .. .. अपने में.. .. ..कि बचपन तो छोड़ बडे होने पर भी कभी हमें नहीं लगा कि मां का भी कोई तो जन्मदिन होगा और हमें उसे मनाना चाहिये। अब सोचता हूं तो एक अपराधबोध घर कर जाता है मन में.........सब भूल गये कि मां का भी साल के तीन सौ पेंसठ दिनों में से कोई एक दिन तो होगा जो उसका नितान्त अपना होगा.....जन्मदिन....... उसे हमें मनाना चाहिए था। पर किसी ने उसे खीर बना कर न खिलाई न टीका किया। दरअसल हक़ीक़त यह थी कि किसी को, यहां तक कि उसे खुद भी, पता नहीं था कि किस दिन हुआ था उसका जन्म। मां से जब पूछो तो यही जबाब कि जब शादी हुई तो तुम्हारे पापा से यही कोई चार-पांच साल छोटी हूंगी ङ्घ....बस।
मां दोनों लोकों के बारे में सजग रही थी और खासकर जीवन के आखिरी पड़ाव में परलोक के बारे में कुछ चिंतित रहती थी। उसकी सबसे बड़ी चिंता या कि कहें समस्या.. .. .. हालांकि उसने कभी स्पष्ट नहीं कहा.. .. .. मैं ही था। होता यह था कि उसकी इतने पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा, व्रत आदि रखने के बावजूद भी घर की माली हालत सुधरती मुझे दिखाई नहीं देती और मैं ईश्वर की उपस्थिति को नकारते हुए उससे बहस करता और राम और कृष्ण के किरदारों में, आचरण की उनकी विसंगतियां निकालने लगता था और गिन-गिन कर ब्राह्मण-पंडित, पूजा-पाठ, धर्म-कर्म को कोसते बैठ जाता। वह प्रायः निरुत्तर हो जाती थी और हार कर कहती कि तुम्हें तो तुम्हारे पापा ने बिगाड़ दिया है। न जाने कैसी-कैसी किताबें पढ़ने देते रहते हैं। तुम भी उनके नक्शे क़दम पर चल निकले हो।
दरअसल पिता जी ने, जिन्हें हम पापा कहा करते थे, वेद, बाईबिल, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों का विषद अध्ययन किया था पर वो इन ग्रंथों को पुस्तकों के आगे मानने के लिये तैयार नहीं थे। सभी धर्मों के मूल तत्वों में, जो कि एक ही हैं, आस्था तो थी पर ईश्वर को पूर्णतः नकारते हुए पंडितों के ढ़ोंगीपन और सभी तरह के कर्मकांडों से तीव्र वितृष्णा थी। वे खुद ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे और जिन्दगी भर उन्होनें किसी मंदिर में, घर में पूजा अर्चना नहीं की, न किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लिया। और तो और जीवन के अंतिम लगभग छः वर्ष लकवे से ग्रस्त हो अंत समय तक पूरे होश-ओ-हवास में पड़े रहे.. .. ..पीठ पर जख्म हो गये.. .. .. चींटियां काटती रहतीं.. .. .. पर क्या मजाल कि कभी खुदा से यही दुआ मांगते कि वह जल्दी उठा ले और कष्टों से निज़ात दे।
उनकी इस सोच के चलते हम बच्चों को पूरी छूट थी कि हम आगे चल कर क्या करें और इस सोच का भरपूर फायदा उठाते हुए सब बच्चों में मैं सबसे ज्यादा अधर्मी बन गया था। मां की बातों में जब बहस ज्यादा हो जाती तो वो मुझे ठेल देती थी सिर पर एक चपत मार कर।
बड़े होते-होते मैं ईश्वर और उसके वज़ूद के बारे में पूरा नास्तिक हो गया था। मां के मन में मुझे ले कर कुछ संशय था। मैं मां के संशय को समझता हूं। वो कभी भी मेरी तरफ से आश्वस्त नही रहीं। हमेशा मुझे मेरी हरकतों के चलते बिगड़ैल समझती थी। धर्म और पोंगापंथी के बारे में मेरे विचारों से वह भली भांति परिचित थी और उसे अच्छी तरह से मालूम था कि मैं किसी धर्म को नहीं मानता। पहले जब कभी वह बीमार पड़ती या यह दुआ मांगती कि बुढ़ापा अच्छी तरह से निकल जाय...कि कहीं दुर्गत न हो आखिरी समय....तो मैं पूरी संज़ीदगी से कहता कि दुर्गत क्या होनी है .....अस्पताल में ले जा कर डाल दूंगा....करेंगी नर्सें देखभाल.....तो उसके चेहरे पर ऐसे भाव होते कि जैसे मेरी बात की सच्चाई को पकड़ने की कोशिश कर रही हो। कभी-कभी सुनाते हुए कहती भी कि पता नहीं उसकी मिट्टी की क्या दुर्गत हो? कौन करेगा ... कौन लगायेगा नैय्या पार?
उसका यह वाजिब संशय मेरी समझ में आ गया.. .. ..जब मेरे हाथों में उसने अपना हाथ बढ़ाया........ शायद यह भांपने की कोशिश कर रही हो कि मैं क्या करूंगा। बोल तो नहीं पा रही थी पर आंखों में एक आशा की किरण दिखाई दी जो शायद निराशा में बदलती अपने को नियति पर छोड़ती सी लगी। आंख के कोर पर एक कतरा आ टिका।
अबः.. इस समय......जब वह कुछ क्षण की ही मेहमान रह गई है एक यक्ष-प्रश्न मेरे चारों ओर घूम रहा है, तांडव करता.. .. ..मैं क्या करूं...... नहीं समझ में आता। जब मैं यहां आया था तब मैंनें सोचा था कि मैं उससे ही पूछूंगा कि वह क्या सोचती है। पर उसने तो एकदम चुप्पी साध ली।
समस्या यह है कि मैं ठहरा एक नस्तिक और मां नव्वे साल की पूरी जिन्दगी में...... जब से उसने होश संभाला है, नितांत धार्मिक। क्या उस धर्मपरायण मां का क्रियाकर्म मुझ नास्तिक के हाथों हो? विधि-विधान से? क्या यह ठीक होगा? पापा के इंतकाल पर कोई दुविधा मेरे मन में नहीं आयी थी क्योंकि वो खुद नास्तिक थे और कर्मकांडों के घोर विरोधी। मैंने बिना पूजा-पाठ के उनका संस्कार किया था। पर मां ?......उसके बारे में किससे पूछूं? घर में बड़ा होने के नाते मुझे ही निर्णय लेना है।
सामने लेटी है, मां.... हल्के प्रिंट की नाईटी पहने हुए है। उसकी सूत की साड़ी नहीं है। साड़ी जिसके पल्लू से हम सब बच्चे और खासकर मैं खाना खाने के बाद हमेशा हाथ-मुंह पोंछता था और जिसमें से चूल्हे के सामने बैठने से आये पसीने और मसालों की गंध भरी रहती थी.. .. .. आज वह पहने नहीं है। वह बांह जिससे लटक कर बचपन में उससे अपने मन की बात हां करा लेते थे, इस समय ठंडी है, निःस्तेज है। मांस लटक गया है। मैं उसकी बांह पर हाथ रखता हूं।
मैं अपने आप से लड़ रहा हूं। उठा कर मां से ही पूछना चाहता हूं कि बता मां..... मैं क्या करूं?.. .. .. किस आस्था से तूने जिंदगी भर जिस धर्म की पोथियां बांची, पूजा-पाठ-वृत किये.. .. .. कि उसकी एक कड़ी तुझे दगा देने के लिये तैयार बैठी है.. .. .. अपना ऋण अदा करने से हिचक रही है।
मां के गले से निकलती घरघराहट बढ़ रही है। लिटाने बिठाने या किसी और तरह भी वह कम नहीं हो रही है। सक्शन मशीन से गला साफ भी कर दिया है।
मां को आवाज़ देता हूं .. .. ..
कल तक आवाज़ देने पर उसकी पलकें थोड़ी सी और खुल जाती थीं पर आंखें यह देखने की कोशिश नहीं करतीं थी कि आवाज़ कौन दे रहा है.........कहां से आ रही है.. ... .. अब वे अनंत में स्थिर थीं.. .. ..आवाज़ देने पर पलकों में कोई हरकत नहीं होती।
मैं मां के माथे को अंगुलियों से सहलाता हूं। शायद उसे कुछ आराम मिले। नाक पर आक्सीजन मास्क लगा है.......सांस लेने में उसे काफी मशक्कत करनी पड़ रही है।
मन ही मन मां के सामने अपनी दुविधा रखता हूं .. .. ..
.. .. ..तुम्हीं बोलो मां मुझे क्या करना चाहिये। मुझे मालूम है तुम तो कह दोगी.. .. .. हमेशा की तरह, जो ठीक लगे , करो। पर ठीक क्या है?.. .. .. एक नास्तिक का धर्म सम्मत क्रिया-कर्म करना उसके लिये जो पूर्णतः धर्मपरायण है? बिना विश्वास और श्रद्धा से किया कार्य कहां तक उचित है। क्या यह महज़ दिखावा नहीं होगा...एक धोका....?
बोलो...?
.. .. .. मां मेरा मन नहीं करता कि जिस धार्मिक कर्मकांड़ों पूजापाठ, क्रिया-कर्म, यज्ञ-शांति और पंडितों से एक नकारात्मक रिश्ता रखता हूं, उन मान्यताओं को दरकिनार कर तुम्हारा संस्कार धार्मिक विधि-विधान से करूं। यह ठीक है कि तुम चाहती हो कि ऐसा हो पर मैं अपनी मान्यताओं, जो इतने जतन से मैनें अर्जित की है उनको कैसे छोड़ दूं....... तुम्हीं बोलो..... कहा करती थीं न तुम कि जो अंतरात्मा कहे वही करो। क्या तुम चाहोगी कि धर्म से नाता तोड़ चुके आदमी के हाथों से तुम्हारा क्रिया कर्म हो। हो सकता है कि तुम इसके लिये तैयार हो जाओ पर मुझे गवारा नहीं है कि कुछ अनर्थ मुझसे हो जाय।
उसके माथे को मैं सहलाना जारी रखे था।
कल तक खुली आंखों के बीच माथे पर सहलाता था तो पलकें बंद कर कर लेती थी। या कि हो जाती होंगी, कह नहीं सकता पर अब वह भी नहीं कर रही है। मैं आंखों के बीच उंगली से ठकठका चुका हूं। पलकों पर कोई हलचल नहीं होती।
गले से आती घरघराहट की आवाज़ में थोड़ी कमी आयी। शायद मेरे.. .. .. माथे को सहलाने से आराम मिला होगा...सोचता हूं .. .. ..मैं बोलता भी हूं...... लगता है कि आराम आ रहा है।
मेरा एक तरफा संवाद और द्वंद्व जारी था.. .. ..
.. .. ..तुम कहा करती थीं कि समाज़ में रह कर करना पड़ता है.....कई बार नहीं चाहते हुए भी। पर यह कैसी लाचारी है। क्या मैं इससे छूट नहीं सकता?.. .. .. नहीं मां.. .. .. एक बार और मुझे माफ नहीं कर सकतीं, इस जिद्दी बेटे को?
भाई ने, जो बांये हाथ की नब्ज पकड़े हुए बैठा था, ब्लड प्रेशर नापने के लिये पट्टा मां कि बांयी बाजू पर लपेट दिया और फिर स्टेथो कान पर लगा पारा चढ़ाने लगा।
मेरी अंगुलियां मां के माथे पर और उसकी भौहों पर आहिस्ता-आहिस्ता घूमती रहीं।
घरघराहट और कम हो गई। आराम आ रहा है .. .. .. सोचा मैंने
.. .. ..सांस के साथ छाती का उतार चढ़ाव भी कम हो गया।
भाई की नज़र गिरते हुए पारे पर थी। एक बार फिर उसने पारा उपर चढ़ाया।
पत्नी ने पूछा.. .. .. कितना है ? ............उसने पारा चढ़ाते हुए सिर्फ इतना ही कहा...... कम है।
घरघराहट और कम हो गई।
मैने सोचा कि........मां ने......मेरी बा.. .. ..सुन.. .. ..
भाई ने.... पारा नीचे आते-आते ...... हवा निकाल.....चुपचाप हाथ से पट्टा खोलना शुरू कर दिया......
मैं अभी भी उसका माथा सह.. .. ..
.. .. ..पत्नी ने मां की कलाई पकड़ नब्ज देखना शुरू किया...फिर टार्च से पुतलियों में झांका.......
और भाई से पूछा..... गंगाजल?......
.. .. .. मां अब.. .. .. लेटी नहीं थी।
A lot of my childhood memories have come flooding back..... Chachiji and her ways , her smile .....in campus standing leaning to the kitchen door ... ensuring that all have eaten and are looked after....Chachaji's janamdin celebrations......She would bring Suran specially for his birthday ... at makronia looking after the house and chachaji singlehandedly....there was so much to learn and take from her.....This article has taken me to a time in her life which I missed out ....
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