कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -91- देवी नागरानी की कहानी : ऐसा भी होता है

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कहानी ऐसा भी होता है देवी नागरानी कहाँ गई होगी वह? यूं तो पहले कभी न हुआ कि वह निर्धारित समय पर न लौटी हो। अगर कभी कोई कारण बन भी जाता त...

कहानी

ऐसा भी होता है

देवी नागरानी

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कहाँ गई होगी वह? यूं तो पहले कभी न हुआ कि वह निर्धारित समय पर न लौटी हो। अगर कभी कोई कारण बन भी जाता तो वह फोन ज़रूर कर देती। मेरी चिंता की उसे चिंता है, बहुत है, लेकिन आज मैं उसकी चिंता की बेचैनी मुझे यूं घेरे हुए है, कि मेरे पाँव न घर के भीतर टिक पा रहे हैं और न घर बाहर के बाहर क़दम रख पाने में सफल हो रहे हैं। कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ ? जब कुछ न सूझा तो फोन किया, पूछने के पहले प्रयास में असफलता मिली क्योंकि उस तरफ़ कोई फोन ही नहीं उठा रहा था, निरंतर घंटियाँ बजती रहीं, ऐसे जैसे घर में बहरों का निवास हो। जी हाँ, मेरी समधन के घर की बात कर रही हूँ।

अब तो कई घंटे हो गए हैं, रात आठ बजे तक लौट आती है, अब दस बज रहे हैं। बस उस मौन-सी घड़ी की ओर देखती हूँ, तकती हूँ, घूरती हूँ, पर उसे भी क्या पता कि जीवन अहसासों का नाम है, उसे क्या पता कि अहसास क्या होता है? छटपटाहट क्या होती है? इंतज़ार क्या होता है?

और अचानक दिल कि धड़कन तेज़ हो गई। फ़ोन ही बज रहा था। हड़बड़ाहट में उठाने की कोशिश में बंद करने का बटन दब गया और बिचारा फोन अपनी समूची आवाज़ समेटकर चुप हो गया। मैंने अपना माथा पीट लिया। आवाज़ तो सुन लेती, पूछ तो लेती कहाँ हो, क्यों अभी तक नहीं लौट पाई हो?

मैंने अपनी सोच को ब्रेक दी, लंबी सांस ली, पानी का एक गिलास पी लिया और फिर एक और पी लिया। शांत होने के प्रयासों में पलंग पर बैठ गई, और फ़ोन को टटोलकर देखा, कोई अनजान नंबर था, उसका नहीं जिसका इंतज़ार था।

बिना सोचे समझे मैंने वही नंबर दबा दिया। घंटी बजी, बजती रही और फिर बंद हो गई। अब मेरा डर मुझे सहम जाने में सहकार दे रहा था, मेरे हाथ-पाँव ठंडे हो रहे थे, एक सिहरन अंदर बिजली की तरह फैली। मैंने फ़ोन फिर दबाया, घंटी बजी, किसी ने उठाया और फिर रख दिया। अब मेरी परेशानी और बढ़ गई। रात का वक़्त, बेसब्री से उसका इंतज़ार और बातचीत का सिलसिला बंद, जैसे हर तरफ करफ़्यू लगा हुआ हो!

आख़िर फ़ोन की घंटी बजी, एक दो तीन बार...! मैंने सँभालकर उसे उठाया, कान के पास लाई ही थी कि कर्कश आवाज़ कानों से टकराई- ‘परेशान मत करो, आज वह घर लौटने वाली नहीं। अभी एक घंटे में उसकी शादी हो रही है, डिस्टर्ब मत करना।“ बेरहमी से कहते हुए फ़ोन काट दिया और मैं बेहोशी की हालत में बड़बड़ाई, कंपकंपाई और वहीं पलंग पर औंधे मुंह गिर पड़ी।

कौन है ये? किसकी आवाज़ है ये? क्या चाहता है वह, क्यों गुमराह कर रहा है, मुझे, मेरी सोच को, और उसके साथ उसको भी, जो मेरी साँसों की धड़कन है? वही तो मेरे जिगर का टुकड़ा है, उसके बिना मेरा जीवन सूना है, अधूरा, अपूर्ण! वह मेरे ज़िंदा होने का सबब है, और उसी सबब के साथ बेसबब यह क्या कुछ हो रहा है, जिसकी कल्पना मात्र से मेरे बदन में डर, ज़हर बन कर फैलता जा रहा है। ऐसा तो होना ही है, ज़रूर होगा, वह मेरा ख़ून है, मेरे वंश की आख़िरी निशानी, जिसे मैंने सीने से लगाकर पाला, बड़ा किया और उसे छत्रछाया देते-देते मैं ख़ुद एक हरा शजर बन गई। पुराने सड़े गले सब पत्ते झड़ गए, जहां प्रकृति के हर झोंके से बचाकर अपने आँचल की छाँव दी, वहीं उर्मिला के रूप में एक नया कोंपल उग आया। बारह महीने से बाईस साल तक का अरसा कोई कम लंबा तो नहीं होता!

अचानक दरबान ख़बर लाया था, बुरी! हाँ, बहुत बुरी ख़बर मेरे अभय और सविता के अंत की, और उनकी आख़री निशानी ‘उर्मिला’ को लाकर गोदी में डाल दिया। ग्यारह महीने की ही तो थी वह रेशम की गुड़िया, जिसके मुलायम छुहाव से मन में ठंडक फैल जाती, जिसके गाल अपने गाल से सहलाने से ख़ून में संचार बढ़ता, एक ताज़गी नसों में बहने लगती, जीवन-जीवन सा लगता, उसकी किलकारी साँसों को महका देती।

मेरी रातें दिनों में बदल गईं। क्या सोना, क्या खाना, क्या हंसना, क्या रोना सब उसके साथ ही होता रहा। हाँ, उर्मि के साथ, वह धूप मैं साया ! वह उठे तो मैं उठूँ, वह जागे तो मैं जागूँ, वह सोये तो मैं सोऊँ... एक चित, एक मन से समर्पित हो गयी मासूम जान पर, और वह मेरे जीने का सबब बन गई।

वह मनहूस, हाँ मनहूस दिन ही तो था दिवाली का, जो कुछ घंटे पहले घर से निकले, उर्मि को गोद में थामे। पाँव छूते हुए अभय और सविता ने कहा था- “माँ दो घंटे में लौट आते हैं, आते ही दिवाली की पूजा साथ करेंगे। मिठाई लेकर कुछ दोस्तों से मिल आते हैं।“

और जाने वाले न लौटने के लिए चले गए। लौट आई मेरे दिल की धड़कन उर्मि के रूप में, शायद इसलिए मैं ज़िंदा हूँ।

घंटी फिर बजी, अतीत से वर्तमान में आते ही मेरी बेबसी मेरे साथ छटपटाने लगी। अब क्या करूँ ? फ़ोन उठाऊँ, न उठाऊँ? न उठाऊँ तो कैसे पता चलेगा कि मेरी बालिग बच्ची कहाँ है और कैसी है? फ़ोन उठाते ही रख दिया जैसे हज़ार बिच्छुओं का डंक एक साथ लगा हो- ‘मैं थोड़ी देर में उसके साथ आपसे आशीर्वाद लेने आ रहा हूँ।“ बस इतना सुन पायी...!!

कौन है ये, किसकी आवाज़ है जिसमें गैरत के साथ-साथ अपनाइयत भी है। पर वह कहाँ है जिसकी आवाज़ सुनने को मेरे कान तरस रहे हैं? जिसे देखने के लिए मेरी आँखें बेचैनियों की सहरा में भटक रही है।

अचानक फ़ोन की घंटी फिर बजी, उठाते ही सभ्यता के दाइरे से बाहर आकर उबल पड़ी—“तुम कौन हो और क्यों बार-बार परेशान कर रहे हो? मेरी बात मेरी पोती से करा दो।“

“अभी तो वह गृह-प्रवेश करके अपने सास-ससुर का आशीर्वाद ले रही है। मैं अभी आपके पास उसके साथ आ रहा हूँ, फिर आप जितनी चाहें उससे बातें कर कर लेना।“

“पर तुम हो कौन ?”

“आपका जमाई, आपकी पोती का पति।”

‘पति ...!’ मैं विस्मित, अति आश्चर्य जनक रूप से ठगी हुई। रिसीवर मेरे हाथों से छूटते-छूटते बचा, पर लाइन कट गई।

उसी समय दरवाज़े पर दस्तक ने मुझे दहला दिया। डरी-सी सहमे-सहमे काँपते हाथों से कुंडी खोली। सामने सजी-धजी, मांग में सिंदूर सजाये, लाल साड़ी में उर्मि खड़ी थी और दुल्हा अपना चहरा सर पर सजे मुकुट की लड़ियों में छुपाने में कामयाब रहा।

मैं सकते में थी, मन ज़ोरों से मंथन का कार्य करता रहा, अब डर के साथ गुस्सा भी मन में घुस आया था। उर्मी बालिग हुई है तो क्या हुआ, मुझे बताए बिना किसी ऐरे-गैरे के साथ व्याह कर लिया और अब आकार सामने खड़ी हो गई है।

मुझे अभी तक यह सब कांड ही लग रहा था, भयंकर कांड, उर्मि भी पथराई सी खड़ी थी मेरे सामने। उसकी मुस्कराहट, जो उसका श्रिंगार है, जाने कहाँ गायब हुई थी। कहना तो नहीं चाहती, सोचना भी नहीं चाहती की ऐसे क्यों लग रहा है जैसे कोई अनचाहा षडयंत्र हुआ है, जिसमें उर्मि जकड़ी हुई है, इसलिए तो मुस्कराहट पर भी करफ़्यू लगा हुआ है। जितना मैं सुलझे हुए विचारों से हर पहलू पर रोशनी डालती, उतनी ही उलझनों में मैं धँसती जाती। कभी भावहीन मूर्ति उर्मि की ओर देखूँ जो अपने पति के साथ ऐसे खड़ी है जैसे मैं उनका स्वागत करने की तैयारी में खड़ी हूँ।

न शोर, न गुल, न बैंड, न बाजा, बस फूल, फूलों की माला, लाल दमकती साड़ी, और लड़के की वेषभूषा से प्रतीत होता कि दोनों नवविवाहित दंपति हैं। बस, और कुछ नहीं था, न शहनाई, न मंडप, न फेरे (जो मैंने नहीं देखे) न मेहमानों की हलचल, न खाना, न पीना, ऐसा कुछ भी नहीं जिससे लगे कि यह शादी हुई है। और मैं उसकी दादी अपरिचित सी खड़ी देख रही हूँ, उन्हें घर कि दहलीज़ के उस पार और मैं सोचों में डूबी इस पार।

‘सदा सुहागन का आशीर्वाद दीजिये दादी’ अचानक सोच के सभी बंधन टूटे। मैंने उर्मि की ओर देखा जो मिली-जुली भावनाओं से मेरी ओर देखे जा रही थी। मैंने सब नज़र अंदाज़ करते हुए बिना मुस्कराये, लगभग गरजती आवाज़ में उस अनजान दूल्हे की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा- ‘क्या अपना चेहरा दिखाने के लिए तुम्हें मुंह दिखाई देनी पड़ेगी?’

‘मेरा हक़ तो बनता है...!’ वह फुसफुसाया।

निशब्दता अब भी माहौल पर हावी रही। अब दूल्हे के शरीर में हरकत हुई, वह धीरे-धीरे झुका, पूरी तरह झुका जैसे उसके हाथ पाँवों को स्पर्श कर पाए।

जाने क्या था उस स्पर्श में कि मेरे हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद उसके माथे पर चले गए और मुंह से निकला ‘सदा खुश रहो’ और मैं मुग्ध भाव से उस फूलों वाले नक़ाब के पीछे से अपनी उर्मि का दुल्हा देखने की ललक को रोक न पायी। जैसे ही वह पाँव छूकर सर ऊपर उठाने को हुआ, मैंने उसके मुकुट से लटकती फूलों और मोतियों की लड़ियों को हटाया तो एक सलोनी मुस्कराहट से सामना हुआ। सुंदर नयन नक़्श, चमकती आँखें, लुभावनी मुस्कान लिए दोनों हाथ जोड़े खड़ा था सुजान।

मैंने होश में आते हुए दोनों को गले लगाया, आरती, टीका करके उन्हें घर में प्रवेश कराया। अब मन में डर का, सिहरन का कोहरा छंट गया। अपनाइयत की रोशनी में गैरत का अंधेरा गुम हो गया। मन के सारे भ्रम रफ़ूचक्कर हो गए और अब सामना था मनमोहन मुस्कान के मालिक सुजान के साथ, मेरी बहू सविता का छोटा भाई, मेरी उर्मि का पति।

मैं रसोईघर की ओर भागी, जहां से मुंह मीठा कराने के लिए और कुछ न पाकर शक्कर का डिब्बा ले आई। बारी-बारी दोनों को चुटकी भर खिलाई और पानी पिलाया। घर में सादगी से शुभ प्रवेश तो हुआ पर मन में एक अनसुलझी गुत्थी मुझे बेक़रार कर रही थी।

‘दादी आप बैठें, ज़ियादा परेशान न होइए।‘

लेकिन मैंने उनकी एक न सुनी, फ़ोन उठाया और लगाया उर्मि की नानी को.....

’बधाई हो दादीजी’ उधर से पहल हुई।

‘आपको भी नानी जी, पर यूं लुकाछुपी में ये सब......?’

‘क्यों और कैसे, आप सब जानने को आतुर हैं, हमें इसका एहसास है। आपको तो पता ही होगा, जब नातिन अपने मामा से शादी करती है तो चोरी छुपे सिर्फ़ लड़के के परिवार में ही की जाती है, अगर सविता होती तो वह भी शामिल नहीं होती। हम अभी आपके पास आ ही रहे हैं, पाँच सात मिनिट में पहुँच रहे हैं ‘ और फ़ोन कट गया।

उर्मि के नाना-नानी आ रहे हैं, यानि मेरे संबंधी। संबंधी तो वे थे ही, अब रिश्ता और मुकम्मिल हुआ है और मेरी हर चिंता का समाधान सहजता से सजता गया....। उसी वक़्त दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। रसोई से बाहर निकलते ही देखा उर्मि ने दरवाज़ा खोलने की पहल की थी और अब अपनी नानी, सुजान की माँ को सास का दर्जा देते हुए पाँव छू रही थी। फ़जाँ में खुशियाँ घुल-मिल गईं। बधाइयाँ अदला-बदली हुई, मुंह मीठा किया और मिलकर चाय-नाश्ते के साथ बातें होतीं रहीं। कुछ कही जा रही थी, कुछ सुनी जा रही थी, पर सब की सब सुखद और खुशनुमां थीं।

बातों के बीच कई अनजानी बातों से पर्दा उठा कि उस रात उर्मि और सुजान ने सम्पूर्ण धार्मिक रीति-रस्मों से मंदिर में अपने माता-पिता के सामने शादी की, और वे दादी को सर्प्राइज़ देना चाहते थे। हक़ीक़त में दादी को यह पता तो था कि आंध्राप्रदेश में कुछ खास परिवारों में यह प्रथा थी कि बहन की लड़की का व्याह रहस्यमय ढंग से मामा के साथ करवा दिया जाता, और तद्पश्चात मां और बेटी समधन बन जातीं। भाई, बहन का जमाई बन जाता है और लड़की की नानी उसकी सास बन जाती है। दादी आज सविता की जगह खड़ी सभी रिश्ते स्वीकार करके बहू की याद में रो रही थी, पर इसमें एक खुशी भी पोशीदा थी, कि उसे उर्मि के लिए उसका मामा, पति के रूप में एक वरदान स्वरूप मिला, एक रक्षक, एक कवच बनकर!!

पर फ़ोन पर वे शब्द ‘परेशान मत करो, एक घंटे में उसकी शादी हो रही है॥‘ अब एक सुखद यादगार बन गई।

‘दादी हम सभी ने तय किया कि यह शादी रहस्यमय ढंग से सम्पूर्ण करके हम आपके पास आशीर्वाद लेने आएँ। हमें पता है कि आप उर्मि को खुद से जुदा करके हमारे घर की बहू बनाने के लिए राज़ी नहीं होंगी।‘ कहते हुए उर्मि की नानी ने उठकर दादी को गले लगाया और उनके आँसू ही पोंछे। सभी का दर्द सांझा था, सभी की खुशियाँ सांझी थीं।

आँखों में एक मंज़र तैर आया, बारह महीने की नन्ही उर्मि और बाईस साल की नौजवान उर्मि अपनी ही नानी की बहू बनी, अपनी मां की इच्छा पूरी की और अब भावभीनी-सी दादी के चरणों की ओर झुकी तो दादी ने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया।

कल रात और आज सुबह तक के बीच का वह सिहरता समय अब खुशियों की फुहार में बदल गया। आज दादी ने महसूस किया कि दो पीढ़ियों को पाटने वाला प्यार ऐसा भी होता है।

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नाम: देवी नागरानी

जन्मः ११ मई 1941

जन्म स्थान: कराची ( तब भारत )

शिक्षाः स्नातक, NJ में हासिल गणित की डिप्लोमा,

मातृभाषाः सिंधी, सम्प्रतिः शिक्षिका, न्यू जर्सी.यू.एस.ए.(Now retired) .

प्रकाशित कृतियां : 1. "ग़म में भीगी ख़ुशी" , 2. "आस की शम्अ" सिंधी गज़ल-संग्रह, 3. "उडुर-पखिअरा" सिंधी-भजन, 4. "सिंध जी आँऊ ञाई आह्याँ" सिंधी-काव्य, "चराग़े -दिल" , 6. “ दिल से दिल तक", 7. "लौ दर्दे -दिल की" हिंदी ग़ज़ल-संग्रह, 8. "द जर्नी " अंग्रेजी काव्य-संग्रह. 9. “भजन-महिमा” हिन्दी भजन संग्रह २०१२, 10. “ग़ज़ल” सिन्धी ग़ज़ल संग्रह -२०१२.

प्रसारणः कवि-सम्मेलन, मुशायरों में भाग लेने के सिवा नेट पर भी अभिरुचि. कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। समय समय पर आकाशवाणी मुंबई से हिंदी, सिंधी काव्य, ग़ज़ल का पाठ.

सन्मानः न्यू यार्क में अंतराष्ट्रीय हिंदी समिति, विध्या धाम संस्था, शिक्षायतन संस्था की ओर से 'Eminent Poet' , "काव्य रतन", व " काव्य मणि" पुरुस्कार, न्यू जर्सी में मेयर के हाथों “Proclamation Awarad” रायपुर में अंतराष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन में सृजन-श्री सम्मान, मुम्बई में काव्योत्सव, श्रुति संवाद साहित्य कला अकादमी , महाराष्ट्र हिंदी अकादमी, राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद की ओर से वर्ष २००८ में सन्मानित. , जयपुर में ख़ुशदिलान-ए-जोधपुर के रजत जयंती समारोह में, २०१० 'भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम" ओस्लो में सन्मानित. 18 मार्च 2012 भारतीय भाषा संस्कृति संस्थान –गुजरात विध्यापीठ अहमदाबाद, के निर्देशक श्री के॰ के॰ भास्करन, प्रोफेसर निसार अंसारी, एवं डॉ॰ अंजना संधीर के कर कमलों से सुत माला, सुमन, शाल से सन्मानित

संपर्कः dnangrani@gmail.com , URL://charagedil.wordpress.com

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -91- देवी नागरानी की कहानी : ऐसा भी होता है
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -91- देवी नागरानी की कहानी : ऐसा भी होता है
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