कहानी कैसे कहें प्रभुदयाल श्रीवास्तव खिड़की से हवा का झोंका आया और टेबिल पर रखा अखबार उड़कर नीलू के मुंह पर चिपककर फड़फड़ान...
कहानी
कैसे कहें
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
खिड़की से हवा का झोंका आया और टेबिल पर रखा अखबार उड़कर नीलू के मुंह पर चिपककर फड़फड़ाने लगा। जमीन पर बैठी नीलू के हाथ अटेची खोलते खोलते रुक गये। अखबार मुंह पर से हटाकर नीलू ने देवेन्द्र की तरफ देखा जो सोफे पर बैठा सिगरेट पीता हुआ कुछ सोच रहा था।
"पापा ने पचास हज़ार रुपये भेजे हैं" नीलू ने मौन भंग किया। देवेन्द्र जो अभी भी कुछ सोच रहा था जैसे कुछ सुना ही न हो गुमसुम बैठा रहा। नीलू उठकर सामने सोफे पर बैठ गई, देवेन्द्र की तरफ देखकर फिर बोली 'बीमा का पैसा पापाजी को मिला है हमको भी उन्होंने पचास हज़ार रुपये दिये हैं।
"क्यों? देवेन्द्र की जैसे तंद्रा भंग हुई हो क्या तुम पैसे लेने गई थीं? मैंने कब कहा था पैसे लाने को?" देवेन्द्र की रूखी बातें सुनकर नीलू सहम गई। देवेन्द्र का व्यवहार उसे बड़ा अजीब सा लगता था। शादी के बाद से ही वह उसके मायके की उपेक्षा करता रहा है। मम्मी पापा की चर्चा, उनके घर की प्रशंसा देवेन्द्र सुनने को तैयार ही नहीं होता था। क्या तुम्हारे घर की सब वस्तुएं ठीक रहतीं हैं?क्या हमारे घर में कुछ नहीं है?क्या तुम्हारा घर ही जन्नत है, हमारे घर में क्या तुम्हें नरक नज़र आता है?इस प्रकार के ताने सुनते सुनते सुनते नीलू तंग आ चुकी थी और अपने मायके की चर्चा करना बंद ही कर दिया था। ,क्यों अपना दिमाग खराब करे। नीलू पापा के यहाँ से पैसे लेकर आई है यह सुनकर ही भड़क गया था वह। फिर विचारों में खो गया।
बचपन के दिन जैसे चश्मदीद गवाह बनकर उसकी आंखों के कठघरे में खड़े हो गये हों और स्मृतियां कुरेदने की चेष्टा करने लगे हों। दद्दा महीनों तक खटिया पकड़े रहे और फिर चल बसे थे। अम्मा ने जितना बन पड़ा उतनी दवा दारू कराई थी,अपने सब गहने बेच डाले थे और शहर के बड़े बड़े डाक्टरों को दिखा दिया था। दवाई इंजेक्शन फल फूल और दद्दा की बीमार और इसके चारों ओर घूमता डाक्टर बस इसी परिक्रमा में घर की सारी पूँजी स्वाहा हो गई थी। किंतु बीमारी ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी। दद्दा भी कहते,अरी मत फूंक पैसा ,ये डाक्टर क्या करेंगे,मुझे तो अब मरना ही है,बच्चों को क्या खिलायेगी घर में वैसे भी कुछ नहीं बचा है। परंतु अम्मा ने तो ठान ही रखा था कि जब तक दम है दद्दा की दवाई करायेंगे। जान है तो जहान है फिर पति की जान तो पत्नि के लिये अनमोल होती है। बरगद वाला खेत और लाल बाज़ार वाला मकान भी बेच दिया था अम्मा ने। किंतु दद्दा को जाना था सो चले गये। अम्मा खूब रोईं थी रो रोकर आँखें लाल कर ली थीं। देवेन्द्र भी सुबक सुबक कर रोया था। बड़का नरेन्द्र भी फफक रहा था। चाची ने भी रोने का ढोंग किया था।
देवेन्द्र को अभी तक याद है चाची की एक्टिंग, अपनी लड़कियों से चाची धीरे धीरे कह रहीं थी कब तक रोना पड़ेगा जरा बाहर देख कर तो आओ यदि कोई और आने वाला बाकी न हो तो तो थोड़ा रिलेक्स हो लें, किंतु इतने में पड़ोस की अन्नी काकी आ गईं थीं और चाची दहाड़ें मार कर रो पड़ी थीं। असली रोने वालों में अम्मा नरेन्द्र भैया और वह खुद ही था बाकी तो मात्र औपचारिकतायें पूर्ण करने को रो रहे थे। कैसी विडंबना है ,आदमी का रोना और हँसना भी मात्र दिखावा रह गया है। मुक्त हँसी और रुदन तो हृदय के उदगार होते हैं जो अंतस के अतिरेक बनकर कंठ और आंखों के रास्ते यथार्थ के धरातल पर उतर आते हैं। बेचे गये खेत का बचा हुआ रुपया क्रिया कर्म में साफ हो गया था। तेरहवीं करते करते घर में शांति छा गई थी। जैसे चलते चलते थके हुये मुसाफिर को रास्ते धर्मशाला मिल गई हो और वह उसमें आराम करने लग गया हो इसी तरह घर में सबको डाक्टर बीमारी और दवाईयों से छुटकारा मिल गया था क्योंकि इनके महा नायक दद्दा स्वयं ही दुनिया से छुटकारा पा चुके थे। अब चारों ओर अंधेरा था ,शांति थी और सन्नाटा था। आठवीं में था देवेन्द्र और् नरेन्द्र ग्यारहवीं पास कर चुका था। चार माह पहले से ही स्कूल पढ़ाई कक्षा सब भूल सा गया था देवेन्द्र,बस दद्दा दवाई और डाक्टर यही याद रह गया था उसे। अम्मा ने कहा था बेटा अब तेरी पढ़ाई कैसे होगी और वे रो पड़ीं थीं। बड़का नरेन्द्र दम भर रहा था' मैं नौकरी करूंगा,छुटके को पढ़ाऊंगा तू चिंता मत कर अम्मा। ' परंतु नौकरी थी कहां वह तो मृग तृष्णा थी...मजदूरी ही करना पड़ेगी ,सोलह साल का बड़का और करेगा क्या।
स्कूल से नाम कटने का नोटिस आ गया था छुटके देवेन्द्र का,फीस भरने के पैसे नहीं थे घर में और सात दिन का समय दिया था हेडमास्टर ने, जमा करो नहीं तो नाम कटना ही है। अम्मा ने सूखी रोटियाँ थाली में परोस दी थीं साथ में एक नमक की डली भी। ' अम्मा तरकारी....'देवेन्द्र बुदबुदाया था। 'कहां है तरकारी तेरे भाग्य में' अम्मा फूट पड़ीं थीं,आंखों में आँसू आ गये थे। 'अम्मा आंगन में तरकारी लगायेंगे" इतना कहकर वा थाली छोड़कर कल्लू चाचा के घर पहुँच गया था और सेम कद्दू लौकी और फतकुली के बीज मांग लाया था। आंगन में हँसिये से गढ्ढे खोदकर बीज दफना दिये थे उसने। 'अम्मा तरकारी के पेड़ लगा दिये हैं खूब तरकारी फलेगी मुझे खिलाना नरेन्द्र भैया को खिलाना और तुम भी खाना' देवेन्द्र अम्मा को समझाने लगा था। छुटके की बाल बुद्धि पर अम्मा के होठों पर मुस्कान आ गई थी। वह कहता 'अम्मा मैं नौकरी करूंगा पढ़ाई नहीं करूंगा' हेड मास्टर घर पर आ गये थे और कह गये थे फीस का इंतजाम कर दो देवेन्द्र की मां,लड़का होनहार है पढ़ जायेगा तो कुछ बन जायेगा,किताबों की व्यवस्था मैं स्कूल से करा दूंगा पर फीस तो भरना ही पड़ेगी। "किंतु घर में था ही क्या जो फीस भरते। राशन भी दो चार दिन का ही बचा था। फिर फाँके।
देवेन्द्र को कब नौकरी मिलेगी क्या पता.कोई चपरासी तक बनाने को तैयार नहीं था। फीस भरने के लिये दो ही दिन बचे थे,घर की हालत देखकर कोई उधार देने को तैयार नहीं था। अचानक दद्दा के एक पुराने दोस्त मोहन चाचा आ गये थे। उन्हें देखकर देवेन्द्र सिसक उठा था। न जाने क्यों मोहन चाचा उसे अपने से लगते थे और मोहन चाचा भी उसे बहुत चाहते थे। अम्मा ने फीस की चर्चा छेड़ दी थी। कुछ सोचते रहे मोहन चाचा फिर देवेन्द्र की तरफ मुड़कर बोले थे' चलो हमारे साथ कुछ करते हैं। वह तहसील कार्यालय में बडे बाबू थे, पाँच बच्चों के बाप तीन विवाह योग्य बहने, पूरा बोझ उनके कंधों पर था। किंतु ओंठों पर मुस्कान और दूसरों की निस्वार्थ सेवा यही उनकी विशेषता थी। एक कागज़ पर उन्होंने कुछ लिखा था,अपने हाथ से दस बारह पंक्तियां शायद देवेन्द्र की छोटी उमर की जीवनी थी। वह चल पड़ा था मोहन चाचा के पीछे। तहसील कार्यालय पहुंचकर चाचा अपनी कुर्सी पर बैठ गये थे और अपने सहयोगी बाबुओं से देवेन्द्र के बारे में बताने लगे थे। अपने हाथ से लिखा कागज़ पढ़ाने लगे थे। लोग रुपया दो रुपया जिसकी समझ में जो आ रहा था मोहन चाचा के द्वारा टेबिल पर बिछाये रुमाल में रखते जा रहे थे।
थोड़ी देर बाद मोहन चाचा कार्यालय के दूसरे कमरे में थे। "फिर किसी लफंगे को ले आये मोहन बाबू"किसी ने फिकरा कसा था। देवेन्द्र तिलमिला कर रह गया था। वह समझ गया कि मोहन चाचा उसके लिये भीख मांग रहे थे। अंतर यही था, मोहन चाचा के हाथ में कटोरे के बदले रुमाल था। उसका दिल रो रहा था किंतु चाचा तो जैसे परमहंस गति को प्राप्त हो चुके थे,कितना भी अपमान हो ,कोई कितना भी बेइज्जत करे दूसरों की भलाई के लिये वे सब कुछ सहन करने को तैयार हो जाते थे,यही उनके संस्कार थे। मोहन चाचा ने देवेन्द्र को पीछे आने का इशारा किया और एक दरवाजे का परदा उठाकर अंदर प्रवेश कर गये। देवेन्द्र भी कमरे में प्रवेश कर गया जैसे बाज़ीगर के पीछे जमूरा जा रहा हो।
कमरा तहसीलदार का था। आलीशान सज्जा ,कूलर की ठंडी हवा लेता तहसीलदार कुर्सी में धँसा कुछ पढ़ रहा था। मोहन चाचा ने हाथ में लिया कागज़ उसके हाथ में थमा दिया। "सर एक होनहार किंतु गरीब लड़का.....कुछ आर्थिक... "कहां कहां से भिखमंगों को पकड़ लाते हो मोहन बाबू "बात बीच में ही काटकर तहसीलदार ने वह कागज़ का टुकड़ा एक तरफ फेंक दिया था और एक अठन्नी देवेन्द्र की तरफ उछाल दी थी। ' हटाओ इसे यहाँ से' वह चिल्लाये थे। कुछ सहमे से मोहन चाचा कमरे से बाहर आ गये थे। दो दिन यह खेल चला था। सभी परिचित कार्यालयों में एक चक्कर लगा दिया था उन्होंने। दूसरे दिन शाम तक कुल 250 रुपये की पूंजी जमा हो गई थी,दया की भीख के दो सौ पचास रुपये। स्कूल से नाम कटते कटते बच गया था। फीस जमा कर दी थी और आने वाले कुछ दिनों की एक जून की रोटी की की भी व्यवस्था हो गई थी। फिर तो गाड़ी चल पड़ी थी। मरते को आक्सीजन क्या मिली जिंदगी की उम्र लंबी हो गई। नरेन्द्र को एक प्रायवेट स्कूल में नौकरी मिल गई। अन्नी चाची के घर का मठा और दही ,फलकू कक्का के खेत के भुट्टे और मल्लो मौसी के बगीचे के पौदीने की चटनी का स्वाद लेता गरीबी और अभावों से लड़ता देवेन्द्र बी. एस .सी. प्रथम श्रेणी में पास हो गया था। देवेन्द्र की आंखों के सामने बीते दिनों के चित्र स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। इंटरव्यू हुआ था रिटिन टेस्ट ओरल फिर पंद्रह किलोमीटर की दौड़, चुन लिया गया था वह पुलिस इंस्पेक्टर की ट्रेनिंग के लिये। अम्मा खुशी से पागल हो गईं थीं। सारे मुहल्ले में लड्डू बँटवा दिये थे। छुटका पुलिस इंस्पेक्टर बन गया था। घर घर चर्चा हो रही थी' बच्चों की मेहनत रंग ले ही आई।
देवेन्द्र की मां के भाग्य चमक गये। ' देवेन्द्र तो चाहता था कि वह डाक्टर बने वह, कितना मज़ा आयेगा जब वह स्टेथिसकोप लेकर मरीजों को चेक करेगा,और गरीबों से तो बिल्कुल पैसा नहीं ले गा। किंतु यह तो एक दिवा स्वपन था,डाक्टर बनना उसके नसीब में कहां था।। पैसे कहां थे घर में जो डाक्टर बनता। नौकरी में आने के बाद चार साल में ही उसकी शादी तय हो गई थी रामगढ़ में रिटायर्ड नज़ूल अधिकारी की बिटिया नीलू के साथ। घोड़े पर बैठकर अपने संबंधियों और मित्रों के साथ बेंड बाजे लेकर वह नीलू को ब्याहने पहुँच गया था। दोस्तों यारों ने बढ़िया फिल्मी नाच दिखाया था रास्ते में और दुल्हन के घर के सामने। शादी की रस्म पूरी होने पर दूसरे दिन सुबह नई नवेली दुल्हन के साथ बारात वापिसी की तैयारियाँ हो रही थीं। नीलू की मां बहिनें और सहेलियां लिपटकर रोने की औपचारिकतायें पूरी कर रहे थे। पापा की आँखों में आंसू थे। अपनी लाड़ली की बिदाई का गम वह सहन नहीं कर पा रहे थे। बिदाई का समारोह कुछ पाने और खोने का समय होता है। अपनी जवान होती बेटी को ब्याहने के लिये बाप वर की तलाश में न जाने कितने जूते चप्पल तोड़ लेता है,मुँह मांगा दहेज देता है कि किसी भी तरह बेटी की डोली उठे किंतु जब बिदाई का समय आता है तो वही बाप रोता है खुशी और गम का अनोखा संगम है बिदाई की बेला।
बेटी दामाद के चरण स्पर्श करते करते उसके ससुर शर्माजी रो पड़े थे। दुल्हन को कार में बिठाने के लिये घर की महिलायें कार के चारों ओर जमा हो गईं थी। दुल्हन को कार में बिठाने के लिये घर की महिलायें कार के चारों ओर जमा हो गईं थी। उसी समय एक रिक्सा आकर वहीं पास में रुका था और एक सज्जन आकर शर्माजी के पास पहुँच गये थे। शायद कोई मेहमान थे जो ट्रेन लेट हो जाने के कारण विवाह में शामिल होने के लिये अभी पहुंच सके थे। कार में बैठते वर वधू को उन्होंने एक रहस्यमयी मुस्कान बिखेरते हुये दूर से ही आशीर्वाद दे दिया था। उनकी आँखों में एक विशेष प्रकार की चमक दिखाई दे रही थी। देवेन्द्र नीलू को ब्याह कर अपने घर ले आया था। सारा दिन नेग चार दुल्हन की मुंह दिखाई और देवी देवताओं की पूजन में व्यतीत हो गया था। चारों ओर खुशी का माहौल था।। अम्मा फूली नहीं समा रहीं थीं। बच्चे शोर मचा रहे थे और घर में आये नये मेहमान से दोस्ती करने के जुगाड़ में थे। शाम को मोहन चाचा आ गये थे। देवेन्द्र उन्हें देखकर श्रद्धानत हो उनके चरणों में गिर पड़ा था। और मोहन चाचा ने उसे उठाकर हृदय से लगा लिया था। चाय नाश्ता करते हुये पुरानी स्मृतियों में खो गये थे वह अचानक ही बोल उठे "जानते हो देवेन्द्र तुम्हारे ससुर शर्माजी कौन हैं?"
"कौन हैं, मेरे ससुर हैं नीलू के पिताजी। '
"इसके अलावा भी कुछ और याद करो तुम उनसे बहुत पहले कहीं मिल चुके हो। "
"हां हां शादी के पहले मुझे देखने आये थे। '
'अरे अभी नहीं रे ,बहुत पहले, ठीक से याद करो। "
"मुझे तो कुछ समझ भी समझ में नहीं आ रहा है कि आप क्या कह रहे हैं। "
"खैर छोड़ो बाद में बतायेंगे। "
"नहीं नहीं चाचा बताइये न वह कौन हैं?" मुझे तो कुछ भी याद नहीं आ रहा है। "
" कुछ नहीं ऐसे ही ,पुराने लोगों ने सच ही कहा है आदमी नहीं समय ही सबसे बलवान होता है। आज का इंसान केवल अपने लिये ही जीता है अपने स्वजनों की थोड़ी सी भी पीड़ा वह सह नहीं पाता उसे दूर करने के लिये पैसा पानी की तरह बहा देता है। जबकि अपने पड़ोसी कॆ बीमार मरते हुये बच्चे को जरा सी भी सहायता करने में वह पचास बार सोचता है। कैसी स्वार्थी दुनियाँ है यह देवेन्द्र। "मोहन बाबू भावात्मक भाषण प्रवाह करने लगे थे। थोड़ा रुककर बोले थे ,यह शर्माजी वही तहसीलदार है देवेन्द्र "कहाँ कहाँ से भिखमंगे पकड़ लाते हो। ' वह अठन्नी जो उन्होंने तुम्हारी तरफ उछाली.......,
"क्या...... क्या क्या कह रहे हैं चाचा" जैसे किसी ने आसमान से उठाकर उसे जमीन में पटक दिया हो।
"हाँ यह सच है परंतु अब यह बात यहीं तक सीमित रखना। उधर तुम्हारे स्वभिमान ने मजबूरी में सिर झुकाया था और अब अभिमान का सिर संबंधों के अधिकार के आगे स्वत:झुक गया है। "मोहन बाबू देवेन्द्र को समझा रहे थे। सुबह जब शर्माजी के यहां पहुँचा तो मैं तुम्हें दूर से देखकर ही पहचान गया था, आत्मा को बहुत शांति मिली थी शर्माजी के दामाद के रूप में तुम्हें देखकर। "
उस समय कैसा दिमाग भन्ना गया था उसका देवेन्द्र भीतर ही भीतर बड़ी बेचैनी महसूस करने लगा था, पुरानी बात शर्माजी को याद आ गई तो। कहीं नीलू से न कोई कह दे कि उसका थानेदार पति उसके पिता से भीख मांगने गया था और पिताजी ने दुत्कार कर भगा दिया था। उसने सिर को झटका दिया और वर्तमान में लौट आया।
"नीलू वह जोर से चिल्लाया,कल ही अपने घर चली जाओ और अपने पिता को रुपये वापस कर आओ,जब तक उनका धन इस घर में रहेगा उसे नींद नहीं आयेगी। दूसरे दिन नीलू चली गई थी रुपये वापस, करने किंतु एक जलता सवाल भी साथ में ले गई थी क्यों कर रहा है देवेन्द्र ये रुपये वापस? आखिर क्यों?आज जब ससुराल के पैसों को बड़ी इज्जत से स्वीकार किया जाता है लोग मांग करते हैं ऐसे में देवेन्द्र क्यों ऐसा व्यवहार कर रहा है यह उसके लिये पहेली बन चुका था।
देवेन्द्र सोचता है काश वह मोहन चाचा के साथ भीख मांगने न जाता,सड़क पर बैठकर जूते पालिश कर लेता,कुलीगिरी कर लेता और यदि उसके ससुर शर्माजी दामाद बनाने के बाद उसे पहचान जाते कि उनका दामाद कुली था या बूट पालिश करता था तो भी उसे दुख नहीं होता। वह सिर उठाकर कहता कि ईमानदारी से किया गया परिश्रम कोई पाप नहीं होता कोस रहा था उन पलों को,। क्षणों को जब वह मोहन चाचा के साथ गया था एक आत्म ग्लानि और अपमान भरे सफर पर। कैसे हो अंतरवेदना निग्रह, कैसे कहें किससे कहें मन की व्यथा , देवेन्द्र को शायद यह त्रासदी सारी उम्र भोगना है।
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