कहानी बच गये पापा -डॉ0 मनसा पाण्डेय -- रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अपनी अप्रकाशि...
कहानी
बच गये पापा
-डॉ0 मनसा पाण्डेय
--
रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अपनी अप्रकाशित कहानी भेज सकते हैं अथवा पुरस्कार व प्रायोजन स्वरूप आप अपनी किताबें पुरस्कृतों को भेंट दे सकते हैं. कहानी भेजने की अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012 है.
अधिक व अद्यतन जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html
----
नन्हें हाथों ने कब हथौड़ी थामी, कब मूर्तियां हंसने लगीं पता ही नहीं चला।
शिवा दो वर्ष की थी जब उसकी मां चल बसी पर दसवीं वर्षगांठ पर उसने एक पत्थर में मां को तराशा। माथे पर गोल बिन्दी, ठुड्डी पर तिल, बड़ी आंखें, पतली नाक..... हूबहू वही बस उनकी खिलखिलाती हंसी की जगह मौन उदास आंखों में तैरता समुद्र.....।
अश्वनी अपनी बेटी की यह कला देखकर दंग रह गये थे। पूर्वजों की कई पीढ़ियों पर निगाह डाली। कोई नहीं था ऐसा...।
‘‘देखो! इसकी लम्बी-लम्बी उंगलियाँ, ये बड़ी कलाकार बनेगी।’’ गीतम की आंखों में चमक दिखायी देने लगती। आज वही दृश्य बार-बार अश्वनी की आंखों में घूमता रहा।
गीतम को गये अभी वर्ष भर ही हुए कि रिश्तेदारों ने रिश्ते की पहल शुरू कर दी। शिवा के पाँच वर्ष पूरे होते ही अश्वनी पुनः सात फेरों मे बंध गये। अश्वनी को अपनी शर्त पर यह रिश्ता मिला। रीमा! एक तलाकशुदा स्त्री का पुनर्विवाह। एक साधारण कद-काठी की स्त्री घर में दाखिल हुई जो कभी बांझ के बोझ से बाहर कर दी गयी थी।
रीमा ने अपने नये लाल जोड़े में ही सब कुछ रोते-रोते बता दिया। शिवा ने उसके आंसू पोछे और गले लगकर सो गयी।
रीमा ने अपनी उदारता और कर्मठता से इस घर को रोशन कर दिया। शिवा को दुलारती, पढ़ाती फिर उसके साथ उसकी मूर्तिकला में उसके हाथ निहारा करती।
अश्वनी निहाल हो उठे थे। जिस भय से उन्होंने इस दबाव को स्वीकारा, अब वे उससे मुक्त होकर परिवार के स्वस्थ माहौल में खुश थे। प्रेम में वह औषधि है जिसमें प्रतिभाएं निखरती हैं।
शिवा धीरे-धीरे अपनी छेनी और तेज करने लगी। स्त्री के हर रूप को शिवा ने गढ़ा। मां से शुरू होती यात्रा में उदारता, दया, प्रेम, उपासना, सेवा, करुणा के कई चेहरे, कई रंग.... दर्ज थे। मां प्रकृति के कई बिम्ब।
आज शिवा ने अपने जीवन के 18 वर्ष पूरे किये। इधर करीब 2-3 वर्षों से अल्हड़ किशोरी, खिलखिलाती युवती, सरकता आंचल, फैली बाहों....की सजती मूर्तियों के बीच अश्वनी ने शिवा को देखा। किशोर से युवा होती शिवा में कई बदलाव दिखायी देने लगे थे। गुनगुनाते चेहरे पर रक्तिम आभा के बीच आंखों की चपलता उम्र को बयां कर रही थी।
अश्वनी के विचार बाहर आये।
‘‘रीमा! अधखुले वस्त्रों में दिखती मूर्तियां! क्या कहना चाह रही हैं....?’’
रीमा चुप थी पर थोड़ी देर बाद शब्द बाहर आये।
‘‘पता नहीं! मैं कुछ ज्यादा समझती नहीं बस उसकी नर्म हाथों से कठोर पत्थरों पर उभरती तस्वीरों को देखती हूं।’’
‘‘अब मूर्तियों को और जगह चाहिये। इन्हें कोई जगह दे दो।’’ रीमा ने प्रस्ताव रखा।
‘‘हां! ये पीछे का हिस्सा, इसे छत देकर इन मूर्तियों को दे दो ताकि आने वाले भी सीधे गैलरी से मूर्तियों के साथ पास हो लें।’’
एक महीने के अन्दर मूर्तियों के लिए इस बड़े कमरे का निर्माण हो गया। शिवा काफी खुश थी। करीने से पोंछकर सभी मूर्तियों को किनारे सजा, महुआ मोमबत्ती सजाने लगा।
मोमबत्तियों के जलते ही मूर्तियां मुस्कुरा उठीं, महुआ आश्चर्य से मूर्तियों को निहार रहा था।
‘‘केवल औरतें! केवल औरतें क्यों? इतनी सुन्दर, सुघड़ क्या सिर्फ औरतें होती हैं, पुरुष नहीं?’’ शिवा हंस पड़ी।
‘‘नहीं ऐसा नहीं! पर स्त्री का सौन्दर्य अद्भुत है। उसका हंसना-बोलना, रूठना-उदास होना सब कुछ कितना सुन्दर है।
शिवा ने एक-एक कर कई मूर्तियों को इंगित किया गोल आंखें घुमाकर महुआ ने होंठ बाहर कर लिये ‘‘सच! कितनी सुन्दर न!’’
‘‘तुम्हारे हाथ में तो जादू है जादू।’’
‘‘दोनों ही साथ हंस पड़े।’’
शिवा, महुआ के साथ ही कालेज जाती थी। दोनों में खूब निभती थी। महुआ रोज शाम को उसकी कार्यशाला सजाने आ जाता। करीने से पोंछता, मूर्तियों को लगाता फिर मोमबत्तियां सजाकर लौट जाता।
महुआ का यह रोज का काम था। पर अश्वनी ने आज सवाल उठा दिया- ‘‘ये तो मूर्तियां नहीं बनाता तो यहां रोज आता क्यों है? ये छोटी जाति का है इसे इतना सिर क्यों चढ़ा रखा है। इससे कह दो ये कभी यहां न दिखे।’’ अश्वनी आगबबूला हो उठे उनकी आवाज भी कड़ी थी।
महुआ को शिवा ने मनाकर दिया। तब से महुआ कभी नहीं आया। शिवा महुआ के साथ ही कालेज जाता पर भारी मन से डरे-सहमे....।
मूर्तियों में उदास चेहरे, भय और असुरक्षा के भाव भी दिखने लगे।
शिवा की यह साधना यश फैलाने लगी। अखबारों में इंटरव्यू, फीचर, प्रकाशित होने लगे। उसके कालेज की प्रिंसिपल ने आज उसकी मूर्तियों को देखने आने का कार्यक्रम भी बना लिया।
मां-पापा उनके स्वागत की तैयारी में लग गये। मां बार-बार कुर्सियों के कुशन ठीक करती तो कभी प्लेट पोंछती। पापा बाहर से भीतर तो भीतर से बाहर आते।
‘‘आइये..... आइये!’’ पापा उनके पहुंचते ही स्वागत की ओर बढ़ गये।
प्रिंसिपल सीधे मूर्तियों की ओर ही बढ़ी। मूर्तियों की आभा में प्रिंसिपल मैम का चेहरा अवाक् रह गया था। आश्चर्य मिश्रित खुशी आंसुओं में दिखने लगी। कमरे में कभी मूर्तियों के करीब जातीं तो कभी शिवा के हाथ देखतीं।
‘‘इतना कुछ है तेरे पास!’’ शिवा को गले लगा लिया। ‘‘मैं कल ही कुछ संस्थाओं को लिखूंगी।’’
प्रिंसिपल मां-पापा के व्यवहार से बड़ी खुश दिखीं।
‘‘आपकी बेटी ने तो मुझे निहाल कर दिया।’’ उन्होंने मां-पापा को गले लगा लिया।
मां की आखें छलछला गयीं।
प्रिंसिपल चली गयीं पर अभी भी उनकी प्रतिध्वनि हवा में तैर रही थी। पापा काफी देर से चुप थे। मां उनकी उदास आंखों को पढ़ती रहीं।
‘‘क्या सोच रहे हैं?’’ पीठ पर हाथ रखते मां बोलीं।
‘‘सोचता हूँ इतनी बड़ी प्रतिभा को कहां मैं उसके लायक दे पाऊंगा? मैं कहां संभाल पाऊंगा?’’ अश्वनी की आंखों से आंसू झरने लगे।
‘‘अरे! यह तो हमारे लिए गर्व करने का समय है’’ तभी शिवा आ गयी।
‘‘पापा! क्या हुआ?’’ पापा के चेहरे पर उदासी की परत चढ़ गयी थी।
‘‘कुछ नहीं बेटे! पापा को तुम्हारे दूर जाने का भय सताने लगा है।’’
‘‘अरे पापा! अभी मैं कहां जा रही हूँ प्रिंसिपल अभी भेजेगी..... वहां से क्या आयेगा।’’
अश्वनी सो नहीं पा रहे थे। अन्दर की बेचैनी बढ़ रही थी।
‘‘क्या है? साफ-साफ बोलते क्यों नहीं?’’ रीमा ने कहा
‘‘शब्दों में इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि मन को उतार पाये।’’
‘‘पहेली मत बुझाओ। बात क्या है?’’
‘‘मेरे पास इतनी सामर्थ्य भी नहीं कि मैं इसके लायक घर-वर खोज पाऊंगा।’’ अश्वनी भरभरा गये।
रीमा भी उदास हो गयी। सच! शब्द में इतनी ताकत कहां जो भावना को ध्वनि दे पाये।
दो महीने के अन्दर ही शिवा को बुलावा आने लगा।
मुम्बई की मूर्तिकला केन्द्र में शिवा का जाना तय हुआ। अश्वनी उसे छोड़कर उदास लौट आये।
रीमा की उदास आंखों में उसके अकेले रहने का भय तो शिवा के उज्ज्वल भविष्य की चमक दोनों तैरती दिखी पर अश्वनी के चेहरे पर फैली कालिमा में कोई रोशनी नहीं थी।
अश्वनी और रीमा शिवा के जाने के बाद लाचार से दिख रहे थे।
तीन महीने बाद अश्वनी और रीमा शिवा के आग्रह पर मुम्बई पहुँचे।
शिवा का छोटा सुन्दर-सा घर उसकी अकादमी का फैला आंचल जिसमें कितनी प्रतिभाएं पल रही थीं।
शिवा की मूर्तिकला राष्ट्रीय स्तर पर फैलने लगी। उन पुरस्कारों के बीच शिवा खड़ी थी।
अश्वनी और रीमा कुछ दिनों में घर वापस आ गये। सफलता के हर रंग में अश्वनी को अपनी जिम्मेदारी की कशिश एक कालिमा के रूप में दिखती।
अश्वनी ने पूरी ताकत लगा दी। अपने समाज-जाति में खूब दौड़े पर बात नहीं बन पा रही थी।
‘‘एक सुन्दर, सुघड़ गृहणी चाहिए न कि सांवली पत्थर काटने वाली लड़की। कहां उसके लिए हम लोग।’’
अश्वनी एकदम हताश हो गये। आज महुआ का पता कर बैंगलौर पहुंच गये। दो बच्चों के साथ वह बाहर निकला।
‘‘आप?’’ वह आश्चर्य से पूछ बैठे।
‘‘हां!’’ उसके बच्चों और पत्नी को देखते ही अश्वनी सहम गये।
‘‘हां इधर आया था, कुछ काम से तो सोचा आपके यहां हो लूं, पता था मेरे पास.....’’ बात अटक-अटककर बाहर आ पा रही थी।
गेट से बाहर निकलते ही अश्वनी को लगा चारों ओर अंधेरा छा गया। वे धीरे-धीरे कदमों से आगे बढ़ रहे थे।
अश्वनी इस मूर्तिकला से ऊबने लगे। खीझ और झल्लाहट में उन्हें मूर्तियां सिर्फ पाषाण दिखतीं। उनका सारा सौंदर्य कहां खत्म हो रहा था।
अश्वनी अपने समाज से कतराने लगे थे। विवाह की उम्र निकल रही थी। शिवा का सांवला रंग और गहराने लगा था। आंखों के नीचे बढ़ते स्याह घेरे अश्वनी को और बेचैन करने लगे।
दिन-प्रतिदिन अश्वनी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। तीन महीनों में पांच किलो वजन गिर गया था। रीमा की पूरी देखरेख के बाद भी अश्वनी डिप्रेशन के शिकार होने लगे थे। समय की मार ने उन्हें बिस्तर पर ला दिया। रीमा हरपल साथ थी।
शिवा को पता चला तो वह घर आ गयी। पिता को देखते ही वह रोने लगी ‘‘पापा चलो मेरे साथ चलो वहां डाक्टर को दिखाना होगा। यहां मां एकदम अकेली पड़ जाती हैं।’’ शिवा की जिद ने पिता को साथ आने के लिए मजबूर कर दिया।
शिवा के वहां पहुंचते ही कैम्पस के लोग आ गये। उसी में एक चेहरा था ‘हिमालय’।
हिमालय रोज आता। अश्वनी से बातें करता, शिवा के साथ लगा रहता, रीमा की मदद कराता और फिर लौट जाता।
शिवा से अश्वनी ने पूछा ‘‘हिमालय! यहां क्या करता है?’’
‘‘वो यहां लाइब्रेरी देखता है, और भी कई काम, मैनेजमेंट में भी है।’’
‘‘इसका परिवार?’’
‘‘नहीं बैचलर है।’’
‘‘शिवा! मैं तुम्हारी शादी कहां करूं? किससे करूं, कोई मिलता जो इस प्रतिभा को सहेज पाता।’’ अश्वनी की बेबसी उभर आयी।
‘‘पापा! इसे सहेजना तो मुझे है.....।’’ शिवा उदास हो गयी।
‘‘विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है जो जीवन का उद्देश्य तय करती है। परिवार के लिये जीना स्त्री की पहली जिम्मेदारी है। उसके सहयोग से ही स्त्री को चलना होता है तभी जीवन की पूर्णता है।’’ शिवा चुपचाप उठ गयी।
‘‘सुनो!’’ पापा ने धीरे से बुलाया।
‘‘हिमालय मुझे ठीक लग रहा है। तुम सोच लो और कहो तो बात करूं मैं।’’
‘‘पापा! वो छोटी जाति का है।’’ शिवा का सांवला चेहरा और सख्त हो गया।
अश्वनी तिलमिला उठे। सामने महुआ दिखने लगा।
तौलिया से मुंह ढककर अश्वनी फफक-फफककर रो उठे। शिवा अवाक् थी।
तभी हिमालय सीढ़ियां चढ़ता हुआ करीब आ गया ‘‘क्या हुआ?’’
अश्वनी खुद को रोक नहीं पाये जोर-जोर से रोने लगे।
‘‘क्या हुआ पापा?’’ हिमालय घबरा गया।
हिमालय शिवा का हाथ पकड़े सामने खड़ा हो गया।
‘‘पापा आप जल्दी ठीक हो जायेंगे। मैं शिवा का हाथ मांग रहा हूं। यकीन रखें मैं सांस की तरह साथ चलूंगा।’’
रीमा भी रोने लगी। वह पीछे से अश्वनी के कंधे के पास आ गयी।
शिवा अश्वनी को देख रही थी ‘‘पर पापा...... जाति......।’’
अश्वनी जोर से रोने लगे। हिमालय को गले लगाकर देर तक रोते रहे। शिवा और रीमा भी एक-दूसरे से लिपटकर रोने लगी।
टी.वी. पर समाचार चल रहा था। राष्ट्रीय पुरस्कार के लिये शिवा को नामांकित किया गया है। अकादमी में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। भाव-विभोर अश्वनी की ओर शिवा ने देखा पर उनकी आंखें झुक गयी।
जुहू बीच पर बारिश हो रही थी। अश्वनी रीमा, शिवा, हिमालय..... बारिश में दौड़ रहे थे पर अश्वनी के पैर नहीं उठ रहे थे। सबसे पीछे अश्वनी तेज चलने की कोशिश कर रहे थे तभी रेत पर गिर पड़े।
‘‘महुआ....’’ धुंधली आंखों में उन्हें कोई दिखा फिर बेहोश हो गये।
शिवा आज पुरस्कार लेकर अस्पताल पहुंची। ..... पापा नहीं रहे। हिचकियों के बीच वह महसूस कर रही थी कि सामाजिक कुरीतियां, कुपरम्परायें व्यक्ति के जीवन से बड़ी हैं। शिवा, अश्वनी का सफेद चादर में लिपटा चेहरा देख रही थी। शान्त, सौम्य, निश्छल चेहरा इन परम्पराओं से कितना भय ग्रस्त था।
अनायास उसके आंसू रुक गये ‘‘तमाम सवालों से बच गये पापा......!’’
................बच गये पापा......!
∙ ∙ ∙
Dr. MANASA PANDEY
Director, Manasa publications,
Editor, "Namantar",
Email: manasapublications2007@rediffmail.com
www,manasapublications.org
sundar
जवाब देंहटाएं