भारतीय संस्कृति और पर्यावरण : एक समीक्षात्मक विश्लेषण डॉ0 ज्योति सिन्हा डॉ 0 ज्योति सिन्हा लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम...
भारतीय संस्कृति और पर्यावरण : एक समीक्षात्मक विश्लेषण
डॉ0 ज्योति सिन्हा
डॉ0 ज्योति सिन्हा लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों की प्रगतिवादी लेखिका साहित्यिक क्षेत्र में भी अपने निरन्तर लेखन के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाती रही हैं। संगीत विषयक आपने पॉच पुस्तकों का सृजन किया है। आपके लेखन में मौलिकता, वैज्ञानिकता के साथ-साथ मानव मूल्य तथा मनुष्यता की बात देखने को मिलती है। अपने वैयक्तिक जीवन में एक सफल समाज सेवी होने के साथ महाविद्यालय में संगीत की प्राघ्यापिका भी हैं ! आपको जौनपुर के भजन सम्राट कायस्थ कल्याण समिति की ओर से संगीत सम्मान, जौनपुर महोत्सव में जौनपुर के कला और संस्कृति के क्षेत्रा में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। संस्कार भारती, सद्भावना क्लब, राष्ट्रीय सेवा योजना एवं अन्य साहित्यिक, राजनीतिक एवं इन अनेक संस्थाओं से सम्मानित हो चुकी डॉ0 ज्योति सिन्हा के कार्यक्रम आकाशवाणी पर देखें एवं सुने जा सकते हैं। आप वर्तमान में अनेक सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध होने के साथ अनेक पत्रिकाओं के सम्पादक मण्डल में शोभायमान है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में संगीत चिकित्सा (2010-12) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
भारतीय संस्कृति और पर्यावरण : एक समीक्षात्मक विश्लेषण
डॉ0 ज्योति सिन्हा
प्रवक्ता-संगीत विभाग
भारती महिला पी0जी0 कालेज, जौनपुर
एवं
रिसर्च ऐसोसियेट
उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास,, शिमला, हिमांचल प्रदेश
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम् संस्कृति है, हमारी संस्कृति जीवन के पश्चात् मूल्यों पर बल देने के कारण श्रेष्ठ महनीय है। भारतीय मनीषी जीवन की पूर्णता लौकिक-अलौकिक पक्ष से समुचित समन्वय ढूढ़ती रही है। लौकिक का लक्ष्य अभ्युदय, अलौकिक का लक्ष्य निःश्रेयस है, जहाँ इसकी सिद्धि हो उस तत्व को धर्म शब्द से अभिहित किया जाता है।
यतो अभ्युदयः निःश्रेयस सिहिद स एव धर्मः
इस प्रकार संस्कृति और धर्म दोनों शब्द भाव हमारी संस्कृति में प्रायः एक ही अर्थ में में प्रयुक्त होते है। हमारी सभ्यता आदिकाल से ही आध्यात्म भाव प्रधान रही है सम्पूर्ण विश्व में ईश्वरीय सत्ता की उपस्थिति स्वीकार करना ही हमारी आर्ष प्रवृत्ति रही है, ऋषि कुल ने सम्पूर्ण प्राणिमात्र में उस आत्म तत्व की चेतना उपस्थित मानी है जो चींटी से हाथी तक में रमण कर रही है, तैत्तियपनिषद सूत्र में ब्रह्मा तत्व के सर्व व्यापक को जड़-चेतन में समान भाव से प्रस्तुत किया गया है-
य तो वाइमानि भूतानि जायन्ते
ये न जातानि जीवन्ति
यत्प्रयत्त्यभि संशन्ति
तद् विजिज्ञासह व तद् ब्रह्मेति।
भारतीय संस्कृति की महानता इसी से स्पष्ट है कि हमारे यहाँ पत्थर-पहाड़ जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, मानव-दानव, आकाश-पाताल, भूमि-वायु, अग्नि-सूर्य, चन्द्र-ग्रह सभी की वन्दना अर्चना करने की मान्यता तथा व्यवस्था है। सबके प्रति भारतीय संस्कृति के श्रद्धेयमान बिन्दु वेदों, पुराणों, संस्कृति रचनाओं, हिन्दी काव्यों में हमारे भौगोलिक, प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन सुपोषण का मुखर निर्देश उपलब्ध रहा है। पर्यावरण से सम्बन्धित अनेकों प्रसंग तथा कारकों हमारे वेदों, उपनिषदों पुराणों में भरे पड़े हैं, ऋषि मुनियों का जीवन ही प्रकृति पर निर्भर रहा करती थी, जहाँ वनों में उपलब्ध सामग्रियों से ही कुटियों का निर्माण होते थे। बनों, फल फूल पर ही जवीन आधारित था। नदियों में स्नान होते थे तथा उन्हीं झुरमुटों के मध्य एकान्त स्थल पर वृक्षों के नीचे पूजा-पाठ तथा यज्ञादि क्रिया कपाल होते थे। इन्हीं सघन वनों के गुरूकुल आश्रमों में शिष्य विद्या ग्रहण करते थे, इसी प्रसंग का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान राम के विषय में लिखा है कि - ‘‘गुरू गृह पढ़ने गये, रघुराई अल्पकाल विद्या सब आयी''। राजगृहों से राजपुत्रों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा शिक्षा ग्रहण करने के लिए इन्हीं अरर्ण्य स्थित गुरूकुल आश्रम रूपी पाठशालाओं में भेजा जाता था। राजकुमार वेदों पुराणों तथा धनुर्विद्या इत्यादि से सम्पन्न होकर इनसे निकलते थे। गुरूकुल आश्रम स्थित जीव-जन्तुओं, पेड़, फल-फूल तथा गुरू के यज्ञादि कार्यों सम्बन्धी सम्पूर्ण दायित्वों का निर्वहन करते थे, तथा एक योग्य ब्रह्मचर्य ब्रतधारी को सम्पूर्ण ज्ञान से मंडित तथा परिपूर्ण करके गृहस्थ आश्रम के योग्य बनाकर ही अपने दायित्वों से मुक्त होते थे। इसीलिए प्राचीन काल में पर्यावरण में किसी भी प्रकार का कोई असन्तुलन नहीं था, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरणीय तत्वों को देवता मानकर उसकी पूजा करता था। हानि पहुँचाने को कौन कहे बल्कि प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण की तन-मन तथा धन से रक्षा करना अपना धार्मिक तथा नैतिक कर्त्तव्य समझता था। जल, वायु, सूर्य, पृथ्वी तथा आकाश एवं विभिन्न वृक्षों को देव तुल्य दर्जा प्राप्त था। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन तत्वों का उल्लेख करते हुए रामचरितमानस में लिखा है ''क्षिति, जल, पावक, गनन समीरा'' ये ऐसे पाँच तत्व हैं जिनसे सृष्टि का निर्माण होता है, इसे ही पर्यावरण विदों ने ‘पारिस्थितिकी' Ecology का नाम दिया है, डचमूल के भारतीय विद्वान फादर कामिल बुल्के ने अपने शोध ग्रन्थ में रामकथा उद्भव और विकास में कहा है कि ''बाल्मिकी रामायण तो जैसे पर्यावरण की महागाथा ही है।''
वैदिक काल को अरण्य संस्कृति का स्वर्णकला कहा जाता था। उन दिनों वन देवी ‘अरण्यानी' की पूजा अनिवार्य थी। वनदेवी प्रकृति की पर्याय मानी जाती थी। वनों का जीवन में विशेष महत्ता प्राप्त थी। भारतीय आर्य परम्परा तो सदैव इसकी पूजक रही है। अरण्य तपोवन तथा कुंज क्रमशः ज्ञानस्थली तथा कर्मस्थली माने जाते थे। स्कन्दपुराण तथा कठोपनिषद के प्रसंगानुसार ‘पीपल' वृक्ष की जड़ में ब्रह्मा तने में विष्णु तथा टहनियों में शिव का वास होना माना जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल का वृक्ष औषधि गुण सम्पन्न तथा ग्रीष्मकाल में विशेष शीतलता प्रदायक माना गया है। इसकी छाया अतुलनीय तथा मोहक होती है। हमारे ऋषि मुनियों ने इनकी गुण सम्पन्नता को स्वीकार करते हुए इसकी पूजा का विशेष विधान बनाया है जो आज भी समाज में प्रचलित है। ऋग्वेद में सोम वृक्ष तथा अथर्ववेद में पलाश वृक्ष की पूजा का विधान है।
‘माँ शीतला' को पलाश वृक्ष की देवी माना गया है। प्राचीन काल से चली आ रही परम्परानुसार आज भी पर्यायवरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण तथा औषधि गुणों के कारण देश के बहुत से भागों में वृक्षों की पूजा का विधान विभिन्न अवसरों पर प्रचलित है, जैसे वट-वृक्ष की पूजा महिलायें सुहाग प्रदान करने तथा उसकी कामना हेतु करती हैं। ग्रीष्म काल में नीम के पेड़ की पूजा, कार्तिक माह में तुलसी की पूजा, महाशिवरात्रि पर बेल धतुरा अपर्ण आदि की परम्परायें चली आ रही हैं। औषधि सम्पन्न वृक्षों में शमी, आम, जामुन, असन लेधि शाल अंकोल, बेल, तेंदू, काश्मरी अॉवला कदम्ब आदि महत्वपूर्ण है। इनकी महत्ता को दर्शाने वाली अनेक परम्परायें आज भी देश के अनेक भागों में प्रचलित हैं।
हरे वृक्षों को काटने पर प्रतिबन्ध हमारे धर्मशास्त्रों में वर्णित है, ऐसा कहा गया था ऐसा कार्य करने वाला संतान सुख से हीन होता है, क्योंकि वृक्ष को पुत्र के समान स्थान दिया गया था। वृक्षों की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में मतस्यपुराण में वृक्षों के महत्व का निर्देशन किया गया है।
दश कूपो समो वापी, दश वापी समो हृदः।
दशहृद समः पुत्रों, दश पुत्र समो द्रुयः॥
दश कूप निर्माण का पुण्य एक वापी बनाने से, दस वापी का पुण्य एक तालाब तथा दस तालाबों का पुण्य एक पुत्र उत्पन्न करने से दस पुत्रों का पुण्य एक वृक्ष लगाने से होता है।
समाज के चारों ओर जो भी प्रकृति का सापेक्ष पर्यावरण है, उससे समग्र संसार आबद्ध प्रभावित होता रहता है।
प्राणी के चारों ओर विस्तृत आवरण ही पर्यावरण है। जिससे हम प्रतिक्षण प्रभावित हो रहे हैं, वही हमारा प्राकृतिक आदान है। यह आवरण सदैव सर्वदा समाज को स्वच्छ स्वस्थ सुन्दर सुघर बनाने की अपरिवर्तित शक्ति ऊर्जा होती है। यजुर्वेद के शान्ति सूक्त के मंत्र सदप्रेरणा दे रहे हैं-
ऊँ द्यौः शान्ति अन्तरिक्ष ग्वं शान्तिः पृथिवी शान्तिः औषधयः शान्ति।
बनस्पतयः शान्तिः विश्वदेवाः शान्तिः शान्तिः एव शान्तिः सा मा शान्तिः एधि॥
हमारी संस्कृति कवि परम्परा का प्रारम्भ भी प्राकृतिक वातावरण में हुआ है। भारतीय संस्कृति के मूलाधार वेद पुराणादि काव्य गद्य नारय साहित्य ग्रन्थों में पर्यावरण को संरक्षित करने का सदुपदेश वर्णित है। विश्व के सबसे बड़े ग्रन्थ महाभारत में महर्षि भारद्वाज तथा महर्षि भृगु के मध्य वृक्षों की चेतनता को लेकर प्रश्नोत्तर सटीक प्रमाण है-
क्षितिज में आया है
दिवाकर दिनभर दमकता।
वायु अग्नि और अम्बर
ईश सत्ता सलिल बहता॥
उपरोक्त पाँचों तत्वों की उपस्थिति वृक्षों में प्राणियों के समान ही दृष्टिगत होती है।
ऊष्मतो म्लायते पूर्ण त्वक फलं पुष्पमेव च।
म्लायते शीर्यते चा पि स्पर्श तेनात्रविद्यते॥
महाकवि भारवि ने किराताजुयीनम् में वनवासी, गिरिवासी, कन्दरावासी जनजातियों भीलों शबरों बनेचरों, गुहों की प्रकृति सापेक्ष जीवन शैली, समर्पित भावना प्रकृति संरक्षण के प्रति उनकी उपादेयता का मुखर वर्णन किया है। इस महाकाव्य में कौरव पाण्डव युगल रूप में वृक्षोत्सच, जल विहार, पुष्पोत्सव आदि के माध्यम पर्यावरणीय सम्पत्ति को संरक्षित करने का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। कवि कुल कमल दिवाकर महाकवि कालीदास ने अपनी रचनाओं मेघदूत ऋतु संहारम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम आदि के माध्यम से समाज को धरती के भौगोलिक प्राकृतिक सौन्दर्य के सुपोषण की मुखर प्रेरणा देकर पर्यावरण को स्वच्छ सुन्दर शिव रखने हेतु सचेत किया है।
हमारे संस्कारों, पर्वों, त्यौहारों, अनुष्ठानों आदि का प्रणयन भी प्रकृति के सन्तुलन संवर्धन बनाये रखने हेतु ऋषि जनों के आदिकार से कर दिया है- हमारे हिन्दी साहित्य में भी अनेक कवियों ने प्रकृति के सूक्ष्य सौन्दर्य, सामाजिक उपयोगिता तथा प्राकृतिक महत्ता को विशिष्ट स्थान प्रदान किया है वे प्रकृति के माध्यम से ही मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त किया और पशु पक्षियों लताओं वृक्षों के संरक्षण पर बल दिया है। संत कवि तुलसीदास रामचरितमानस में पशु-पक्षी और वृक्षों की चेतना का मनोरम वर्णन किया है-
हे खग मृग हे मधुकर सैनी
तुम देखी सीता मृग नयनी।
दो0- रामायुध अंकित शोभा बरनि न जाय।
नव तुलसिका वृन्द तहँ, देखि हरषि कपिराय।
हमारे यहाँ पर्यावरण को अश्रय ऊर्जा प्रदान करने वाला मानते हैं, जिसका स्रोत सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, धरती, आकाश को सृष्टि के प्रत्येक ईश्वरीय उपादान को भक्ति भावना के साथ समभाव पूजनीय सेवनीय महनीय बताया गया हे।
आधुनिक युग में पर्यावरणीय संरक्षण हेतु साहित्यिक रचनाओं में वैदुष्यपूर्ण अनुसंधानों में वैश्विक संगोष्ठियों में वैज्ञानिक परिचर्चाओं में हर तरफ हर क्षेत्र, हर वाणी हर स्वर में प्राकृतिक सम्पदा के पर्यावरणीय, महत्ता पर चर्चा चर्चित हो रही है। मानवीय आवश्यकताओं ने भौगोलिक प्राकृतिक संतुलन को क्षुब्ध किया है प्रकृति को हर तरफ से मानव ने दुखी किया, प्राकृतिक सम्पदाओं का अपने लोभ का शिकार बनाया है आज वह स्थिति आयी है कि शिकारी स्वयं शिकार बन गया है। जो सृष्टि के निर्माता है वही सृष्टि के विनाशक बन गये हैं।
अतः आज यह आवश्यक हो गया है कि हम अपनी भारतीय संस्कृति को मंच, स्वर, साहित्य गोष्ठियों से ही नहीं बल्कि अपने स्वयं में ‘करनी' के रूप में उतारे हमारी आवाज केवल आवाज न रहे बल्कि ‘करनी' के रूप में ‘प्रमाण' हो।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
1- पर्यावरणीय शिक्षा, डा0 शरतेन्दु।
2- पर्यावरणीय शिक्षा, जे0सी0 अग्रवाल।
शिक्षा के दार्शनिक एवं समाजशास्त्रीय आधार, डा0 राम शकल पाण्डेय
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