प्रकृति एवं मनुष्य का साथ आरम्भ से रहा है। आरम्भ में वह प्रकृति की गोद में ही निवास करता था। प्रकृति को सहचरिणी के रूप में देखता रहा। ल...
प्रकृति एवं मनुष्य का साथ आरम्भ से रहा है। आरम्भ में वह प्रकृति की गोद में ही निवास करता था। प्रकृति को सहचरिणी के रूप में देखता रहा। लेकिन जैसे-जैसे इसकी बुद्धि का विकास होता गया। वैसे-वैसे उसका भौगोलिक ज्ञान भी बढ़ता गया और वह अपनी सीमाओं का विस्तार करने लगा। धीरे-धीरे वह अंधकार युग से प्रकाश युग में आ गया जिसे विद्वानों, इतिहासकारों ने ‘नया ज्ञानोदय' (छमू म्दसपहीउमदज) नाम दिया। शायद यही कारण रहा ‘सिन्धु सभ्यता' के लोग ‘प्रकृति' की पूजा करते थे। संस्कृत साहित्य के महाकवि के रूप में विख्यात ‘कालिदास' ने अपने समग्र नाटकों में ‘प्राकृतिक सान्निध्य' को स्थान दिया है ‘अभिज्ञान शाकुंतलम' ‘मेघदूत' एवं ‘ऋतुसंहार'। ‘ऋतुसंहार' तो ‘प्रकृति' का ‘महाकाव्य' ही है।
उद्देश्य ः प्राकृतिक चेतना
1- निर्गुण काव्य में प्रकृति
2- प्रेमाश्रयी काव्य में प्रकृति
3- कृष्णकाव्य में प्रकृति
4- रामकाव्य में प्रकृति
5- रीतिकाल में प्रकृति
मध्युगीन कविता ‘प्रकृति' से अछूती नहीं है। उसने कहीं-न-कहीं हिंदी के मध्ययुगीन कवियों को प्रभावित किया है। प्राकृतिक संरक्षण को महत्त्व प्रदान किया है। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, बिहारी, घनानन्द, देव, सेनापति, रसखान, रहीम इत्यादि कवियों ने बिना ‘प्रकृति' के सहयोग के बिना जीवन को निराधार साबित किया है। भक्त कवियों एवं रीतिकालीन कवियों ने प्रकृति को आलंबन रूप में मानवीकरण, उद्दीपन रूप में प्रतीकात्मक रूप में बिम्ब-प्रतिबिम्ब रूप में, रहस्यात्मक रूप में, दूतिका इत्यादि के रूप में भी वर्णित किया है। मध्ययुगीन काव्यधारा के ‘तू कहता कागद की लेखी' मैं कहता ‘आंखिन की देखी' अमर गायक ‘कबीर' प्राकृतिक बिम्बों' को ‘आध्यात्मिक बिम्ब' में परिवर्तित करके प्रकृति का सान्निध्य ‘मानव जीवन' के साथ स्थापित कर देते हैं।
कबीर ने कहा है ः
‘काहे री नलनी तूं कुभिलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहै कबीर जे उदिक समान, ते नहीं मुए हमारे जान॥''[1]
‘नलिनी' एवं ‘पानी' दोनों ‘प्रकृति' है ‘नलिनी' कमल का पौधा, ‘पानी' अर्थात् ‘जल' ‘प्राकृतिक स्रोत' है। यहाँ पर ‘कबीर' ने ‘नलिनी' को ‘जीवात्मा' का प्रतीक माना है, जबकि ‘पानी' को परमात्मा का प्रतीक माना है। चूंकि अगर यह मान लिया जाय कि वनस्पतियों के बिना मानव जीवन अपूर्ण है तो अतिशयोक्ति न होगी। यदि ‘पानी' का संरक्षण न किया जाएगा तो ‘मानव जीवन' कतई चल ही नहीं पाएगा। कबीर को इतने ही में संतोष नहीं मिला उन्होंने यहाँ तक कह दिया वर्षा ऋतु में चारों तरफ ज्ञान रूपी बरसात ही होती रहती है।'
‘‘गगन गरजै तहाँ सदा पावस झरै
होत झनकार नित बजत तूरा।
गगन के भवन में गैब का चाँदना
उदय और अस्त का नाँव नाहीं।
दिवस और रैन तहँ नेक नहिं पाइए।
प्रेम, परकास के सिंध काहीं॥''[1]
यहाँ भौगोलिक संदर्भ ले तो ‘गगन' आकाश के अर्थ में ‘पावस' वर्षाऋतु के अर्थ में, ‘चांदना' चन्द्रमा के अर्थ में, ‘दिवस' दिन के रूप में, ‘रैन' रात्रि के रूप में प्रतिबिंबित है। जो एक ‘परिभ्रमण' एवं ‘परिक्रमण काल' को दर्शाता है। भले ही ‘कबीर' इनका अर्थ आध्यात्मिक जीवन से लेतो हो पर बिना गतिशीलता आए जीवन संभव नहीं है।
जायसी ने ‘पदमावत' अखरावट, कन्हावत एवं आखरी सलाम रचनाओं प्राकृतिक वैभव का खुलकर चित्रण किया है। ‘पदमावत' में प्रकृति का विभिन्न रूपों में चित्रण मिलता है। मानसरोदक के सुन्दर घाटों, सीढ़ियों, उसमें खिले हुए कमलों, निर्मल और सुगंधित जल का चित्रांकन किया है ः
‘‘मान सरोदक बरनौ काहा। भरा समुद्र अस अति अवगाहा
पनि मोति अस निरमल तासू। अमृत आनि कपूर सुवासू।
लंकदीप की सिला ओनाई। बांधा सुंदर घाट बनाई॥
खँड-खँड सीढ़ी भई गरेरी। उतरहिं चढ़हि लोग चहुँ फेरी॥
फूला कँवल रहा होई राता। सहस-सहस पघुरिन कर छाता॥''
प्रत्येक काल के कवियों ने ‘ऋतु परिर्वतन' को हिंदी काव्यजगत में ‘बारहमासा' के नाम से लिखा है। और ‘प्रकृति' को उद्दीपन के रूप में अपने ‘मनो भावों' को प्रकृति से तादात्म्य से जोड़ता रहा है। मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पदमावत' के ‘षटऋतु खण्ड' में बसंत के महीने में होने वाले ‘प्राकृतिक वर्णन' का रम्यता' को वाखूबी से लिखा है। जैसे कि,
‘‘प्रथम बसंत नवल ऋतु आई। सुऋतु चैत बैशाख सोहाई॥
बदन चीर महिरि धरि अंगा। सेंदुर दीन्ह विहंसि भरि मंगा॥
कुसुम हार और परिमल बासू। मलयामिरि छिरका कविलासू॥
सौंर सुयेति फूलन डासी । धनि औं कंतमिले सुखबासी॥
पिंड संजोग धनि जोबन बारी। भौंरे पुहुप संग करहि धमारी॥
होई फाग, भलि चाँचरि जोरी। विरह जराह दीन्ह जस होरी॥
धनि ससि सीस, तपै पिउ सुरू। नखत सिंगार होई सब चूरू॥''[1]
यहाँ ‘बसंत' शब्द से ‘बसंतऋतु' का आशय होता है और चारों ओर ‘प्राकृतिक' वातावरण दिखाई देता है। ‘बसंत' शब्द ‘प्राकृतिक बिम्ब'को प्रदर्शित करता है। प्राकृतिक वातावरण से ‘पर्यावरण' नहीं रहता है। जायसी ने ‘सिंहलदीप खण्ड' ‘पर्वत' पठार' प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति सचेतता उत्पन्न हो रही है। कवि का ‘भूगोल' ज्ञान पर्याप्त है। जायसी ने ‘हीरामन' तोता के माध्यम से ‘पदमावती की कथा कहता है।
‘‘हीरामनि देइ बचा कहानी । चला जहाँ पदमावति रानी॥
राजा चला सँवरि सो लता। परबत कहँ जो चला परबता॥
का बरबत चढ़ि देखै राजा। ऊँच मँडप सोने सब साजा॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी। औ तहं लागि सजीवन मूरी॥
चौमुख मंडप चहूँ के बारा। बैठे देवता चहूँ दुबारा॥
भीतर मंडप चारि खंभ लागै। जिन्ह वै छुट पाय तिन्ह भागे॥
संख घंट घन बाजहि सोई। औ बहुत होम जाप तहंँ होई॥''[1]
जायसी के ‘पदमावत' में समुद्र वर्णन ‘बंसत वर्णन' ‘ऋतु वर्णन' के अंतर्गत आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, ‘‘हिंदी के कवियों में केवल जायसी ने समुद्र वर्णन किया है, पर पुराणों के ‘सात समुद्र' के अनुकरण के कारण समुद्र का प्रकृति वर्णन वैसा नहीं हो पाया है।''[1] जायसी की आलोचना करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है ‘‘कवि सिंहलद्वीप, उसके राजा गंधर्वसेन, राजसभा नगर, बगीचे इत्यादि का वर्णन करके पदमावती के जन्म का उल्लेख करता है। राजभवन में हीरामन नाम का एक अद्भुत सूआ था, जिसे पदमावती बहुत चाहती थी और जो सदा उसी के पास रहकर अनेक प्रकार की बातें कहा करता था। पदमावती क्रमशः सयानी हुई और उसके रूप की ख्याति भूमण्डल में सबके ऊपर हुई। जब उसका कहीं विवाह नहीं हुआ, तब वह रात-दिन हीरामन से इस बात की चर्चा किया करती थी। सूए ने एक दिन कहा कि यदि कहो तो देशांतर में फिरकर मैं तुम्हारे योग्य वर ढूँढूं। राजा को जब इस बातचीत का पता लगा, तब उसने क्रूद्ध होकर सूए को भार डालने की आज्ञा दी। पद्मावती ने विनती करके किसी प्रकार सूए प्राण बचाए। सूए ने पद्मावती से विदा मांगी पर पद्मावती ने विनती करके किसी प्रकार सूए के प्राण बचाए। सूए ने पद्मावती से विदा मांगी पर पद्मावती ने प्रेम के मारे सुए को रोक लिया। सूआ उस समय तो रूक गया पर उसके मन में बराबर खटका बना रहा।''[1]
मध्यकालीन सगुण भक्त कवियों सूर, तुलसी, रसखान, रहीम, मीराबाई, इत्यादि ने भी प्रकृति सौम्यता का वर्णन अपनी काव्य रचना में किया है। सूरदास ‘भ्रमरगीत सार संग्रह' में उद्धव-गोपी संवाद में उपालंब के माध्यम द्वारा प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम द्वारा संवाद स्थापित करना। सूर के काव्य में ‘वियोग या ‘संयोग' दोनों स्थितियों में ‘प्रकृति' से गोपियां जुड़ी हैं। तभी तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूर की आलोचना करते हुए कहा है, ‘‘सूरदास का बिहार स्थल जिस प्रकार घर की चारदीवारी के भीतर एक ही न रह कर यमुना के हरे-भरे ‘कंछारों, करील के कुंजों और वनस्थलियों तक फैला है, उसी प्रकार का उनका विरहवर्णन भी ‘बैरिन भइं रतियाँ, और साँपिनी भइ सेजिया' तक ही न रहकर प्रकृति के खुले क्षेत्र के बीच दूर-दूर तक पहुँचता है। मनुष्य के आदिम वन्य जीवन के परंपरागत मधुर संस्कार को उद्दीप्त करने वाले इन शब्दों में कितना माधुर्य है- ‘एक वन ढूंँढ़ि सकल बन ढूँढौ, कतहूँ न स्याम लहौं' ऋतुओं का आना-जाना उसी प्रकार लगा है। प्रकृति पर उनका रंग वैसा ही चढ़ता-उतरता दिखाई पड़ता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं की वस्तुएं देख जैसे गोपियों के हृदय में मिलने की उत्कंठा उत्पन्न होती है वैसे ही कृष्ण के हृदय में क्यों उत्पन्न होती है ? जान पड़ता है वे सब उधर जाती ही नहीं जिधर कृष्ण बसते हैं। कृष्ण की अनुपस्थिति में यमुना के किनारे लगे पेड़ सहनीय प्रतीत होने लगते हैं।''[1] तभी तो गोपियाँ कहती हैं ः
‘‘बिन गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तबे ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं॥
वृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलै, अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भान भइं भुजैं॥
ए ऊधौ, कहियो माधवो सों बिरह कदन करि कारत लुंज।
सूरदास प्रभु को माग जोवत अँखिया भईं बरन ज्यों गुंजैं॥''[1]
डॉ0 किशोरीलाल ने सूर के प्रकृति वर्णन के विषय में स्पष्ट करते हुए कहा है, सूर ने वियोग और संयोग दोनों ही प्रसंगों में प्रकृति को इतनी दृढ़ता से जोड़ रखा है कि प्रकृति वहाँ से निकल ही नहीं पाती। प्रकृति के जितनी उपादान है- चाहे जड़ हो या चेतन-सभी गोपियों के सुख-दुख, आशा आह्लाद को लेकर चलते हैं और उसी में संपिडित है।''[1] यही कारण है गोपिया सचेत होकर कहती है ः
‘‘ऊधौ ! कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेस करत हौ भस्म लगावन आनन॥
औरों सब तजि, सिंगी लैलै टेरन, चढ़त पखानन।
पै नित आनि पपीहा के मिस मदन हनत निज बानन॥
हम तौ निपट अहीरि बावरी जोग दीजिए ज्ञानिन।
कहा कथत मामी के आगे जानत नानी नानन॥
सुंदर स्याम मनोहर मूरति भावति नीके गानन॥
सूर मुकुति कैसे पूजति है वा मुरली की तानन॥''[1]
सूर के ‘प्रकृति-चित्रण' के वर्णन पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्पष्ट करते हुए कहा है ‘‘प्राकृतिक चित्रों द्वारा सूर ने कई जगह पूरे प्रसंग की व्यंजना की है, जैसे-गोपियाँ मथुरा से कुछ ही दूर पर पड़ी विरह से तड़फड़ा रही है, पर कृष्ण राजमुख के आनंद के फूले नहीं समा रहे हैं। यह बात ये इस चित्र द्वारा कहते हैं- ‘सागर कूल मीन तरफत है, हुलसि होत जल मीन।''[1]
रसखान अपनी भावभक्ति द्वारा संपूर्ण हिंदी जगत में अपनी अप्रतिम छाप को छोड़ा है। कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति भावना का निदर्शन मानव एवं प्रकृति के अंतः एवं बाह्य साहचर्य संबन्ध द्वारा प्रकृत करते हैं। रसखान को पुनर्जन्म पर विश्वास है तभी तो वह कहते हैःं
‘‘मानुष हौं तो वहीं रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पशु हौं तौ कहाबस मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तौ वही गिरि को जो धरयों कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन॥''[1]
रसखान की अनुकरणशीलता उन्हें साधारण मान से असाधारण मानव की ओर ले जाने की प्रक्रिया है। क्योंकि यहाँ भौगोलिक सीमा रेखाओं का सहज खण्डन हो रहा है। और कवि का दिमाग पर्यावरण के प्रति सचेत है। तभी तो विद्या निवास मिश्र का स्पष्ट अभिमत है, ‘‘रसखान की कविता निरंतर एक दृश्य देखती रहती है और यह दृश्य कभी पुराना नहीं पड़ता।''[1] प्रत्येक क्षण कवि का नवीनता से ओत-प्रोत रहना उसकी प्रकृति के प्रति विलक्षणता का द्योतक है।
प्रकृति के उद्दीपन रूप को लेकर समस्त उन्मुक्त कवियों में समान भावना है। परंतु मीरा की पद श्ौली ने रीति भावना के कारण प्रकृति से उद्दीपन स्वभाविक है और उसमें भाव तादात्म्य स्थापित हो सका है।'[1] मीरा की विरहिणी आत्मा घस के उल्लास की मनःस्थिति के विरोध में पाकर अधिक व्यग्र हो उठी है ः
पिया कब रे घर आवै।
दादुर, मोर, पपीहा बोलै कोइल सबद सुणावै।
घुमंड घटा ऊतर होइ आई दामिनि दमक डरावै।
और दूसरी ओर संयोगनी मीरा प्रकृति के पावस उल्लास से अपना समस्थापित करके अधिक आनंदमय हो उठती है ः
‘‘मेहा बरसिवो करे रे।
आज तो रमियो मेरे घरे रे।
नान्हीं-नान्हीं बूँद मेघ-घन वरसे।
सूखे सखर भरे रे।
बहुत दिना पै प्रीतम पायो।
बिछुरन को मोहि डर रे।''[1]
‘रामकाव्य' के अंतर्गत ‘रामचरितमानस' और ‘रामचंद्रिका' दोनों ही राम कथा पर आधारित है। ये दोनों परंपरागत श्रेणी से अलग है किन्तु प्रकृति का उद्दीपन रूप दोनों में प्राप्त होता है। दोनों ही आदर्श में बंधी है। दोनों काव्यों में प्रकृति का स्वतन्त्र उद्दीपन -रूप इनमें नहीं मिलता। एक स्थल ‘रामचरितमानस' में राम सीता के रूप-उपमानों में फैली प्रकृति के उल्लास के विरोध पर अपनी मनःस्थिति का उद्दीपन पाते हैं। राम का सीता की स्मृति की वेदना प्रकृति के विरोधी उल्लास में अधिक जान पड़ती है ः
‘‘कुछ कली दाड़िम दामिनी कमल सरद ससि आहि भामिनी।
बरून पास मनोज धनु हंसा । गज केहरि निज सुनत प्रसंसा।
श्रीफल कनक कदलि हरवाही। नेक न संक संकुच मन माहीं।'
निराला ने भी ‘राम की शक्ति पूजा' में ‘नयनों का नमनों से गोपन संभाषण' में पूर्व स्मृति संचारी भाव के माध्यम प्रकृति के माध्यम से जब राम वैदेही को बन में प्रभम देखा था उस समय का वर्णन किया गया। तो ‘रामचंद्रिका' कवि अलंकार वादी आचार्य हैं। रामचंद्रिका में अलंकारों की छठा बिखरी पड़ी है। कवि मानवीय भावों को व्यंजनात्मक रूप में कम ही कर सका है। एक स्थल पर लक्ष्मण के उल्लेख में प्रकृति का ऐसा रूप आया है जिसे व्यंजनात्मक रीति से भावोद्दीपन का रूप कहा जा सकता है। यथा ः
‘मिलि चक्रिन चंदन बात बहै अति मोहन नयन की गति को।
मृगकिन बिलोकन चित्र और लिये चंद निशाचर पद्धति को।
प्रतिकूल शुकादिक होहि सबैजिय जानै नहीं इनकी गति को।
दुख देत तड़ाग तुम्हें न बनै कमलाकर ह्वै कमलापति को।'[1]
पूर्वमध्यकाल के कवि रहे हो या उत्तरमध्यकाल के कवि सभी ने अपनी कविता कामिनी में प्रकृति लताओं, पुष्पों, वाटिका, नदी, समुद्र, पर्वत मालाओं, रात्रि-दिवस, सूर्य-चंद्रमा, पशु-पक्षियों का वर्णन इत्यादि का वर्णन किया है। ये वर्णन उन्हें अत्यंत प्रिय है क्योंकि बिम्ब नायक नायिका के संयोग वियोग दशा के चित्रों की दृश्यावली प्रस्तुत करते हैं। कारण प्रकृति का उद्दीपन आलंबन, आश्रय रूप में वर्णन किया है। रीतिकाल के कवि विहारीलाल ने प्राकृतिक बिम्बों का खुलकर प्रयोग किया है। जैसे किः
‘‘सघन कुंज, घन घन-तिमिरू, अधिक अंधेरी राति।
तऊ न दुरिहैं, स्याम, वह दीपसिखा-सी जाति॥''[1]
यहाँ ‘कुंज' बगीचा, ‘घन-तिमिर' से आशय बादलों के अंधकार से है अंधेरी राति' से आशय ‘अंधकारमय रात्रि' से है। ‘कुंज' ‘घन', ‘राति' आदि सभी प्राकृतिक बिम्ब है। ‘बिहारी' ने कृष्ण की अनुपस्थिति में यमुना के पास उपस्थिति गोपियों का चित्र खींचा है जो प्राकृतिक उपादानों से आच्छादित है। यथाः
‘‘सघन कुंज-छाया सुखद सीतल सुरभि-समीर।
मनु हवै जातु अजौं बहै उहि जमुना के तीर॥''[1]
‘बसंत' को ़ऋतुओं का राजा कहा जाता है। बसंत के आगमन को बिहारी ने भी अपने को रोक न सके और उन्हें कहना पड़ा।
‘नहिं पावस ऋतुराजु यह, तजि, तावर, चित-भूल।
अपलु भऐं बिनु पाइहैं क्यौं नव दल, फल, फूल॥''[1]
कवि देव ने जितनी तन्मयता एवं तल्लीनता के रूप-सौंदर्य का चित्रण किया है, उतना प्रकृति-सौंदर्य क निरूपण नहीं किया है। फिर भी उद्दीपन के रूप में अंकित प्रकृति के चित्रों में पर्याप्त सौंदर्य विद्यमान है। जैसे-वर्षा ऋतु का चित्र अंकित करते हुए कवि कहता हैः
सुनि के धुनि चातक मोरनि की, चहुँ ओरनि कोकिल कूकनि सों।
अनुराग भरे हरि बागन में, सखि रागत राग अचूकनि सों।
कवि देव घटा उनई जूनई, वन भूमि भई दल दूकनि सों।
रंगराती हरी हहराती लता, झुक जाती समीर की झूकनि सो॥''[1]
प्राकृतिक वैभव को हिंदी के अधिकांश कवियों ने अपना वर्ण्य विषय बनाया है। रीतिकाल में ‘स्वच्छन्द कविता' की परिपाटी रचने वाले घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर इत्यादि ने भी अपनी ‘वैयक्तिक चेतना' को प्रकृति को आलंबन, उद्दीपन आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति किया है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इन कवियों के विषय में ठीक ही कहा है, ‘‘पर मध्यकाल के इन स्वच्छन्दकर्ताओं की संवेदना केवल प्रेम की संवेदना थी, ये ‘प्रेम की पीर' के पक्षी थे।''[1] घनानंद की नायिका कोयल की आवाज सुनकर किस तरह हृदय से पीड़ित है सहज अनुमान लगाया जा सकता है। यथाः
‘‘कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूूकि-कूकि अब हो करेजो किन कोरि लै।
पैडें परे पापी ये कलापी निस घौंस ज्यौं ही,
चातक घातक त्यौं ही तू हूँ कान फोरि लै।
आनंद के घन प्रान-जीवन सुजान बिना,
जानि कै अकैली सब घेरो दल जोरि लै।
जौ लौं करै आवन बिनोद-बरसावन वे,
तो लौं रे डरारे बजमारे घन घोरि लैं।''[1]
काव्य में कुछ बाह्य दृश्यों का चित्रण अनिवार्य होता है जैसे आलंबन के स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण।[1] दुर्गा प्रसाद मिश्र का स्पष्ट कथन है, ‘‘सेनापति ने भी प्रचलित परिपाटी को ही ग्रहण किया है तथा प्रकृति का वर्णन उद्दीपन विभाव के रूप में ही किया है।''[1] सेनापति ने अपने काव्य ‘ऋतुवर्णन' या ‘बारहमासा' के अंतर्गत वर्ष के प्रत्येक महीने का वर्णन किया है। ग्रीष्म में भीषण उत्ताप से बचने के हेतु जिन उपचारों की आवश्यकता होती है उनका उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया है‘
‘‘जेठ ननिकाने सुधरत खसखाने, तल
ताख तहखाने के सुधारि झारियत हैं।
होति है मरंमति बिबिध जल जंत्रन की,
ऊँचे ऊँचे अटा, ते सुधा सुधारियत हैं॥
सेनापति उतर, गुलाब, अरगजा साजि,
सार सार हार मोल लै लै धारियत हैं।
ग्रीष्म के बासर बराइवे कौं सीरे सब,
राजभोग काज साज यौं सम्हारियत है॥''[1]
बसंत ऋतु में वियोगिनी को प्रकृति की सुषमा अत्यधिक दुखदायी प्रतीत होती है क्योंकि उसका पति परदेश में है। प्रिय के विदेश में होने के कारण मलयानिल उसे अत्यंत उष्ण प्रतीत हो रही है और रसाल के विकसित पुष्प उसे प्रियतम की प्रीति की स्मृति कराकर व्यथित कर रहे हैं। यथा ः
केतकि, असोक, नव चंपक, बकुल कुल,
कौन धौ वियोगिनी कौं ऐसो बिकराल है।
सेनापति साँवरे की, सूरति की सुरति की,
सुरित कराइ करि डारत बिहाल है॥
ददिन-पवन एती ताहू की दवन जऊ,
सूनौ है भवन परदेस प्यारी लाल है।
लाल हैं प्रबाल फूले देखत बिसाल, जाऊ
फूले और साल पै रसाल उर साल हैं।''[1]
प्रकृति का स्वतन्त्र निरीक्षण जैसा सेनापति ने किया है वैसा बहुत कम प्राचीन कवि कर सके हैं तथा उनके ऋतुवर्णन में जैसी वास्तविकता दृष्टिगोचर होती है वैसी बहुत कम ब्रजभाषा के कवियों में देख पड़ती है। जब ब्रजभाषा के प्रकृति वर्णन करने वाले कवियों का इतिहास लिखा जायेगा तब निस्संदेह ही सेनापति का स्थान प्रथम श्रेणी में रखा जायेगा।'[1]
निष्कर्ष ः- मध्ययुगीन काव्य में प्रकृति के प्रति कवियों ने पूर्व परंपरा को अपनाया है। यही कारण है कि संस्कृत के कवियों से उनका मोहभंग न हो सका। उनके काव्य में प्रकृति का चित्रण, उद्दीपन, आलंबन, आश्रय, वियोगिनी नायक-नायिका के रूप में आया है-जहाँ उन्हें प्रकृति उनके प्रति विपरीत मालूम होती प्रतीत होती है। प्रत्येक कवि प्रकृति रचना के तादात्म्य से बच न सका। क्योंकि मनुष्य का संपर्क प्रकृति से सदैव कहीं न कहीं अवश्य रहता है। बिना प्रकृति के मनुष्य का जीवन अधूरा है।
संदर्भ :
1- कबीर ग्रन्थावली सटीक ः डॉ0 पुष्पपाल सिंह, अशोक प्रकाशन, 2615, नई सड़क, दिल्ली-6, संस्करण 2009, पृ0 333-334
2- कबीर ः आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन प्रा0 लि0 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, पन्द्रह सं0 2009, पृ0 192
3- पदमावत ः जायसी, सं0 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोक भारती, प्रकाशन, 15-ए महात्मागांधी मार्ग, इलाहाबाद-1, सं0 2007, पृ0 124
4- वही, पृ0 60
5- वही, पृ0 88
6- त्रिवेणी ः आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अशोक प्रकाशन, 2615, नई सड़क दिल्ली,-6, सं0 2003, पृ0 17
7- वही, पृ0 57
8- सूर और उनका भ्रमरगीत ः डॉ0 किशोरी लाल, अभिव्यक्ति प्रकाशन बी-31, गोविन्दपुर कालोनी, इलाहाबाद-211004, सं0 2009, पृ0 153
9- वही, पृ0 36
10- वही, पृ0 187-88
11- त्रिवेदी ः आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अशोक प्रकाशन, 2615, नई सड़क, दिल्ली-6 सं0 2003, पृ0 60
12- रसखान रचनावली ः सं0 विद्यानिवास मिश्र, सत्यदेव मिश्र, वाणी प्रकाशन 4697/5, 21-ए दरियागंज, नई दिल्ली-2, प्र0 सं0 1985, पृ0 51
13- वही, पृ0 22
14- प्रकृति और हिंदी काव्य ः डॉ0 रघुवंश, साहित्य भवन, लि0 प्रयाग, प्र सं0 1948, पृ0 452
15- पदावली ः मीराबाई, पद सं0 128
16- रामचंद्रिका ः केशव, वा0 प्र0 ‘छन्द' 48
17- बिहारी - रत्नाकर ः सं0 जगन्नाथदास ‘रत्नाकर' लोक भारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी विल्डिंग, महात्मागांधी मार्ग, इलाहाबाद-211001, सं0 2008, पृ0 148
18- वही, पृ0 304
19- वही, पृ0 219
20- हिंदी के प्राचीन प्रतिनिधि कवि ः द्वारिका प्रसाद सक्सेना, विनोद पुस्तक मंदिर, डॉ0 रांगेय राघव मार्ग, आगरा- 2, सं0 2009, पृ0 369
21- घनानंद कवित्त प्रथम शतक ः चंद्रश्ोखर मिश्र शास्त्री, संजय बुक सेंटर, के0 38/6, गोलघर, वाराणसी-221001, पृ0 9
22- व्ही, पृ0 246
23- सेनापति और उनका काव्य ः दुर्गाप्रसाद मिश्र, नवयुग गं्रथागार, छितवापुर रोड, लखनऊ, प्र0 सं0 1956, पृ0 113
24- वही, पृ0 116
25- सेनापति रत्नावली, संकलनकर्ता प्रतापनारायण चतुर्वेदी, भारतवासी प्रे, दरियागंज, इलाहाबाद, सं0 1941, पृ0 5
26- वही, पृ0 3
27- ण्
28- सेनापति और उनका काव्य ः दुर्गाप्रसाद मिश्र, नवयुग ग्रन्थागार, छितवापुर रोड, लखनऊ, प्र सं0 1956, पृ0 128
--
COMMENTS