दिल में तांडव डा0 रमाशंकर शुक्ल जब तक भारत की आजादी स्पष्ट नहीं होती जब तक गद्दारों की मंशा नष्ट नहीं होती जब तक खेतों को पानी-खाद नह...
दिल में तांडव
डा0 रमाशंकर शुक्ल
जब तक भारत की आजादी स्पष्ट नहीं होती
जब तक गद्दारों की मंशा नष्ट नहीं होती
जब तक खेतों को पानी-खाद नहीं मिलता
हर गरीब का चेहरा अमनो चैन नहीं खिलता
किस मुंह से गीत लिखूं ऐ भारत के लोगों
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
जब तक पगडंडी तक के कब्जे नहीं हटाये जाते
विधवाओं को बेरिश्वत पेंशन नहीं दिलाये जाते।
घर से निकली हर बेटी सही-सलामत नहीं लौटती
जब तक अनाथिनी के माथे पर बेदी नहीं चमकती
किस खुशियाली में सरकारों का गुणगान करूं मैं
दिल में इस आजादी का खूनी श्मशान झलकता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
जब तक देश की हर मंडी दलालमुक्त नहीं होती
पहरेदारों की आत्मा चौकस चुस्त नहीं होती
जब तक अस्मत के सौदागर लतियाए नहीं जाते
जब तक मंदिर के ढोंगी-पाखंडी भगाए नहीं जाते
किस आंतरिक तुष्टि से लोकतंत्र का मैं नाम जपूं
मुझे शहीदों के सपने का वो करुण विलाप अखरता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
जब तक दारू या पैसे पर वोटो के ईमान बिकेंगे।
लोकतंत्र के मंदिर में छल-बल से गद्दार घुसेंगे।
जब तक सत्ता की खातिर खैरातों की बरसात चलेगी
आरक्षण पर सब धनवानोंं की जब तक बारात सजेगी
अर्थहीन उस लोकतंत्र का किस मुंह करूं मैं अभिनंदन
मेरे दिल के मंथन में विष का प्रलय प्रवाह निकलता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
वासना के दलदल से जब तक पौधे कांटेदार उगेंगे
सांप-संपोलों के टुच्चे दल भारत की गरिमा ही डंसेंगे
जब तक कीट-पतंगों-सी भारत की आबादी बलकेगी
सोलहवें बेटे के भी जन्म पर सोहर की धुन खनकेगी
मैं गीत नहीं लिखूंगा, प्रीत नहीं करूंगा निज रमणी से
मैं एक पांचजन्य सुनता हूं, उर में महाभारत बसता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
ऐ भारत की मिट्टी में उगने-पलने वाले नौजवानों
ऐ भावी भारत के निर्माता भारत के रखवाले भगवानों
अंग्रेजों के आघातों से भी ज्यादा मां अब घायल है
गद्दारों ने उसको पहनाया, कांटों का पायल है
उसके जख्मी पांवों पर मरहम आज लगाना होगा
मेरे शब्द कांप रहे हैं, मुझमें मेरा राष्ट्र दहकता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
तुम ठाकुर-बाभन बनकर कब तक द्वेष बिखेरोगे
तुम दलित-नारी बनकर नित नई जमात बटोरोगे
एक जमीं है एक राष्ट्र है एक तंत्र है हम सबका
एक प्रभु के परम तेज से आलोकित है हर तबका
बंटते-बंटते कितने तुच्छ हो गये हैं हम भारतवासी
हर मुल्क भारत को अब बंटवारे का देश समझता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
जब तक राष्ट्र का हर नागरिक आदमी नहीं बन जाता
एक ही रोटी का टुकड़ा कर मिल-बांट नहीं वह खाता
जब तक राष्ट्र द्रोहियों के प्रति अंतर्मन घृणा नहीं करेगा
दिल में गद्दारों के प्रति नफरत का सैलाब नहीं उठेगा
व्यर्थ रहेगा भारत का विकास सारी मानवता रोयेगी
जंगल का पशु भी हित अनहित का भाव समझता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
खुद सुधरो ऐ गांव-गरीबों फिर नेता को धिक्कारो
अपना पेट निहारो पहले फिर सत्ता को ललकारो
हर पंचायत का दागी चेहरा तेरी करतूतों का फल है
उनकी मक्कारी-सीनाजोरी में तेरा ही तो बल है
आदमीनुमा कितने चेहरों में मिलती अब मानवता है
मुझे कालनेमियों को मुनि का सम्मान अखरता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
जब लौ तमीज आदमी की तुम धारण नहीं करोगे
श्रम-स्वेद से ज्यादा का हक पाने को दांत चियारोगे
खुद की लालच रोक न पाये क्यों नेता को धिक्कारोगे
निज स्वार्थ से जो उठे नहीं तो समर सदा तुम हारोगे
बनो नागरिक जिम्मा समझो, घटियापन का त्याग करो
पाखंडी के उपदेशों को सुन मेरा तो खून बलकता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
यह चाणक्यों का देश यहां राष्ट्रधर्म सर्वोपरि है
राणा प्रताप का हठ है, भोजन चूनी-चोकर है
त्याग दधीचि से सीखो तुम यह मरण सदा अनमोल है
आत्मा ही तो शाश्वत है प्रिय यह तन केवल खोल है
तन सुख की खातिर कब तक ईश्वर का होम करोगे
तुम ही रहबर हो पहले, भारत माता का दिल कहता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
सुनो-सुनो-सुनो, हम सब हत्यारे हैं, जंगल और पहाड़ों के
हम हैं बलात्कारी झरनों-नदियों, बादल-बाग-बहरों के
प्रकृति का आंचल खून सना है खंजर हैं ठेकेदारों के
वन विभाग की चोट्टी कुतिया साथ लगी मक्कारों के
गुस्से में मानसून है, लड़खड़ाता सा जग में आता है
खेतों से प्यार के कारण ही वह घर से बेबश चलता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
पौधों की हत्याओं पर आदमी का आवास बना है
डरा-डरा है जंगल मेरा ज्यों बोलना उसे मना है
हम पांच गुना बढ़ गये मगर पेड़ लगाये हैं कितने
पर्वत का सीस उतारे हैं गर तो सीस चढ़ाए हैं कितने
ऐ हवेली वालों आओ, देखो यह जंगल कैसा रोता है
फिर भी अपनी संवेदना पर यह मानव रोज बहकता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
बूढ़ा पनघट खामोश पड़ा है, बूंदों से हैं सांसें चलती
मानव सुख की प्यास बुझाकर, सूख चुकी है यह धरती
गगन चूमते वृक्षों के तन से मानव तेरा महल सजा है
और वनों के घर में तो झंखाड़ो का अपशिष्ट गजा है
एक बार भी तो बढ़कर तुम बेटे-सा पेड़ लगाये होते
तुम जैसे मानव से मुझको जीव-जंतु प्यारा लगता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
हर जहन में कपट भरा है, मुख में राम बगल में छूरी है
संसद-मठ सब एक तरह से, बातों से करनी की दूरी है
सब उपदेश हमारे खातिर, भोग सदा सब उनके हिस्से
पर उपदेश कुशल बहुतेरे, एक नहीं घर-घर के किस्से
जान रहे हैं मान रहे हैं, पर दहेज प्राणों से प्यारा है
मात-पिता के सौदों से बेटी का दिल रोज सिसकता हैै।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
सोने का कंगन लेकर बूढ़े सिंह शिकार करेंगे जब तक
घर जंगल होगा वनवासी परिजन मरा करेंगे तब तक
आधी आबादी नौकर-सी खुद को मानेगी जब तक
खुद के मानव होने की आशंकाएं घिरी रहेंगी तब तक
पुरुषों के स्वामीपन का दंश भभाएगा भारत भर में
नारी की आहों से जलकर रोज हमारा देश दहकता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
जाति-लिंग के पैमाने पर मानवता का मूल्यांकन होगा
जब तक लंका से लौटी सीता का अग्नि परीक्षण होगा
दौलत के दम लाचारों की अस्मत जब तक लूटी जायेगी
जेठ-ससुर संग सास-ननद मिल औरत के सपने खायेंगी
प्रेम पंथ पर रहबर होंगे, घर-घर लंका सा मंजर होगा
कहो भला छल में भी कभी कोई प्रेम का निर्झर बहता है!
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
जहां दिलों की सरहद, खुदगर्जी के छोरों पर जा टिकती हो
शब्दों की दरिया जब विनिमय के घाटे में जा सुखती हो
व्यवहारों के बटखरों से जहां प्रेम-स्वर्ण भी तौले जाते हों
फिर देहों की दमकहीनता पर प्रेमी के दिल खौले जाते हों
उन हृदयों की कंगाली पर किस दरियादिल की बात करें
नये विश्व की नदियां हैं ये मझधारों में रेती बसता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
टुकड़ों में बंटा वक्त किस पूर्णता की अभिव्यक्ति करेगा
निर्माता ही सब जिन्दा रहते विध्वंसक मरा है और मरेगा
जो रिश्तों को तौल रहे हैं, किस बिरते पर वे प्यार करेंगे
दिल चम्मच चलनी दिमाग है, कहां घुलेंगे कहां भरेंगे
निष्काम प्रेम जो कर पाओ तो सारा आकाश तुम्हारा होगा
यह प्रेम पंथ है युद्ध भूमि सा, मरने वाला जिन्दा रहता है।
जज्बातों के सौदागर घूम रहे हैं, हर चीज जहां बिकाऊ है
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
ढुलमुल हैं हर लोग यहां पर जहां स्वार्थ भूमि टिकाऊ है
हंसी-ठिठोली न्याय-गीत खल मठ संसद एक तरह से
बिकते शिक्षा मंदिर, मदिरालय, नीति धर्म सब एक तरह से
मेरे भीतर एक कबीरा घुट-घुट कर कैसे जीवन जीता है
किस अंध कूप में भटक रहे हम हर घर मंडी सा लगता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
आंखों में आंसू बिकते, गालों की लाली हंसी ठिठोली भी
बिकते हैं जज्बात जिगर क,े भूख-भाव-तन-चोली भी
नींद-नारि-भोजन बिकते हैं, श्रद्धा-विश्वास-जवानी भी
बिक चुका है देश हमारा, संप्रभुता की लिखी कहानी भी
नख-शिख हम बाजार बने हैं, शब्द ढाल हैं आरोपों पर
पक्षपात में भीष्म सा योद्धा भी सर शय्या पर मरता है
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
हर जमीर बिकाऊ जग में, सही दाम लगाने वाला हो
हर समस्या का समाधान है, कोई काम करनाने वाला हो
सबसे सस्ती बात हुई है मोल-भाव की दरकार नहीं है
जिसकी बोली ऊंची होगी उसकी ही हर बात सही है।
महापुरुष अब ग्रंथों की शोभा बस पूजन के काबिल हैं
अर्थ उदार का नया दौर यह जो आये सब चलता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
धत् तेरे की ये घर है, आपस में डर दिल बंजर
कनबतियों में साजिश है, शब्दों के कर खूनी खंजर
गृह देव ललाते रहते घर में बरम भवानी को मेवा
मनमोहन जी के शासन में ओबामा जी की सेवा
फटेहाल घूंघट घरनी का आंखें नंगी झांक रही हैं
दम मारे पगलाया मालिक लचक-मचक डग भरता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
घोर घमंडी गृहस्वामी है तो घरनी क्यों ना हो ज्वाला
विषधर वंशी के सुर पे नाचे देख कन्हैया जनग्वाला
चेहरा-चेहरा सौ-सौ चेहरा क्यों चुप्पी साधे बैठा है
जनसंसद चीख रहा है, पर दुर्योधन कैसा ऐंठा है
एक मंथरा एक विभीषण महायुद्ध को काफी हैं
अब घर-घर मंथरा घर-घर शकुनी पांव जमाये रहता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
किस बिरते पर दंभ भरूं मैं भरत का रहने वाला हूं
सद्ग्रंथों का अनुकर्ता हूं, संस्कृति का रखवाला हूं
जिन ग्रंथों में मानवता से नफरत का संदेश मिले है
बहुसंख्यक अंतर्मन झुलसे, गिनती में चेहरे खिले हैं
देवों जैसे पूजित कुछ तो बहुतों को मीरा का प्याला
इन मनुओं के कानूनों से नफरत का सैलाब उमड़ता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
कहता है इतिहास जहां का नफरत की गौरव गाथा
और पुराणों में मंडित हैं छल के शातिर व्याख्याता
जाति धर्म के मकड़जाल में बभनौटी-चमरौटी है
आडंबर से आहत होकर मंदिर से करुणा लौटी है
नीति नियंता उन ऋषियों को कैसे श्रद्धा भर पूजूं
बहुत तुच्छ है मेरा भारत, शंबूक जहां नित मरता है।
मेरे दिल में प्रीत नहीं, एक ताण्डव चलता है।
बच्चों सावधान
डा0 रमाशंकर शुक्ल
मेरे बच्चों सोच-समझकर कहता हूं
बहता कम, ज्यादा ढहता हूं।
चिन्ता, भगदड़, कभी खुशी कभी गम
बेकार। न तन में दम न मन में दम
सब पहले से तय है, मत डरना
जिसमें हो तबियत, बस उसी में रम।
मैं अनुभव हूं, इसलिए तुमसे कहता हूं
चाह गगन की थी, पर दरबे में रहता हूं।
मैं, मेरा, यह-वह और वो सब देख लिया
खोला-खंगाला और थाती फेंक दिया
पाया नंगा सच, हर अंत एक प्रस्थान है
इसलिए संस्कारों को नोंच फेंक दिया।
सन्मुख पसरी शव-उम्मीदें, चुप लखता हूं
सुख भू्रड़ों की हत्या कर, निज पीड़ा सहता हूं।
फुरसत निकाल खुद खातिर जी लेना
गुदड़ी अरमानों की सी लेना
क्या होगा? हमलावर हथौड़े भी हारते हैं
अतः थोड़ा कुंद, ज्यादा नुकीला जी लेना
मैं दायित्व गिरि, तभी तो झरना झरता हूं
नखरों के हमले में, जीता कम, ज्यादा मरता हूं।
पिताजी क्या सही है
डा0 रमाशंकर शुक्ल
संत सड़क पर, संसद में भ्रष्ट
जनता की खुशी पर नेता को कष्ट।
पिताजी क्या सही है?
सही कौन हैं नेता या संत
कौन लू है कौन बसंत
फैसला कौन करेगा
कानून से कौन डरेगा
सरहद पर भावुक सैनिक
भला क्यों मरेगा?
वक्त चौराहा है, देश बटोही
आगे कुआं, पीछे नरछोही
गजब की काली रात है
सड़कें स्याह सन्नाटा
आत्मीयता पगे रहबर
मारे हैं जोर का चाटा
जेब ही खंगालते तो
दर्द बिल्कुल न होता
कालिख विचार पर लीप दिये
किस साबुन से धोता!
घर अपना था पराया सा
बीवी पड़ोस से खिली निकली
हमें देखते ही चमक झड़ी
चेहरा मुरझाया-सा
आंख कब तक धोखा खायेगी
अब तो आंख ही धोखा है
मैं केवल कुढ़ता हूं खामोश
उनका माल चोखा है
पिताजी क्या सही है।
वो जो सिस्टम पंचों ने
मिल-सोच कर बनाया था
हमने तो ओढ़ लिया और
उन्होंने जमीं पर बिछाया था
मैं पूछता हूं कि
सिस्टम किसे माने
जुर्म पर जायें थाने
या फिर जुर्मी को मारें
सच एक है पर
कोर्ट के फैसलों में अंतर है
सांसद अंदर हैं और
जनता जंतर-मंतर है।
पिताजी क्या सही है?
कबीरा की उलटबासियां पढ़
तब सिर चकराया था
छोटा था इसलिए
निहितार्थ समझ न पाया था।
अब जवान हूं और सच
नंगे, तस्वीर साफ है
रामलीला में आधी रात
खाकी रावण का कहर माफ है।
पिताजी क्या सही है!
शोर हर ओर
सत्ता गजब की मौन
आंतों से रक्तस्राव
शिकारी है कौन?
कुत्ते भौंक रहे हैं
नहीं नहीं, रो रहे हैं
इसीलिए भेड़िये
बेफिक्र सो रहे हैं।
पड़ोसन सुघड़
चिकनी मालामाल है
धन हमारा था
फिर भी कंगाल हैं
पिताजी क्या सही है?
कई दिनों से आत्मा
पांचजन्य बजा रही है
भारती शहीदों को
याद कर पछता रही है
पुकारता है एक चाणक्य
भीतर से लगातार
सर्वहित हो रहा हो व्यर्थ
तो राजा को मार
वह देखिए राजनीति
सुरसा हुई जा रही है
हत्यारों के घर
धन की गंगा बह रही है
डांड़ी पर चढ़ गया है
इंसाफ का तराजू
टेनी मार तौले जा रहे हैं
डालर के काजू
धन तो हमारे खून का था
खांटी था लाल था
कैसे काला हुआ
वह कौन सा जाल था
प्रधान, सरपंच, अदालत
हर कोई खामोश है
संसद है कि नक्कारखाना
सब मदहोश हैं
मांगती है इक्कीसवीं सदी
वक्त से इंसाफ
लोकतंत्र के गले का
क्या है सही नाप?
भारत महान है
तिरंगा हमारी शान है
कहना लगता है अब
कि यह वक्त का
सबसे बड़ा अपमान है?
पिताजी क्या सही है।
सियासत
डा0 रमाशंकर शुक्ल
धीरे-धीरे उनका दिल मेरा सुनने लगा है
एक अंधेरी सांझ में चांद उगने लगा है।
अभी धुंधला है, मंजर साफ नहीं दिखता
मगर दूर चौपाल में मजीरा बजने लगा है।
सियासत गांव की भी गरमाने लगी है
अभी भड़केगी आग, धुंआ उठने लगा है।
हो सकता है, सुबह पंचों का फरमान निकले
घर में बैठा था शुकून, अब सुबकने लगा है।
उन फकीरों पर कोई असर होता नहीं दिखता
जिगर में सोया जो बिराग, अब जगने लगा है।
चलते-फिरते
डा0 रमाशंकर शुक्ल
(1)
उनके एतबार पर मैंने जिन्दगी खाक कर दी
मेरी मनुहार को वो दिल जलाना समझते हैं।
(2)
उन्हें मुझसे बेपनाह मोहब्बत है फिर भी
आज तक मेरे दिल में कोई हलचल न हुई!
जब भी मिले, शिकायतों का बवंडर लेकर
काश! देखता कि नजरें भी हैं झुकी हुई।
ऐसा नहीं है कि मैं डूबने से कतरा रहा
क्या करूं, वहां तो आग ही है बुझी हुई।
बाग था, आ रही थी दाल-भात की गंध
समझ सकते हो मिलकर कितनी खुशी हुई।
(3)
दिल किराये पर नहीं दूंगा, सब तोड़-फोड़ देंगे
मेरी सफेद पट्टी पर, कोई पट्टा जोड़ देंगे।
किरायेदार बहुत ताक-झांक करते हैं यार अक्सर
उनका गला टीप देंगे, या अपना सिर फोड़ लेंगे।
अभी तो सब कुछ अपना है, कोई गम नहीं यहां
कल को मौका मिलते ही वे गर्दन मरोड़ देंगे।
चुनौती
डा0 रमाशंकर शुक्ल
सिलसिला प्यार का खामोश रहने दो
जुबा से खुल गया तो अर्थ मिट जायेगा।
हम, तुम और वे, सब प्यार के राही हैं
मंजर देख लेने पर उनसे सहा न जायेगा।
गहराइयां हमेशा अपनी थाती छिपाये रहती हैं
दौलत देख लेने पर पानी सूख जायेगा।
वैसे भी हर तरफ गश्त कर रही हैं मशीनें
इंसानियत बेजार, बचाओ जमाना चूक जायेगा।
बाजार और विश्वास, लड़ रहे हैं गुत्थमगुत्था
धर्मसंकट में ईमान, जाने कब टूट जायेगा।
रुको, लड़ना हमें, तुम्हें, उन्हें सबको है
अब न भागो यार, ईश्वर रूठ जायेगा।
पुलिस अस्पताल के पीछे
तरकापुर रोड, मीरजापुर
उत्तर प्रदेश
संपर्क ः 09452638649
ई-मेल ः rsshuklareach@rediffmail.com
चलते-फिरते (02)
डा0 रमाशंकर शुक्ल
(1)
बिछ गयी खामोशियों को मत तोड़ो
हो सके तो धीरे से फूट निकलो।
(2)
दिल में उठी है हूक, पावन गोंद सो जाऊं
मां का आंचल हो जहां, प्रिय की मधुरता हो।
उम्र पकती है किसी की जड़ सूख जाते हैं
पिता का प्यार हो जैसे, भरोसे की अमरता हो।
समंदर फेंकता मोती है जब कोई किनारे पर
सहारा एक ऐसा हो कि जिसका दिल धड़कता हो।
खुशी हो लाख उपवन की मगर फूलों को क्या लेना
माली एक ऐसा हो कि जिसका दिल महकता हो।
रिश्ते खून के खूनी बहुत निष्ठुर रुलाते हैं
रिश्ता एक ऐसा हो कि जिसमें गीत बजता हो।
(3)
पढ़ा-लिखा पती होइ, चाहे गदह चपाट।
पत्नी के आगे बाबू, सबइ झाड़-झंखाट॥
जे-जे बाउर ते सुखी, तेही प्यारा कंत।
अपने दास बने रहो, घरनी रखो महंत॥
जांगर धन खुल्ला रखो, जो लादे सो ढोउ।
सबके निंदिया देइ के, अलग जागि के रोउ॥
गहना उनके हाथ में, अपने सुर्ती फांक।
दिल की पीर छिपाइ के, घर क इज्जत ढांक॥
सुख-सबन्हि कर देइ के, परे रहो चुपचाप।
देवी जी के आदेश पर, सब रिश्तन के नाप॥
(4)
सिलसिला प्यार का खामोश रहने दो
जुबां से खुल गया तो, अर्थ मिट जायेगा।
हम, तुम और वे, सब प्यार के राही हैं
मंजर देख लेने पर, उन्हें सहा न जायेगा।
गहराइयां, अपनी थाती छिपाये रहती हैं
मोती दिख गया गर, पानी सूख जायेगा।
(5)
समझौतों से आजिज आ गया हूं
पहले की आग से आधा रह गया हूं
जो पर्वत की तरह तना रहता था
अब तो खंडहर सा ढह गया हूं।
(6)
जो प्रेम नहीं कर सकता
वह योद्धा भी नहीं हो सकता
अब तक के सारे युद्ध वीर
पहले प्रेमवीर ही हुए थे।
(7)
बुढ़ापा और प्यार में
प्रतिक्रियात्मक संबंध है
प्यार होने पर बुढ़ापा भाग जाता है
बूढ़ा होने पर कोई प्यार नहीं करता।
(8)
गजब अंधेरा है कुछ सूझता ही नहीं
जिधर डाला हाथ, सांप ही निकला।
कुसूर बताओ, मेरे भरोसे की गलती
धन श्वेत था, काला तो आप निकला।
अपना गिरेबान ठीक से झांको यार
मेरे वोट पर तुम्हारे मुंह शराब निकला।
जनता जी, मेरी राजनीति दागदार कहां
तुम्हारा फरेब हमेशा वजनदार निकला।
भोर का हर मंजर काला नजर आता है
गया था मंदिर, ढेर सारा पाप निकला।
(9)
सच बोलने के दावे से
बड़ा झूठ और क्या होगा?
जब देह ने ही खींचा
भला प्यार क्या होगा?
बात केवल इत्ती सी है
कि जहां शब्द बोलते हैं
वहां सच खामोश रहता है
जहां देह बोलती है
वहां प्यार
दूसरे के आगोश में रहता है।
(10)
पांखुरी जब निकली
जमाने की नजर लगी
उसे जमीं से उखाड़ा
गमले में रोप दिया।
पांखुरी अब
बाग में घूमती हुई
एक मनोरंजन है
कामिनी की आंख का
महीन सी अंजन है।
(11)
हां, आज भी प्रिय का गम
दूर बैठे दिल में धड़कता है
वह मोबाइल के शोर सा
कान नहीं फाड़ता
दिल के भीतर
आंसू सा बरसता है।
कलम
डा0 रमाशंकर शुक्ल
कलम
अब अपना दिल खोल
न्यूज ही लिखती रही गर
ब्यूज फिर कौन देगा हमें
राह में चांई बहुत हैं
कहो बचाएगा कौन?
अखबार के पन्ने बताते
तुमने सिर्फ नौकरी की है
जनदर्द को भोगी नहीं
शब्द की बाजीगरी की है
इस तरह बंशी बजी तो
उम्मीदें हो जायेंगी मौन।
उठ, फिर दिखा दे
तोप से ज्यादा की ताकत
बता दे विश्व भर को फिर
पहले-सी आज भी घातक
शासनों की धज्जी उड़ा दे
ईमान का दिल फाड़कर खोल।
मौन के खिलाफ
डा0 रमाशंकर शुक्ल
बेटे ने बाप को समझाया
बड़ा बनना है तो
खामोश रहना सीखो।
ज्ञान-ग्रंथ छोड़ो
अपने मनमोहन को देखो।
ऋषियों का वक्त बीता
अब शब्दों में क्या रखा है
अन्ना-रामदेव से ज्यादा
बोलने का स्वाद कौन चखा है!
देख लो खामोशी का फल
मेरा देश रोज चीखता है
पर मनमोहन-सोनिया की ओर से
कभी एक शब्द भी आता है?
यदि बोलना बहुत जरूरी हो जाय
तो मुंह से नहीं, बंदूक से बोलना
लेकिन मिथक कसाब का नहीं
सरदार भगत सिंह का तोड़ना।
आग
डा0 रमाशंकर शुक्ल
आग ही रहूंगा, मैं आग ही कहूंगा
शीत के खिलाफ हूं, तूफान सा बहूंगा।
भीड़ है, भेड़ हैं, उन्मत्त चरवाहे हैं
जंगल है, अमंगल है, टूटी सी बाहें हैं
शोर घनघोर है, सुनना भी बंद है
पूरे सिवान में चीख और आहे हैं।
शाख पर बैठे उल्लू भी चीख रहे हैं
हे राम! हम किस जमाने मेें जी रहे हैं
नहीं सहूंगा अब इस धरती का दलदल
धूप सा बहूंगा और धूप सा जलूंगा।
आग ही रहूंगा मैं आग ही कहूंगा।
ना, ना, नहीं मरने दूंगा शाश्वत आत्मा
देह नश्वर है, रोज मरा करती है
चिता एक बार जलती हैं
आत्मा कई बार जला करती है
मशीनों के शोर से संवेदना बहरी है
आदमी से आदमी की खाईं गहरी है
कल तक ठाट से रहती थी आत्मीयता
आज देखो अपने ही घर में वह महरी है।
तोड़ूंगा अब अंधकार, यह चुनौती है मेरी
आदमी की खातिर अब प्रभात सा उगूंगा।
आग ही रहूंगा मैं आग ही कहूंगा।
अन्ना की पुकार
डा0 रमाशंकर शुक्ल
जय हिन्द! जय हिन्द!! जय हिन्द!!!
उठो देश के नौजवानों, अन्ना ने ललकारा है
गद्दारों से उम्मीद नहीं है, भारत देश हमारा है।
इसकी रक्षा करनी होगी, चाहे जो कुर्बानी हो
बहनें यूं निकलो घर से, ज्यों मीरा बनी दीवानी हो
हर फरेब का मोटा परदा, फिर से आज उघाड़ेंगे
लोकतंत्र पर पड़ी धूल को मिलकर आज बुहारेंगे
लुट चुका है देश हमारा, क्रांति का एक सहारा है।
उठो देश के ................................................................।
जनगण की है जंग हमारी, जीत हमारी ही होगी
लोकपाल बिल पास करेंगे, राजनीति के ये ढोंगी
ईमान हमारा महामंत्र है, बच्चा-बच्चा हनुमान है
लोकहित में जो काम करेगा, वही हमारा राम है
कालनेमियों की नगरी में, फिर हनुमान पधारा है।
उठो देश के ...............................................................।
जनता का धन जिसने लूटा, उसको कारा जाना होगा
जिसने मां का अपमान किया, उसको मारा जाना होगा
देश हमारा, मालिक हैं हम, कहता यही संविधान है
पाकिस्तान न समझो इसको, यह सारा हिन्दुस्तान है
अन्ना जी का संदेश यही है, भारत ने तुम्हें पुकारा है।
उठो देश के...................................................................।
मशीन और मानवता
डा0 रमाशंकर शुक्ल
चलो कुछ दिन मशीनों को सलाम कर लें
बिखरे हैं सभी अपने, कुछ हालचाल कर लें
पेड़ों की छांव बैठें, झरने का संगीत सुनें
कुछ मेरे साथ बह लो, कुछ तेरे साथ बह लें।
मन के अंतरिक्ष में धूल, धुआं, और शोर है
संशय इतना कि घर में बैठा कोई चोर है
बहरा हुआ जा रहा, भीतर का भगवान
आओ हम उसे गह लें, वह हमें गह ले।
अरसा बीता है बच्चों का तुतलाना सुने हुए
मां के पांव दबाए, बापू की डांट सुने हुए
डरते हैं बगल के शंभू काका मेरे कद से
आदर इतना दें कि हमें अपनी बांह भर लें।
मेरी बेजा औलाद मशीनों, इंशानों की दुश्मन
तुमसे बिगड़े हैं रिश्ते और घर में अनबन
जितने की थी जरूरत तेरी, उतने में ही रह
तू मेरे सिर से हट और हम जंगल गह लें॥
परिवार का संविधान
डा0 रमाशंकर शुक्ल
झल्लाने की बजाय
सोचना जरूरी है
परिवार भी एक राज्य है
और हम उसकी सरकार
उसका पोषण, उसका तोषण
अमन-चैन के लिए जरूरी है।
आप बहुत दिन तक
दौरे नहीं कर सकते
खैरात का दान और
कल्याण नहीं कर सकते
घर सवाल बन
खड़ा हो जायेगा जनाब
उत्तर देना ही होगा
घर में साम्यवाद नहीं रख सकते
यहां युद्ध होगा तो गोले शब्दों के चलेंगे
चोट चाहे जहां लगे
गुस्सा स्फीति रोकने को
बोलने से ज्यादा सुनना मजबूरी है।
घर का संविधान
राज्य से थोड़ा अलग होता है
यहां मुखिया गधे की तरह
संवेदनाएं ढोता है
तुम्हारी एक-एक मुस्कान
सीसी कैमरे कैद कर रहे हैं
यहां बेजुबान
सबकी पलकों पर होता है।
एक न्याय की देवी
घर में भी होती है
जिसकी आंखों पर
पट्टी बंधी होती है
मानना पड़ेगा हर आदेश
यह आपकी बाध्य श्रद्धा
और बाध्य सबूरी है।
सरकारें टैक्स लेती हैं
और घोटाले करती हैं
यहां पब्लिक टैक्स लेती है
और सवाल खड़े करती है
वहां के फैसले कैबिनेट करती है
और हम मानते हैं
यहां पब्लिक करती है
और समझदार मुखिया मानते हैं
घर के लोकतंत्र में मुखिया का
मनमोहन सा बेजुबान होना जरूरी है।
फुटकर दोहे
डा0 रमाशंकर शुक्ल
(1)
पढ़ा-लिखा पति होइ, चाहे गदह चपाट।
पत्नी के आगे बाबूए सबै झाड़-झंखाट॥
जे-जे बाउर ते सुखी, तेही प्यारा कंत।
खुद को दास बनाइ के, पत्नी रखो महंत॥
दांत चियारे खड़े रहो, जो लादे सो ढोउ।
सबके निंदिया देइ के, अलग जाइके रोउ।।
गहना उनके हाथ में, अपने सुरती फांक।
उनकी रास छिपाइ के, घर का इज्जत ढांक॥
सुख सबन्हि कर देइ के, परे रहो चुपचाप।
जिनसे देवी जी कहें, उनकर रिश्ता नाप॥
(2)
सज्जन जी घर में रहो, लुक्खा बेटा घूम।
सड़क सवारी जोर से, नाच-नाच के झूम॥
जो मन आये बोल दो, लड़की हो या माय।
बाल झटकते जाइ के, चुटका देउ थमाय॥
रक्तबीज की जाति हो, घर-घर फानो रार।
हे देवी फिर आइ के, करौ इनकर संहार॥
बिन सोचे पैदा किये, अब क्यों रोवो बाप।
तुम तौ भोगत ही रहो, हम भी झेलें ताप॥
सवा करोड़ी देस में, कित्ते जिम्मेदार।
दस करोड़ ही खट रहे, बाकी सब बेकार॥
बूढ़े जवान
डा0 रमाशंकर शुक्ल
मैंने देखा, जाना, समझा और पहचाना
जवानी उम्र का नाम नहीं होती कमबख्त
गदराये पौधे फलदार होंगे ही पक्का नहीं
संभव है वे फूल-पत्तियां देकर चुप हो जायें
जैसे जवान देह हर मोर्चे पर होती है खामोश।
मैंने जनसंख्या के घने जंगल में ढूंढा युवा पौधा
ढेर सारे झंखाड़ों से हर बार कांटे चुभे बेदर्द
एकाध सीसम-सागौन छोड़ सब रहे व्यर्थ
मैंने अन्ना, किरण जैसे वटवृक्षों से पूछा हाल
बोले, चुप रहिये,युवा खोजना मुश्किल है
खो गये सब अभिमन्यु सरीखे सारे हंस
युवा, हंस, सरकार, संत और गिद्ध
सब बीते दिनों की विलुप्त प्रजातियां हैं।
मुझे कलाम मिले चौराहे पर बेहद उदास
बोले, मिशन 2020 फेल समझो अब
वह युवओं के बल पर आधारित था
पर अब बच्चा ही बूढ़ा पैदा हो रहा है
वह थका हुआ रोटी खोजता फिरता है
उसकी बूढ़ी नजरें वर्तमान ही नहीं देखतीं
भविष्य का भार डालना उचित नहीं होगा।
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