सा हित्यकार अपने व्यक्तित्व के अनुरूप ही साहित्य सृजन करता है। उनके साहित्य-विधा के अध्ययन से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि साहित्यकार के व...
साहित्यकार अपने व्यक्तित्व के अनुरूप ही साहित्य सृजन करता है। उनके साहित्य-विधा के अध्ययन से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि साहित्यकार के व्यक्तित्व पर किन पारिस्थितिक तत्वों का प्रभाव रहा है। नागार्जुन का आगमन साहित्य-धरातल पर उस समय हुआ, जब भारतीय राजनैतिक व्यवस्था पर अंग्रेजों और बूर्जुवा वर्ग का पूर्ण आधिपत्य था। समाज का सर्वहारा, दलित वर्ग पूर्ण-रूप से उपेक्षित, शोषित और उत्पीड़ित थी। एक तरफ़ देश में स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघर्ष का बिगुल बज चुका था, दुसरी ओर विदेशों में पूंजीवादी साम्राज्य का समूल नाश हो रहा था और साम्यवादी व्यवस्था पर बुद्धिजीवियों का विश्वास बढ़ रहा था। इन सारी परिस्थितियों का प्रभाव इनके व्यक्तित्व पर गहरा पड़ा। नागार्जुन की निजी विचारधारा थी वे किसी सुदृढ़ विचारधारा के परंपरा के पोषक नहीं थे, वे सदा जनपक्ष की भावनावों का कद्र करते हुए उनके संघर्ष को नये आयाम देने में सक्षम रहें। उनकी विचारधारा की क्रांति जन-आन्दोलन के जरिए काफ़ी मुखर हुई है। समाज के सबका समान अधिकार हो, साम्यवादी विचारधारा के माध्यम से समाजवाद को प्रतिष्ठित करना ही उनका मूल उद्देश्य था। स्वातंत्र्योत्तर काल में प्रेमचंद की परंपरा और प्रगतिशीलता के अनुरूप उपन्यास साहित्य को समृध्द बाबा नागार्जुन ने किया। उन्होंने प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा और राजनीति चेतना को नये परिवेश में विकसित किया। उनके उपन्यासों में विद्रोही भावना, जन-जीवन की आशा-आकांक्षाएँ, सामाजिक यथार्थ, समकालीन युग की सभी हलचलें देखने को मिलती है। नागार्जुन के उपन्यासों में मिथिलांचल की सोंधी खुशबू आती है। फ़णीश्वरनाथ ‘रेणु’ का उपन्यास ‘मैला-आंचल’ हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है। नागार्जुन के उपन्यासों को यद्यपि आंचलिक नहीं माना गया है, फ़िर भी इनके उपन्यासों में अंचल विशेष की कथा हैं। रामदरश मिश्र के शब्दों में "नागार्जुन के उपन्यास आंचलिक और समाजवादी उपन्यासों के बीच पड़ते है वैसे मूल स्वर तो उनका समाजवादी ही है, किन्तु चूँकि उनकी कथा एक अंचल से ली गई होती है इसलिए इन्हें आंचलिक कहा गया है। "
नागार्जुन उपन्यास लिखने की प्रेरणा राहुल जी से ग्रहण किए। सर्वप्रथम उन्होंने गुजराती उपन्यास
‘पृथ्वी बल्लभ’ का हिन्दी अनुवाद किये, इसके साथ-साथ शरतचंद्र के कई छोटे उपन्यासों और कहानियों का हिन्दी अनुवाद किए। इन्हीं अनुवादों के क्रम में इनके भीतर उपन्यासकार पैदा हुआ। इनके उपन्यासों में साम्यवादी विचारों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई हैं। किसान-मजदूर के जीवन से संबद्ध नागार्जुन लगभग एक दर्जन उपन्यासों की रचना की। उन्होंने पहला उपन्यास ‘पारो’ मैथिली भाषा में लिखें। हिन्दी में लिखा गया पहला उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’(१९४८) हैं। इसके बाद ‘बलचनवा’, (१९५२) ‘नई पौध’, (१९५३)(नागार्जुन ने स्वय़ं इसका मैथिली में ‘नवतुरिया’ नाम से अनुवाद किए)‘दुखमोचन’, (१९५६) ‘वरूण के बेटे’, (१९५७) ‘हीरक जयन्ती’(अभिनन्दन), (१९५८) ‘कुम्भीपाक’, (१९६०) ‘उग्रतारा’, (१९६३) ‘जमुनिया के बाबा’(इमरतिया), (१९६७-६८) और ‘गरीब दास’(१९९०)। उपन्यासों में ग्रामीण कथा-भूमि के आधार या अपनी राजनीतिक चेतना अभिव्यक्त किए है। इनके उपन्यासों में १९३०-१९७५ तक के भारत के सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक चेतना मुखर हुई है।
उनके उपन्यासों में मिथिला के ग्रामों, वहाँ के जन-जीवन की मनःस्थिति, राजनीतिक हथकण्डें, पूँजीपतियों द्वारा शोषण, जमींदार-किसान संघर्ष का उभार है। भारतीय समाज और संस्कृति, कृषि एवं ग्राम से कभी अलग नहीं की जा सकती है। आजादी के बाद भी कृषि और ग्राम-व्यवस्था में शोषण-चक्र इतना मजबूत है कि आर्थिक वैषम्य अपने चरम पर पहुँच गया है। भारतीय गाँवों में आजादी के बाद भी जमींदारों तथा महाजनों का शोषण चक्र सशक्त रूप से चल रहा था। ‘बलचनवा’ में नागार्जुन ने इस शोषण चक्र का पर्दाफ़ाश किया है। इतना ही नहीं कृषक-मजदूर पीढ़ी दर पीढ़ी जमींदारों और पूंजीपति महाजनों की गुलामी करने को मजबूर है। नागार्जुन शोषितों के पक्ष की भूमिका को निभाते हुए आंदोलन का रास्ता तय किया "सच मानो भैया, उस बखत मेरे मन में यह बात बैठ गयी कि जैसे अंगरेज बहादुर से सोराज लेने के लिए बाबू भैया लोग एक हो रहे हैं, हल्ला-गुल्ला और झगड़ा-झंझट मचा रहे है उसी तरह जन -बनिहार, कुली -मजूर और बहिया खबास लोगों को अपने हक के लिए बाबू भैया से लड़ना पड़ेगा। " नागार्जुन के उपन्यासों में वर्गीय-चेतना का ही परिणाम है कि ग्रामीण जनता जागरूक होकर संगठित होते और वर्ग-संघर्ष की घोषणा करते है "कमानेवाला खायेगा, इसके चलते कुछ भी हो। "
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नई पौध’ में नागार्जुन ने समाज के सड़ी-गली परंपराओं के खिलाफ़ नई पीढ़ी को संघर्षरत दिखाया है। मिथिलांचल में अनमेल विवाह की लत से समाज बुरी तरह परेशान था लेकिन अब इस समस्या का थोड़ा बहुत निदान हुआ है। पाँचवें-छठें दशक में अनमेल विवाह जोरों पर थी। लड़की बेचने की परंपरा इस जगह नित्य नये-नये कारनामें स्थापित कर रही थी। बाबा ने इसी यथार्थ को इस उपन्यास का विषय बनाया। अपने समाजवादी विचारधाराओं के माध्यम से नवयुवकों मे चेतना की क्रांन्ति लाई और एक नयी दिशा देने में सक्षम हुए।
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दुखमोचन’ आजादी के बाद के काल के बदलते हुए सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्यों का आंकलन करता है। दुखमोचन इस उपन्यास का नायक है, जो जीवन भर नये आदर्शों को प्रतिष्ठित करने के लिये संघर्ष करता है। उसे महसूस हो गया है कि वह अकेला सामाजिक कुरीतियों से नहीं लड़ सकता है इसलिए वह ग्राम के नवजवानों को अपने साथ कर सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़ कर भाग लेता है। नागार्जुन ने गाँवों में बदलते मूल्यों को जनहित में लगाने का सपना, इस उपन्यास में देखा जा सकता है।
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बाबा बटेसरनाथ’ गाँव के एक पुराने बट वृक्ष का मानवीय प्रतिरूप है। बाबा ने अपनी पैनी दृष्टि से सरकारी अमलों द्वारा चलाए जा रहे शोषण तंत्र पर प्रहार किया है। किसानों को आजादी के बाद कुछ मिलने के नाम पर मात्र तीन शब्द सुनने को मिला है-स्वाधीनता! शान्ति! प्रगति! गरीब किसान मजदूरों को इससे ज्यादा चाहिए ही क्या? नागार्जुन ने इस उपन्यास में एक नई रूपात्मकता को पेश किया है। एक बट वृक्ष इस उपन्यास कि आधी कहानी कहता है और आधी कहानी जैकिशुन कहता है। इस उपन्यास में सामूहिक एकता और प्रचेष्टा की महत्ता को स्थापित किया है।
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वरूण के बेटे’ उपन्यास में नागार्जुन ने बिहार के मछुओं की संघर्ष की गाथा को प्रस्तुत किया है। मोहन मांझी आजादी का सपना देखता है। वह कहता है कि "गढ़्पोखर का उद्धार होगा आगे चलकर और तब मलाही-गोढ़ीयारी के ग्रामांचल मछली-पालन व्यवसाय का आधुनिक केन्द्र हो जायेगा। " लेकिन ऐसा नहीं होता है। जमींदार धीरे-धीरे पोखर और चारागाहों की मर्यादाओं को मिटाने में सफ़ल हो जाता है। इसके बाद जमींदारों के विरूध्द आंदोलन जनतांत्रिक ढ़ंग से शुरू हो जाता है। कुल मिलाकर कहा जाय तो इस उपन्यास में आजादी के बाद के भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों में मछुओं की जागरूकता को केन्द्र में रखा गया है।
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कुम्भीपाक’ सामाज के डगमगाती पंरपराओं और लड़खड़ाती मान्यताओं का पर्दाफ़ाश करता है। इस उपन्यास में नारी पात्र इंदिरा, भुवन, चंपा आदि जैसी शोषित और प्रताड़ित महिलाओं की समस्याओं को यथार्थवादी दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किए है। नारी की स्मिता का सवाल उठाया गया है। सभी नारी पात्र किसी ना किसी रूप से पुरूष प्रधान समाज से प्रताड़ित होकर ही कुम्भीपाक जैसे वातावरण में पल रही है और उसी में रहकर मुक्ति का मार्ग ढ़ूँढ़ती है।
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अभिनंदन’ बाबा का एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक भ्रष्ट राजनेता के तमाम भ्रष्टाचार को उघाड़ कर रख दिया है। तथा उस भ्रष्ट राजनेता के साथ जो तमाम लोग जुड़े हैं वे सभी किसी ना किसी रूप से अपने व्यक्तिगत मुनाफ़ा ही सोच रहे हैं। इस उपन्यास से राजनीतिक परिवेश के नुमाइंदों का चारित्रिक ह्रास दिखाया गया है।
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उग्रतारा’ तत्कालीन समय की नारी समस्याओं से जुड़े सवालों को रखा गया है। इसमें विधवा-विवाह की समस्याओं को नई दृष्टिकोण से देखा गया है। ‘उगनी’ इस उपन्यास की प्रमुख नायिका है जिसका जीवन संघर्ष से भरा हुआ है।
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इमरतिया’ ‘जमनिया के बाबा’ का ही परिवर्तित और परिष्कृत रूप है। बाबा ने इस उपन्यास में धार्मिक स्थलों, मठों के कुकृत्यों का पर्दाफ़ाश कर तत्कालीन समय के मठों के बुनियादी कमजोरियों को उठाकर जनता में जागृति लाने का प्रयास है। नागार्जुन ने अद्भूत साहस के साथ साधु-संतों के नियत का भंडाफ़ोड़ा है। इस उपन्यास में नागार्जुन ने यह दिखाने का प्रयास किया है की पूंजीपति साधु-संयासियों तक को प्रयोग करने से नहीं चुकते हैं।
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रतिनाथ की चाची’ नागार्जुन का पहला हिन्दी का उपन्यास है जिसका प्रकाशन १९४८ ई० में हुआ था। इस उपन्यास में मिथिला के रहन-सहन, रीति-रिवाज, सामाजिक व सांस्कृतिक विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया गया है। लेकिन इस उपन्यास की मूल कथा रतिनाथ की चाची की यंत्रणा को रेखांकित करना है। उसकी चाची विधवा है, जो शारीरिक और मानसिक यंत्रणा को झेलती है और संघर्ष करते हुए मौत के मुँह में जाकर बैठ जाती है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नागार्जुन के उपन्यासों की मुख्य विशेषता यह है कि इनके सभी उपन्यास पिछड़े इलाकों के उपेक्षितों-पीड़ितों के जीवन का आधार बनाकर लिखे गए है। इन उपन्यासों में उपेक्षितों के आकांक्षाओं, इच्छाओं, गरीबी, अभाव, अशिक्षा जन्य विषमता का वर्णन बड़ा ही यथार्थवादी भाव-भूमि पर की गई है। इनके उपन्यासों में जन-आंदोलन, मानवीय संवेदना है। उनमें कृषकों औए मजदूरों में आई समाजवादी चेतना से प्रभावित हुए और उन्होंने अपने उपन्यासों में इस जन-संघर्ष को स्वर दिया। इनके उपन्यासों का जीवन दर्शन समाजवादी चेतना के अधिक निकट है। आर्थिक समानता स्थापित करना, सबको विकास करने की समान सुविधाएँ कराना, शोषण और वर्ग वैषम्य का अन्त, यही उनके उपन्यासों का मूल स्वर हैं।
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