व्यंग्य तोल मोल के बोल [ डॉ. हीरालाल प्रजापति ] बड़े बड़े लोगों में न जाने कैसी कैसी छोटी छोटी गंदी गंदी आदतें होती हैं और गुस्सा तो तब आत...
व्यंग्य
तोल मोल के बोल
[ डॉ. हीरालाल प्रजापति ]
बड़े बड़े लोगों में न जाने कैसी कैसी छोटी छोटी गंदी गंदी आदतें होती हैं और गुस्सा तो तब आता है जब वे दूसरों को उस काम से रोकते हैं मसलन खुद तो कहाँ कहाँ ऊँगली और खुजली करेंगे और हमसे कहेंगे नाक में ऊँगली मत घुसेड़ो ,जाँघों के बीच मत खुजलाओ और झूठ भी ऐसा बोलेंगे जैसे कि वो जिंदा तो हैं लेकिन सांस लिए बगैर। बादलों से ज्यादा भयानक गडगडाहट के साथ कुल्ला करेंगे और हमसे कहेंगे पिचिर्र पिचिर्र करके वाशबेसिन पे नहीं न थूका जाता खुद नाक सुड़क सुड़क कर खकार खकार कर आक थू आक थू करेगे और जरा जनाब से पूछो तो कि बताओ भला नाक का स्वाद कैसा होता है तो अपनी चपटी नीची नाक को ऊंची करके बड़े गर्व से कहेंगे हमने कभी चखी ही नहीं। छिः छिः। बड़े गंदे हो जी। नाक भी कोई खाता है भला ?
अब भला उन्हें कौन समझाए कि बहुत सी चीजों का स्वाद लिया नहीं जाता मिल जाता है जैसे आंसू , जैसे पसीना किन्तु जनाब कभी रोए हों कभी मेहनत की हो तब न बरबस इनका स्वाद जानेंगे कि शहद होता है या नमक। खुद तो बतोले लगाते हुए चप चप चपड़ चपड़ चटखारे लेकर खाएंगे और हमसे कहेगे मुंह बंद करके खाया करो। अब भला मुंह बंद करके भी कोई खा सकता है भला ? और भी कई गंदी आदते हैं किस किस को गिनाऊँ ? कई लोगों को तो थूक कर चाटने की आदत होती है , किसी को तलवे चाटना अच्छा लगता है , किसी को दुम हिलाने में मज़ा आता है तो किसी को टाँग खीँचने की आदत होती है।
वैसे अपुन एकदम स्पष्टवादी या कह लें कि मुंह फट आदमी हैं फिर भी कहीं कहीं मुंह का ढक्कन बंद रखना ही पड़ता है तो भी अन्य मातहतों के मुकाबले मैं अपने बॉस से थोडा कम ही डरता हूँ और उन्हें भी आइना दिखाने में पीछे नहीं रहता और मेरे इसी भयानक दुर्गुण की वजह से मेरी किसी से नहीं पटती। पहले मेरी बेकाबू ज़बान अनधिकृत रूप से रीछ को अनिल कपूर न कहकर भालू बोल पड़ती थी फलस्वरूप
प्राप्त दुष्परिणामों से अब मैं सुधर गया हूँ और अब प्रत्येक बन्दर को मैंने बेझिझक हनुमान कहना सीख लिया है और रीछों को जामवंत किन्तु कभी कभी मेरे कुकर की सीटी नहीं बज पाती तो स्वयमेव मेरा सेफ्टी वाल्व खुल जाता है और इसमें मैं अपना दोष नहीं मानता क्योंकि भई ये तो अच्छा नहीं लगता न कि आप खुद तो कहीं से अकेले होकर आयें टुन्न और हमसे कहें होश में रहो। कभी कभी अच्छा लगता है कि वे खुद बुरे हैं किन्तु हमें बुराई से बचाना चाहते हैं पर ऐसा नहीं होता न कि हमारे आदर्श जो कि हमेशा हमारी नजरों में ऊंचे ही होते हैं और जिनके हम अन्धानुयायी होते हैं , उन्हें कुँए में गिरते देख हम भी न गिरें और सच्चा अनुकर्ता तो भेड़ की तरह ही होता है अतः उनके रोके से क्या हम पीना छोड़ देने वाले हैं। उन्हें ही पहले गलत आदतें बंद करना चाहिए जैसे हमसे तो कहेंगे शब्दों का प्रयोग सोच समझकर करना चाहिए - शब्द ब्रह्म होता है किन्तु खुद ऐसे ऐसे विस्फोटक ,द्विअर्थी अथवा अश्लील शब्दों का प्रयोग करेंगे कि जैसे उनके लिए पेलने घुसेड़ने का अर्थ अत्यंत धार्मिक है और हमारे लिए अश्लील , उनके लिए ठोंकना बजाना शब्द होम हवन हैं हमारे लिए चिता . भई ये तो सरासर पक्षपात है। हाँ लेकिन मैं उन्हें गलत सिद्ध नहीं कर सकूंगा क्योंकि यदि कोर्ट कचहरी की बात आयेगी तो यक़ीनन वो अपने आरोपित शब्दों का अन्यार्थ ही बताएँगे जैसे तुम बड़े
' वो ' हो - मतलब कुत्ते हो , कमीने हो , बदमाश हो - किन्तु वो कहेंगे कि मैंने तो तारीफ़ की थी कि तुम बड़े ' वो ' हो अर्थात देवता हो ,महान हो, शरीफ हो . यानि केवल एक ' वो ' में समानार्थी और विलोमार्थी दोनों घुसे पड़े हैं - आप क्या हो खुद ही अर्थ लगालो . रुको मत जाओ .अब इसका क्या अर्थ लगायें कि ' रुकें ' कि ' जाएँ ' ? परिस्थिति अनुसार हम अर्थ लेंगे - बॉस का काम हो जायेगा तो सटक लेंगे वरना अटक लेंगे।
दुनिया की तरह मेरा भी मानना है कि जो जन्मा है वह मरेगा ज़रूर चाहे वह कृष्ण हो , सुदामा हो , गाँधी हो ,ओसामा हो ,दारा सिंह हो , काका हो अतः शब्द भी जब पैदा हुआ था तभी उसकी मौत सुनिश्चित हो गई थी। ऐसे कई शब्द हैं जिनके अर्थ कालांतर में परिवर्तित, संकुचित अथवा विस्तारित होते होते विलुप्त ही हो गए। जैसे एक समय था जबकि किसी की इच्छा के विरुद्ध किये जाने वाले किसी भी कार्य के लिए एक शब्द चलता था ' बलात्कार ' किन्तु आज इसका अर्थ केवल ' रेप ' पर अटक गया है फलस्वरूप यह एक गन्दा सा शब्द हो के रह गया है जबकि मस्ती जैसा पोशीदा लफ्ज़ जिसका एक मायना ' काम-वेग ' है , बेधड़क सभ्य समाज में चल रहा है जैसे आओ मस्ती करें ; खूब मस्ती चढ़ी है।
' लव ' शब्द तो इतना घिस चुका है कि अर्थ हीन लगता है , भ्रष्टाचार का मतलब एक ऐसी परंपरा का निर्वाह हो चुका है जो सरकारी काम काज की सिद्धि के लिए लगभग अनिवार्य है। अन्ना जैसे कितने ही आये और कालकवलित हो गए किन्तु भ्रष्टाचार के संस्थापक और अनुयायी मानो अमर बूटी पीकर आये हैं , बिलकुल रक्तबीज की तरह अथवा मच्छर मक्खी की तरह जितना मारो उतने ही जन्मते जाते हैं।
कला स्वातंत्र्य के नाम पर रियलिस्टिक फिल्मों के बड़े बड़े डायरेक्टर मादरजात , फट गई , गेम बजा डालूँगा ,पेल दूँगा , पुंगी बज गई क्या , जैसे सर्वज्ञात वर्जित गुप्त गंदे शब्द या वाक्य बड़े बड़े हीरो हीरोइनों के मुंह से धड़ा धड़ बकवा रहे हैं। साले ,कुत्ते , कमीने , हरामजादे , सेक्स , कंडोम जैसे गोपनीय शब्द अब ' नार्मल ' लगते हैं क्योंकि इतना बोले जा रहे हैं कि न तो बोलने वाले को शर्म आती है न सुनने वाले को .
बलात्कार अथवा सुहागरात अथवा स्वैच्छिक शारीरिक मिलन के चित्रण में प्रतीकों के प्रयोग के स्थान पर पूर्णतः चरम कामोद्दीपक शैली अपनाई जा रही है वरना पहले के लोग तो दरवाजा बंद अथवा लाइट बंद अथवा दो फूलों की टकराहट से सब समझ जाते थे . सेंसर बोर्ड बुड्ढा है या फुल्ली मैच्योर्ड है या नपुंसक है या फिर बदमाश है जो ऐसे दृश्यों को जिन्हें दर्शक इशारे मात्र से समझ लेते हैं उनके व्यर्थ के किन्तु सायास विस्तार पर कैंची नहीं चलाता। सेंसर बोर्ड को इन नज़ारों से शायद कोई उत्तेजना न होती हो किन्तु टीन एजर्स ऐसी डर्टी पिक्चर , जलेबी बाई , चिकनी चमेली , जिगर से बीडी जलाने वाले सीन देख देख कर खुद को स्खलित कर रहे हैं। फिल्म तारिकाएँ सामाजिक बंधनों में जकड़ी हैं वरना सफलता के लिए प्राथमिक वस्त्रों को उतार फेंकने को मचल रही हैं और उक्त टाइप के किशोर अपनी जिज्ञासाओं के मारे उन गुप्त रहस्यों के पर्दाफाश में स्वाभाविक रूप से संलिप्त रहकर अपनी यौन कुंठाएं खोलने के फेर में अपने मोबाइल में कनेक्ट इंटरनेट के माध्यम से बुरी तरह उलझते जा रहे हैं।
खैर। बात शब्दों की चल रही थी तो मैं ये कहना चाहता हूँ कि सचमुच ही शब्द ब्रह्म होते हैं अतः इनका प्रयोग अत्यंत सोच विचार कर करना चाहिए , तोल मोल कर बोलना चाहिए वरना आपका किसी को बोला गया ' वो ' फूलों की जगह जूतों की माला पहनवा सकता है। जन सामान्य में अभिधा या एकार्थक या स्पष्ट अर्थ प्रकट करते अथवा पारिभाषिक शब्दों का इस्तेमाल हो यानि जूती का अर्थ जूती ही निकले न कि सर की टोपी या ताज। द्विअर्थी , त्रिअर्थी या अनेकार्थी शब्द नाजुक बातों में कभी कभार जूतम पैजार करवा डालते हैं। हलके फुल्के मजाकिया शब्द भी किसी किसी को गोली की तरह लग जाते हैं। चलने को तो सब चल सकता है और नहीं चलने को आये तो अभिनव बिंद्रा भी पहले ही राउण्ड में बाहर फिंक जाते हैं। अतः व्यक्ति विशेष से सम्बन्ध और उसका मूड देखकर ही ऐसे वैसे शब्दों आई मीन ' चीप ' या ' न्यूड ' का इस्तेमाल करें।
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