दीप्ति परमार की कविताएँ दहशत दहशत में जीता है आदमी कल क्या होगा क्या नहीं यह सोच-सोच कर ही मरता है आदमी बचपन से लेकर बुढ़ापे तक इसी कल...
दीप्ति परमार की कविताएँ
दहशत
दहशत में जीता है आदमी
कल क्या होगा क्या नहीं
यह सोच-सोच कर ही
मरता है आदमी
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक
इसी कल की सोच में
पल-पल क्षण-क्षण
मरता है आदमी
मंत्री से लेकर मजदूर तक
इसी कल की सोच में
नोट-वोट, दाना-पानी के लिए
मरता है आदमी
जीवन, जगत, शासन, राशन
सबकी जरूरतें हैं अलग
फिर भी कल की सोच में
आज को खोकर
भटकता है आदमी
एक दहशत भरी ज़िंदगी
जीता जाता है आदमी !
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बिजूका
बिजूका बनानेवाला आदमी
आज बन रहा है खुद बिजूका !
निःस्नेह, निःप्रेम, निःहृदय बनकर सिर्फ,
साँस लेता, बिजूका बन रहा है आदमी ।
स्वार्थ अहं की निजी दुनिया में खोकर,
अपने आप तक सीमित, बिजूका बन रहा है आदमी ।
अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार के खिलाफ मौन,
देखकर भी न देखनेवाला, बिजूका बन रहा है आदमी ।
अनुभूति, अभिव्यक्ति हीन, अपनी स्थिति में लीन,
अमूर्त सा खिन्न, बिजूका बन रहा है आदमी ।
यद्यपि,
चल रहा है, खा रहा है, जाग रहा है, सो रहा है,
किन्तु,
भीतरी स्पंदन खो रहा है
यांत्रिक आपाधापी में
बिजूका बन रहा है आदमी !
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डॉ. दीप्ति बी. परमार, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
आर. आर. पटेल महिला महाविद्यालय, राजकोट
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डाक्टर चंद जैन 'अंकुर' की कविता
अंश अब तो लौट आ
प्रकृति ही मेरा विश्व मातृ है ये जल थल नभ वसुधा की माँ
शिव उर्जा से मिल कर माँ ने प्रथम वीर को जन्म दिया
दूध मातृ का पीकर उसने आदि पुरुष और नव युग का निर्माण किया
भारत का अध्यात्म पिता शिव को, माँ को शक्ति का मान दिया
प्रकृति माँ अब दृश्यमान है कण कण में शिवयोग समाया है
दिव्य सृजन का स्रोत मातृ है फिर क्यों मानव मलिन हुआ
माँ से करे निवेदन सब मिल आज धरा पर वो जीवन की धारा..!
मेरी चेतना को माँ तूने आज भी संवारा
शिवयोग बड़ा दूर था अब तो पास आया
मातृत्व राज विश्व में शिवयोग ने फैलाया
शिव योग के सौन्दर्य को मातृत्व ने दिखाया
मातृ भू पुकारती है अंश को विकार ला
विकलता के संग तू चेतना के गीत गा
मेरा ह्रदय विशाल है प्रेम का तू बीज ला
अभिमान मुक्त कर्म का संगीत ला साज ला
कृष्ण प्रेम नृत्य का अंशिका तू मंच ला
कामना हो प्रेम हो तो सृजन को संग लाउंगी
दोषमुक्त प्राण का ओ चेतना जगाउंगी
सात रंग सूर्य सा दृश्य तू विशाल ला
चंद्रमा के नेत्र से वो शांति गीत गाउंगी
कृष्ण रंग ओढ़नी से आसमाँ बिछाउंगी
चांदनी सितारों को दूर तक सजाउंगी
सूर्यचंद्र योग का तू कल्पना उधार ला
मातृत्व मेरा धर्म है पुत्र का पुकार ला
माँ तो दुग्ध धार है दोष मुक्त प्यास ला
द्वेष मुक्त राग का अंशिका उपहार ला
ढूंढती है माँ तेरा शिव चेतना संवार ला
शिव अनंत राग है अंश अब तो लौट आ
अंश अब तू लौट आ
अंशिका तू लौट आ
अब तू लौट आ
लौट आ
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हेमंत कुमार की कविता
गा गौरव गान देश का
गा गौरव गान देश का
दे आहुति प्राणों की, कर रक्षा
बढा मान देश का,
गा गौरव गान देश का ।
आँखो में हो अंगार,
शोले भरे हो दिल में
ऐसा कु छ हो प्रहार,
दुशमन जा छिपे बिल में
प्राण तेरे खुद के लिए नहीं,
दे उथारा सामान देश का,
गा गौरव गान देश का ।
करो याद उन्हें,
जो देश तुम्हारे हवाले कर गये थे
तुम करो हिफाजत इसकी,
ऐसा दम भर गये थे
मिली जो पोशाक प्रहरी की,
पूरा कर कर्म वेश का,
गा गौरव गान देश का ।
पवित्र गंगा- यमुना ने,
तुझे सींचा है,
तेरे लालन-पालन को,
विशाल धरातल खींचा है ,
वो आंचल मां का, समेटे दुख घनेरे है,
हो खडा, बन सहारा,
कर निपटारा उसके क्लेश का,
गा गौरव गान देश का ।
तू चंचल, चिंतित क्यों है,
खड़ा तेरे साथ सारा देश
तू वीर सपूत, वीर सैनिक
सबल-सुफल तेरा वेश
तू ही रक्षक है तिरंगा का
ये बने ना निशाना कि सी द्वेश का
गा गौरव गान देश का ।
गा गौरव गान देश का
दे आहुति प्राणों की, कर रक्षा
बढ़ा मान देश का,
गा गौरव गान देश का ।
..
Hemant Kumar Sharma
Patti- chakarsainpur Khekra Distt. - Bagpath
Uttar pradesh
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मीनाक्षी भालेराव की क्षणिकाएं व कविताएं
क्षणिकाएँ
हम तो भोले मनु की सन्तान हैं
पता नहीं कौन सा बीज
घृणा की उत्पत्ति कर गया !
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जीवन लहरों का उन्माद है ,
एक पल का मेहमान है !
कब फिसल जाये,
किनारों की रेत सा !
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कई रातें अभी बाकी हैं !
और ख्वाब सजाने को ,
क्या हुआ जो आज
रात सो ना सकी !
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मन के पिंजरे में अगर ,
कैद हों ख्वाहिशें !
तो खोल दो ख्वाहिशों
का दरवाजा !
परवाज करने को ,
आतुर मन का पंछी !
कई ऊंचाइयां छू लेगा
आजादी
सही मायने में ,सही अर्थों में ,
कब खुलेगें आजादी के दरवाजे !
अभी भी बंद है आजादी ,
नेताओं की तिजोरी में
भ्रष्टाचार के तहखानों में !
शोषण के रिवाजों में ,
संघर्ष की राहों में
सही--------------------------------
आजाद हुआ अंग्रेजों से देश तो क्या
गिरवी रखा हिंद के रखवालों ने
कुचला सत्ता के मतवालों ने
लूटा देश के पहरेदारों ने
आतंक फैलाया हमलावरों ने
सही---------------------------------
अधिकार है जमीन के हर टुकड़े पर
नेताओं और मवालियों का
भूख उन की और बढ़ी
जितना उनका पेट भरा
भूखा, भूखा ही रहा
बेघर ,बेघर ही रहा
सही-------------------------------
मौत का सत्य
हर एक के लिए हालांकि एक सम्मान है ,
बस मौत के तरीके बदल जाते हैं !
पर कफन का रंग सफेद ही रहता है
जन्म का तरीका भी सभी के लिए सम्मान है
बस शक्लें और आकार बदल जाते हैं
पर सभी का जिस्म नंगा ही आता है
दुनिया के सभी प्राणियों का खून लाल ही होता है
बस पोजेटिव नेगेटिव बन जाते हैं
पर खून बह खून ही होता है पानी नहीं बनता
सभी की जमीन एक है आसमान एक है
मिट्टी एक है हवा एक है
बस घर का आकार बदल जाता है
पर फिर भी ऊंच नीच के कितने राक्षस
घेरे रहते हैं मानवता को
भगवान की बनाई दुनिया का
दस्तूर बदलते रहते हैं
मौत का सत्य--------------------------------
इंतजार
यूँ तो इंतजार
सदियों किया !
पर अब पथराने
लगी है आँखें भी !
धुंधलाने लगे सब पल
एक गुबार सा !
गुजर जाता है पास से
और दर्द का सैलाब
मेरी आँखों में कहीं !
ठहर नहीं पाता और
घुटना कई तरफ
मुड़ने लगा है !
घुटने सिकुड़ कर
जमीन को छूने लगे हैं
शायद रेंगने
की कोशिश
करते करते रक्त
रंजित हो गये
हो गये हैं !
बस तेरे इंतजार में
पथरा गया जिस्म
एक लाश बन कर !
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नन्द लाल भारती की कविताएँ
१-भारत माता की जय
आज़ादी का दिन वंदना दिवस
अमर जवान ज्योति तेरी जय हो
जय जय जय
भारत माता तेरी जय हो .............
राष्ट्रवाद -देशधर्म की जय हो
राष्ट्र भक्तों की जननी
भारत माता तेरी जय हो .............
शेष राष्ट्र प्रेम जिनमें
उन महान सपूतों के जय हो
राष्ट्र सेवा-शोषित उत्थान में
आगे जो उनकी जय हो
भारत माता तेरी जय हो .............
कर्जदार सदा रहेंगे
अमर शहीदों के हम
सदा कुसुमित वे
माता के सपूत महान
जन-जन की शान
जंजीरें तोड़ने वाले
भारत माता की आन
अमर शहीदों की जय
जय जय जय
भारत माता तेरी जय हो ..............
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२-गीत नया गायें
आओ गीत नया गायें
देश नया बनायें
समानता-सदभावना की
बगिया सजायें
देश को धर्म बनाए
यही ख्वाहिश प्यारे
यही संकल्प दोहराएं
शोषित-वंचित उत्थान
राष्ट्रहित में जीएं
और
शान से मर जाएं
आओ गीत नया गायें..................
तोड़ दे मन भेद की दीवारें
खोल दे बेड़ियां सारी
बने विकास के रास्ते
दबे-कुचले की ओर हाथ बढाएं
एक बने नेक बने
राष्ट्रहित ध्येय बनाये
आओ गीत नया गायें..................
जाति भेद-धर्मवाद क्या दिया
नफ़रत .............?
यही डंसा गुलामी इबारत लिखा
आज अत्याचार,भ्रष्टाचार है बढ़ा
वक्त की पुकार प्यारे
देश प्रेम और
शांति जीवन का आधार
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम
एक हो जाएं
भारत माता विहस जाए
आओ गीत नया गायें.
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3 दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी..........?
जीवन संघर्ष, माथे दहकता दर्द
अभाव की चिता पर, सुलगती काया
आँखों का रंग पीला -पीला
तन का रंग काला
डंसती दिन की बेचैनी
डंसता पूरी रात सन्नाटा
जन्म मरन का हिसाब
जवानी कब बदली बुढौती में
वंचित आदमी की
नहीं मिलता कोई लेखा जोखा
दुःख भरी जीवन कहानी
तन से झराझर श्रम
आँखों से रिसता पानी
अभाव का पुलिंदा
जीवन सार शोषित वंचित आदमी का
बार-बार डूबते सूरज में
जीवन का उजास तलाशता
हाय रे चक्रव्यूह कभी ना टूटता
भेद -भ्रष्टाचार का बाण अचूक
वंचित के हक़ पर बार-बार लगता
कुव्यवस्था के पैमाने पर
नीच ठहरता
ना कोई मसीहा वंचित आदमी का अब
ना हक़ का रखवाला
कौन हरे दर्द कौन दे ऊँचाई
शोषित वंचित आदमी को
दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी
दीप्ति जी, सरल शब्दों में भी गंभीर मुद्दों को संवेदना के साथ जीवन की वास्तविकता से रूबरू कराती आपकी दोनों कविताएं बहुत कुछ कह जाती है । आपने 'दहशत में जीता है आदमी' और 'बिजूका बन रहा है आदमी' कहकर आम आदमी की जीवन व्यथा की परतों को उधेडा है । जीवन की हकीकत को प्रस्तुत करने का आपका अंदाज निराला है ।
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