गेब्रियल गर्सिया मारकेस की कहानी : मंगलवार की दुपहर

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स्‍पेनिश कहानी गेब्रियल गर्सिया मारकेस मंगलवार की दुपहर [मैक्‍सिको के महान लेखक गेब्रियल गर्सिया मारकेस जादुई यथार्थ के प्रणेता माने जाते...

स्‍पेनिश कहानी

गेब्रियल गर्सिया मारकेस

मंगलवार की दुपहर

[मैक्‍सिको के महान लेखक गेब्रियल गर्सिया मारकेस जादुई यथार्थ के प्रणेता माने जाते है। सौ वर्ष का एकांत, लीफ स्‍टार्म आपके विश्‍व प्रसिद्ध उपन्‍यास हैं।

पूर्व घोषित मृत्‍यु का रोज़नामचा, कर्नल को कोई ख़त नहीं लिखता लोकप्रिय कहानियाँ। मारकेस मैक्‍सिको में रहते हैं।

प्रस्‍तुत कहानी का अनुवाद कवि नरेन्‍द्र जैन ने किया है।]

ट्रे रेतीली चट्टानों की थरथराती सुरंग से प्रकट हुई और उसने बेहद लंबे और समतल केले के बागानों को पार करना शुरू कर दिया। हवा नम हो चुकी थी और उन्‍हें अब समुद्री हवा महसूस नहीं हो रही थी। डिब्‍बे की खिड़की से दमघोंटू धुआँ भीतर आ रहा था। पटरी के समानांतर संकरे रास्‍ते से केले के हरे गुच्‍छों से लदी बैलगाड़ियाँ जा रही थीं, सड़क के पार बेमेल अंतराल पर बग़ैर जुती हुई ज़मीन पर छत पर लटके पंखों वाले दफ़्‍तर, लाल ईटों की इमारतें, कुर्सियों और छज्‍जों पर डली छोटी मेज वाले मकान थे जो धूल भरे ताड़ के वृक्षों और गुलाब की झाड़ियों के इर्दगिर्द थे। सुबह के ग्‍यारह बज रहे थे और गर्मी अभी शुरू नहीं हुई थी।

‘अच्‍छा होगा तुम खिड़की बंद कर लो' स्‍त्री ने कहा- ‘तुम्‍हारे बाल कालिख से भर जायेंगे,' लड़की ने कोशिश की लेकिन ज़ंग लगने के कारण खिड़की का पल्‍ला बंद नहीं हुआ।

तीसरी श्रेणी के अकेले डिब्‍बे में वे दो ही यात्री थे। इंजन का धुआँ खिड़की की राह डिब्‍बे में आ रहा था। लड़की ने अपनी सीट छोड़ी और उनके पास जो सामान था उसे नीचे रखा। एक प्‍लास्‍टिक का झोला जिसमें खाने-पीने की चीज़ें थीं और अखबार में लिपटा फूलों का एक गुलदस्‍ता। वह अब सामने की सीट पर आ बैठी जो खिड़की से दूर थी और उसकी माँ के सामने थी। वे दोनों जर्जर और ग़रीब शोक वस्‍त्र पहने हुई थीं। लड़की बारह साल की थी और और ट्रेन में बैठने का उसका यह पहला

मौक़ा था। स्‍त्री अपनी पलकों की नीली नसों, अपनी छोटी सी नम्र अनगढ़ देह और लबादे की शक्‍ल के पहनावे के कारण उसकी माँ से भी ज़्‍यादा एक बुजुर्ग लग रही थी। अपनी सीट से रीढ़ को दबाये वह बैठी थी और दोनों हाथों में एक बेहद घिसा हुआ चमड़े का थैला लिये थी। ग़रीबी की आदी किसी स्‍त्री की तरह वह अपूर्व शांति से लैस थी। बारह बजे के आसपास गर्मी का प्रकोप शुरू हुआ। ट्रेन दस मिनट के लिये पानी लेने के कारण एक ऐसे स्‍टेशन पर रुकी जहाँ कोई कस्‍बा नहीं था।

बाहर बाग़ानों की रहस्‍यमयी ख़ामोशी में साफ सुथरी परछाइयाँ थीं लेकिन डिब्‍बे के अंदर ठहरी हुई हवा से बग़ैर पकाये गये चमड़े की बू आ रही थी। ट्रेन ने गति नहीं पकड़ी। वह एक से दिखने वाले क़स्‍बों में रुकी जहाँ मकान चमकदार रंगों से पुते हुए थे। स्‍त्री का सिर हिला और वह नींद में डूब गई। लड़की ने अपनी जूतियाँ उतार दीं। फिर वह बाथरूम तक गई जहाँ उसने फूलों के गुलदस्‍ते पर पानी छिड़का। जब वह अपनी सीट पर लौटी उसकी माँ खाने के लिये उसका इंतज़ार कर रही थी। उसने उसे पनीर का एक टुकड़ा, मकई का आधा केक और एक बिस्‍कुट दिया और इतना ही हिस्‍सा खुद के लिये प्‍लास्‍टिक के झोले से निकाला। जब वे खा रहे थे, ट्रेन धीमी गति से एक लोहे के पुल को पार करने लगी और उसने पहले के कस्‍बों जैसा ही एक और क़स्‍बा पार किया। फ़र्क़ सिर्फ़ यह था कि इस एक क़स्‍बे में चौराहे पर भीड़ थी। दमनकारी सूरज के नीचे एक बैंड जीवन धुन बजा रहा था। क़स्‍बे के दूसरी तरफ़ बाग़ान एक मैदान में जाकर खत्‍म हो गये थे जहाँ ज़मीन सूखे के कारण दरारों से अँटी पड़ी थी। स्‍त्री ने खाना बंद किया। ‘अपनी जूतियाँ पहन लो' उसने कहा। लड़की ने बाहर देखा। उजाड़ समतल मैदान के सिवा उसे कुछ नज़र नहीं आया। ट्रेन ने फिर गति पकड़ी और बिस्‍कुट का आखिरी टुकड़ा उसने झोले में डाल दिया और जल्‍द से अपनी जूतियाँ पहन लीं। स्‍त्री ने उसे एक कंघी दी।

‘अपने बालों में कंघी कर लो,' उसने कहा- लड़की जब अपने बालों में कंघी कर रही थी तब ट्रेन ने सीटी बजायी। स्‍त्री ने लड़की की गर्दन का पसीना और चेहरे का तेल अपनी उँगुलियों से पोंछ दिया। जब लड़की ने कंघी करना बंद किया, ट्रेन एक विस्‍तृत लेकिन पिछले तमाम क़स्‍बों से ज़्‍यादा उदास क़स्‍बे के मकानों के पास से गुज़र रही थी। ‘यदि तुम कुछ करने जैसा महसूस कर रही हो तो कर लो,' स्‍त्री ने कहा। ‘बाद में प्‍यास से मर भी रही हो तो भी कहीं पानी मत पीना और रोना-धोना बिल्‍कुल नहीं।'

लड़की ने अपना सिर हिलाया। खिड़की से सूखी जलती हुई हवा का झोंका भीतर आया। उसके संग इंजिन की सीटी का शब्‍द और रेल के डिब्‍बों की खड़खड़ाहट भी सुनायी दी। स्‍त्री ने प्‍लास्‍टिक के झोले को तह किया जिसमें बचा हुआ खाना था और उसे चमड़े के बैग में रखा। एक क्षण के लिये क़स्‍बे का समूचा चित्र उस चमकीले अगस्‍त के मंगलवार को खिड़की पर दिखलायी दिया। भीगे हुए अख्‍़ाबार में लड़की ने गुलदस्‍ते को संजोया। खिड़की से ज़रा आगे बढ़ी और अपनी माँ की ओर देखने लगी। बदले में उसे माँ से एक सुखद अहसास मिला। ट्रेन ने सीटी दी और चल पड़ी। एक क्षण बाद वह रुक गई।

स्‍टेशन पर कोई नहीं था। गली की दूसरी तरफ़ बादाम के पेड़ों वाले रास्‍ते पर मनोरंजन कक्ष खुला हुआ था। क़स्‍बा गर्मी की तपन में तैर रहा था। स्‍त्री और लड़की ट्रेन से उतरे और परित्‍यक्‍त स्‍टेशन को उन्‍होंने पार किया। वहाँ उखड़ी हुई फर्शियों के बीच घास उग आयी थी।

दो बज रहे थे। उस प्रहर में ऊंघ में डूबा हुआ क़स्‍बा दोपहर के आराम के वक़्‍त झपकी ले रहा था। दुकानें, क़स्‍बे का दफ़्‍तर और पाठशाला ग्‍यारह बजे बंद हो चुके थे और चार बजे ही वे सब खुलने को थे, उस वक़्‍त ट्रेन वापिस लौट रही होती। सिर्फ़ स्‍टेशन के सामने स्‍थित होटल, उसका शराबघर, मनोरंजन कक्ष और चौराहे के एक ओर स्‍थित तारघर ही खुला हुआ था। मकान जिनमें से बहुत से केले की कंपनी के नक्‍शे पर तामीर किये गये थे, अंदर से बंद थे और उनके परदे गिरे हुए थे। उनमें से कुछ में गर्मी ऐसी थी कि उनके रहवासी बरामदे में बैठे खाना खा रहे थे। कुछ दूसरे दीवारों के सहारे कुर्सियाँ डाले बादाम के वृक्षों के बीच दुपहर की झपकी में डूबे हुए थे। बादाम के वृक्षों की सुरक्षित छाया में स्‍त्री और लड़की ने दुपहर के आराम को व्‍यवधान पहुँचाये बग़ैर क़स्‍बे में प्रवेश किया। वे सीधे पादरी के घर पहुँचे। स्‍त्री ने अपने नाखूनों से दरवाज़े की लोहे की जाली पर आवाज़ की और एक क्षण की प्रतीक्षा की। उसने दोबारा ठकठकाया। अंदर बिजली का पंखा चल रहा था। उन्‍होंने पदचापें नहीं सुनीं। दरवाज़े की चरमराहट भी बमुश्‍किल सुनी और एकाएक धातु से बनी जाली के पास एक चौकस आवाज़ सुनायी दी- कौन है? स्‍त्री ने जाली के पार देखने की कोशिश की।

‘मुझे पादरी की ज़रूरत है' स्‍त्री ने कहा।

‘वे अभी सो रहे हैं' ।

‘यह एक आपातकालीन परिस्‍थिति है' स्‍त्री ने जोर देकर कहा।

उसकी आवाज़ में एक संयत दृढ़ता थी। बग़ैर आवाज़ किये दरवाज़ा खुला और एक मोटी बुजुर्ग स्‍त्री प्रकट हुई। उसकी त्‍वचा बेहद जर्द और बाल लोहे की रंगत लिये हुए थे। चश्‍मे के मोटे शीशों के पार उसकी आंखें बेहद छोटी दिखलायी दे रही थीं। ‘अंदर आओ' उसने कहा और दरवाज़ा खोल दिया। वे उस कमरे में प्रविष्‍ट हुए जो फूलों की बासी खुशबू से भरा हुआ था। घर की स्‍त्री उन्‍हें लकड़ी की बेंच तक ले गयी और बैठने का संकेत दिया। लड़की बैठ गयी लेकिन कहीं खोयी सी वह स्‍त्री अपने झोले को दोनों बाहों में दबाये खड़ी रही। बिजली के पंखे के पार कोई आवाज़ सुनायी नहीं दे रही थी।

घर के अंतिम सिरे के दरवाज़े से स्‍त्री दोबारा प्रकट हुई। उनका कहना है कि तुम्‍हें तीन बजे के बाद आना चाहिये। उसने धीमे स्‍वरों से कहा! अभी पांच मिनट पहले ही बिस्‍तर पर लेटे हैं।

‘ट्रेन तीन बजकर तीस मिनट पर छूट जायेगी' स्‍त्री ने कहा। यह एक संक्षिप्‍त और माकूल जवाब था लेकिन आवाज़ ठीकठाक और निहितार्थों से भरी। घर की स्‍त्री पहली बार मुस्‍करायी, ‘ठीक है', उसने कहा।

जब दरवाज़ा बंद हुआ, स्‍त्री लड़की के पास बैठ गयी। वह संकीर्ण प्रतीक्षालय साफ़-सुथरा लेकिन दयनीय लग रहा था। लकड़ी से खड़ी की गयी आड़ की दूसरी तरफ़ काम करने की मेज़ जिस पर मेज़पोश बिछा था और फूलदान के बाजू में एक पुरातन टाईपरायटर। चर्च के दस्‍तावेज़ इसके बाद थे। कोई देख सकता था कि यह एक ऐसा दफ़्‍तर था जो एक अविवाहिता स्‍त्री चला रही थी। दरवाज़ा खुला और इस बार पादरी प्रकट हुए। वे रूमाल से अपना चश्‍मा साफ़ कर रहे थे। जब उन्‍होंने चश्‍मा पहना तभी यह ज्ञात हुआ कि वे दरवाज़े पर आयी स्‍त्री के भाई हैं।

‘मैं तुम्‍हारी मदद कैसे कर सकता हूँ?' उन्‍होंने पूछा।

‘मुझे क़ब्रिस्‍तान की चाबियाँ चाहिये', स्‍त्री ने कहा।

लड़की अपनी गोद में फूल लिये बैठी थी। बेंच के नीचे उसके पैर आपस में गुंथे हुए थे। पादरी ने उसे देखा। फिर स्‍त्री को देखा और खिड़की की तार से बनी जाली से बादल रहित चमकीले आकाश को ‘ऐसी गर्मी में', उन्‍होंने कहा- ‘तुम्‍हें सूरज डूबने तक प्रतीक्षा करनी चाहिये थी' स्‍त्री ने ख्‍़ाामोशी से सिर हिलाया, पादरी लकड़ी की आड़ के पार गया और अलमारी से उसने एक नोटबुक , लकड़ी की क़लम और स्‍याही की दवात निकाली। वह मेज़ के पास बैठ गया। उसके हाथों पर ज़रूरत से ज़्‍यादा बाल थे जो उसके गंजे सिर पर बालों की कमी को जैसे पूरा कर रहे थे।

‘तुम किस क़ब्र को देखना चाहती हो', उन्‍होंने पूछा।

‘कार्लो सेंटेनो की क़ब्र' स्‍त्री ने जवाब दिया।

‘कौन?'

‘कार्लो सेंटेनो' स्‍त्री ने दुहराया। पादरी को कुछ भी समझ में नहीं आया।

‘वह एक चोर था जो पिछले सप्‍ताह यहाँ मारा गया था', स्‍त्री ने उसी स्‍वर में जवाब दिया, ‘मैं उसकी मां हूँ।' पादरी ने उसे ग़ौर से देखा, अपने पर काबू रखते हुए स्‍त्री ने उसे देखा और पादरी शरमा-से गये। उन्‍होंने सिर झुकाया और लिखने लगे। जब वे पृष्‍ठ भर चुके, उन्‍होंने स्‍त्री से तस्‍दीक करने के लिये कहा और ब्‍यौरों को पढ़ते हुए बग़ैर संकोच के वह जवाब देती रही। पादरी को पसीना आने लगा। लड़की ने अपनी बायीं जूती का बक्‍कल खोला और एड़ी बाहर निकाल कर बेंच के पायदान पर पैर रख दिया। उसने दायें पैर का भी यही किया।

वह सब पिछले सप्‍ताह के सोमवार को सुबह के तीन बजे यहाँ से कुछ दूर ही घटित हुआ था। रेबेका जो एक अकेली विधवा थी और अनर्गल चीज़ों से भरे अपने घर में रहती थी। उसने बारिश की फुहारों के बीच सुना कि मुख्‍यद्वार को कोई बाहर से खोलने की कोशिश कर रहा है। वह उठी और अलमारी से उस पुरातन रिवाल्‍वर को ढूंढ़ने लगी जिसे ‘कर्नल आरेलियानो बुदिया' के ज़माने से किसी ने इस्‍तेमाल नहीं किया था। और बग़ैर बत्ती जलाये वह शयनकक्ष में पहुंची। ताले के क़रीब घटित हो रही ध्‍वनियों से नहीं, बल्‍कि अपने अट्‌ठाइस वर्षों के एकाकी जीवन के कारण पैदा हुए भय से उसने कल्‍पना में उस दरवाजे को ही नहीं देखा, ताले की वास्‍तविक ऊँचाई का आकलन भी कर लिया। रिवाल्‍वर उसने दोनों हाथों में थामा और ट्रिगर दबा दिया। जीवन में पहली बार वह रिवाल्‍वर चला रही थी। धमाके के तुरंत बाद उसने जस्‍ते की छत पर गिरती बारिश की बुदबुदाहट के सिवा कुछ भी नहीं सुना फिर उसने सीमेंट के आंगन में किसी के गिरने की धातुई आवाज़ सुनी जो बेहद धीमी, खुशनुमा और भयावह रूप से थकी हुई लगी, ‘आह! मेरी माँ!

सुबह जब दरवाजे़ के बाहर उन्‍होंने उस आदमी को पाया, उसकी नाक के चिथड़े उड़ चुके थे। वह फ़लालैन की कमीज़, रोज़मर्रा की पतलून जिसमें धारीदार बेल्‍ट एक रस्‍सी थी, पहने हुए था और उसके पैर नंगे थे। क़स्‍बे में किसी ने उसकी शिनाख्‍़त नहीं की। जब पादरी ने लिखना बंद किया, वे बुदबुदाये, ‘तो उसका नाम कार्लोस सेंटेनो था।'

‘सेंटेनो अयाला', स्‍त्री ने कहा, ‘वह मेरा इकलौता बेटा था।'

पादरी दोबारा अलमारी तक गये। उसके द्वार के भीतर दो ज़ग लगी चाबियाँ लटक रही थीं। लड़की ने कल्‍पना की, जैसे कि माँ ने, जब वह लड़की हुआ करती थी, कल्‍पना की होगी और स्‍वयं पादरी ने कभी कल्‍पना की होगी वे संत पीटर की चाबियाँ हैं। उन्‍होंने चाबियों को उतारा। खुली नोटबुक पर रखा और अपने लिखे हुए पृष्‍ठ की ओर अंगुली से संकेत किया ‘यहाँ दस्‍तख़त करो', उन्‍होंने कहा। स्‍त्री ने अपनी बगल में झोला दबाये हुए अपना नाम लिखा। लड़की ने फूल उठाये और आड़ के समीप आकर सावधानीपूर्वक अपनी माँ को देखने लगी।

पादरी ने आह भरी, ‘उसे सही रास्‍ते पर लाने के लिये क्‍या तुमने कभी कोशिश की थी?' दस्‍तखत करने के बाद स्‍त्री ने जवाब दिया ‘वह एक बहुत अच्‍छा इंसान था।' पादरी ने पहले स्‍त्री और बाद में लड़की की ओर देखा और एक किस्‍म के पवित्र अचरज में डूबकर महसूस किया कि वे दोनों रोने नहीं जा रहीं। स्‍त्री ने उसी स्‍वर में कहा, ‘मैंने उससे कहा था कि वह कभी ऐसी चीज़ न चुराये जो किसी के मुंह का निवाला हो सकती है और उसने मुझे विश्‍वास दिलाया था, बल्‍कि, दूसरी तरफ़ जब वह बॉक्‍सिंग किया करता था, बॉक्‍सिंग की चोटों से आहत तीन दिन बिस्‍तर पर ही व्‍यतीत किया करता था।

‘उसे अपने सारे दांत निकलवाने पड़े थे,' लड़की ने बीच में कहा।

‘यह सच है,' स्‍त्री ने सहमति व्‍यक्‍त की, ‘उन दिनों मेरे मुंह का हर निवाला मेरे बेटे को शनिवार की रातों को पहुंचायी जाती चोटों के स्‍वाद से भरा हुआ होता था।'

‘ईश्‍वर की इच्‍छा तर्कों से परे है' पादरी ने जवाब दिया। उसने सुझाव दिया कि लू से बचने के लिये वे अपने सिर ढंककर रखें। जम्‍हाई लेते और लगभग नींद में गर्क़ होते हुए उन्‍होंने हिदायत दी कि कार्लोस सेंटेना की क़ब्र कैसे ढूंढ़ी जा सकती है और कि जब वे लौटें उन्‍हें दरवाज़े पर दस्‍तक नहीं देना चाहिये। चाबियाँ दरवाज़े के नीचे डाल दी जायें और उसी स्‍थान पर यदि वे कर सकें, चर्च के लिये दान करना चाहिये। स्‍त्री ने उनके निर्देशों को ध्‍यान से सुना लेकिन बग़ैर मुस्‍कराये उन्‍हें धन्‍यवाद दिया। दरवाज़ा खोलने से पहले पादरी को लगा कि कोई भीतर झांक रहा है और लोहे की जाली से उसकी नाक सटी हुई है। बाहर बच्‍चों का एक झुंड था जब दरवाज़ा पूरी तरह खोल दिया गया, बच्‍चे तितर-बितर हो चुके थे। साधारणतः उस प्रहर में गली में कोई भी नहीं हुआ करता था। अब वहां केवल बच्‍चे ही नहीं थे, बादाम के वृक्षों के नीचे अलग-अलग झुंडों में लोग बाग़ खड़े थे। पादरी ने गर्मी से बजबजाती गली को देखा और वे सब कुछ समझ गये। हौले से उन्‍होंने दरवाज़ा बंद कर दिया। ‘एक पल रुको' स्‍त्री की ओर देखे बग़ैर वे बोले। अपनी रात की कमीज़ पर काली जैकेट पहने और कंधों पर बाल गिराये उनकी बहन दरवाजे़ पर प्रकट हुई। वह खामोशी से पादरी को देखने लगी।

‘क्‍या हुआ', पादरी ने पूछा।

‘लोगों को मालूम हो चुका है', उनकी बहन ने फुसफुसाकर कहा।

‘बेहतर होगा तुम लोग बरामदे वाले दरवाज़े से निकल जाओ', पादरी ने कहा।

‘वहां भी वही कुछ होगा', बहन ने जवाब दिया- ‘हर एक शख्‍़स खिड़की से लगा हुआ है।'

स्‍त्री तब तक कुछ भी समझ नहीं पायी थी। लौह जाली के पार उसने गली में देखने की कोशिश की फिर उसने फूलों का गुलदस्‍ता लड़की से ले लिया। वह दरवाज़े की ओर बढ़ी। लड़की उसके पीछे थी।

पादरी ने कहा-‘सूरज डूबने तक रुक जाओ, धूप में तुम पिघल जाओगी।'

उनकी बहन बोली- ‘प्रतीक्षा कर लो और मैं अपनी छतरी तुझे दे दूंगी'।

‘धन्‍यवाद' स्‍त्री ने कहा- ‘हम ठीकठाक हैं' उसने लड़की का हाथ पकड़ा और गली में निकल पड़ी।

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: गेब्रियल गर्सिया मारकेस की कहानी : मंगलवार की दुपहर
गेब्रियल गर्सिया मारकेस की कहानी : मंगलवार की दुपहर
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