उत्तर आधुनिकता की दौड़ में संगीत - चिकित्सा - एक बेहतर विकल्प डॉ0 ज्योति सिन्हा डॉ 0 ज्योति सिन्हा लेखन के क्षेत्र में एक जा...
उत्तर आधुनिकता की दौड़ में संगीत-चिकित्सा-एक बेहतर विकल्प
डॉ0 ज्योति सिन्हा
डॉ0 ज्योति सिन्हा लेखन के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक सरोकारों की प्रगतिवादी लेखिका साहित्यिक क्षेत्र में भी अपने निरन्तर लेखन के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाती रही हैं। संगीत विषयक आपने पॉच पुस्तकों का सृजन किया है। आपके लेखन में मौलिकता, वैज्ञानिकता के साथ-साथ मानव मूल्य तथा मनुष्यता की बात देखने को मिलती है। अपने वैयक्तिक जीवन में एक सफल समाज सेवी होने के साथ महाविद्यालय में संगीत की प्राघ्यापिका भी हैं ! आपको जौनपुर के भजन सम्राट कायस्थ कल्याण समिति की ओर से संगीत सम्मान, जौनपुर महोत्सव में जौनपुर के कला और संस्कृति के क्षेत्रा में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। संस्कार भारती, सद्भावना क्लब, राष्ट्रीय सेवा योजना एवं अन्य साहित्यिक, राजनीतिक एवं इन अनेक संस्थाओं से सम्मानित हो चुकी डॉ0 ज्योति सिन्हा के कार्यक्रम आकाशवाणी पर देखें एवं सुने जा सकते हैं। आप वर्तमान में अनेक सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्व होने के साथ अनेक पत्रिाकाओं के सम्पादक मण्डल में शोभायमान है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में संगीत चिकित्सा (2010-12) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
उत्तर आधुनिकता की दौड़ में संगीत-चिकित्सा- बेहतर विकल्प
डॉ0 ज्योति सिन्हा
प्रवक्ता-संगीत विभाग
भारती महिला पी0जी0 कालेज, जौनपुर
एवं
रिसर्च ऐसोसियेट
उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास , शिमला, हिमांचल प्रदेश
समय सदैव गतिशील व परिवर्तनशील होता हैं। आज जो हैं, जैसा हैं, वह पहले नही था। प्राचीनता, मध्यकालीनता, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता समय की काल की विभिन्न अवस्वथायें हैं। प्रत्येक काल की परीस्थितियाँ, अच्छी हो या बुरी ,तत्कालीन सोंच का परिणाम होती हैं। प्रत्येक काल पूर्व की तुलना में बदला हुआ दिखाई देता हैं। जिससे उस समय के मूल्य,मानदण्ड़, सौन्दर्य बोध, अभिरूचियाँ व तर्क प्रणाली पहले की तुलना में भिन्न होती है। प्राचीन काल में मानव प्राकृतिक शक्तियों के प्रति भय, रहस्य, और विस्मय से भरा हुआ था। प्रकृति, शक्ति के प्रमुख स्रोत के रूप में सहज स्वीकार्य थी। इसी भाव से भरा मनुष्य प्राकृतिक शक्तियों यथा-सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, पेड़-पौघे तथा जल वायु की पूजा कर स्वयं के लिए शान्ति व सुरक्षा की याचना करता था, परन्तु मध्यकाल तक आते-आते शक्तियों का मानवीकरण रूप अत्यन्त प्रबल रूप में रहा। जैसे-जैसे मानव ने अपने ज्ञान का प्रयोग किया, विचारधारायें परिवर्तित होती गयी। आधुनिक काल में विज्ञान के बढ़ते प्रभाव ने प्रकृति के रहस्यों को जाना, जिसके परिणाम स्वरूप जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण विकसित हुआ। मध्यकाल में जहाँ अन्धविश्वास अन्धानुकरण, पलायनवाद, भाग्यवाद, परलोकोन्मुखता इत्यादि तत्व सर्वोपरि दिखाई देते हैं, वहीं इन सबके विरूद्व आधुनिकता के मूल में है स्वचेतना और तर्क विर्तक। इस नयी सोंच व नये युग ने जीवन के समस्त क्षेत्रों को प्रभावित किया।
सम्पूर्ण विश्व आज उत्तर आधुनिकता के संक्रमणकाल के दौर से बड़ी तेज रफ्तार से बदल रहा है। आज इस दौर में एक वर्ग ऐसा है जो अपने को सभ्य कहते हुये उत्तर आधुनिकता की ताल से ताल मिलाकर चलना चाहता है। जिसके लिये वह अपनी पुरानी सभ्यता व संस्कृति की भी परवाह नहीं कर रहा है। संस्कार व परम्परायें उसके लिये बेमानी है, ढकोसले है। वहीं दूसरी और एक वर्ग ऐसा है जो उत्तर आधुनिकता की अंधी दौड़ से अपने को अलग रखा है तथा अपनी संस्कृति व परम्पराओं को बचाये रखना चाहता है। विद्वानों की राय में उत्तर आधुनिकता को लेकर सबकी अपनी-अपनी सोंच है अपनी अपनी दृष्टि है। फिर भी सम्पूर्ण में यही कहा जा सकता है कुछ लोगों के लिये यह चिन्ता, निराशा व बचाव का, कुछ वर्गों के लिये स्वागत का तथा कुछ वर्गों के लिये प्रखर विरोध एवं अंततः समर्पण का है।
आज जिसे हम वैश्वीकरण, भूमण्डलीकरण व ग्लोबल वार्मिर्ंग कहते हैं। ये सभी शब्द उत्तर आधुनिकता की देन है। इस उत्तर आधुनिकता की कोई सम्पूर्ण परिभाषा नहीं फिर भी यह स्पष्ट है कि उत्तर आधुनिकता, पूंजीवाद पर आधारित, इलेक्ट्रानिक मीडिया की ताकत, विज्ञापन की ताकत, फैशन के पल-पल परिवर्तित रूप, शैलियों के तेज चक्र, भूमण्डलीय, वैश्विक, स्तरीकरण एवं नव उपनिवेशवाद का नाम है।
आज विज्ञान नें विभिन्न अविष्कारों के माध्यम से व्यक्ति पर अपना पूर्णतः आधिपत्य जमा लिया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे यंत्र के प्रयोग ने मानव को स्वयं एक यंत्र बना दिया है। आज व्यावसायिकरण इस कदर हावी है कि व्यक्ति का मूल्य उसकी क्रय शक्ति के आधार पर आंका जा रहा है। इन समस्त परिवर्तनों ने मानव की जीवन पद्वति को बदल दिया है। उसकी सोच को बदल दिया है, उसके गुण धर्म को भी प्रभावित किया है। उत्तर आधुनिकता का प्रमुख बिन्दू भूमण्डलीकरण ने भाषा, धर्म, कला, के साथ-साथ हमारी संस्कृति को भी प्रभावित किया है।
भारत विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं को सुरक्षित रखने वाला अनेक जातियों संस्कृतियों का देश है। यहां सैकड़ों जनजातियाँ, उनके रहन-सहन, आचार-विचार, खान-पान, वेशभूषा, विविध त्यौहारों, विविध प्रकार की भाषायें तथा साथ ही विविध प्रकार के मनोरंजन के साधन है। अपना-अपना गीत-संगीत हैं जो उनके जीवन को ऊर्जावान बनाता हैं। देश-काल और परीस्थिति के साथ हमारी सोच और चिन्तन में भी परिवर्तन होते रहते हैं। चूकि संंमय के साथ मूल्य और मर्यादायें तथा साथ ही मिथक व मान्यतायें भी बदलती रहती हैं। अत़ः काल क्रम से कलाओं के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। कलायें जो मानव मन की संवेदनाओं, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है, जीवन की सार्थकता को बयां करती है, जीवन जीने की कला सिखाती है, तथा साथ ही हमारे अतीत का दर्पण होती है। समस्त कलाओ ंमें संगीत विधा सर्वोपरि है। भारतीय संगीत में भी यह परिवर्तन निश्चित रूप से दिखाई देता है।
साम गायन, जाति गायन फिर राग गायन के अन्तर्गत ध्रुवपद, धमार, ख्याल, ठुमरी, दादरा इत्यादि शैलियां, समयानुकूल प्रवृत्तियों का परिणाम है। प्राचीन गायन शैलियां युगीन सन्दर्भों में अपने स्वरूप में भी परिवर्तन करती रही है। फिर भी मूल में वह अपनी विशेषताओं को बनाये रखती है। अनेको संस्कृतियां आई और गयी परन्तु भारतीय संगीत ने अपनी मधुरता, सरलता सहजता को यथावत्््् बनाये रखा, उन विशिष्टताओं को कायम रखा जिसनें उसे विश्व संगीत के इतिहास में सूर्य के समान दैदीप्यमान बनाये रखा है। भारतीय संगीत केवल स्वरों का ताना-बाना नही है और ना ही केवल मनोविनोद का साधन है बल्कि समस्त मानव जाति के मन को संस्कार, शरीर को प्राण एवं लोक कल्याण की भावना की प्ररेणास्रोत बनकर मनुष्यता का निर्माण करनें में सक्षम है।
जिस प्रकार स्त्री विमर्श व दलित विमर्श उत्तर आधुनिकता का महत्वपूर्ण मुद्दा है, उसी प्रकार संगीत के क्षेत्र में ‘‘संगीत चिकित्सा'' यानि एक विशेष अभियान है जिस पर विशद् कार्य अनुसंधान हो रहा है। तथा इसका सफल परिणाम सामने आ रहा है। इन परिणामों का उपयोग उन्ही कारणों के निराकरण के लिये हो रहा है जिसे उत्तर आधुनिकता ने भेंट स्वरूप दिया है, यानि चिन्ता, तनाव, हताशा, निराशा, पीड़ा, वेदना इत्यादि। आगे बढ़ने और अपने जीवन को सर्वसुविधायुक्त बनाने की चाह में मनुष्य इस कदर व्यस्त है कि उसे अपने शरीर की चिन्ता नाम मात्र भी नहीं। वास्तव में मानव शरीर प्रकृति की धरोहर है। जिसे स्वस्थ रखना प्रत्येक मनुष्य की जिम्मेदारी है। परन्तु आज इस संकटग्रस्त समाज में हर व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के तनाव से ग्रसित है। ऐसे में मनुष्य को स्वस्थ बनाये रखनें, व्याधियों से दूर रखने के लिये अनेक अनुसंधान हो रहे हैं। जिसमें संगीत-चिकित्सा पद्धति को भी एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में अपनाये जाने पर विश्व के अनेक विकसित देशों के साथ-साथ भारत मे भी अनुसंधान हो रहे है।
संगीत की सुमधुर स्वर लहरियों से विकार-विकृतियों का उपचार ही संगीत चिकित्सा अथवा डनेपब ज्ीमतंचल है। इन स्वर लहरियों से जहां तन मन जाग्रत होता है, वहीं स्वस्थ वातावरण का निर्माण होता है। जहां अन्य औषधिय प्रणालियां निदान के साथ-साथ किसी न किसी रूप में अपने दुष्परिणाम भी देती है। ऐसे में संगीत चिकित्सा अवश्य ही सिर्फ और सिर्फ निदान करती है। संगीत यद्यपि अपने विविध रूपों में मानव जीवन के लिये रक्तिदायक एवं मुक्तिदायक रहा है परन्तु इसके साथ ही जन सामान्य के लिये, इसके चिकित्सा रूपी उपयोगी पक्ष को जीवन के विविध आयामों में उतारकर चिकित्सा का प्रारूप दिया गया। संगीत एक ऐसा पोषक तत्व है जो मन और आत्मा के लिये औषधि का कार्य करता है। इसके सफल परिणामों को देखकर आज विषाद ग्रस्त समाज इस चिकित्सा पद्वति की ओर आशाभरी निगाहों से देख रहा है।
भारतीय चिन्तन के अनुसार चौसठ कलायें मानी गई हैं। इनमें ललित विशिष्टता कलायें, अन्य कलाओं से कुछ विशिष्ट्ता रखती है । सभी कलाये ललित कला नही हो सकती । ललित कलायें अपने भावनात्मक प्र्रदर्शन से विशुद्ध अलौकिक आनन्द की अनुभूति कराती है। यह आनन्द, अलौकिक विलक्षण अतुलनीय तथा अवर्णनीय है। ललित कलाओ में भी संगीत का स्थान सर्वोच्च है। क्योंकि इसके उपकरण ही अतयंत अमूर्त एवं चल है। जहां काव्य के उपकरण भाषा और भाव, चित्रकला के रेखा और रंग है, ‘वही‘ संगीत के मुख्य उपकरण ‘स्वर‘ और‘लय‘ है। ‘स्वर और लय' के व्यवस्थित रूप धारण करने पर जिस कला का प्रादुर्भाव होता है वही संगीत है। जिसके अर्न्तगत गायन -वादन-नृत्य तीनो का ही समावेश माना गया है। स्वर और लय ही संगीत कला का संचालन कर रहे है । अतः संगीत वह सक्षम ललित कला है जिसका आधार नाद है। ‘नाद‘ और गति संगीत के ये दो मुख्य तत्व हमें प्रकृति से ही प्राप्त हुये है। विशेषता यह है कि प्रकृति में समाविष्ट नाद और गति को मानव ने अपनी बुि़द्ध से परिष्कृत किया तथा उसे परिमार्जित रूप प्रदान किया। नाद तथा गति के ही परिमार्जित रूप स्वर और लय के रूप में प्रस्फुटित हुये। इस विशिष्ट विशिष्टता के कारण ही ललित कलाओं में संगीत अपना एक अनूठा, चमत्कारिक और सम्मानपूर्ण स्थान बनायें हुये हैं। मनुष्य कें साथ-साथ जीव'-जन्तु भी संगीत के जादुई प्रभाव से वंचित नही है । बीन की धुन पर सर्प का झूमना इसी प्रभाव को स्पष्ट करती है।
नाद की प्रशंसा में वृद्धद्देशी में उल्लिखित है कि
‘‘नाद रूपः स्मृतो ब्रहमा नाद रूपो जनार्दनः
नाद रूपा पराशक्तिनाद रूपों महेश्वरः‘‘।1
वहीं संगीत की प्रशंसा में संगीत रत्नाकर' में
इस प्रकार उल्लेख मिलता है-
‘‘सामगीतिरतो ब्रह्मा, वीणासक्ता सरस्वती।
किमन्ये यक्षगन्धर्व देव दानव मानवाः॥
तस्य गीतस्य महात्म्यंके के प्रशंसितुमीशते।
धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैक साधनम्॥2
संगीत का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव-मनोभावों का। मानव प्रयत्नों द्वारा संगीत कला विभिन्न युगों में उत्तरोत्तर विकसित होती गयी। वास्तव में प्राचीनता व नवीनता का सम्मिश्रण ही संगीत को सहज, सुन्दर, जनरूचि के अनुरूप एवं लोकप्रिय बनाता है। अतः भारतीय संगीत की सांस्कृतिक प्रक्रिया जितनी प्राचीन है, उतनी नवीन है।
भारतीय संगीत के सन्दर्भ में जब हम संगीत चिकित्सा की बात करते है, तो पाते है कि भारतीय संगीत का इतिहास ऐसे कथाओं में भरा है जो इस बात का ़द्योतक है कि संगीत में रोग निवारक की क्षमता है। अतीत से ही संगीत का उपयोग मानव की भौतिक, मानसिक, और मनोवैज्ञानिक दुर्बलताओं से मुक्त होने के लिये किया जाता रहा है। प्राचीन भारत के आर्य ऋषि लोगो की संगीत के विषय में यह धारणा रही है कि संगीत द्वारा मानव के मस्तिष्क को शान्ति मिलती है और वह अपनी शान्तिपूर्ण जीवन यात्रा समाप्त कर मोक्ष को प्राप्त होता है। उनके विचार से संगीत प्रेम, करूणा, दया और उदारता के भाव उत्पन्न करने का साधन हैं। वे इस बात पर विश्वास करते थे कि मानव शरीर स्वयं एक संगीत वाद्य है और संगत स्वर उसकी आत्मा है।
संगीत के चिकित्सकीय प्रयोग का उल्लेख ताम्र युग में मिलता है। ऐतिहासिक ग्रंथो से यह प्रमाण मिलता है कि-‘‘उस काल में जब कोई बीमार पड़ जाता था तो यह लोग उसे दवा नहीं देते थे, बल्कि संगीत द्वारा उसका उपचार करते थे और इस संगीतिक उपचार से अनेक व्यक्ति स्वस्थ और सुन्दर बन जाते थे''3। इसी प्रकार द्रविड़ो को भी संगीत के वैज्ञानिक रूप का पता था और उन्होने इसका प्रयोग चिकित्सा के रूप में किया इसका उल्लेख ‘डास्कीयोलो ने अपनी पुस्तक ष् ज्ीम भ्पेजवतल वि भ्नउंद त्ंबमष् में किया है।4
वेदो में सामवेद की गरिमा ‘‘वेदानांसामवेदो•स्मि'' से ही स्पष्ट हो जाती है। अभिव्यक्ति के तीन माध्यमों गद्य, पद्य एवं गायन में, गायन को भावविद्या में सबसे अग्रणी देखकर उसे विशेष महत्व दिया गया। भावतरंगों के रहस्यमय दिव्य प्रयोगों को सम्पन्न करनें वाले गान के मंत्रों को अपेक्षाकृत कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना गया ।
विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए साम गायन का प्रयोग विविध तरीकों से किया जाता था। कामनाओं में मनुष्य की सबसे बड़ी कामना ‘‘आयुष्य' की होती है। कुछ सामों के समुदाय को ‘‘अरिस्ट'' संज्ञा दी गयी। इस अरिस्ट वर्ग के एक या अनेक सामों का गान करनें से मनुष्य सौ वर्ष की आयु प्राप्त करता है। ‘पिबा सोमं' (साम 398) से उत्पन्न दो सामों का गान करने से मनुष्य दीर्घायु होता है।5
सुख, समृद्धि, पुष्टि आदि के लिये जो कर्म किया जाता है उनको पौष्टिक कर्म तथा रोग की निवृत्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उन्हे शान्तिक कर्म कहते हैं। इन दोनो प्रकार के कर्मों के लिये सामो के प्रयोग का विधान है। जैसे देवव्रत साम का (5.5. 212-214) सहस्रबार गान करके अग्नि में आहुति डालने से कल्याण की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार रोगादि के निवारण के लिये भी साम गानों का विधान मिलता है। रोग शान्ति की कामना करने वाले महारोगी की रोग के शान्ति के लिये- ‘विश्वापृतनाः' (साम 370) इस साम का गान करें। क्षुद्र रोग की शान्ति के लिये ‘शन्नो देवी'' (1, 2, 23) इस साम के गान तथा ‘क्षयरोग' की शान्ति के लिये अचोदस' इस साम का विधान मिलता है।6
इसी प्रकार अश्विनी कुमारो के ‘भैषज मंत्र' मे हर रोग के लिये चार प्रकार के भैषज कहे गये है। पावनौकष, जलौकष, बनौकष और शाब्दिक। क्रौंचमुनि के ग्रन्थ‘ कुर्णक प्रभा' के प्रथम प्रकरण में शब्द की व्युत्पत्ति, शब्द और शरीर का सम्बन्ध, शब्द समय में राग मान और शब्द विकृति के प्रकार दिये गये हैं। मैंद ऋषि ने अपने ग्रन्थ‘ शब्द-कौतुहल' में चार हजार श्लोकों को तीस प्रकरणों के अन्तर्गत विभाजित किया है। पहले प्रकरण में रोगी के शब्द से निदान शाब्दिक औषधि-वीणा तंत्री, प्रणव, शंख, भेरी, मृदंग, मजीरा, बंशी आदि बाजे भेषज से ही बनाने और उसे सुनाकर रोगाहरण का विवरण है। हर रोग के लिये पृथक-पृथक बाजों के शब्द और कौन किसके लिये प्रधान है, तथा तीसरे प्रकरण में अमूक प्रकार के श्रवण-मनन और कीर्तन से रोग हरण का विवरण है।7
‘सिद्व योग'- में अनाहतनाद के नौ गुण बताये गये हैं। जिनमें सबसे पहले ‘धोषात्मक' नाद प्रगट होता है, जो आत्म शुद्वि का उत्कृष्ट साधन है। वह उत्तम नाद सब रोगो को हर लेने वाला तथा मन को वशीभूत करके अपनी ओर खींचने वाला है।8
गायत्री महामंत्र की महाशक्ति से हमारे पूर्वज भलि भांति परिचित थे। गायत्री महामंत्र के चौबीस चमत्कारिेक महत्व, प्रभाव, बताये गये हैं। जिससे पन्द्रहवें प्रभाव में यह वर्णित हैं कि गायत्री मंत्रो के सस्वर जाप से कायिक कष्टों से मुक्ति, निवृत्ति मिलती हैं। गायत्री साधना से असाध्य रोग के रोगी को मौत के मुॅह से वापस लौटते देखा गया हैं। मंत्र एक ऐसी रामबाण औषधि हैं, जिसके सामने चिकित्सा शास्त्र मूक प्रतीत होता है।9
पाश्चात्य मनीषी भारतीय स्वर संगीत को अति प्राचीन एवं समृद्ध मानते हैं। इस सन्दर्भ मे मैकडानल नें ‘ए वैदिक ग्रामर फार स्टूडेन्ट'' नामक पुस्तक में वैदिक स्वर को संगीतमय कहा है क्योकि यह मुख्यतः स्वर की तारतम्यता पर अवलम्बित है। इसी तथ्य को ‘म्यूजिक अॉफ हिन्दुस्तान' में उल्लेख करते हैं कि वेदों में संगीत की अद्भूत तकनीके विद्यमान है ऋषि इसके विशेषज्ञ थे और इसका प्रयोग करते थे। फुर्ट शैक ने‘द राइज अॉफ म्यूजिक इन द एन्शियेन्ट वर्ल्ड' में तो वैदिक स्वर और संगीत को मानव जीवन का प्राण बताया है।10
महर्षि नारद ने संगीत मकरंद में लिखा है कि यश, लाभ, संतान, आयु इत्यादि के लिये पूर्ण जाति के रागों का प्रयोग करना चाहिये। संग्राम, रूप लावण्य, विरह और किसी के गुण कीर्तन की दशाओं में षौडव रागों का प्रयोग करना चाहिए किसी व्याधि को दूर करनें, शत्रु का नाश करनें और भय-शोक में किसी व्याधि या दारिद्रय के संताप या विषय ग्रह मोचन के लिए शारीरिक स्वथ्य और मंगल के लिए आडव रागों का प्रयोग करना चाहिए11-
आयु धर्म यशोबुद्धि धन-धान्य फलंलभेत्।
रागाभिबुद्धिसंतान पूर्ण रागाः प्रगीयत्े॥
संग्राम रूप लावण्यमं विरहं गुण कीर्तनम्।
षॉडवेन प्रगातव्यं लक्षण गदितं यथा॥
व्याधिनाशे, शत्रु नाशे भयशोक विनाशनें।
व्याधिदरिद्रय संतापे विषम ग्रहमोचनें॥
कायाडाम्बर नासे च मंगल विष संहते।
अॉडवेन प्रगातव्यं ग्राम शान्त्यथं कर्मणि॥
हमारा भारतीय संगीत वैदिक है, सनातन है, और वैज्ञानिक है। प्राचीन ऋषियों, मुनियों और महर्षियों ने इसकी महत्ता को भली भांति जाना एवं अनेक सिद्धियों को प्राप्त किया। इसी प्रकार सामाजिक जीवन में भी श्रम करते समय गीत गाना अथवा अलापना प्राचीन काल से रहा। मिट्टी के बर्तन बनाते वक्त, जाता पिसते वक्त, हल चलाते, खेतो में बुआई-निराई करते ओखली अथवा ढे़ेका में अन्न कूटते, मछली पकड़ते, शिकार करते तथा बच्चों को झूला झूलाते व सुलाते वक्त इन सभी कार्यों को करते समय श्रम का परिहार एवं इन्हें करनें की प्रेरणा भी स्वरों से मिली।
इस प्रकार किसी न किसी रूप में संगीत चिकित्सा सदैव ही रहा है।
यदि हम मध्यकालीन संगीत की चर्चा करें तो इस बात स्पष्ट होती है कि भारतीय संगीत का जो रूप वैदिक काल में रहा, यह काल में उससे भिन्न हो गया। संगीत की वन्दनीय पवित्र रूप अपने स्तर से हटकर मनोरंजनात्मक प्रभावों से अधिक प्रभावित हुआ। जो संगीत यज्ञ के अवसरों पर देवताओं को प्रसन्न करते थे। अब मध्य काल में राजदरबारों में आकर प्रतिष्ठित हुआ। फिर भी कुछ महान संगीतज्ञों द्वारा संगीत के प्रभाव से चमात्कारिक घटनायें उत्पन्न करनें के उदाहरण प्राप्त होते है। तानसेन द्वारा दीपक राग गाकर अग्नि प्रज्जवलित करना, मृगों को बुला लेना, मल्हार राग से वर्षा करा देना इत्यादि अनेकों घटनाओं की चर्चा विभिन्न ग्रंथो में मिलती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि संगीत के प्रभावों से सर्वसाधारण भलि-भांति परिचित थे। सूरदास, मीराबाई, कबीर जैसे संत संगीत की अपूर्व शक्ति से परिचित थे तभी उन्होने संगीत को अपनी भक्ति का माध्यम बनाया।
मध्यकाल में ही आचार्य शारंगदेव ने अपने ग्रन्थ संगीत रत्नाकर में, ‘स्वराध्याय' अध्याय में स्वरों की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए विभिन्न स्वरों से सम्बन्धित स्नायुवों, चक्रों, और शारीरिक अंगो का विवरण दिया है।
यद्यपि मध्यकाल संगीत के विकास के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रहा परन्तु इसके विज्ञान पक्ष की ओर उस स्तर से विचार नहीं हुआ जो वैदिक काल में रहा। इसकी अपेक्षा संगीत के कलाप़क्ष व भावपक्ष पर विशेष ध्यान दिया गया।
बीसवीं सदी जो विज्ञान के साथ आरम्भ हुआ तो फिर से संगीत पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया जाने लगा। इस क्षेत्र में संगीत के चिकित्सकीय प्रभाव को सिद्ध करनें का महत्वपूर्ण कार्य संगीत मार्तण्ड पं0 ओंकार नाथ ठाकुर ने किया। इटली के शासक जो अनिद्रा रोग से पीड़ित थे, पं0 जी ने आपने गायन से इस रोग को दूर किया। इसी तरह अपने गायन से खूखांर शेर को शांत कर वश में कियां।
पं0 जसराज जी ने भी अपने गायन से संगीत चिकित्सा द्वारा विभिन्न रोगो को दूर कर रोगियों को आराम एवं स्वास्थ्य लाभ प्रदान किया।
विदित है कि मथुरा निवासी राजा लक्ष्मण प्रसाद सिंह के सामने यदि कोई पीलू गाता था तो वे तुरन्त रोने लगते थे और उनका आत्म नियंत्रण समाप्त हो जाता है।
मैसूर के गणपति सच्चिदानंद जी ने नाद-चिकित्सा का उद्भावन किया था। संगीत मार्तण्ड उस्ताद चाँंद खाँं, संगीत चिाकित्सा का लाभ स्वयं अपने गायन से प्राप्त करते थे, जैसे पाचन शक्ति में कमी हो तो कुछ विशेष प्रकार की गमक की तान, जुकाम से नाक बन्द हो जाये तो मुंह बन्द तान (ग्रंथो में उल्लेखित मुद्रित गमक के स्वरूप) आदि का अभ्यास करते थे।
स्वामी शिवानंद महाराज ने, जो वीणा वादक भी थे, अध्यात्म के साथ संगीत को जोड़कर विविध प्रयोग किया। इस प्रकार अनेक संगीतज्ञों ने अपने गायन से स्वास्थ्य लाभ के लिये संगीत चिकित्सा का प्रयोग किया।
भारत में जो सफल प्रयोग किये गये उसका प्रमाण हमें डॉ0 जैक्सन पाल की पुस्तक ‘संगीत चिकित्सा' में मिलता है जो सन् 1938 में लाहौर में प्रकाशित हुयी थी।
अन्य देशों के सन्दर्भ में यदि हम संगीत चिकित्सा की बात करें तो पाते हैं कि संगीत के रोगशामक रूप का विवरण पन्द्रह सौ ईसा पूर्व में लिखे गये मिश्र के मेडिकल पेपेरी में मिलता हैं। इसकी खोज पेट्री नामक वैज्ञानिक ने 1899 में की थी। इस ग्रंथ में संगीत का प्रभाव स्त्रियों पर उनकी प्रजनन क्षमता बढ़ानें के रूप में किये होने का विवरण लिपिबद्व है।12 इस प्रकार के वर्णन युनानी गाथाओं में भी मिलते हैं। मिश्र और युनान में ढोल और घंटियां बजाकर रोगियों के उपचार का विधान हैं।
बाईबिल में भी यह विवरण मिलता है कि डेविड ने राजा सिओल के सामनें संगीत का प्रदर्शन किया जिससे राजा को स्वस्थता और शान्ति का अनुभव हुआ।
सिकन्दर महान, जब अपनी चेतना शक्ति खो दिया था तब ‘लायर' नामक वाद्य सुनने से उसकी अचेतावस्था दूर हो गई।
यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि संगीत सदैव से रोगोपचार का सशक्त माध्यम रहा है। अपने अलैकिक गुणों के कारण मानव जीवन के लिये सदैव कल्याणकारी रहा है।
यद्यपि संगीत-चिकित्सा का मूल भारतीय संगीत में प्राचीनकाल से मिलता है परन्तु बीसवीं सदी के उत्तरार्घ में जितना व्यापक अनुसंधान, शोध, प्रयोग, श्रवण, एवं मनन, चिन्तन, पाश्चात्य देशों में हुआ उतना अपेक्षित कार्य हमारे देश में भी नहीं हुआ। पाश्चात्य देश भी भारतीय प्रेरणा से ही अनुप्राणित थे। अरस्तू, प्लेटो, पायथागोरस आदि सभी संगीत चिकित्सा के व्यापक प्रभाव से परिचित थे। अरस्तू का कहना कि- बांसूरी की तानों में भावनाओं को पुष्ट करनें की अद्भूत क्षमता है। पायथागोरस के अनुसार संगीत में आश्चर्यजनक हीलींग विशेषता विद्यमान है।13
बीसवीं सदी में यूरोप में यह चिकित्सा प्रतिष्ठित हो चुकी थी। उन दिनों डिप्रेशन आदि मनोविकारों को दूर करनें के लिये इस चिकित्सा की सहायता ली जाती थी।14
द्वितीय विश्वयु़द्ध के पश्चात घायल सैनिकों को राहत प्रदान करने के लिये संगीत का सहारा लिया गया जिसका सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुआ । इसके फलस्वरूप 1944 ई0 में ‘‘मिशिगन विश्वविद्यालय'' द्वारा संगीत चिकित्सा का पाठ्यक्रम तैयार किया गया और 1946ई0 में ‘‘कन्यास विश्वविद्यालय'' में प्रारम्भ किया गया सन् 1950 में ‘‘नेशनल एसोसियेशन फार म्यूजिक थेरेपी'' (छ।डज्) के स्थापित होने के पश्चात इस क्षेत्र में अनुसंधान एवं अन्वेषण के कायोंर् का विस्तार हुआ। करीब 5000 लोग इससे जुड़े है। वहां स्वतंत्र व्यवसाय के रूप में संगीत चिकित्सा को प्रचारित किया जा रहा है। अनेक विद्वानों ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से संगीत चिकित्सा की विशद् चर्चा प्रस्तुत की है। जैसे डोरोथी एम0 शुलियन द्वारा संकलित-‘‘म्यूजिक एण्ड मेडीसीन'', डॉ0 एडवर्ड पॉडीलास्की का-‘‘म्यूजिक फॉर हेल्थ'' डोवास्की द्वारा रचित ''द इनचैन्टिंग पावर अॉफ म्यूजिक'' तथा नेजफौक्स की लिखित पुस्तक ‘द हेल्थ एण्ड म्यूजिक'' विशेष उल्लेखनीय है। सबसे प्राचीन अंग्रेजी पुस्तक ‘‘मेडिसिना म्यूजिका'' है जो रिचर्ड ब्राउन द्वारा सन् 1729 में लिखी गई।
वर्तमान में भारत में भी इस चिकित्सा पद्धति को लेकर चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, संगीत मर्मज्ञ इत्यादि जागरूक हुये हैं तथा अनेक अनुसंधान एवं शोध, इस दिशा में हो रहे है। विश्वविद्यालयों में समय-समय पर इस विषय पर विचार गोष्ठियों का आयोजन हो रहा है जिसमें विद्वान, मनीषीगण इस पर विशद् चर्चा करते हैं।
सन् 1987 में महर्षि गान्धर्व वेद विश्वविद्यालय, महर्षिनगर, गाजियाबाद द्वारा अखिल भारतीय वैचारिक सम्मेलन, संगीत चिकित्सा विषय पर किया गया जिसमें अनेक विद्वानों ने भाग लिया। कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, आगरा, हरिद्वारा लखनऊ इत्यादि शहरों में इस विषय पर कई गोष्ठियों का आयोजन हुआ। अनेक विद्वानों ने अनुसंधान केन्द्रों की स्थापना की है तथा अपनें शोधों से रोगियों को स्वास्थ्य लाभ करा रहे है।
चेन्नई में राग रिसर्च सेन्टर की स्थापना की गई। इसके द्वारा शास्त्रीय रागों पर रोगोपचार की पद्धति विकसित की गई जिसके अनुसार विभिन्न रागों का प्रभाव भिन्न-भिन्न रूपों में प्रभावकारी है।
सन् 1965 में रोगहारी संगीत का अध्ययन एवं उस पर अनुसंधान कर रहे श्री बालाजी ताम्बे ने एक अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की एवं उसका नाम ‘आत्मसंतुलन ग्राम' रखा। आयुर्वेद के साथ-साथ वे रोगियों को राग चिकित्सा द्वारा स्वास्थ्य लाभ प्रदान कर रहे हैं । उनका मानना है कि संगीत का प्रभाव हमारे हार्मोनों पर पड़ता है, जिससे रोग का उपचार हो जाता है। विखण्डित मानसिकता (सिज़ोेफ्रेनिया) में राग भैरवी, याददाश्त बढ़ानें में राग-शिवरंजनी, रक्तचाप में राग तोड़ी व राग भूपाली तथा क्रोध में मल्हार का लाभदायक असर देखा गया।15
जबलपुर के डॉ0 भास्कर खांडेकर इस क्षेत्र में विगत 10 वर्षों से अनुसंधान कर रहे हैं तथा अनेक मानसिक रोगियों को उन्होने इस चिकित्सा पद्वति से स्वास्थ्य लाभ प्रदान किया। उनका मानना है कि ‘‘किसी भी एक रोग के लिय किसी एक राग का निर्धारण नहीं किया जा सकता। रोग निवारण हेतु रोगी का व्यक्तित्व परीक्षण करने के बाद उसका इलाज संगीत चिकित्सक के निर्देशानुसार करना चाहिए।16
मुम्बई के संगीत चिकित्सक पं0 शशांक कट्टी जी भी संगीत-चिकित्सा के क्षेत्र में कई वर्षों से सक्रिय हैं। इनके द्वारा स्थापित ‘सूर संजीवन' अनुसंधान केन्द्र है। जहां रागों के द्वारा उपचार की पद्वति पर अनुसंधान एवं प्रयोग हो रहा है।
बंगलौर की डॉ0 बी0एन0 मंजुला के अनुसार एनग्जाइटी न्यूरोसिस में तारयुक्त वाद्ययंत्रों में बजाया हुआ सुमधुर संगीत विशेष रूप से लाभकारी पाया जाता है।
इसी प्रकार भोपाल के सरकारी हमीदिया अस्पताल के प्रबन्धक डॉ0 एस0 सी0 तिवारी द्वारा भी संगीत चिकित्सा का प्रयोग मरीजों के लिये किया जा रहा है जो लाभकारी सिद्ध हो रहा है।
शिमला (हिमाचल प्रदेश) के प्रो0 चमन लाल ंवर्मा संगीत चिकित्सा के क्षेत्र में वर्षों से कार्य कर रहे हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डॉ0 सैयद इब्राहिम रिजवी नें शोध में यह पाया कि संगीत में उत्साहित करनें, उत्तेजित करने और मनोरंजन करनें जैसी संवेगात्मक क्षमता के साथ ही ‘इंडोरफिन ' बढ़ानें और ‘टेस्टोस्टेरान' को कम करनें की क्षमता होती है।
इंडोरफिन शरीर में पैदा होने वाला पेनकिलर है जो शरीर को तनावमुक्त बनाये रखनें में मदद करता है। जबकि टोस्टेस्टोरौन कम होने से क्रोध में कमी आती है। संगीत शरीर मे पाये जाने वाले स्टेरायड हार्मोन ‘कार्टीसोल' को भी कम करता है। तनाव इसी हार्मोन की देन है।17
मद्रास के मशहूर कर्नाटक संगीतकार डॉ0 एम0बालामूरा कृष्ण ने संगीत विज्ञान से मनोदैहिक रोगों जैसे उच्च रक्त चाप, मधुमेह, सिरदर्द आदि पर शोधकार्य किये। इन्होने अनेक रागों और सिंथेटिक साउण्ड कैप्सूल के माध्यम से रोगियों का इलाज किया। मद्रास में विपंची नामक केन्द्र की स्थापना कर इस दिशा में कार्यरत हैं।
संगीतौषध अनुसंधान केन्द्र ने कई शोध किये। इस केन्द्र पर एड्स जैसी घातक बीमारियों पर भी शोध कार्य जारी है। इनका मानना है कि बिना किसी दर्द निवारक औषधि का प्रयोग किये, संगीत के सहारे दर्द से निजात दिलाया जा सकता है।
डॉ0 हरिशर्मा और क्रॉफ मैन एलन ने एक शोध कार्य में पाया कि(ओहियो विश्वविद्यालय) रॉक संगीत हृदय व कैंसर सम्बन्धी असाध्य व पीड़ादायक बीमारियों को भड़काता है जबकि सामवेद की ऋचाओं के पारम्परिक गायन से आंत, फेफड़े, त्वचा व स्तन के कैंसर कोशिकाओं में 25 प्रतिशत की कमी आई18।
ध्रुपद गायक अमीनुद्दीन डांगुर का कहना है कि टी0बी0, लकवा, बीमारियों का इलाज राग के स्वर-समूहों द्वारा किया जा सकता है।19
इस प्रकार अनेक विद्वान चिकित्सक संगीत चिकित्सा को लेकर अनुसंधान एवं प्रयोग कर रहे है। विभिन्न शहरों के विभिन्न अस्पतालों में इस प्रयोग को लागू किया जा रहा है एवं उसका सार्थक, लाभकारी परिणाम भी सामनें आ रहा है।
गन्धर्ववेद या संगीत से चिकित्सा ये आयुर्वेद के अन्तर्गत होेने वाला एक अंग है। चूंकि भारतीय चिकित्सा पद्वति आयुर्वेद है, अतः हमारे देश के विद्वानों ने संगीत से होने वाले प्रभाव को आयुर्वेदिक आधार पर ही विश्लेषित किया है। आयुर्वेदाचार्यो ने व्यक्ति की प्रकृति के तीन भेद बताये है- कफ, पित्त और वात्। व्यक्ति का शरीर इन्ही तीन विकृतियों में विभाजित है तथा इनकी विकृति से ही शारीरिक रोग होते हैं। चरक संहिता में कहा गया है कि- वात, पित्त और कफ-ये त्रिदोष प्राणियों के शरीर में सर्वदा रहते है। शरीर के प्रकृतिभूत ये त्रिदोष आरोग्य प्रदान करते हैं। विकृत होने पर ही विकार कहे जाते है। त्रिदोष का प्रकृतिस्थ रहना ही आरोग्य है यथा-
दोषाः पुनस्त्रयो वातपित्तश्लेष्माणः
ते प्रकृतिभूताः शरीरोपकारका भवन्ति।
विकृतिमापन्नास्तु खलु नानाविधैविकारेः
शरीरभूतापयन्ति॥20
आयुर्वेद ग्रंथो में इन तीनो दोषों के गुण कर्म, स्थान इत्यादि का वर्णन है। हमारे संगीतज्ञों व विद्वानों ने संगीत का सम्बन्ध सीधे शरीर स्थित त्रिदोष वात, पित्त और कफ से बतलाया है। उनके अनुसार संगीत मनुष्य शरीर में जिस प्रकार उत्तेजना या करूणा आदि रस उत्पन्न करता है। उसी प्रकार यह शरीरगत दोषों वात, पित्त, कफ पर भी प्रकार अपना प्रभाव डालता है। संगीत का महत्वपूर्ण उपादान स्वर है। और इन्ही स्वरों का प्रभाव संगीत के प्रभाव को निश्चित करता है। क्योंकि इन्ही स्वरों के कोमल, विकृत भेदों से विभिन्न राग रागीनियों व ध्वनि-समूहों की रचना होती है। जिसका प्रभाव हमारे शरीर व मन को प्रभावी बनाता है।
इसीलिए स्वरों के स्वभाव, रस, प्रकृति इत्यादि के साथ कौन सा स्वर किस प्रकृति को दूर करता है, इसका उल्लेख ग्रंथों मे पाया जाता है। इस सम्बन्ध मे जैक्सन पाल ने भी अपनी पुस्तक ‘संगीत-चिकित्सा' में किया है। नाट्यशास्त्र के प्रणेता आचार्य भरत ने भी संगीत से रसों की सृष्टि को विधिवत बताया है। विभिन्न भारतीय संगीतज्ञों ने राग-रागनियों की प्रकृति, रस, भाव, का निर्धारण स्वरों की अवस्था के आधार पर किया है। सर्वमान्य तथ्यों के अनुसार सात स्वरों के द्वारा धातुगत दोषों का वर्णन इस प्रकार किया गया हैं-
षडज- पित्त के रोगों को दूर करता है।
रिषभ- पित्त तथा कफ प्रधान रोगों को दूर करता है।
गान्धार- पित्त के रोगों को दूर करता है।
मध्यम- वात् तथा कफ प्रधान रोगों को दूर करता है।
पंचम- कफ प्रधान रोगों को दूर करता है।
धैवत- कफ तथा वात प्रधान रोगों को दूर करता है।
निषाद- वात् रोगों को दूर करता है।
संगीताचार्य तुम्बरू ने ‘संगीत-स्वरामृत' में ध्वनि के विभिन्न प्रकारोंं का शरीर मे होने वाले त्रिदोषों वात, पित्त, व कफ के साथ क्या सम्बन्ध है, बताया है यथा-
‘उच्चस्तरोःं ध्वनिरूक्षो विज्ञेयः वात्जो बुधै।
गम्भीरोघनशीलश्य, ज्ञातव्यः पित्तजो ध्वनिः॥
स्निग्धस्य सुकुमारस्य, मधुरः कफजो ध्वनिः।
त्रयाणं गुण संयुक्तो विज्ञेयः सन्निपातजः॥21
अर्थात उच्च स्तर के रूक्ष लगने वाले ध्वनि वात के होते हैं। जो सुर गम्भीर और गहरे घनशीलस्य होते हैं, ऐसे ध्वनि पित्त के होते हैं तथा स्निग्ध भाव वाले सुकुमार और मधुर ध्वनि कफ के होते हैं। जिस ध्वनि में इन तीनों गुणों का मेल होता है। वह सन्निपातज यानि त्रिदोष पर काम करने वाला होता है। संगीत रत्नाकर में शारंगदेव ने भी इसी प्रकार कफ-पित्त-वात् इन दोषों के कौन से सुर हैं और इनका प्रयोग कैसे करना चाहिये, इत्यादि का अप्रत्यक्ष वर्णन किया है। निष्कर्षतः उच्च स्वर वात के रोगों में, मंद ंसुर कफ के रोगों में , और मध्यम गम्भीर स्वर पित्त के रोगों में प्रभावी होते हैं। वातादि दोष शरीर में समयानुसार कार्य करते हैं। दिन व रात्रि के 24 घण्टों में कोई भी समय यद्यपि दो बार आता हैं। अतः इन दोषों का प्रभाव भी दो बार देखा गया है। जैसे-वात् के काम करने का समय सुबह तीन से सात बजे तक और शाम के तीन से सात बजे तक।
पित्त के कार्य करने का समय दोपहर 11 से 3 बजे तक तथा रात्रि के 11 से 3 बजे तक है। कफ के कार्य करने का समय सुबह 7 से 11 बजे तक तथा शाम 7 बजे से 11 बजे रात्रि तक है।
रागों के समय सिद्वान्त पर यदि हम दृष्टिपात करते हैं तो रागों के समय निर्धारण में इन त्रिदोषों के समय को ध्यान में रखा गया है। ये राग हमारे शरीर को मदद करनें वाली एक प्रणाली है। जिसका निर्माण इन तत्वों के आधार पर किया गया है। वात् के समय यानि सुबह 3 सें 7 बजे तक गाये-बजाये जाने वाले रागों में सुबह देशकार, हिंडोल, ललित तथा सायंकाल में मुल्तानी, पुरियाधनाश्री, मारवा, श्री इत्यादि राग गाये-बजाये जाते हैं। ये सभी राग उत्तरांग प्रधान है। तथा इन रागों में ध-नी स्वर विशेष महत्वपूर्ण है। अतः आयुर्वेद के तत्व के अनुसार इन रागों को वात् समय पर गाने का नियम है।
दिन के 11 से 3 व रात्रि के 11 से 3 में जो राग गाये बजाये जाते हैं उनमें मध्यम या पंचम स्वर विशेष महत्वपूर्ण होता है तथा में ही न्यास के स्वर ये होते हैं। यथा दोपहर के रागों में मघमादसारंग, वृन्दावनीसांरग, भीमपलासी इत्यादि राग तथा मध्यरात्रि में राग मालकौस, बागेश्री व दरबारी कान्हरा राग गाये-बजाये जाते हैं। यद्यपि म व प गम्भीर धनशीलश्व के स्वर हैं तथा पित्त प्रधान है अतः इन्हे पित्त का बढ़ावा देने वाले राग मानकर दोपहर व रात्रि के पित्त समय पर गाने बजानें का विधान है।
उसी प्रकार सुबह 7 से 11 व शाम के 7 से 11 बजे कफ प्रधान रागों का समय है। सुबह के पूर्वांग प्रधान राग भैरव, अहिर भैरव, रामकली इत्यादि तथा सांयंकाल में पूरिया, यमन, बिहाग इत्यादि राग, कफ के समय पर गाये जाते हैं। अतः रागों का समय के साथ निर्धारण हमारे शरीर पर पड़ने वाले प्रभावो ंसे अपने घनिष्ठ सम्बन्ध एवं उपचारात्मक प्रणाली को दर्शाता है यह पूर्णतया वैज्ञानिक है।
विभिन्न चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों व संगीतज्ञों ने इस विषय पर शोध किया एवं कर रहे हैं।
ब्रिटेन के डॉ0 एडवीना मीड़ और अमेरिका के एडवर्ड पाडीलास्की ने शोध निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए बताया कि-संगीत की शक्ति से स्नायु संस्थान में एक विशेष प्रकार की हलचल उत्पन्न होती है। जो चिन्तन व भावना क्षेत्र की विकृतियों को दूर करनें में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
अमेरिकी वैज्ञानिकों नें यह माना है कि अल्जाईमर और पार्किन्सस के रोगियों को संगीत सुनाकर ठीक किया जा सकता है। रूसी वैज्ञानिक डॉ0 गोजिएल ने अपने प्रयोगों में यह पाया कि -संगीत रक्त संचार को प्रभावित करता है। इससे रक्तचाप कभी बढ़ता है, कभी घटता है, कभी दिल की धड़कन साधारणतया बढ़ जाती है। यह वृद्धि एवं रक्तचाप सुरों की तीव्रता तथा ध्वनि गाम्भीर्य पर निर्भर करते हैं। डॉ0 हरबर्ट स्पेन्सर ने अपने प्रयोगों में पाया कि तीव्र स्वरों वाली धुनों को द्रुत गति में बजाये जानें से निम्न रक्तचाप वाले मरीजों को तथा मंद्र-मध्य द्रुत वाली ध्वनि से उच्च रक्तचाप वाले रोगियों को लाभ मिलता है।22
अमेरिका की कम्प्लीमेन्टरी एंण्ड अलटरनेटिव मेडीसीन की प्रमुख कम्पनी अमेरिकन होल हेल्थ नेटवर्क, अमेरिकन म्यूजिक थेेरेपी एसोसियेशन के सहयोग से संगीत चिकित्सा को लोकप्रिय बनाने में अग्रसर है। इसकी मान्यता है कि अमेरिका में दिन प्रतिदिन बढ़ते मानसिक रोगियों के लिये संगीत चिकित्सा किसी भी चिकित्सा की तुलना में अधिक कारगर एवं तत्काल प्रभावी सिद्व हो रही है। संगीतवेत्ता एन्ड्रयू नील (।दकतमू छममस) के अनुसार भारतीय संगीत मानसिक रिलेक्शेसन के लिये अधिक लाभदायक एवं उपयोगी हो रहे है।
संगीत चिकित्सकों का मानना है कि संगीत का प्रभाव मानव मस्तिष्क के सेंरिब्रल कार्टेक्स और आटोनौमिक नर्वस सिस्टम पर सीधे तौर पर प्रभाव पड़ता है। संगीत के स्वर कानों के माध्यम से सेरिब्रल कार्टेक्स मे आते है। और फिर वहां से सब-कार्टेक्स क्षेत्र में पहुँचाते हे। यह पूरी प्रक्रिया लिंबिक सिस्टम से नियंत्रित होती है। यह सम्पूर्ण शरीर में आटोनामिक नर्वस सिस्टम द्वारा प्रसारित कर दिया जाता है। संगीत शरीर की साम्यावस्था को नियमित एवं नियंत्रित रखता है। संगीत से मांसपेशियों के तनाव में भी कमी आती है। इससे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। संगीत का सम्बन्ध मस्तिष्क से भी है। डॉ0 जॉन डायमण्ड के अनुसार- संगीत मस्तिष्क के दाये गोलर्द्ध को अधिक प्रभावित करता है। क्योंकि यह गोलर्द्धर् नॉन वर्बल क्षेत्र माना जाता है। गानों की धुनों से दायां गोलर्द्ध और गानों से बायां गोलर्द्ध सक्रिय हो जाता है और शरीर को विश्रांति प्रदान करता है।23
जार्ज स्टीन्वेन्सन एवं डॉ0 वीसेन्ट पाल, चार्ल्स कील, जूलियट एल्विन का मानना है कि संगीत सभी मानसिक तनावों की अचूक औषधि है। इन विद्वानो का मानना है, कि संगीत मस्तिष्क एवं नाड़ियों को शान्त करता है, शरीर की समस्त प्रणालियों एवं अवयवों को शक्ति एवं स्फूर्ति प्रदान करता है, मन को जाग्रत एवं सक्रिय करता है। यह मानसिक संन्तुलन को बनाये रखनें में सहायता करती है।
शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से व्यायाम का महत्व सर्वविदित है। संगीत में शारिरिक कसरत भी है जिससे शरीर स्वस्थ्य रहता है। शरीर को स्वस्थ रखनें के लिये ऋषि-मुनियो ने योग का अनुसंधान किया । संगीत में मन को स्थिरता प्रदान करने की असीम शक्ति है। योग में मनुष्य को स्वस्थ्य रखनें के कुछ साधन बताये गये हैंं जिनमें से कुछ संगीत द्वारा स्वयमेव हो जाते हैं। गायन द्वारा वक्ष एवं कंठस्थान के समीपवर्ती अंग प्रत्यंगो का व्यायाम माना गया है। संगीत में सबसे अधिक मनुष्य की श्वास-प्रणाली प्रभावित होती है। श्वास रोकनें की प्रणाली या व्यायाम को योग साधना में प्राणायाम कहा गया है। श्वास को लेना, उसे निकालना, और श्वास को रोकना, इन तीनों क्रियाओं का सामूहिक नाम ही प्राणायाम है। संगीत में ये क्रियायें बड़ी आसानी से एवं प्राकृतिक रूप से होती है। प्राणायाम का अभ्यास करने से फेफड़े मजबूत होते है तथा अधिक से अधिक मात्रा में आक्सीजन फेफड़ों में पहुँचती है। श्वास सम्बन्धी रोगों में यह अत्यन्त लाभप्रद है। दीर्घ स्वरों का उच्चारण तथा स्वरों पर ठहराव स्वास्थ्य के लिये लाभकारी है। दीर्घ सासें लेने से जीवन दीर्घायु होता है। संगीत में इन विशेषताओं को देखते हुए हमारे ऋषियों -महाऋषियों ने संगीत को जीवन के साथ जोड़कर इसे महत्व दिया था ताकि प्रत्येक व्यक्ति इसका लाभ ले सके। मंत्रों का सस्वर पाठ इसका सशक्त उदाहरण है। मंंत्रों के उच्चारण में शब्द और ध्वनि का विशेष महत्व है। मंत्रों के उच्चारण का एक विशेष ढंग होता है। जिह्वा शब्दोच्चारण करती है और उस उच्चारण के पीछे मनुष्य के मस्तिष्क एवं अन्तः करण को ही नही शरीर को भी प्रभावित करनें का सामर्थ्य रहता है। शब्दो के शारिरिक प्रभाव के विषय में हमारे प्राचीन ग्रन्थो में वर्णित है। पुष्कल संहिता के चौथे प्रकरण में शाब्दिक औषधि के बारे में वर्णित है। शब्द कौतुहल में भी चिकित्सा सम्बन्धी उल्लेख है । देवल सूत्र के तीसरे प्रकरण में शब्द द्वारा औषिधि,मंत्र द्वारा शारीरिक औषिधि, इत्यादि के बारे में वर्णित हैं।24
इस प्रकार गायन को एक प्रकार योगाभ्यास तथा वक्ष एवं कंठ स्थान के पास के अवयवों महत्वपूर्ण व्यायाम माना गया है। भारतीय संगीताचार्यों के अनुसार -‘‘गायन में आवाज नाभिकेन्द्र से उठती है तथा ब्रम्हरंध्र तक पहुँचती है। तालू, कंठ, फुफ्फुस हृदय आमाशय, यकृत एवं आंतो को प्रभावित करती हुयी एक गतिचक्र बनाती हुयी पुनः अपने उद्गम स्थान नाभि तक पहुचती है। यही गतिचक्र अपने प्रभाव क्षेत्र के सभी अवयवों को न केवल व्यायाम का प्रयोजन पूरा करती है वरन उनमें प्राणवायु का अतिरिक्त अनुदान भी देती है।''25
संगीत द्वारा शरीर पर होने वाले लाभकारी परिणामों पर शोध करने वाले चिकित्सकों का मानना है कि श्वसन तंत्र के रोग जैसे पुराना दमा, श्वसन नलियों के रोग तथा सरदर्द आदि के उपचार के लिए सही स्वरों का चयन कर गायन करने से रोग मुक्ति में सहायता मिलती है। डॉ. मानस चटर्जी के अनुसार ‘‘भारतीय शास्त्रीय संगीत में न केवल मनुष्यों को तनाव मुक्त कर आनन्दित कर देने की क्षमता है अपितु शरीर में उत्पन्न रोगों को भी दूर करता है। उनके अनुसार शास्त्रीय रागों में तीव्रता का फैलाव होता है जो समस्त श्वसन अंगो के साथ मस्तिष्कीय विभागों विशेषकर हाईपोथेलेमस का विस्तार तथा तीव्रता की पहचान तीव्रता, की अविरामता तथा कुछ रागों की विशेषता के द्वारा प्रभाव डालता है।''26
संगीत और योग के सम्बन्ध में यदि हम ग्रंथो में देखने का प्रयास करते हैं तो, पाते हैं कि मतंग के स्वर निर्णय प्रकरण में कोहल के उद्धरण दिये गये हैं, जिनमें योगतंत्र के अनुसार स्वरों की उत्पत्ति बतायी है। मतंग ने बृहद्देशी में भी योग दर्शन की चर्चा की है और नाद तत्व की विवेचना की है। उन्होने ध्वनि से बिन्दु, बिन्दू से नाद, नाद से द्विविध मात्रा (स्वर व्यंजनों) तथा षड्जादि स्वर, इस क्रम में स्वरों की उत्पत्ति बतायी है। ये सारी संज्ञायें योग दर्शन से ही ली गयी हैं। नाद के 22 भेद जो श्रृति के रूप में जाने जाते हैं, हृदय और सुषुम्ना से संलग्न 22 नाड़ियां है जिनके भीतर आघात होने से श्रुतियां उत्पन्न होती हैं। योग दर्शन के अनुसार 7 स्वर शरीर में स्थित चक्रों तथा बिंदु विसर्ग स्थान को झंकृत करते हैं जो इस प्रकार हैं।
1. षड्ज मूलाधार चक्र
2. ऋषभ स्वाधिष्ठान चक्र
3. गांधार मणिपुर चक्र
4. मध्यम अनाहद चक्र
5. पंचम विशुद्ध चक्र
6. धैवत आज्ञा चक्र
7. निषाद बिन्दू विसर्ग
8. तारषड्ज सहस्त्राधार चक्र
इसीलिए मानव कण्ठ को शारीरी वीणा कहा गया है। हमारे शरीर को स्वस्थ्य रखनें एवं आरोग्य तथा दीर्घायु प्रदान करनें में इन चक्रो का विशेष महत्व है जिन्हे संगीत के स्वरों द्वारा संतुलित रखा जा सकता है। संगीत में अवस्थित आंतरिक सप्त स्वर-चक्रों के सुसंवाद पर ही मानव का स्वास्थ्य निर्भर है। इसलिए प्रारम्भ से ही ऋषियो मुनियों ने संगीत को जोड़नें की बात कही है दोनो ही मानव के अर्न्तमन को प्रभावित करते हैं। विद्वानों की मान्यता है कि प्रत्येक स्वर शरीर के विशिष्ट स्थल से उत्पन्न होता है। वही स्वर उस की स्थल की व्याधि एवं स्वास्थ्य के प्रति उत्तरदायी है। संगीत शारिरिक संतुलन को बनाये रखता है, मांसपेशियों को शक्ति को घटाता व बढ़ाता है, श्वास की क्रिया को त्वरा प्रदान करता है। रक्तचाप एवं नाड़ी को प्रभावित करता है तथा साथ ही पाचन संस्थान सम्बन्धी शिथिलता दूर होती है। चिकित्सकों के शोध के अनुसार एवं नीदरलैण्ड में हुये एक सर्वेक्षण के अनुसार-‘‘संगीत सिर्फ मन बहलानें का साधन नही है। यह न केवल हमारे मानसिक स्वास्थ्य बल्कि शारिरिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। नियमित रूप से संगीत सुनने से शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है साथ ही हाई ब्लड प्रेशर कम होने में मदद मिलती है और मांसपेशियों का तनाव भी दूर होता है। संगीत से शरीर में तनाव पैदा करने ंवाले हार्मोन निष्प्रभावी होते हैं। सर्वेक्षण कर्ताओं के अनुसार हर दिन थोड़ी देर संगीत का आनन्द लेने से डिप्रेशन की स्थिति में बीस प्रतिशत से अधिक सुधार हो सकता है।27''
पिछले दिनों आस्ट्रिया में हुए एक अध्ययन के अनुसार-‘‘ संगीत सुनने से पीठ दर्द में राहत मिलती है। वैज्ञानिकों के अनुसार जब हम मनपसंद संगीत सुनते हैं तो हमारा ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है तथा हमारी हर्ट बीट धीमी गति से काम करती है। तत्पश्चात हम गहरी सांस लेना शुरू करते हैं इस प्रक्रिया के चलते शरीर के विभिन्न हिस्सों में होने वाले दर्द से राहत मिलती है वैज्ञानिकों का कहना है कि विशेष रूप से गर्दन, कन्धों, पेट और पीठ दर्द से राहत दिलानें में संगीत अहम भूमिका निभाता है। इस बात के परीक्षण के लिए उन्होने साल्जबर्ग के अस्पताल में करीब 1 वर्ष तक अध्ययन किया। इस अध्ययन में 18 से 65 वर्ष के व्यक्तियों को जो दर्द से पीड़ित थे दवा देकर ऐसे कमरे में रखा जिसमें मधुर संगीत बजता रहता था। दूसरे ग्रुप में सिर्फ दवा देकर छोड़ दिया जाता था। यह परिणाम सामनें आया कि जिन्हाने दवा के साथ संगीत का आनन्द लिया उन्हे दर्द से जल्दी राहत मिला जबकि ऐसा न करने वाले लम्बे समय से संगीत से पीडित रहे''28
इसी प्रकार टाईम मैगजीन में छपी रिपोर्ट के अनुसार - ‘‘न्यूयार्क के अस्पताल कोलम्बिया प्रेसबायटेरियन मेडिकल सेंन्टर में हृदय रोगियों केा आपरेशन से पहले एक मनोवैज्ञानिक प्रोग्राम से अवगत कराया जाता है। जिसमें योग अंगमर्दन का ध्यान करनें को कहा जाता है। अधिकतर रोगियों को सर्जरी से पहले ऊँ का उच्चारण करने को कहा जाता है उनका तर्क था कि इससे वे तनावमुक्त हो जाते हैं। दरअसल रोगी अनेस्थिसिया से पहले घबरा जाते हैं इसलिए उन्हे हेडफोन की सहायता से या तो ऊँ सुनाया जाता है अथवा उच्चारित करनें को कहा जाता है। ऐसा करने से देखा गया कि रोगियो को आत्मबल मिलता है तथा उनका मन एकाग्र होता है।''29
संगीत की इसी एकाग्रता की विशिष्टता ने आध्यात्मिक गुरूओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। और अध्यात्म के साथ उनका गहरा जुड़ाव हुआ। संगीत मनुष्य के तन और मन की तरंगो को व्यवस्थित करता है। सजग रहने की प्रेरणा देता है। संगीत कला जो कि मानव मन की अभिव्यक्ति का माध्यम है, पुरी तरह मनःस्थिति और मनोभावो से सम्बन्धित रहने के कारण मस्तिष्क से पूरी तरह आबद्ध है और इसी लिये संगीत मनोविज्ञान के अत्यन्त निकट है। संगीत की उत्पत्ति का स्थान मानव हृदय है।'' सीशोर ने तो इसे संवेगों की भाषा कहा है। संगीत द्वारा मानव अनेक प्रकार के दबे हुए मनोभावों को परीष्कृत रूप में प्रकाशित करता है। मनुष्य सुख में हो या निराशा में, आसक्ति में हो या विरक्ति, में संगीत को माध्यम बनाकर हृदयागत भावों को अभिव्यक्त करके कई प्रकार के विकारो से मुक्ति पा लेता है''30
आधुनिक दौर में भाग दौड़ ने मानव को तनावग्रस्त कर दिया है। देखा जाये तो समस्त बीमारियों में अस्सी फीसदी बीमारियाँ मानसिक हैं। मानसिक विसंगतियों ने रोग का रूप ले लिया है, जिसका कारण है- आज की तनावपूर्ण जीवन शैली। ऐसे असंतुलन को ठीक करने में सबसे अधिक प्रभावशाली एवं सशक्त माध्यम संगीत हैं। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है-
"Music has sweet tremendous power over the human mind. It bring it to concentration in a moment, You will find the dull ignorant love brut like human being who never steady their minds for a moment at other, times, when they here at alternative music, immediately become charmed and concentrated"31
मनोवैज्ञानिकों ने संगीत को मानसिक रोगों की अचूक मनावैज्ञानिक दवा माना गया है। संगीत द्वारा मन का निग्रह और नियोजन सदा से किया जाता रहा है। आयुर्वेद में भी माना गया है कि शरीर के रोग ग्रस्त होने का कारण त्रिदोषों में विषमता से है तथा विषमता का मुख्य कारण है, मन की चिन्ता, भय, शोक, अवसाद, क्रोध इत्यादि। संगीत मन को आनन्द, शान्ति, स्फूर्ति प्रदान करता है। संगीत के प्रभाव से काम, क्रोध, शोक आदि आवेग शान्त हो जाते हैं। और मन में जब आनन्द और शान्ति आती है तो वात्, पित्त, कफ सम्बन्धी विषमतायें भी दूर हो जाती है। मनुष्य स्वस्थ और दीर्घायु होता है। विद्वानों, कवियों, संतो तथा सूफियों ने विश्व का सबसे प्रबल दुःख मानसिक दुःख माना है, जो प्रत्येक गतिविधि में बाधा उत्पन्न करके कई प्रकार के विकारों को जन्म देता है। हताशा, निराशा, वेदना, पीड़ा, अवसाद, जैसे रोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, क्लेश, चिन्ता, आदि से ही मिलते हैं। मानसिक अस्थिरता किसी भी प्रकार की हो, संगीत मन को संतुलित करते हुये शरीर में उत्पन्न होने वाले तनावों के विकारों से रक्षा करता है। संगीत जो कि गायन, वादन, नृत्य की त्रिवेणी है, मानव मन में संवेग उत्पन्न करता है। ये संवेग प्रत्येक दृष्टि से सुखद अनुभूति कराते हुए मन का ध्यान व्यर्थ की बातों से हटाकर एक निश्चित बिन्दू पर केन्द्रित कर देते हैं, मन को तनावमुक्त कर, संगीत, चिकित्सा के क्षेत्र में अपूर्व योगदान देता है। विद्वानों ने माना है कि इन संवेगों का सम्बन्ध शारिरिक क्रियाओं से होता है। उनके अनुसार संवेग चेतन अनुभव तथा मनोवैज्ञानिक अवस्थायें होती है। जो प्रेरक के रूप में कार्य करती हैं। संवेग की सुखद अनुभूति चिन्ता,शोक, हताशा, निराशा आदि कष्टकारी भावों को कम करती हैं। इन संवेगों का सबसे अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध संगीत से है। क्योंकि संवेगों की उत्पत्ति में सक्षम, यही कला है। संवेगों की उत्पत्ति करनें के साथ साथ वह मन के सुख, ध्यान व संतुलन का सामंजस्य करके तनाव आदि से सम्बद्व अनेक रोगों की चिकित्सा में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। क्योंकि इनके अतिसूक्ष्म उपकरण, बौद्विक ग्राह्यता की अपेक्षा मन की ग्राह्यता के अधिक निकट आ जाते हैं। संगीत व्यक्ति की समस्त संरचनात्मक तंत्रियों को प्रभावित करती है, और ये प्रभाव मस्तिष्क तक पहुँचकर अनुकूल प्रतिक्रियाओं का प्रस्तुतीकरण करते हैं। संगीत के महत्वपूर्ण प्रभाव का समर्थन करती हुयी कु0 व्हील्समोम लिखती है- ‘‘मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव है कि जिन रोगियों पर औषधि असफल हुयी है, उनको संगीत ने ठीक किया है।''32
अतः संगीत के अनेक प्रकारों को सांगीतिक धुनों एवं वाद्यों को वांछित रूप से प्रयुक्त करके, किसी मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति का उपचार किया जा सकता है। राग में लगने वाले कोमल-तीव्र स्वरों का मनोहारी सामंजस्य का जब विक्षिप्त व्यक्ति के मस्तिष्क एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है तो धीरे-धीरे संगीत के आस्वादन से वह स्वस्थ मन का अधिकारी होने लगता है, तथा सामान्य होता चला जाता है।
कैंम्ब्रिज युनिवर्सिटी ने अपने नये शोध में यह परिणाम पाया है कि यदि किसी के स्वभाव के बारे में जानना हो, तो संगीत से जाना जा सकता है।
शोधकर्ताओं ने संगीत की पसन्द के आधार पर लोगों के स्वभाव व आदतें बताई। इनके अनुसार- संगीत का चयन बताता है कि आप बोरिंग, निराशावादी है, या उत्साह से भरे हुये हैं। अध्ययन के मुताबिक संगीत की प्राथमिकता के आधार पर किसी के व्यक्तित्व, मूल्यों व सामाजिक वर्ग का अनुमान लगा सकते हैं। युनिवर्सिटी के सोशल एण्ड डेवलपमेन्ट साईकोलॉजीकल विभाग के प्रो0 जेसन रेंटफ्रो ने कहा कि क्लासिकल म्यूजिक (शास्त्रीय संगीत) के शौकीन प्रायः सुस्त और बोरिंग माने जाते है। जबकि रॉक संगीत प्रेमी भावनात्मक तौर पर अस्थिर होते हैं। उन्होने कहा है कि सामान्यतया पॉप संगीत के शौकीन अस्पष्ट और कमजोर होते हैं। अध्ययन में रॉक, पॉप, जाज, क्लासिकल, रैप और इलेक्ट्रानिक, संगीत प्रेमियों को शामिल किया गया। जाज के शौकिनों को सकारात्मक, विचारवादी, शांत उदारवादी व दोस्ताना रवैये वाला पाया गया। क्लासिकल संगीत पसन्द करने वालों का स्वभाव शांत, जिम्मेदार, बुद्विमान परन्तु सुस्त होते हैं''33
मनोविज्ञान मानव की मनः स्थिति का अध्ययन करता है। और संगीत मानव हृदय के भावों को अभिव्यक्ति देता है। यही कारण है कि संगीत मनुष्य को संतुलित व्यवहार की ओर प्रेरित करता है। इससे मानव भौतिक बन्धनों से दूर रहकर शान्ति व आनन्द का अनुभव करता है।
मन से जिन शारीरिक रोगों की उत्पत्ति होती है उन्हे ‘साइकोसोमेटिक' कहते हैं। मनोवैज्ञानिको के अनुसार मानसिक रोग दो प्रकार के होते हैं। (1) 1 मस्तिष्क जन्य रोग-जिसमें सभी प्रकार के दौरे तथा अपस्मार। (2) उन्मादरोग(मेनिया) सभी प्रकार के मानसिक रोग जैसे- अवसाद (डिप्रेशन) तनाव (टेन्शन) एलजाईमर्स (भूलने की बीमारी), विभ्रम (सीजोफ्रिनिया) दुःख, पीड़ा हताशा, निराशा, इत्यादि। चिकित्सकों का मानना है कि समस्त मानसिक शारिरिक रोगों का उपचार, मन व प्राण पर संयम, संगीत जैसी अमूर्त कला से ही सम्भव है। जो अपनी मधुरता से व्यक्ति को ऐसे आनन्द की प्राप्ति कराती है जो लौकिक आनन्द से परे है। संगीत की संवादात्मक शक्ति मानसिक रोगियों के लिये औषधि बनकर उनकी चिकित्सा में सहायक सिद्ध होती है।
वर्तमान में भारतीय शास्त्रीय संगीत से मतलब ‘रागदारी संगीत' समझा जाता है स्वरों की एक विशेष अवस्था राग कहलाती है। राग मे कुछ ऐसे तत्व है जो राग के लक्ष्यपूर्ति ‘रंजकता' में सहयोगी होते हैं। राग श्रोताओं के लिये चित्तवृत्ति का निर्माण करते हैं। भावों की अभिव्यक्ति कलाकार राग के माध्यम से करता है। राग ही वह शक्ति है जिसमें डूबकर कलाकार स्वयं भी आनन्दित होता है तथा दूसरों को भी आनन्द की अनुभूति कराता है। यही भारतीय राग की विशिष्ट्ता है जो अपने में अनुठी है, बेजोड़ है।
संगीत आचार्यों ने प्रत्येक राग का एक निश्चित रस कायम किया है। यह रस राग में प्रयोग होने वाले स्वरों की स्थिति पर निर्भर करता है। राग और रस का सम्बन्ध घनिष्ठ है। यह रस ही मानव हृदय को रससिक्त कर देता है जो कि चिकित्सा में सहायक है। सात स्वरो का भी अपना-अपना रस है। विद्वानो ंके अनुसार सात स्वरों से उद्भूत रस इस प्रकार है-
स्वर रस स्थायी भाव
षड्ज वीर, अद्भुत, रौद्र उत्साह, विस्मय, क्रोध
ऋषभ वीर, अद्भुत, रौद्र उत्साह, विस्मय, क्रोध
गान्धार करूण शोक
मध्यम श्रृंगार, हास्य रति, हास
पंचम श्रृंगार, हास्य रति, हास
धैवत वीभत्स, भयानक जुगुप्सा, भय
निषाद करूण शोक
रागों में प्रयुक्त होने वाले स्वरो की स्थिति के आधार पर राग से किसी विशेष रस की निष्पत्ति को माना जा सकता है। जैसे- यमन, बागेश्री, श्रृंगार(संयोग), शंकरा ‘‘वीर, उत्साह'' बिलावल, ‘प्रसन्नता', दरबारी-‘गम्भीर, शान्त'' अड़ाना-चंचल, वीर, उत्साह, भैरवी- संयोग/वियोग/करूणा, बिहाग- संयोग/वियोग श्रृंगार, तोड़ी, जोगिया-करूण/विरह, का भाव उत्पन्न करता है।
राग-चिकित्सा पर किये जा रहे शोधों व अनुसंधानों के परिणाम स्वरूप यह बात सामने आई है कि- राग भूपाली तथा तोड़ी उच्च रक्त चाप के रोगियों को आराम देते हैं। जबकि राग मालकौंस तथा आसावरी निम्न रक्त चाप के रोगियों के लिये लाभप्रद है। राग भैरवी मानसिक शिथिलता लाता है तथा सीजोफ्रिनिया के रोगियों को नींद लाता है। राग सारंग पित्तनाशक है तथा क्षय एवं मिर्गी के रोगियों को राहत देने वाला है। राग गोरख कल्याण चिन्ता, तनाव, व न्यूरोसिस के रोगियों को फलप्रद है। इसी प्रकार बहार, बागेश्री, पागलपन के रोगों के लिये सोहनी, तोड़ी, भैरवी सिरदर्द, खमाज, दरबारी कान्हरा, पूरिया हिस्टीरिया के लिये तिलंग बिलावल, मुल्तानी, रामकली, क्षयरोग के लिये, हिन्डोल, मारवा, मलेरिया के लिये तथा राग शिवरंजनी स्मरण शक्ति बढ़ानें में सहायक है। प्रत्येक राग की अपनी एक संकल्पना होती है। जो कि विशिष्ट तत्वों के साथ बंधी होती है। अपने निश्चित स्वरूप व रस के कारण ही यह राग शरीर पर एक निश्चित प्रभाव डालता है तथा रोग विशेष में प्रभावी होता है। विद्वानोंं के अनुसार रागों से निकलने वाली ध्वनि तरंगो में इन्फ्र्रासोनिक तथा पैरासोनिक ध्वनि तरंगे भी शामिल होती है। जिनकी संख्या एवं तीव्रता हमेशा एक सी रहती है। अतः रागों का किसी रोग विशेष पर प्रभावी होना संभव है।
संगीत चिकित्सा, चिकित्सा विज्ञान का ही एक अंग है जो मनुष्य की शारिरिक एवं मानसिक आवश्यकता की आपूर्ति करता है। जिस प्रकार अन्य चिकित्सा पद्धतियों में रोग के लक्षण पहचान कर इलाज किया जाता है, उसी प्रकार संगीत चिकित्सा में रोग की वजह जानकर इलाज किया जाता है। राग रागिनियों द्वारा फलप्रद चिकित्सा सम्भव है। किन्तु इसके लिये ये महत्वपूर्ण है-संगीतकार का कुशल होना, मेडिकल साइंस की जानकारी होना, अनेक विषयों का अध्ययन-मनन चिन्तन होना, उपयुक्त संगीत विधा, वाद्य संगीत प्रकार, धुन या शैली का चयन, आदि तथा रोगी की मानसिक िस्थ्ति, रूचि बंश, परिवेश तथा संगीत के प्रति ग्राह्यता तथा इससे सम्बन्धित अन्य तत्वों का मूल्यांकन व चयन कर पानें की क्षमता का होना आवश्यक है।
संगीत चिकित्सा को पूर्ण रूपेण चिकित्सा पद्वति न मानकर इसे वैकल्पिक अथवा समकालिक चिकित्सा पद्धति के रूप में प्रयोगात्मक क्रिया के द्वारा अपनाया जा सकता है। इसके लिये अनुभवी एवं विचारशील संगीतज्ञ की आवश्यकता है। जो रोगी व्यक्ति के मनोभावों व उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को समझ सके। तथा शोधात्मक दृष्टि से उपयुक्त संगीतात्मक प्रयोगों का चयन कर सके क्योंकि उचित राग तथा रोगी के मनोभावों में सामंजस्य ही इस रोगोपचार का आधार है। जहां मधुर संगीत हमारे मन मस्तिष्क को संतुलित करता है, वही बुरा, असंगत व अप्रिय संगीत मानसिक व शारिरिक क्रियाओं में असंतुलन पैदा करता है। ऐसा संगीत ना ही मानव के लिये और ना ही समाज के लिये उपयोगी है।
जहाँ विज्ञान, मानव को भौतिक सुख सुविधाओं को जुटानें में सहायता करता है वहीं कला मानव के व्यक्तित्व के परिष्कार, नैतिक उत्थान एवं चिन्तनको परिपक्व करनें में योगदान देती है और इसी स्तर पर संगीत न केवल एक व्यक्ति को बल्कि सम्पूर्ण देश, राष्ट्र, समाज, तथा अन्ततः समस्त मानव जाति को एक सूत्र में निबद्ध कर अनेकता में एकता की भावना को फलीभूत करती है। तेजी से परिवर्तित हो रहे इस भूमण्डलीकरण के परिवेश में संगीत ही ऐसी कला है जो समाज को तनावमुक्त कर सकती है। तनाव रहित समाज के गठन के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिये संगीत का अध्ययन आवश्यक है। संगीत को सामाजिक उपयोगिता के सन्दर्भ में देखनें की आवश्यकता है। जिस प्रकार अध्यात्म को विज्ञान से जोड़नें की सोच उजागर हुयी है, उसी प्रकार संगीत को विज्ञान से जोड़कर उसके महत्व को समझनें की आवश्यकता है। संगीत, चिकित्सा का एक सशक्त माध्यम है। इस प्रथा को वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हुये आगे बढ़ानें की आवश्यकता है। आज वर्तमान युग की अहम् आवश्यकता है। हमारा संगीत वैदिक है सनातन है और वैज्ञानिक है, यदि हम उचित रीति से सार्थक दिशा में कार्य करें तो बेहतर परिणाम प्राप्त हो सकते है। आज कोलाहल भरे बेसुरे समय में भी हम संगीत में ध्यान लगाकर सुख का अनुभव कर सकते हैं। संगीत संसार के जीवन को आनन्दमय, रसमय व मधुमय बनाता है।
अन्त में यही कहना सार्थक होगा कि भारत प्राचीन काल से एक समृद्ध संस्कृति व सभ्यता का देश रहा है। सभ्यता, संस्कृति व वेदों का पाठ भारत ने पुरी दुनिया को पढ़ाया है। धर्म, संस्कृति व विश्व-बन्धुत्व का परिचायक भारत ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम''की भावना से अभिप्रेत है। संगीत चिकित्सा के माध्यम से मानव को स्वस्थ, व्याधि मुक्त, निरोग, रखनें की कल्याणकारी भावना भारतीय संगीत में वेदों से आज तक सतत् प्रवाहित है।
सत्य भी है, ज्ञान व विज्ञान वह है जो समग्र सृष्टि के जीवन का कायाकल्प कर दे, उसे नई ऊर्जा से जीवतंता प्रदान करें। अस्तु।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. गीत-वाद्य-शास्त्र संग्रह संकलनकर्ता सुश्री प्रेमलता शर्मा व मुकुन्द लाठ।
2. संगीत रत्नाकर शारंगदेव (1.1.26-30)
3. संगीत चिकित्सा डॉ0 सतीश वर्मा, पृष्ठ संख्या 26।
4. भारतीय संगीत का इतिहास श्री उमेश जोशी पृष्ठ 50।
5. सामगान उद्भव व्यवहार एवं सिद्धान्त पंकज माला शर्मा पृष्ठ सं0 427-440।
6. वही पृ0 427-440
7. ‘संगीत' मासिक पत्रिका 1993 लेख- राग चिकित्सा मधुरान्धा मधुव्रत पृष्ठ सं0 24-26।
8. संगीत में नाद रूप व ध्वनी पक्ष के विविध आयाम डॉ0 नीता मिश्रा, पृष्ठ सं0-41।
9. सत्यं शिवं सुन्दरम् डॉ सुकन पासवान प्रज्ञा चक्षु, पृ0 सं0 148-149।
10. अखण्ड ज्योति, मई 2005, लेख-भारतीय संगीत विश्व संगीत का सिर मौर बनेगा पृ0 सं0 15।
11. ‘संगीत' मकरंद संगीताध्याय-नारद संगीत मासिक पत्रिका, 1993 लेख-राग रागिनियों द्वारा राग चिकित्सा पृ0 97।
12. वही पृष्ठ सं0 25
13. अखण्ड ज्योति, जनवरी, 2007 संगीत की स्वर लहरियां करेगी मन की चिकित्सा पृष्ठसं0 24।
14. वही पृ0 सं0 24।
15. म्यूजिक थेरेपी डॉ0 मनोरमा शर्मा (1996) पृ0 सं0 129-130
16. 4 दिसम्बर 2010 को डी0जी0 पी0जी0 कालेज, कानपुर में आयोजित सेमिनार में मुख्य वक्ता डॉ0 भाष्कर खांडेकर के उद्गार।
17. डॉ0 सैय्यद इब्राहिम रिजवी नेशनल इन्स्टीट्यूट अॉफ साइंस कम्यूनिकेशन एण्ड इनफौरमेशन रिर्सोसेज की मैगजीन साइंस रिपोर्टर वाल्यूम 44, 007(अमर उजाला, 20 मार्च 2008)
18. संगीत चिकित्सा संपादि का डॉ0 संगीता श्रीवास्तव पृ0 176।
19. संगीत सितम्बर 2002, पृ0 सं0 15।
20. संगीत चिकित्सा डॉ0 सतीश वर्मा पृ0 सं0 161।
21. संगीत स्वरामृत तुम्बरू (संगीत चिकित्सा) सम्पादिका संगीता श्रीवा0 लेख- शशांक कट्टी पृ0 14.15।
22. म्यूजिक थेरेपी बी0 बेलामी गार्डनर- 1955 पृ0 सं0 418। (वही पृष्ठ सं0 168)
23. अखण्ड ज्योति जनवरी, 2007 पृष्ठ सं0 25-26।
24. संगीत चिकित्सा डॉ0 सतीश शर्मा पृ0 82
25. वांगमय शब्द ब्रंह्म नादब्रह्म आचार्य श्री राम शर्मा, पृ0 5.38
26. संगीत चिकित्सा डॉ0 सतीश शर्मा पृ0 412।
27. समाचार पत्र दैनिक जागरण 6 दिसम्बर 2008
28. समाचार पत्र दैनिक जागरण 2.2.2009 लेख- दिनेश दीक्षित
29. दैनिक जागरण 10 नवम्बर 2010, सप्तरंग लेख-डॉ0 लाजपत राय समरवाल।
30 संगीत और संवाद अशोक कुमार पृ0 सं0 36-37।
31. संगीत चिकित्सा संपादिका संगीता श्रीवास्तव पृ0 सं0 81
32. संगीत मासिक पत्रिका 1977, मन और संगीत पृ0 27
33. समाचार पत्र अमर उजाला 23 अगस्त 2009
बहुत ही सारगर्वित लेख,प्रस्तुति के लिए आभार.
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