गोवर्धन यादव का आलेख : एक अजूबा धरती पर

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पातालकोट-धरती पर एक अजूबा गोवर्धन यादव गगनचुंबी इमारतें, सडकों पर फ़र्राटे भरती रंग-बिरंगी-चमचमाती लक्जरी कारें, मोटरगाडियां और न जाने कितने ...

पातालकोट-धरती पर एक अजूबा गोवर्धन यादव गगनचुंबी इमारतें, सडकों पर फ़र्राटे भरती रंग-बिरंगी-चमचमाती लक्जरी कारें, मोटरगाडियां और न जाने कितने ही कल-कारखाने, पलक झपकते ही आसमान में उड़ जाने वाले वायुयान, समुद्र की गहराइयों में तैरतीं पनडुब्बियाँ, बड़े-बड़े स्टीमर,-जहाज आदि को देख कर आपके मन में तनिक भी कौतूहल नहीं होता. होना भी नहीं चाहिए,क्योंकि आप उन्हें रोज देख रहे होते हैं, उनमें सफ़र कर रहे होते हैं. यदि आपसे यह कहा जाय कि इस धरती ने नीचे भी यदि कोई मानव बस्ती हो,जहाँ के आदिवासीजन हजारों-हजार साल से  अपनी आदिम संस्कृति और रीति-रिवाज को लेकर जी रह रहे हों, जहाँ चारों ओर बीहड जंगल हों, जहाँ आवागमन के कोई साधन न हो, जहाँ विषैले जीव जन्तु, हिंसक पशु खुले रुप में विचरण कर रहे हों, जहाँ दोपहर होने पर ही सूरज की किरणें अन्दर झांक पाती हो, जहाँ हमेशा धुंध सी छाई रहती हो, चरती भैंसॊं को देखने पर ऐसा प्रतीत है,जैसे कोई काला सा धब्बा चलता-फ़िरता दिखलाई देता है. सच मानिए ऐसी जगह पर मानव-बस्ती का होना एक गहरा आश्चर्य पैदा करता है.

जी हाँ, भारत का हृदय कहलाने वाले मध्यप्रदेश के छिन्दवाडा जिले से 78 किमी. तथा तामिया विकास खंड से महज 23 किमी.की दूरी पर स्थित “पातालकोट” को देखकर ऊपर लिखी सारी बातें देखी जा सकती है. समुद्र् सतह से 3250 फ़ीट ऊँचाई पर तथा भूतल से 1200 से 1500 फ़ीट ग हराई में यह कोट यानि “पातालकोट” स्थित है.                       

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  (पातालकोट का विहंगम दृष्य.),

हमारे पुरा आख्यानों में “पातालकोट” का जिक्र बार-बार आया है.”पाताल” कहते ही हमारे मानस-पटल पर ,एक दृष्य तेजी से उभरता है. लंका नरेश रावण का एक भाई,जिसे अहिरावण के नाम से जाना जाता था, के बारे में पढ चुके हैं कि वह पाताल में रहता था. राम-रावण युद्ध के समय उसने राम और लक्ष्मण को सोता हुआ उठाकर पाताललोक ले गया था,और उनकी बलि चढ़ाना चाहता था,ताकि युद्ध हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाए. इस बात का पता जैसे ही वीर हनुमान को लगता है वे पाताललोक जा पहुँचते हैं. दोनों के बीच भयंकर युद्ध होता है,और अहिरावण मारा जाता है. उसके मारे जाने पर हनुमान उन्हें पुनः युद्धभूमि पर ले आते हैं.

पाताल अर्थात अनन्त गहराई वाला स्थान. वैसे तो हमारे धरती के नीचे सात तलॊं की कल्पना की गई है-अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल,तथा महातल के नीचे पाताल.. शब्दकोष में कोट के भी कई अर्थ मिलते हैं=जैसे-दुर्ग, गढ, प्राचीर, रंगमहल और अंग्रेजी ढंग का एक लिबास जिसे हम कोट कहते है. यहाँ कोट का अर्थ है-चट्टानी दीवारें, दीवारे भी इतनी ऊँची ,की आदमी का दर्प चूर-चूर हो जाए. कोट का एक अर्थ होता है-कनात. यदि आप पहाडी की तलहटी में खड़े हैं, तो लगता है जैसे कनातों से घिर गए हैं. कनात की मुंडॆर पर उगे पॆड-पौधे, हवा मे हिचकोले खाती डालियाँ,,हाथ हिला-हिला कर कहती हैं कि हम कितने ऊपर है. यह कनात कहीं-कहीं एक हजार दो सौ फ़ीट, कहीं एक हजार सात सौ पचास फ़ीट, तो कहीं खाइयों के अंतःस्थल से तीन हजार सात सौ फ़ीट ऊँची है. उत्तर-पूर्व में बहती नदी की ओर यह कनाट नीची होती चली जाती है. कभी-कभी तो यह गाय के खुर की आकृति में दिखाई देती है.

पातालकोट का अंतःक्षेत्र शिखरों और वादियों से आवृत है. पातालकोट में, प्रकृति के इन उपादानों ने, इसे अद्वितीय बना दिया है. दक्षिण में पर्वतीय शिखर इतने ऊँचे होते चले गए हैं कि इनकी ऊँचाई उत्तर-पश्चिम में फ़ैलकर इसकी सीमा बन जाती है. दूसरी ओर घाटियाँ इतनी नीची होती चली गई है कि उसमें झांककर देखना मुश्किल होता है. यहाँ का अद्भुत नजारा देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो शिखरों और वादियों के बीच होड सी लग गई हो. कौन कितने  गौरव के साथ ऊँचा हो जाता है और कौन कितनी विनम्रता के साथ झुकता चला जाता है. इस बात के साक्षी हैं यहाँ पर ऊगे पेड-पौधे,जो तलहटियों के गर्भ से, शिखरों की फ़ुनगियों तक बिना किसी भेदभाव के फ़ैले हुए हैं.

पातालकोट की झुकी हुई चट्टानों से निरन्तर पानी का रिसाव होता रहता है. यह पानी रिसता हुआ ऊँचे-ऊँचे आम के वृक्षों के माथे पर टपकता है और फ़िर छितरते हुए बूंदों के रुप में खोह के आँगन में गिरता रहता है. बारहमासी बरसात में भींगकर तन और मन पुलकित हो उठते हैं.

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आदिवासी पेड़ के नीचे सुस्ताता हुआ

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आदिवासी महिला समूह में आदिवासी

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(प्रसन्नचित आदिवासी जड़ी-बूटी दिखाता हुआ.)

अपने इष्ट, देवों के देव महादेव, इनके आराध्य देव हैं. इनके अलावा और भी कई देव हैं जैसे-मढुआदेव, हरदुललाला, पनघर, ग्रामदेवी, खेडापति, भैंसासर, चंडीमाई, खेडामाई, घुरलापाट, भीमसेनी, जोगनी, बाघदेवी, मेठोदेवी आदि को पूजते हुए अपनी आस्था की लौ जलाए रहते हैं, वहीं अपनी आदिम संस्कृति, परम्पराओं ,रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों में गहरी आस्था लिए शान से अपना जीवन यापन करते हैं. ऐसा नहीं है कि यहां अभाव नहीं है. अभाव ही अभाव है,लेकिन वे अपना रोना लेकर किसी के पास नहीं जाते और न ही किसी से शिकवा-शिकायत ही करते हैं. बित्ते भर पेट के गढ्ढे को भरने के लिए वनोपज ही इनका मुख्य आधार होता है. पारंपरिक खेती कर ये कोदो- कुटकी, -बाजरा उगा लेते हैं. महुआ इनका प्रिय भोजन है .महुआ के सीजन में ये उसे बीनकर सुखाकर रख लेते हैं और इसकी बनी रोटी बडे चाव से खाते हैं. महुआ से बनी शराब इन्हें जंगल में टिके रहने का जज्बा बनाए रखती है. यदि बिमार पड गए तो तो भुमका-पडिहार ही इनका डाक्टर होता है. यदि कोई बाहरी बाधा है तो गंडा-ताबीज बांध कर इलाज हो जाता है. शहरी चकाचौंध से कोसों दूर आज भी वे सादगी के साथ जीवन यापन करते हैं. कमर के इर्द-गिर्द कपड़ा लपेटे, सिर पर फ़ड़िया बांधे, हाथ में कुल्हाडी अथवा दराती लिए. होठॊ पर मंद-मंद मुस्कान ओढे ये आज भी देखे जा सकते हैं.  विकास के नाम पर करोडों-अरबों का खर्चा किया गया, वह रकम कहां से आकर , चली जाती है, इन्हें पता नहीं चलता और न ही ये किसी के पास शिकायत-शिकवा लेकर नहीं जाते. विकास के नाम पर केवल कोट में उतरने के लिए सीढियां बना दी गयी है,लेकिन आज भी ये इसका उपयोग न करते हुए अपने बने –बनाए रास्तों-पगडंडियों पर चलते नजर आते हैं. सीढ़ियों पर चलते हुए आप थोड़ी दूर ही जा पाएंगे, लेकिन ये अपने तरीके से चलते हुए सैकड़ो फ़ीट नीचे उतर जाते हैं. हाट-बाजार के दिन ही ये ऊपर आते हैं और इकठ्ठा किया गया वनोपज बेचकर, मिट्टी का तेल तथा नमक आदि लेना नहीं भूलते. जो चीजें जंगल में पैदा नहीं होती, यही उनकी न्यूनतम आवश्यकता है. एक खोज के अनुसार पातालकोट की तलहटी में करीब 20 गाँव सांस लेते थे, लेकिन प्राकृतिक प्रकोप के चलते वर्तमान समय में अब केवल 12 गाँव ही शेष बचे हैं. एक गाँव में 4-5 अथवा सात-आठ से ज्यादा घर नहीं होते. जिन बारह गांव में ये रहते हैं, उनके नाम इस प्रकार है-रातेड, चिमटीपुर, गुंजाडोंगरी, सहरा, पचगोल, हरकिछार, सूखाभांड, घुरनीमालनी, झिरनपलानी, गैलडुब्बा, घटलिंग, गुढीछातरी. सभी गांव के नाम संस्कृति से जुड़े-बसे हैं. भारियाओं के शब्दकोष में इनके अर्थ धरातलीय संरचना, सामाजिक प्रतिष्ठा, उत्पादन विशिष्टता इत्यादि को अपनी संपूर्णता में समेटे हुए है.

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(पातालकोट में लेखक)

ये आदिवासीजन अपने रहने के लिए मिट्टी तथा घास-फ़ूस की झोपड़ियां बनाते है. दीवारों पर खड़िया तथा गेरू से प्रतीक चिन्ह उकेरे जाते हैं .हँसिया-कुल्हाडी तथा लाठी इनके पारंपरिक औजार है. ये मिट्टी के बर्तनों का ही उपयोग करते हैं. ये अपनी धरती को माँ का दर्जा देते हैं. अतः उसके सीने में हल नहीं चलाते. बीजों को छिडककर ही फ़सल उगाई जाती है.. वनोपज ही उनके जीवन का मुख्य आधार होता है. पातालकोय़ में उतरने के और चढ़ने के लिए कई रास्ते हैं. रातेड-चिमटीपुर और कारेआम के रास्ते ठीक हैं. रातेड का मार्ग सबसे सरलतम मार्ग है, जहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है. फ़िर भी संभलकर चलना होता है. जरा-सी भी लापरवाही किसी बड़ी दुर्घटना को आमंत्रित कर सकती है. पातालकोट के दर्शनीय स्थलों में ,रातेड, कारेआम, चिमटीपुर, दूधी तथा गायनी नदी का उद्गम स्थल और राजाखोह प्रमुख है. आम के झुरमुट, पर्यटकों का मन मोह लेती है. आम के झुरमुट में शोर मचाता- कलकल के स्वर निनादित कर बहता सुन्दर सा झरना, कारेआम का खास आकर्षण है. रातेड के ऊपरी हिस्से से कारेआम को देखने पर यह ऊँट की कूबड सा दिखाई देता है. राजाखोह पातालकोट का सबसे आकर्षक और दर्शनीय स्थल है. विशाल कटॊरे मे मानिंद ,एक विशाल चट्टान के नीचे 100 फ़ीट लंबी तथा 25 फ़ीट चौडी कोत(गुफ़ा) में कम से कम दो सौ लोग आराम से बैठ सकते हैं. विशाल कोटरनुमा चट्टान, बडॆ-बडॆ गगनचुंबी आम-बरगद के पेड़ों, जंगली लताओं तथा जडी-बूटियों से यह ढंकी हुई है. कल-कल के स्वर निनादित कर बहते झरनें, गायनी नदी का बहता निर्मल ,शीतल जल, पक्षियों की चहचाहट, हर्रा-बेहडा-आँवला, आचार-ककई एवं छायादार तथा फ़लदार वृक्षॊं की सघनता, धुंध और हरतिमा के बीच धूप-छाँव की आँख मिचौनी, राजाखोह की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है. और उसे एक पर्यटन स्थल विशेष का दर्जा दिलाता हैं. नागपुर के राजा रघुजी ने ,अँगरेजों की दमनकारी नीतियों से तंग आकर मोर्चा खोल दिया था, लेकिन विपरीत परिस्थितियाँ देखकर उन्होंने इस गुफ़ा को अपनी शरण-स्थली बनाया था, तभी से इस खोह का नाम “राजाखोह” पडा. राजाखोह के समीप गायनी नदी अपने पूरे वेग के साथ चट्टानों कॊ काटती हुई बहती है. नदी के शीतल तथा निर्मल जल में स्नान कर व तैरकर सैलानी अपनी थकान भूल जाते हैं. पातालकोट का जलप्रवाह उत्तर से पूर्व की ओर चलता है. पतालकोट की जीवन-रेखा दूधी नदी है, जो रातेड नामक गाँच के दक्षिणी पहाडॊं से निकलकर घाटी में बहती हुई उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होती हुई पुनः पूर्व की ओर मुड जाती है. तहसील की सीमा से सटकर कुछ दूर तक बहने के बाद, पुनः उत्तर की ओर बहने लगती है और अंत में नरसिंहपुर जिले में नर्मदा नदी में मिल जाती है.

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(बादलों और धुंध में घिरा पातालकोट)

पातालकोट का आदिम- सौंदर्य जो भी एक बार देख लेता है, वह उसे जीवन पर्यंत नहीं भूल सकता. पातालकोट में रहने वाली जनजाति की मानवीय धड़कनों का अपना एक अद्भुत संसार है,जो उनकी आदिम परंपराओं, संस्कृति,रीति-रिवाज, खान-पान, नृत्य-संगीत, सामान्यजनों के क्रियाकलापॊं से मेल नहीं खाते. आज भी वे उसी निश्छलता,सरलता तथा सादगी में जी रहे हैं.

यहाँ प्राकृतिक दृष्यों की भरमार है. यहाँ की मिट्टी में एक जादुई खुशबू है, पेड-पौधों के अपने निराले अंदाज है, नदी-नालों में निर्बाध उमंग है, पशु-पक्षियों मे निर्द्वंद्वता है ,खेत- खलिहानों मे श्रम का संगीत है, चारों तरफ़ सुगंध ही सुगंध है, ऐसे मनभावन वातावरण में दुःख भला कहाँ सालता है?. कठिन से कठिन परिस्थितियाँ भी यहाँ आकर नतमस्तक हो जाती है सूरज के प्रकाश में नहाता-पुनर्नवा होता- खिलखिलाता-मुस्कुराता- खुशी से झूमता- हवा के संग हिचकोले खाता- जंगली जानवरों की गर्जना में कांपता- कभी अनमना तो कभी झूमकर नाचता जंगल,  खूबसूरत पेड-पौधे, रंग-बिरंगे फ़ूलों से लदी-फ़दी डालियाँ, शीतलता और ,मंद हास बिखेरते, कलकल के गीत सुनाते, आकर्षित झरने, नदी का किसी रुपसी की तरह इठलाकर- बल खाकर, मचलकर चलना देखकर, भला कौन मोहित नहीं होगा ?. जैसे –जैसे सांझ गहराने लगती है,और अन्धकार अपने पैर फ़ैलाने लगता है, तब अन्धकार में डूबे वृक्ष किसी राक्षस की तरह नजर आने लगते है और वह अपने जंगलीपन पर उतर आते हैं. हिंसक पशु-पक्षी अपनी-अपनी मांद से निकल पडते हैं, शिकार की तलाश में.  सूरज की रौशनी में, कभी नीले तो कभी काले कलूटे दिखने वाले, अनोखी छटा बिखेरते पहाडों की श्रृंखला, किसी विशालकाय दैत्य से कम दिखलाई नहीं पडते. खूबसूरत जंगल ,जो अब से ठीक पहले,  हमें अपने सम्मोहन में समेट रहा होता था, अब डरावना दिखलायी देने लगता है. एक अज्ञातभय, मन के किसी कोने में आकर सिमट जाता है. इस बदलते परिवेश में पर्यटक, वहाँ रात गुजारने की बजाय ,अपनी-अपनी होटलों में आकर दुबकने लगता है, जबकि जंगल में रहने वाली जनजाति के लोग, बेखौफ़ अपनी झोपडियों में रात काटते हैं. वे अपने जंगल का, जंगली जानवरों का साथ छॊडकर नही भागते. जंगल से बाहर निकलने की वह सपने में भी सोच नहीं बना पाते. “जीना यहाँ-मरना यहाँ” की तर्ज पर ये जनजातियां बड़े सुकून के साथ अलमस्त होकर अपने जंगल से खूबसूरत रिश्ते की डोर से बंधे रहते हैं.

अपनी माटी के प्रति अनन्य लगाव, और उनके अटूट प्रेम को देखकर एक सूक्ति याद हो आती है.”जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरियसी”= जननी और जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान होती है” को फ़लितार्थ और चरितार्थ होते हुए यहाँ देखा जा सकता है. यदि इस अर्थ की गहराइयों तक अगर कोई पहुँच पाया है, तो वह यहाँ का वह आदिवासी है, जिसे हम केवल जंगली कहकर इतिश्री कर लेते है. लेकिन सही मायने में वह “:धरतीपुत्र” है,जो आज भी उपेक्षित है.

COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. क्या याद दिला दिया साहब...
    पचमढी में छह दिन रुक थे और गलती ये हुई की आख़िरी दिन पातालकोट जाने के लिए नियत किया था| सुबह निकले भी तो रास्ते से ही लौटना पड़ा, किसी एक्सीडेंट के चलते सड़क टूट गई थी या ऐसा ही कुछ|
    बहुत इच्छा है जरूर जायेंगे कभी और हो सका तो इन धरतीपुत्रों की तरह ही रात भी उन्हीं की धरती पर गुजारेंगे|

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  2. गोवर्धन यादव8:44 am

    धन्यवाद संजय जी.

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  3. रोमांचक भी और रोचक भी .
    इस वृतांत को पढ़कर लगता है एक बार मध्य प्रदेश अवश्य देखना चाहिए.
    पातालकोट भी कोई स्थान हो सकता है..आज जान लिया.
    वहाँ के आदिवासीजन के बारे में जानकारी मिली और लगा कि वे मिलनसार हैं .
    और अधिक इस स्थान के बारे में जानने की जिज्ञासा है.
    अब नेट पर देखते हैं कहीं और इससे अधिक जानकारी या विडियो इस स्थल की सुंदरता के देखने को मिलें तो.

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  4. गोवर्धन यादव3:38 pm

    मान. अल्पनाजी-इस खूबसूरत पर्यटन स्थल पर एक बार आएं जरुर और अपने लोगों को इसके बारे में भी बतलाएं-ध्न्यवाद आपको कि लेख पसंद आया.

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: गोवर्धन यादव का आलेख : एक अजूबा धरती पर
गोवर्धन यादव का आलेख : एक अजूबा धरती पर
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