रामवृक्ष सिंह का आलेख - शिक्षा की दुकान

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लेख शिक्षा की दुकान डॉ. रामवृक्ष सिंह टाइम्स ऑफ इंडिया के शनिवार, 28 जुलाई 2012 अंक में एक बड़ा-सा विज्ञापन छपा है, जिसकी शुरुआती लाइन का...

लेख

शिक्षा की दुकान

डॉ. रामवृक्ष सिंह

टाइम्स ऑफ इंडिया के शनिवार, 28 जुलाई 2012 अंक में एक बड़ा-सा विज्ञापन छपा है, जिसकी शुरुआती लाइन का भावार्थ है- शिक्षा एक लाभप्रद व्यवसाय है। दरअसल यह विज्ञापन जमीन-जायदाद का कारोबार करने वाली एक बहुत ही नामी-गिरानी कंपनी की ओर से जारी हुआ है और इसमें दिल्ली के आस-पास विकसित हो रही किसी कॉलोनी में कंपनी की और से प्रस्तावित विभिन्न आकार के प्लॉटों की खरीद के लिए ग्राहकों को आमंत्रित किया गया है। ये प्लॉट नर्सरी स्कूल से लेकर स्नातक स्तर की शैक्षिक संस्थाएं खोलने के लिए उपलब्ध हैं।

ज़ाहिर है कि जमीन-जायदाद का व्यवसाय करने वाली कंपनी ने शिक्षा के कारोबार से जुड़े अपने भावी ग्राहकों को लुभाने के लिए यह विज्ञापन जारी किया है। शिक्षा फायदे का सौदा है, यह कोई ऐसा रहस्य नहीं है, जो शिक्षा के कारोबार से जुड़े लोगों को ज्ञात न हो। रीयल एस्टेट कंपनी ने तो इस तथ्य का पुनर्कथन मात्र किया है। हो सकता है कि उसका उद्देश्य अपनी संपत्तियों के लिए बिलकुल नए लोगों को आकर्षित करना भी रहा हो। अंततः सच्चाई तो यही है कि इस देश में जो भी निजी संस्थाएं शिक्षा का कारोबार चला रही हैं, वे बखूबी जानती हैं कि शिक्षा लाभप्रद व्यवसाय है।

शिक्षा, जो राज्य और केंद्र की समवर्ती सूची में आती है और इस देश के चौदह साल तक के बच्चों के लिए सरकार की ओर से मुफ्त मुहैया होनी थी, और जो इस उम्र तक के हर बच्चे का बुनियादी अधिकार है, और जिसकी डोर पकड़कर घुरहू मजदूर और मुरहू किसान, दोनों के बच्चे सिर्फ एक पीढ़ी के अंतराल में अपने माँ-बाप की गरीबी को धता बताते हुए, उनसे सैकड़ों गुना ऊंचे मुकाम पर पहुँचकर ऐशो-आराम की जिन्दगी बिताने की काबिलियत पा सकते हैं, वह फायदे का सौदा कैसे बन गई? दरअसल हुआ यह कि ज्यादातर सरकारी स्कूल शिक्षा के मामले में कुछ खास कर नहीं पाए और बीटी, बीएड पास मध्य-वर्गीय (और प्रायः शहराती) युवाओं को रोजगार देने का साधन मात्र बनकर रह गए। दो कदम आगे बढ़ें तो ये स्कूल गाँव के गरीब-गुरबा के अभावग्रस्त बच्चों को उल्टे-सीधे मध्याहन भोजन की प्रदायगी का केंद्र बन गए। बच्चे कटोरी-चम्मच लिए स्कूल गए, दलिया-खिचड़ी खाई और लौट आए। पता नहीं, शहर और कस्बे से कृपा-पूर्वक पधारे मास्टरजी, सर और मैम ने कुछ पढ़ाया-लिखाया या नहीं। हाँ, पाँच साल बाद जब प्राइमरी पास करके निकले, तो भी इन बच्चों को अपनी मातृभाषा तक की किताबें पढ़ने और दो लाइन लिखने तथा साधारण जमा-घटा करने की योग्यता नहीं हासिल हो पाई थी। इसलिए मजबूरी में घुरहू और मुरहू, दोनों ने अपने-अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से हटाकर, प्राइवेट स्कूल भेजने में ही अपनी खैर मनाई। क्या शहर क्या गाँव, समाज के हर तबके में, नीचे से ऊपर तक सबका यही अनुभव रहा और अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर उनका सोया नसीबा जगाने का यही रास्ता सबने अख्तियार किया। अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से सबने अपने-अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने में ही अक्लमंदी समझी।

यदि सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा मिल रही होती तो देश के बड़े-बड़े लोग, नेता और हुक्मरान अपने बच्चों को इन साधारण सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाते? चूंकि सरकारी स्कूलों में शिक्षा की हालत खस्ता थी, इसलिए इन लोगों ने अपने बच्चों की उत्तम शिक्षा के लिए बढ़िया प्राइवेट स्कूलों को आगे बढ़ाया। इसकी शुरुआत दो-तीन सदी पहले अंग्रेजों के मिशनरी स्कूलों से हुई। विभिन्न कारणों से इन स्कूलों में अच्छी शिक्षा अपेक्षाकृत कम मूल्य पर उपलब्ध थी, और देश के गरीब, उपेक्षित वर्गों के बच्चों के प्रवेश को तरज़ीह दी जाती थी। आज अपने देश में अनुसूचित जनजातियों के जो लोग बड़े-बड़े मुकामों पर पहुँचे हैं, डॉक्टर और इंजीनियर बन गए हैं या सरकारी सेवा में ऊंचे पदों पर आ गए हैं, उनकी प्रगति का श्रेय इन मिशनरी स्कूलों को दिया जाना चाहिए। चर्च ने इन लोगों की जिन्दगी में शिक्षा का उजियारा फैलाया। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता।

सत्तर और अस्सी के दशक में और उसके बाद नवोदय विद्यालय सरीखे स्कूलों और केंद्रीय विद्यालयों ने इस दिशा में कुछ अच्छे प्रयास किए, लेकिन उनकी सारी पहल ऊँट के मुँह में जीरे की तरह ही रही। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में माँग हमेशा ही आपूर्ति की अपेक्षा बहुत अधिक रहती चली आई और इसी की पूर्ति प्राइवेट स्कूलों और उच्चतर शिक्षा प्रदान करनेवाली संस्थाओं ने की। इसी बीच आईटी और अभियांत्रिकी के अन्य क्षेत्रों में भारत के महानगरों, खाड़ी के देशों, यूरोप, अमेरिका और दक्षिण-पूर्व के देशों में आई रोजगार की बाढ़ ने लोगों पर जाहिर कर दिया कि यदि बच्चे अच्छे से पढ़-लिख लें तो उनके दुःख-दारिद्र्य हमेशा के लिए दूर हो जाएँगे। अच्छी शिक्षा के लिए अभिभावक कुछ भी कीमत अदा करने को तैयार हो गए। उत्तम शिक्षा प्रदायगी के सरकारी इंतजाम या तो नाकाफी थे या नाकाबिल। लिहाजा निजी क्षेत्र के व्यवसायियों ने इस मौके को भुना लिया। लोगों ने दो-दो कमरों के मकानों में स्कूल खोल लिए। उच्च शिक्षा के लिए ऋण देने में बैंकों को भी व्यवसाय का एक नया आयाम नज़र आया।

यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने छात्रों के लिए भाषा, गणित और संगीत की शिक्षा के साथ-साथ, खेलों की अनिवार्यता पर भी बल दिया था। उनका विचार था कि खेल से शरीर का विकास होता है और संगीत से आत्मा का। दो-दो, तीन-तीन कमरों के मकानों में चलनेवाली शिक्षा की दुकानों में बच्चे खेल के नाम पर छुपन-छुपाई खेल लें और संगीत के नाम पर राष्ट्र-गान गा लें, तो बहुत है। शुरुआत में जो सरकारी स्कूल खुले थे, उनमें खेल के मैदान थे, खेल भी होते थे। बाद में खेलों के लिए सरकार की ओर से अलग स्कूल व कॉलेज खोल लिए गए और एक प्रकार से यह जता दिया गया कि बाकी के स्कूलों, यानी स्पोर्ट्स हॉस्टलों और स्पोर्ट्स कॉलेजों से इतर शैक्षिक संस्थाओं में पढ़नेवाले बच्चों को खेल-कूद में समय गँवाने की ज़रूरत नहीं है। इसका अभिप्राय यह भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि इन स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खूब बढ़िया इंतजाम सुनिश्चित कर दिया गया। यदि ऐसा हुआ होता तो दिल्ली के सरकारी स्कूलों के बच्चे बोर्ड परीक्षाओं में इतनी बुरी तरह फेल नहीं हुआ करते। यदि बोर्ड परीक्षाओं में बच्चे अच्छे अंक ला पाए तो इसका श्रेय प्राइवेट कोचिंग संस्थानों और बच्चों की खुद की मेहनत को दिया जाना चाहिए। और केवल खेल के लिए जो संस्थान खोले गए, उनका परिणाम क्या निकला, यह देखना हो तो अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भारत की पतली हालत पर जरा गौर फर्माइए। लंदन के ओलंपिक खेल आपके सामने चल ही रहे हैं। और दिल्ली-कॉमनवेल्थ खेलों के खेल से सभी पहले से ही अवगत हैं।

अभिप्राय यह कि प्राइवेट स्कूलों और प्राइवेट कॉलेजों के लिए शिक्षा की दुकानें खोलने का बड़ा ही सुनहरा मौका था और उन्होंने उपर्युक्त रीयल एस्टेट कंपनी के बताने से बीसियों साल पहले इस मौके को भुनाना शुरू कर दिया था। शिक्षा के कुछ व्यवसायियों को हमारी इस बात पर आपत्ति हो सकती है। यों तो इस देश में लोगों को काम करने से अधिक आपत्तियाँ करने में सुख मिलता है। लेकिन यदि किसी बड़े भाई को आपत्ति हो तो हम उदाहरण और प्रमाण देकर अपनी बात स्पष्ट कर सकते हैं। आज कोचिंग के नाम पर अभिभावक लाख-लाख, डेढ़-डेढ़ लाख रुपये सालाना व्यय कर रहे हैं, ताकि उनके बच्चे इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा में पास हो जाएँ। इन परीक्षाओं का पाठ्यक्रम बारहवीं के स्तर का होता है। यदि स्कूलों में ढंग से पढ़ाई होती है तो बच्चों को कोचिंग में अलग से पढ़ने की ज़रूरत क्यों रह जाती है?

सन 2001 में इन पंक्तियों के लेखक का बेटा केंद्रीय विद्यालय, मैदा मिल, भोपाल में दसवी का छात्र था। महिला प्रिंसिपल ने अभिभावकों की बैठक बुलाई। मैंने कहा कि मैडम जो बच्चे गणित और विज्ञान में कमजोर हैं, उनकी अतिरिक्त कक्षाएं लगवाकर कमजोरी दूर करा दें। प्रिंसिपल भड़क उठीं- क्या हमारे खुद के बच्चे नहीं हैं, जो हम इन बच्चों के लिए अलग से क्लास लगवाएँ? बांगला-भाषी प्रिंसिपल महोदया हिंदी की बहुत बड़ी (और अब बुजुर्ग) नायिका की बहन लगती हैं। इस नाते उनके लिए मेरे मन में एक अलग स्थान था। लेकिन बतौर शिक्षिका उन्होंने जो बात कही, वह अशोभनीय थी। क्या शिक्षकों का यह दायित्व नहीं बनता कि वे कमजोर बच्चों पर ज्यादा ध्यान दें? हमारे शिक्षकों ने भी अगर यही रुख अपनाया होता तो प्रायः अनपढ़ माँ-बाप के घर जन्म लेकर भी आज हम इस मुकाम पर न होते। गुरु को गोविन्द से ऊँचा स्थान देने का जज्बा भी अपने देश में शायद तब न होता।

कुछ प्राइवेट स्कूलों में बच्चों की बाकायदा मेंटरिंग होती है। शिक्षक हर महीने उनके घर जाते हैं और उनकी पढ़ाई-लिखाई के बाबत उनके माता-पिता से बात करते हैं। उनके सर्वांगीण विकास पर विशेष ध्यान देते हैं। अपनी गुरु-शिष्य परंपरा में तो यह बात हमेशा से चलती चली आ रही थी। लेकिन आज जब शिक्षा ने व्यवसाय का रूप ले लिया है तो यह कहते हुए दुःख होता है कि येन-केन-प्रकारेण लाभार्जन के तौर-तरीके भी इस व्यवसाय में प्रवेश कर गए हैं।

ग्राहकों यानी छात्रों व अभिभावकों को अंधेरे में रखना और उनके भोलेपन का लाभ उठाना भी व्यावसायिक दांव-पेंच का एक हिस्सा बन गया है। इसे प्रमाणित करने के लिए एक नजीर देते हैं। लखनऊ के कुर्सी रोड से सटा एक एमबीए, एमसीए कॉलेज है। अपना बच्चा वहाँ से एमबीए कर रहा था। दूसरे वर्ष में प्लेसमेंट के लिए कॉलेज के विद्यार्थियों को गुजरात ले जाया गया। वहाँ कॉलेज के दो शिक्षक पहले ही पहुँच गए थे। सरखेज-गाँधीनगर हाइवे पर किसी बिल्डिंग के दो कमरों में विद्यार्थियों के साक्षात्कार हुए। अपने-आपको राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एग्जीक्युटिव बतानेवाले कुछ लोगों ने इन विद्यार्थियों से कुछ रस्मी सवालात पूछे, जिनका एमबीए की पढ़ाई या कैरियर आदि से कोई लेना-देना नहीं था। दो-तीन घंटे बाद कुछ छात्रों को मौखिक सूचना दी गई कि आपका चयन हो गया है। अपने बेटे ने एसएमएस किया- यूके की कंपनी में चयन हो गया है, पैकेज चार लाख रुपये। हमने सबको यह खुशखबरी दे दी। यही प्रक्रिया कॉलेज के शिक्षकों ने जयपुर में की। यहाँ भी कुछ विद्यार्थियों को चयन की मौखिक सूचना दी गई। विद्यार्थी खुशी-खुशी वापस आकर पढ़ने में जुट गए। प्लेसमेंट का लिखित ऑफर किसी को नहीं मिला। पूछने पर कॉलेज के शिक्षक व डायरेक्टर यही कहते कि चूंकि अभी सेमेस्टर पूरा होने में दो-तीन महीने बाकी हैं, और परीक्षा अभी नहीं हुई है, इसलिए ऑफर लेटर नहीं आ रहा है।

परीक्षाएं पूरी हो गईं। डेढ़-दो महीने में परिणाम भी आ गए। नया सत्र शुरू हो गया। कॉलेज ने तथाकथित चयनित छात्रों की सूची, मय पैकेज के, कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर चस्पा दी, जबकि सच्चाई यह है कि कॉलेज से एक भी प्लेसमेंट नहीं हुआ। इस घटना को डेढ़ साल बीत चुके हैं, अब तक कोई ऑफर नहीं आया है। नए छात्र नोटिस बोर्ड पर चस्पा झूठ पढ़कर संतुष्ट हो जाते हैं कि इस कॉलेज का प्लेसमेंट और पैकेज तो अच्छा है। अभी तक कॉलेज से अपने बेटे की डिग्री नहीं मिली है, इसलिए चुप बैठे हैं। इन झूठे, चालबाज लोगों का क्या भरोसा! कहीं ऐसा न हो कि डिग्री ही दबाकर बैठ जाएँ!

यकीनन, शिक्षा का व्यवसाय हमेशा फायदे का सौदा है। कम से कम हमारे देश के बारे में तो यह प्रपत्ति सोलहों आने सच है। अब भी अपने देश में लगभग तीस प्रतिशत आबादी निरक्षर है। जो साक्षर हैं, उनमें से शिक्षित कितने हैं, कुछ कह नहीं सकते। लोगों की आदतें, चाल-चलन, आचार-व्यवहार, नीति और आदर्श देखकर तो ऐसा लगता है कि सुशिक्षित-सुसंस्कृत लोगों का प्रतिशत बहुत ही कम होगा। लेकिन दुकान पर सुशिक्षा और सुसंस्कार की कोई माँग नहीं है। माँग है डिग्री-प्रदायिनी साक्षरता की। अपनी मध्यवर्गीय बेटियाँ तब तक पढ़ती रहती हैं जब तक ब्याह नहीं हो जाता और बेटे तब तक कॉलेजों के गलियारे में जीन्स-जूते रगड़ते रहते हैं, जब तक कहीं से नौकरी की चिट्ठी नहीं आ जाती।

तरह-तरह की डिग्रियाँ प्रचलन में आ गई हैं। भगवान जाने इन डिग्रियों के पाठ्यक्रमों में छात्र जो कुछ पढ़ते हैं, उसका उनके वास्तविक जीवन में कहीं इस्तेमाल भी होता है या नहीं। हम तो इतना जानते हैं कि अपने बैंक में कार्यरत अधिकारियों में लगभग सत्तर-पचहत्तर प्रतिशत के पास इंजीनियरिंग की डिग्रियाँ हैं। पर काम क्या है उनके पास? वही लेजर राइटिंग, जमा-घटा, फोटो-कॉपी, डिस्पैच, कागजों की पंचिंग और फाइलिंग। समझ ही नहीं आता कि फिर बीई, बीटेक क्यों किया था।

इधर देख रहे हैं कि एमबीए, एमसीए की बहुत-सी दुकानें धीरे-धीरे बंद हो रही हैं। होनी भी चाहिए। कारण? अभिभावक बैंकों से कर्ज ले-लेकर दस-बारह लाख रुपये खर्च करके अपने बेटों-बेटियों को पढ़ाते हैं और सारी कसरत के बाद बच्चे बेरोजगार रह जाते हैं। यदि नौकरी मिलती भी है तो अधिक से अधिक दस-पंद्रह हजार रुपये महीने की, वह भी महँगे शहरों में। इतनी पगार तो खोली के भाड़े में ही खर्च हो जाएगी। अभिभावक माथा पकड़कर सोचते रह जाते हैं कि यदि पढ़ाई पर खर्च हुई सारी रकम को बैंक में फिक्स्ड डिपॉजिट करा देते तो ब्याज के रूप में ही पगार बराबर पैसा मिल जाता। लिहाजा शिक्षा की दुकानों से लोगों का मोह भंग हो रहा है और दुकानें बंद हो रही हैं। मैनेजमेंट व इंजीनियरिंग कॉलेजों के बिकाऊ होने के विज्ञापन अखबारों में गाहे-ब-गाहे दिखने लगे हैं। इस समाज में जब सब कुछ बिकाऊ होकर नीलाम-घर में पहुँच चुका है तो शिक्षा और शैक्षिक संस्थान भी उसके अपवाद क्यों रहें? भवानी भाई के इस जन्म-शती वर्ष में उन्हीं के शब्दों में इस आलेख का समाहार करने का मन होता है- “जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान। जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान।“ (गीतफरोश)

डॉ. आर.वी. सिंह

उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)/ Dy. G.M. (Hindi)
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक/ Small Inds. Dev. Bank of India
प्रधान कार्यालय/Head Office
लखनऊ/Lucknow- 226 001

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रचनाकार: रामवृक्ष सिंह का आलेख - शिक्षा की दुकान
रामवृक्ष सिंह का आलेख - शिक्षा की दुकान
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