पिता - के नाम एक कविता यह तुम्हारा स्नेह ही तो था, जो संघर्षों के जंगल में, किसी बासंती बयार की तरह, सहलाता रहा मेरे शूल चुभे पांवों को. फू...
पिता - के नाम एक कविता
यह तुम्हारा स्नेह ही तो था,
जो संघर्षों के जंगल में,
किसी बासंती बयार की तरह,
सहलाता रहा मेरे शूल चुभे पांवों को.
फूलों की सेज न सही,
हरियाली तो थी मेरे सामने ..
खुले आकाश की तरह.
कुछ सपने थे इन्द्रधनुषी, ..
कल्पना के पंखों पर तैरते हुए..
किसी अज्ञात मंजिल की तलाश में-
यह तुम्हारा स्नेह ही तो था-
जिसने मेरे थके पांवों को एक दिशा दी,
भटके हुए रेगिस्तान में -पानी की एक बूंद की तरह..
चातक सा मन भटकता रहा,
किसी स्वाति बूंद की तलाश में-
पलकों पर छाये बादल घने होते गए,
अँधियारा घिरने लगा-
यह तुम्हारा स्नेह ही तो था,
जिसने प्यासे होठों को ,
अंतर के आंसुएम से सींचा था.
ओ पिता!,..माँ, तुम हो तो मैं हूँ,
मेरे सपने हैं..मेरे गीत भी,
मैंने पार किये खाई, जंगल ,पहाड़,
संवारा अपने सुरभित आकाश को,
यह तुम्हारा स्नेह ही तो था, -
जो चलता रहा, प्रति पल, प्रति क्षण, -
मेरी साँसों के साथ साथ ...-''
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-तुलसी के राम - --
'हुलसी' के आँचल में 'तुलसी' सा पुष्प खिला,
वन्दनीय गाथा है 'तुलसी' के नाम की.
तुलसी के 'मानस' ने गढ़ दी है परिभाषा ,
मानव संबंधों की, रघुवंशी आन की .
जन जन में व्यापित है मानस की राम कथा,
पूजित हर घर में है मर्यादा राम की.
प्राणों में गुंजित है आज भी अयोध्या के,
जब से विराजे हैं राम-सिया-जानकी.
आज वही सीता भटकती है,द्वार,द्वार,
लांछित, अपमानित, सी कितनी है एकाकी,
मौन ,मूक दर्शक से राम ,यहाँ क्यों चुप हैं?
कहाँ खो गयी है अब मर्यादा राम की?
सबको प्रतीक्षा है तुलसी के आने की,
पथराई आँखों को आशा है राम की.
राम की अयोध्या में मर्यादित राम नहीं,
चलता है छल छंदी रावन का राज यहाँ,
आज फिर पुकारती है पीडिता वसुन्धरा,
आज फिर प्रतीक्षा है तुलसी के राम की.
तुलसी के 'मानस' में राम पुनः आयेंगे,
पुनः मुस्कराएगी श्यामला वसुन्धरा,
सावन के मेघों से स्नेह पुनः बरसेगा,
जागेगी मानस की पावनी- परंपरा.
गीत धरा गायेगी मानव की जीत की.
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नदी और सागर का रिश्ता बहुत पुराना है, एक अनोखा रिश्ता,जिसका कोई नाम नहीं होता ......
नदी-सागर-और दोस्ती''
दूर रह कर भी नहीं जो टूटती है,
अनकही सी भावनाएं जोडती है,
दोस्ती अहसास की कच्ची कली है,
जो कहानी धडकनों में सोचती है.
दोस्ती ऎसी नदी है जिन्दगी की,
धार बन बहती रही हैं भावनाएं,
मन का सागर पा सके न दो किनारे,
लहर संग ढलती रही हैं कामनाएं.
साथ चलना है हमें सागर किनारे,
पर लहर के साथ हम बहने न पायें
मिल न पायें हम,भले ही युग युगों तक,
रास्ते विश्वास के मिटने न पायें.
कल कभी तुम साथ आओ या न आओ,
मै अकेली ही चलूंगी कर्म पथ पर,
बस यही अहसास हो संबल हमारा ,
तुम हमेशा ही मेरे अहसास में हो.......!
कह उठा सागर 'समर्पण हूँ तुम्हारा,
दूर हो, फिर भी मगर -हर सांस में हो.
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तब गाँव याद आये
जब राह थी अकेली और शूल चुभे पथ पर,
साथी की याद आई ,तब गाँव याद आये
वो खेल,खेत झूले,हम आज नहीं भूले,
मौसम कोई रुलाये,तब गाँव याद आये.
चंदा की चांदनी में, लहरों पर नाव लेकर,
नदिया कोई मिलन की यादों में बहती जाये.
अपना कोई बुलाये, तब गाँव याद आये.
तपती दुपहरी में भी, निमिया की छांह प्यारी,
सोंधी सुगंध, माटी, चन्दन सी लहकी क्यारी,
मन हुलस हुलस गाये,तब गाँव याद आये.
अमवा की मंजरी सी, अम्मां की मीठी बतियाँ,
घर आँगना रंभाती, वो धौरी, गौरी गैया,
यादों में झिलमिलाये, तब गाँव याद आये.
दुनिया की भीड़ में भी जब मन हुआ अकेला,
सब राग जिन्दगी के, धूमिल लगा ये मेला,
सुधियाँ कभी रुलाएं ,तब गाँव याद आये.
नदिया किनारे बैठी करती मिलन की बतियाँ,
गौने में आई बिटिया, तब छेड़ती हैं सखियाँ,
वो लाज के तराने पलकों में झिलमिलाये,
तब गाँव याद आये, तब गाँव याद आये.
शहरों में खो गई हैं,सब मन की भावनाएं,
बस राह जिन्दगी की विस्तार देती जाये,
पगडंडियाँ ,बुलाएं,तब गाँव याद आये.
आंसू ने जब कहा कुछ, नैनों में झिलमिलाये,
बचपन की भोली बतियाँ ,ममता की छांहचाहें,
दुःख,दर्द याद आये,तब गाँव याद आये. –
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- -- माँ
माँ औपचारिकताओं में नहीं,
हमारी संवेदनाओं में जीती है..
जब हम रोते हैं ,
तो रोती है , माँ,
हमारी खुशियों में ,सुखों में,
हमेशा साथ होती है -माँ',
जिंदगी के अकेलेपन में,
साथ कोई न हो,
पर ममता क़ी छाँव बनी ..
हमारे आसपास होती है-माँ'',
हमारे आंसुओं से दर्द का अहसास मिटाती,
सर्द होठों पर,
सुकून की एक मुस्कान होती है -माँ'',
साथ न रहकर भी, हमारी यादों में,
पल पल साथ होने का विश्वास होती है-माँ''
जग की उपेक्षाओं में ,..जीवन संघर्षों में,
नेह रस बरसाती,
एक स्नेह भरा हाथ होती है-माँ''.
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माँ,
तुम हो यहीं कहीं,..मेरे आसपास,
भींगी पलकें जब यादों का सहारा चाहती हैं,
तुम तब भी -मेरे साथ होती हो ..माँ,
जैसे मैं तुम्हें छू सकती हूँ,
महसूस कर सकती हूँ--
''तुम्हारे कदमों की आहट,
जब ये अधर कुछ्फ रियाद करते हैं,
तो जैसे..
तुम सुनती हो मेरी आवाज,
बिन कहे मान लेती हो,
मेरी हर बात ..और मैं खुश हो जाती हूँ,
किसी जिद्दी बच्चे क़ि तरह,
तुम सामने क्यों नहीं आती माँ?
मैं छूना चाहती हूँ तुम्हारा आँचल,
देखना चाहती हूँ -वो ममता भरी आँखें..
समेटना चाहती हूँ -तुम्हारी मुस्कान,
सुनो माँ!...कहीं जाना नहीं,
बस यूँ ही रहो मेरे आसपास,
अहसास बनकर-
मेरा साथ और विश्वास बनकर,
--तुम मेरे पास हो ...हमेशा!
--पद्मा मिश्रा
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 18/08/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंkafi marmik kavitayen!
जवाब देंहटाएंshabdashah kavyik.
manoj'aajiz'