हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें

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ग़ज़ल 52 वहाँ के धुप्प अँधेरों में भी बिजली सा उजाला है II  यहाँ सूरज चमकते  हैं मगर हर सिम्त काला है II जो पाले हैं चनों ने  वो  हिरन ,खरगो...

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ग़ज़ल 52

वहाँ के धुप्प अँधेरों में भी बिजली सा उजाला है II 

यहाँ सूरज चमकते  हैं मगर हर सिम्त काला है II

जो पाले हैं चनों ने  वो  हिरन ,खरगोश ,घोड़े  हैं ,

ये कछुए , केंचुए  हैं  जिनको बादामों ने पाला है II 

वहाँ स्कूल ,कालिज ,अस्पताल और धर्मशाले हैं ,

यहाँ पग पग पे मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारा,शिवाला है II 

वहाँ हर हाल में हर काम होता वक्त पर पूरा ,

यहाँ सबनें सभी का काम कल परसों पे टाला है II  

यहाँ हर एक औरत सिर्फ औरत है जनाना है ,

वहाँ दादी है ,चाची है ;कोई अम्मा है, खाला है II  

 

              ग़ज़ल 53

कूदते फांदते बन्दर सधी जब चाल चलते हैं II  

मेरे जंगल के  हाथी मेंढकों जैसे  उछलते हैं II 

हिमालय पे भी जब राहत पसीने से नहीं मिलती ,

हथेली आग लेकर हम मरुस्थल को निकलते हैं II  

तुम्हारे हंस बगुले जब लगायें लोट कालिख में ,

मेरे कौए बदन पे गोरेपन की क्रीम मलते हैं II  

जमाते हो तुम आइसक्रीम को जब सुर्ख भट्टी में ,

मेरे बावर्ची भजिये बर्फ के पानी में तलते हैं II 

वो जब भी डूबने लगते  हैं पानी एक चुल्लू में , 

बचाने  को मेरे तैराक फ़ौरन  कूद पड़ते  हैं II

 

              ग़ज़ल 54

लस्त पस्तों की  कसक  को जक मिले II  

हम से जल भुन कर लपक ठंडक मिले II 

सब खुशामदियों के जैसे सामने ,

पीठ पीछे सब चहक निंदक मिले II  

कमनसीबी थी हमारी और क्या ,

हंस की मेहनत में लकदक वक मिले II  

भीख  में न खुद-ब-खुद न इत्तेफाकन ,

लड़ झगड़ कर हमको ये चक हक मिले II  

दिख गई भूले अगर इंसानियत ,

मजहबी बेशक कलक भौचक मिले II  

 

         ग़ज़ल 55

आँखों को मेरा अक्स इस कदर खटक गया II  

आईना  खुद  ब  खुद  पटाक से चटक गया II

दांतों से पकड़ रक्खा था लेकिन ज़हे नसीब ,

मुट्ठी से वक़्त रेत के जैसे सटक गया II  

ओलों  सा आस्मां  से टपक तो रहा था मैं ,

चमगादड़ों सा फिर खजूर पर लटक गया II  

तेरे लिए तो मीलों मील दौड़ा हिरन सा ,

अपने लिए मैं चार कदम चलके थक गया II  

मैं फ़र्जे रहनुमाई में गद्दार नहीं था ,

जो सबको सही राह दिखा खुद भटक गया II

 

          ग़ज़ल 56

उनकी तो मेहरबानियाँ भी कहर लगती हैं II  

यूं  पिलाती  हैं  दवाएँ  कि  ज़हर लगती हैं II

सींचती हैं कुछ इस तरह से अपनी बगिया वो ,

तुलसियाँ  नीम के, बरगद के शज़र लगती हैं II

दिल्ली कलकत्ता मुम्बई भी उसको गाँव लगें ,

हमको अदना सी बस्तियाँ भी शहर लगती हैं II

न सुबह सा है न उनका है शाम जैसा मिजाज़ ,

वो देर रात या फिर भर दोपहर लगती हैं II

माँगकर खाती हैं वो माँगकर पहनती हैं ,

शक्लो सूरत से मालदार मगर लगती हैं II

यूं हमेशा ही वो लगती हैं चाँद का टुकड़ा ,

जब वो सजती हैं संवरती हैं क़मर लगती हैं II 

 

            ग़ज़ल 57

भलाई की  है  कि  इक अच्छी बुराई कर दी II 

अलग था गेहूँ से उस घुन की पिसाई कर दी II 

वो कर रहा था उसके साथ में ज़बरदस्ती ,

हमने बदले में उसे उसकी लुगाई कर दी II

सिर्फ इक अफवाह के तूफ़ान ने ज़माने में ,

अपनी इज्ज़त जो हिमालय थी वो राई कर दी II

उधार लेके बनाने चले थे खीर गरीब ,

किसी अमीर ने उसमें भी खटाई कर दी II 

खूँ के रिश्तों का था पहले लिहाज अदब अबके ,

ख़ता पे बाप की बच्चों ने पिटाई कर दी II

न माँगा देके ग़ैर  को तवील मुद्दत तक ,

हमने अपनी वो चीज़ ऐसे पराई कर दी II 

हमने पिंजरे से परिंदे के भाग जाने पर ,

सजा के तौर पे पर काट रिहाई कर दी II 

 

         ग़ज़ल 58

आईने बड़े शौक से तकने लगे अंधे II 

गंजे  हुए  कुबेर तो रखने लगे कंघे II 

न जाने किस बिना पे दौड़ उड़ वो रहे हैं ,

यूं पाँव नहीं उनके और न पीठ पे पंखे II 

शफ्फाक बदन उनका जितना एक कँवल हो ,

उतने ही दिल से वो बुरे नापाक ओ गंदे II

पीते नहीं शराब कई बेचने वाले ,

मालिक मगर न कपडा मिल के रहते हैं नंगे II

वो फ़िर भी सियासत में कामयाब रहे हैं ,

गुंडे न थे बदमाश न थे और न लफंगे II

महसूल भी न देते जहाँ लोग ख़ुशी से ,

देंगे वहाँ कहाँ मदद के नाम पे चंदे II

खुशियाँ लगें हमेशा ही मानिंद ए फुट इंच ,

ग़म जाने क्यूँ लगें प्रकाश वर्ष से लम्बे II

 

         ग़ज़ल 59

बाहर  रेल   की पटरी से भारी भरकम II

अन्दर रबर के पाइप से भी हलके हम II

थक कर  चूर चूर  हैं  लेकिन जाने क्यूँ ,

खुद को दिखलाते  हैं हरदम ताजादम II

चेहरे  से  यूँ  दर्द  नदारद  रखते  हैं ,

लोग मान लेते हैं , हैं बिलकुल  बेग़म II

मत हराम तू कह शराब को मैकश से ,

जिसका मक्का मैखाना; दारू ज़मज़म II

सब कुछ है फ़िर भी करते हैं भागमभाग ,

जीने  की  ही  खातिर  होते  हैं बेदम II

अंधे अक्सर चश्मों की चर्चा में मगन ,

बिन टांगों वाले सपनों में नचें छमछम II

पैसा बंद हुआ रूपये की कीमत कम ,

मंहगे ईंधन घर अनाज दीनारो दिरम II

हैराँ  हूँ  है  भीड़  जनाज़े  में  भारी ,

लेकिन दिखती नहीं किसी की आँखें नम II

 

         ग़ज़ल 60

चिढ़ है जन्नत से न फिर भी तू जहन्नुम गढ़ II

अपने  ही  हाथों से  मत फांसी पे जाकर चढ़ II

तुझको  रख  देंगीं  सिरे  से  ही  बदलकर  ये ,

शेर  है  तू  मेमनों  की  मत  किताबें  पढ़ II

तू जगह अपनी पकड़ रख नारियल जैसी ,

एक  झोंके  से  निबोली  बेर  सा  मत  झड़  II

बनके गंगा पाक रह औरों को भी कर साफ़  ,

इक जगह ठहरे हुए पोखर सा तू मत सड़ II

तान सीना सर उठाकर चल है ग़र मासूम ,

इस तरह से तू ज़मीं में शर्म से मत गड़ II

पहले चौपड़ ताश ही मानी जुआ के थे ,

अब खुले मैदाँ के भी सब खेल हो गए फड II   

सब गुबार अपना निकल जाने दे मेरी हया ,

बाल के गुच्छों सी मत नाली में आकर अड़ II 

 

             ग़ज़ल 61

लेकर के अपने साथ  तेज़ तुंद  हवाएँ II 

सूरज के रिश्तेदार चरागों को बुझाएँ II

ख्वाबीदा आदमी तो आप उठ ही जायेगा ,

आँखे जो खोल सोये उन्हें कैसे जगाएँ II

मंदिर का हर इक शख्स कलश बनने को तैयार ,

बुनियाद के पत्थर के लिए किसको मनाएँ II

यों बाप को भी सिज्दा करने में झिझकें वो ,

मतलब को तलवे गैरों के चाटें ओ दबाएँ II 

मुझको न गुनह्गारों की आज़ादियाँ अखरें ,

दिल रोता है जब झेलते मासूम सज़ाएँ II 

यों धूप में मशालें सरासर फिजूल हैं ,

अच्छा हो अंधेरों में इक चिराग़ जलाएँ II

जब उनको ख़ुदा के वजूद पर यकीं नहीं ,

फिर किससे किया करते हैं दिल में वो दुआएँ II 

--

drhiralalprajapati@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. बेनामी3:11 pm

    प्रजापति जी की ग़ज़लों में काफिये बड़े जबरदस्त होते हैं I
    सभी ग़ज़लें खूबसूरत हैं I कुछ ग़ज़लें तो कबीर की उलटबांसियों
    की तरह लगीं Iचौंका देने वाली I मजेदार I एकदम नई , हटकर I

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रचनाकार: हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें
हीरालाल प्रजापति की ग़ज़लें
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