अदिति मजूमदार की कविता शाखों से (चित्र - सुभाष श्याम की कलाकृति) शाखों से पत्तों की टूटने की आहट दिल में दस्तक दे गई क़दमों में दिल ब...
अदिति मजूमदार की कविता
शाखों से
(चित्र - सुभाष श्याम की कलाकृति)
शाखों से पत्तों की टूटने की आहट
दिल में दस्तक दे गई
क़दमों में दिल बिछाया था
सूखे पत्तों की तरह रौंद कर चला है कोई
बे वजह किस्मत पर रोएँ हम
जब गुलिस्तान सजा ही नहीं था
मुलाकात का सिलसिला चला ही नहीं था
जुदाई का आलम बना ही नहीं था.
बेफिक्र जिन्दिगी जीते थे हम
फिक्र में, ख़ाक में मिल गए हम
अब तो मौत का इंतज़ार है हमें
क्योंकि ख़ाक ने भी बेवफा करार दिया है हमें
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मोतीलाल की कविता
बहुत बड़ी है
हमारी पृथ्वी
पर इस ब्रह्मांड में
एक रेत का कण ही तो है
बहुत बड़ी है
हमारी तमन्नाएं
पर माँ के आँचल से
दूर नहीं जा सकती है
बहुत बड़ा है
उनका स्वाद
पर खून के कतरों में
गुम होकर रह जाता है
बहुत बड़ी है
हमारी भूख
पर चूल्हे की आँच में
सूरज को नहीं लाया जा सकता है
बहुत बड़ा है
उनका आशीर्वाद
पर झोली के
तंग दायरों मेँ नहीं अटता है
बहुत छोटा है
हमारा प्रेम
पर पूरी पृथ्वी
पता नहीं क्यों डूब जाती है ।
* मोतीलाल/राउरकेला
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जसबीर चावला की कविताएँ
दशहरा
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लक्ष्मण ने सोचा होगा
लक्ष्मण रेखा
ही है
सुरक्षा का उपाय
अचूक/ सटीक
सीता के लिए
दुष्टों से
लक्ष्मण ने कब सोचा था
सीता करेगी
उल्लंघन
लक्ष्मण रेखा का
और
होगा युद्ध
राम रावण का
जलेगी सोने की लंका
सोने के मायावी
मृग के लिए
मारा जायेगा
दशानन
प्रति वर्ष
सदा के लिए
रची जाएगी/ पढ़ी जाएगी
रामायण/ राम चरित मानस
युगों से
युगों तक
पर न होगा कभी
युद्धविराम
मध्य दो शक्तियों के
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मरुचिका
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अन्य की थाली/ कर्म से
उठती
खुशबू/यश
द्योतक नहीं
सदैव
व्यंजन के
अति स्वाद की/
सफलता की/ मायनों की
असफलता
बेचैनी है
पहली सीड़ी
सफलता की
यक्ष प्रश्न
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खींची जाती हैं
खींची जा रहीं हैं
लक्ष्मण रेखाएं
सीता के हर ठौर
चारों और
घटता जाता है दायरा
वर्जनाओं का/
रेखाओं का
क्यों लक्ष्मण
रह जाता है परे/
लक्ष्मण रेखा से
घेरे से बाहर/
घेरे से दूर
बार बार
हर बार
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यही न्याय है
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इन्द्र का पाप
ऋषि का श्राप
अहिल्या बनी पत्थर
पत्थर की आँखें
पत्थर का दिल लिए
खड़ी रही
बारह बरसों तक राम की
प्रतीक्षा में
कैसे होता है
क्षण में पत्थर हो जाना
पथरा जाना/ धडकते दिल का रुक जाना
संवेदनाओं का मर जाना
और बुत बन प्रतीक्षारत होना
किसी राम की
और के पाप के लिए
और कैसे होता है
पथराई/ सूनी आँखों से
घर में रह कर भी
बेघर होना
जान होकर
बेजान होना
बेरंग होना/ जीना
और
प्रतीक्षा करना
अनागत की
जीवन भर
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वर्तमान में -
स्प्रिंगक्रीक अपार्टमेन्ट
१०० बकिंघम ड्रा०
सांता क्लेरा
कैलिफोर्निया ( यु एस)
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मनोज 'आजिज़' की ग़ज़लें
ग़ज़ल 1
ज़िन्दगी बदस्तूर इक फ़ुहार है
कभी भाये तो कभी अंगार है
फ़िक्र ओ अंदाज़ सबकी अलग
कैसे कहूँ ये सिर्फ़ बहार है
ये मज़लिस जीने की मज़मून लिए
जहाँ मज़ा, मजाक, मज़ाज, मजार है
कितने रुख ज़िन्दगी की,कहना मुश्किल
कभी गर्म, कभी सर्द बयार है
'आजिज़' जाम है ज़िन्दगी पी जाओ
फिर कहोगे खुद , क्या ख़ुमार है
ग़ज़ल 2
दुनिया की समझ आसाँ नहीं
कौन है जो परेशां नहीं
चलो बेरहबर खुद राहों पर
यहाँ कोई तेरा निगहबां नहीं
रिश्तों में है अंदाज़े कातिल
शौकनम कोई जुबाँ नहीं
क्या बात है खुदा-अल्लाह
इंसां आज इंसां नहीं
रहम जिस पर किया 'आजिज़'
वो तुझ पर मेहरबाँ नहीं
ग़ज़ल 3
क्यूँ खुद से कोई अंजान रहे
जान रहते , बेजान रहे
बस मुकद्दर पे यकीं ठीक नहीं
इलहामे-दिल जरुर जवान रहे
इस कदर तहज़ीबे हयात हो
कि पस्ती में जोश रवां रहे
मंजिल पे नज़र हो पैनी
रुकते नहीं तूफान रहे
हर गम को सलाम कर 'आजिज़'
कि गम को तुम याद रहे
ग़ज़ल 4
इस राह चले वो छुट गया
इससे मिले तो वो रूठ गया
क्या पता कौन ज़ाद-ए-मंज़िल
इक नयी राह से जुट गया
आंधियां है शायद तब्दीली की
इस क़यास में कुछ छुट गया
सबको है तलाश मुकम्मल जहाँ
तलाश में कोई आबाद, कोई लुट गया
(मनोज 'आजिज़')
जमशेदपुर, झारखण्ड
बहु भाषीय युवा कवि -संपादक
अंग्रेजी भाषा-साहित्य अध्यापक
mkp4ujsr@gmail.com
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रमेश शर्मा की व्यंग्य कविता
आओ यारों देख लो तुम भी, मुखड़ा इश शैतान का .
बांध पुलन्दा बेच रहा है अपने ही ईमान का ...ये है बेशरम ये है बेशरम .
झूट बोल कर दौलत इसने ,बेशुमार कमाई है
पुत्र कलत्र न यारों इस के , ना ही कोई सगा ही है
आँख मूँद कर बैठा है ज्यों, स्वान शिशु का भाई है
मन में नाम हरी के जपता, मिथ्या देत दुहाई है
पाप की गठरी बांध रहा है, ना डर है भगवान का....
बांध पुलन्दा बेच रहा है अपने ही ईमान का ...ये है बेशरम ये है बेशरम .
लालच के आधीन हो गया, मेरा मेरा करता है
इसका खाता उसका खाता ,पेट ना इसका भरता है..
लोमड़ सम चालाक बना है , नीच दुष्टता करता है
काक भांति चतुराई करता , धन ये सबका हरता है
धर्म का इसको बोध नहीं है ,जाया है हैवान का
बांध पुलन्दा बेच रहा है अपने ही ईमान का ...ये है बेशरम ये है बेशरम .
..रमेश शर्मा..
ई मेल..rameshsharma_123@yahoo.com
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देवेन्द्र पाठक 'महरूम' की ग़ज़लें
ग़ज़ल 1
ख़ौफ़ो-शुबहा रात-दिन,शामो-सबेरे.
लुट रहे अम्नो-मुहब्बत के बसेरे.
है ख़ुदा बहरा, यहाँ भगवान अंधा ;
हेरता है किसको, तू किसको है टेरे.
जब नदी सूखी है, बेबस मछलियाँ ;
क्या ज़रूरत ज़ाल की फिर है मछेरे!
जुगनुओँ की ताज़- पोशी हो रही ;
तीरगी की क़ैद मेँ हैँ युग-चितेरे.
हम बयांने-हाले-दिल किस से करेँ ;
चौतरफ़ 'महरूम' हैँ; अब बंदिशेँ घेरे.
= = = = =
ग़ज़ल 2
झगड़े औ फ़सादात.
दहशतज़दा दिन-रात.
जो चुग रही है मोती;
बगुलोँ की है ज़मात.
गो ज़वाब हैँ नदारद ;
हाज़िर हैँ सवालात.
नाक़ाबिलोँ को शह;
है क़ाबिलोँ को मात.
'महरूम' को मिली;
बस ग़मोँ की सौगात.
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