कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -66- त्रिपुरारि कुमार शर्मा की कहानी : दिल्ली की दोपहर

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कहानी दिल्ली की दोपहर त्रिपुरारि कुमार शर्मा -- रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अपन...

कहानी

दिल्ली की दोपहर

त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अपनी अप्रकाशित कहानी भेज सकते हैं अथवा पुरस्कार व प्रायोजन स्वरूप आप अपनी किताबें पुरस्कृतों को भेंट दे सकते हैं. कहानी भेजने की अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012 है.

अधिक व अद्यतन जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html

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मंदर के साफ़ पानी में काली कतार बनाकर तैरती हुई मछलियों की तरह, उजली और चमकती हुई चमड़ी पर नीली नसें निकल आई थीं। मालूम पड़ता था कि लड़की की देह में बहते हुए लाल लहू का रंग अब काला हो गया है। वह जून का जलता हुआ दिन था। दिल्ली की सबसे गर्म और सफ़ेद दोपहर। उसने जेब में हाथ डाला, जैसे कुछ टटोल रहा हो। कुछ देर बाद उंगलियों के बीच फँसा हुआ बादामी रंग का रुमाल दिखाई पड़ा। हवा में हिलता हुआ रुमाल, जो सीधा उसके चेहरे पर आकर रुका। उसने दोनों हथेलियों से चेहरे को छुपा लिया। फिर धीरे से रुमाल को नीचे की ओर सरकाने लगा। ऐसे, जैसे पसीने के साथ-साथ सारी परेशानियाँ भी पोंछ कर फेंक देना चाहता था। मेट्रो में जो थोड़ी देर को ‘राहत’ मिली थी, अब दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही थी।

वे अब मेट्रो स्टेशन से बाहर आ चुके थे। बाईं आँख के सबसे नजदीक था पालिका बाज़ार और सेंट्रल पार्क के लिए दाईं आँख से सटे दूसरे दरवाज़े से अंदर जाने का रास्ता था। पलकों को ऊपर उठाने पर रीगल सिनेमा या दूसरी बिल्डिंग्स भी देखी जा सकती थी, लेकिन दोनों ने इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझी। सूरज, सिर के सबसे करीब था और आसमान पहुंच से बहुत दूर हवा में झूल रहा था। लड़की ने कुछ इशारा किया और वे सेंट्रल पार्क की ओर बढ़ने लगे। उसे यह बात समझते देर नहीं लगी कि लड़की का लगाव इस पार्क से कुछ ज़्यादा ही हो गया है। तभी तो हर एक संडे यहाँ आने को कहती थी। पूरी दोपहर यहीं बिताती, फिर शाम को सज़दा करने किसी ‘बार’ में जाती थी। सप्ताह के दो दिन का रुटीन तय हो गया था। संडे सीपी में और मंडे को आराम। मंडे की शाम को यह भी तय हो जाता कि अगले सप्ताह कहाँ-कहाँ जाना है?

जब वह पहली बार उससे मिला था, महकते हुए मार्च की महीन धूप छतों पर छतरी लगाए बैठी थी। हवा किसी अदृश्य आदमी के साथ अठखेलियाँ कर रही थी। वह चुपचाप अपनी बालकनी में खड़ा आसमान के टुकड़े में उभरती हुई शक्लों से बातें कर रहा था। यह उसका सबसे पसंदीदा खेल था, क्योंकि इस खेल को अकेले ही खेला जा सकता था। ऐसा नहीं था कि उसे दूसरों के साथ खेलना पसंद नहीं, मगर एक मज़बूरी थी, जो अब आदत बन चुकी थी। आदत? उसे तो ज़िंदगी भी ज़रूरत नहीं, एक आदत-सी लगती थी। उसने बहुत बार सोचा कि ज़िंदा रहने की ज़रूरत क्या है? उसके बिना भी दुनिया उसी तरह चलती रहेगी, जैसे हमेशा से चलती रही है। फिर वह सोचता कि अगर ज़िंदगी ही न होती, तो ये सारी शकायतें वह किससे करता? अचानक उसे माँ की याद आ जाती और वह एक ‘बच्चा’ में बदल जाता...

जब वह तेरह साल का था, तो उसके बाबूजी की मौत हो गई थी। तब से वह अकेला ही रहने लगा था। कुछ तो वक़्त का तकाज़ा था और कुछ उसका स्वभाव भी। अब उसे अकेला रहना अच्छा लगने लगा था। वह अपने ‘अकेलापन’ को ‘एकाकीपन’ कहता था। वह कहता था कि ‘अकेलापन’ में व्यक्ति दूसरों के साथ रहना चाहता है—क्योंकि मजबूरन उसे अकेला रहना पड़ता है—जबकि ‘एकाकीपन’ में व्यक्ति अपने आप में पूरा होता है। उसे किसी के साथ रहने की इच्छा तो नहीं होती, मगर किसी का साथ मिल जाए, तो उस एकाकीपन का रंग और ख़ूबसूरती, दोनों निखर आते हैं। वह अजीब-अजीब-सी बातें किया करता था।

वह अपने खेल में मशगूल था...तभी एक हसीन-सी हँसी से कुछ टूटे हुए टुकड़े उसके कान के परदों पर आकर गिरे। पहले तो उसने ध्यान ही नहीं दिया। जब हँसी की हरी और ताज़ी बूँदें उसके कानों पर दोबारा गिरीं, तो उसने दाईं ओर मुड़कर देखा, जहाँ से आवाज़ छन-छनकर आ रही थी। उसकी बालकनी के सामने एक लड़की अपने मकान की बालकनी में खड़ी थी। होंठों पर हँसी की बूँदें अब भी चिपक रही थीं। हवा के हल्के से झोंके से बाल बार-बार बिखर जाते थे, जिसे वह अपनी अंगुलियों से बीच-बीच में सम्भालती रहती थी। चेहरे से चिपकती हुईं अपाहिज आँखों पर उसने मटमैले रंग के मोटे-से फ़्रेम का चश्मा चढ़ा रखा था। उसकी नाक की टीप पर एक छोटा-सा काला तिल भी था, जो उसके चेहरे का सबसे आकर्षक हिस्सा था। गाल बहुत ज़्यादा गुलाबी तो नहीं थे, मगर उजालों की ओट में खिले हुए लिली के फूल की तरह लग रहे थे। उसके पाँव नहीं दिखाई दे रहे थे, पर उजली टाँगों और नंगी जाँघों के ऊपर हिलती हुई ब्लू स्कर्ट नज़र आ रही थी। लाल रंग की टी-शर्ट के नीचे चौड़ी और दुबकी हुई देह और छोटी-सी छाती पर उम्र के उभरे हुए तकाज़े, आँधी के बाद एक गुच्छे से लटकते हुए आख़िरी दो कच्चे टिकोलों की तरह लग रहे थे। हवा जब भी उन्हें छूती, तो वे टिकोले अपना आकार बदलकर आम की शक्ल इख़्तियार कर लेते थे।

एक पल के लिए उसे लगा कि वह भ्रम के भँवर में भटक गया है। उस मुहल्ले को वह बरसों से जानता था। अपने घर के ठीक सामने खड़े उस पुराने मकान से भी उसका पुराना परिचय था। उसकी माँ ने एक बार ज़िक्र किया था—लगभग 40-45 बरस पहले की बात होगी—सुरेंद्र कपूर ऊर्फ़ ‘कर्नल साहब’ के घर आधी उम्र के बाद एक बच्चा हुआ था। बच्चे के पैदा होने के कुछ देर बाद ही हॉस्पीटल के बेड पर उनकी पत्नी ने आख़िरी साँस ली थी। यह सब उनकी आँखों से गुज़रा, मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। अपनी औलाद की परवरिश बड़े प्यार से की। बेटा जब बड़ा हुआ, तो अमेरिका की किसी कम्पनी में उसकी नौकरी लग गई। वह अमेरिका चला गया। कर्नल साहब की आख़िरी इच्छा थी कि वे बेटे की शादी अपनी पत्नी के दोस्त जसविंदर सिंह की बेटी गगनदीप से कराएँ, जो पेशे से डॉक्टर थी। मगर बेटे ने एक अमेरिकी लड़की से शादी कर ली। दोबारा लौट कर भी नहीं आया। हाँ, हर साल वैशाखी और क्रिसमस पर उसके भेजे तोहफ़े ज़रूर आते थे। जब उन्हें पता चला कि बेटे ने ब्याह रचा लिया है, तो वे यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके। मखमली बिस्तर पर सोने वाले कर्नल साहब की देह, एक सप्ताह के भीतर-भीतर अर्थी पर लेटी हुई नज़र आई।

जब कर्नल साहब अर्थी पर लेटे थे। वह चाहकर भी उनके पास नहीं जा सका था। नन्ही-सी उम्र हमेशा कर्नल साहब की सफ़ेद-ओ-स्याह दहकती हुई दाढ़ी और मूँछ देखकर डर जाती थी। उसे, उनकी देह से एक अजीब क़िस्म की बदरंग-सी बू आती थी। उसे लगता था कि कहीं कर्नल साहब दाढ़ी और मूँछ के पिटारे में बंद न कर दें। वह जब कभी उनको देख लेता, तो लॉन मे लगे पेड़ों के पीछे छुप जाता था। परदे के पीछे भी कई बार कर्नल की काली-लाल आँखों से बचकर उसने अपनी जान बचाई थी। तब उसने कर्नल को आख़िरी बार देखा था। तब वह बहुत छोटा था। पिछले बीस बरस में न तो वैशाखी और न ही क्रिसमस पर कोई तोहफ़ा आया था। हाँ, घर के दरवाज़े पर एक चौड़ी-सी चुप्पी का ताला लटका रहता था। जब कभी धूप का धब्बा उस ताले पर पड़ता, तो ताला चमकने लगता—ठीक उस बच्चे की तरह जो बात को बिन समझे, महज अपनी माँ को हँसते हुए देखकर अपने दूध के दाँत दिखाने लगता है।

इतने बरसों में धूल की एक धुँधली-सी परत मकान की दरकती हुई दीवारों पर जम गई थी। अँधेरी रातों में यह मकान किसी भुतहा हवेली के अनोखे रहस्य की तरह लगता था—लेकिन जब कभी छतों और मुँडेरों पर चाँदनी चुगने के लिए उतरती, तो सारा रहस्य खुलने लगता। ऐसा लगता कि अभी कुछ देर में कर्नल साहब डोलते हुए अपने कमरे से बाहर निकलेंगे और सबकुछ सामान्य हो जाएगा। यूनिवर्सिटी में एडमिशन के लिए लाइन में लगे स्टूडेंट्स की तरह कमजोर समय एक धक्का खाकर पीछे चला जाएगा। जैसे वह फिर से बच्चा बन सकता है। अपने बचपन में लौट सकता है।

“तुम किससे बातें कर रहे हो” – लड़की ने पूछा।
“अपने बाबूजी से...”
“क्या तुम्हारे बाबूजी बादलों में रहते हैं?”
“...” - वह ऊपर की ओर ताकने लगा।
“मेरा नाम योगिता कपूर है...”
“तुम ऊपर कैसे आई...वहाँ तो ताला लगा था?”
“ताला खोलकर...और कैसे...कल रात जब तुम सो रहे होगे तब...”
“लेकिन...”
“तुम कर्नल सुरेंद्र कपूर को जानते हो...ही वाज माय ग्रेंड पा...”
“तुम अमेरिका से आई हो?”
“हाँ...अब मैं यहीं रहूँगी कुछ महीनों तक...”
“...और तुम्हारे ममी-पापा?”
“ममी नहीं आई...पापा आए हैं...पर वे कल ही चले जाएँगे...”

तब वह पहली बार उससे मिला था। धूप, धीरे-धीरे अपना पंख फैलाने लगी थी। बालकनी में बैठे हुए गमलों के गले में अटके पौधों की पत्तियाँ कुछ ज़्यादा ही हरी दिखाई दे रही थीं। फूलों के रंग थोड़े-से गहरे हो गए थे। उसके दिमाग़ की पीली परतों में कुछ पकने लगा था।

“तुम क्या करते हो?”
“कहानी लिखता हूँ।”
“और नौकरी...?”
“फ्रीलांसिंग करता हूँ...कुछ अख़बारों में कॉलम लिखता हूँ...”
“क्या तुम मुझे यहाँ घुमाने ले चलोगे?”
“हाँ, क्यों नहीं...”

सुबह-सुबह वे दोनों घूमने निकल जाया करते थे। दोनों की उम्र में कुछ ही बरसों का फ़ासला था। कम ही दिनों में काफ़ी नजदीक आ गए दोनों। एक दिन जब लड़की ने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी, तो एक थकी हुई-सी आवाज़ ने रिप्लाई दिया कि वह घर में नहीं है। “क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?” लड़की ने कहा। “आ जाओ” यह उसकी माँ थी, जो बूढ़ी और बीमार-सी मालूम पड़ती थी। लड़की ने कमरे में मौजूद उसकी माँ से कहा, “कहाँ गया होगा?” उसकी माँ चुप रही। कुछ देर तक कमरे में सन्नाटा सिमटा रहा। जवाब मिलने की कोई उम्मीद नहीं रखते हुए लड़की ने फिर पूछा, “क्या उसकी कोई दोस्त है?” माँ का मटमैला चेहरा जब बहुत देर तक चुप रहा, तो लड़की को लगा कि वे सो रही हैं। सोती हुई पलकों पर परेशानी के पत्थर छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट कर बिखर गए थे।

लड़की कुछ देर तक अनमने भाव से देखती रही। उसे अपनी ममी का मुँह याद हो आया। जब वह अमेरिका में थी। उसकी ममी एक बार बीमार पड़ी थी, तो उसके पापा बिल्कुल भी परेशान नहीं हुए थे। हाँ, वह ज़रूर परेशान हो गई थी। अपनी नन्ही-नन्ही उजली-उजली उंगलियाँ ममी के गोल-मटोल मुँह पर फेरती और कहती—गेट वेल सून ममी...आई विल नेवर हर्ट यू...प्रॉमिस—और जैसे लगता कि वह उठकर बैठ जाएगी। ऐसा करने पर भी जब उसकी ममी उठकर नहीं बैठीं, तो वह क्रॉस पर लटकते हुए क्राइस्ट से ‘प्रे’ करने लगी—कहती कि वह अगर ममी को आज रात ही ठीक कर देगा, तो पाँच चॉकलेट देगी...प्रॉमिस। लड़की ने सोचा कि अगर यहाँ भी क्राइस्ट से ‘प्रे’ करेगी, तो उसकी माँ ठीक हो सकती है। उसने इधर-उधर देखा, मगर कहीं कोई ‘क्राइस्ट’ नज़र नहीं आया। वह हैरान होकर सोचने लगी कि इंडिया में कोई ‘क्राइस्ट’ नहीं है, शायद इसलिए ही यहाँ के ज़्यादातर लोग इतने ग़रीब हैं और इसलिए यहाँ इतनी बीमारियाँ भी हैं।

दोपहर की देह अब दोहरी हो चुकी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? तभी वह दिखाई दिया। “तुम यहाँ?” उसने आते ही पूछा। “तुम्हें खोजते हुए आ गई...”, लड़की ने कहा। “मैं दो दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ...” उसने कहा, “तुम चाहो तो मेरी माँ के पास रह सकती हो।” लड़की चुपचाप देखती रही, जैसे किसी ने गहरी नींद से जगा दिया हो। “मुझे अभी निकलना होगा...” और वह कपड़ा बदलने के लिए अपने कमरे में चला गया।

कपड़ा बदलते हुए उसके हाथों ने एक दुखती हुई दोपहर के दामन को छू लिया—बाबूजी की मौत के कुछ महीनों बाद ही माँ बीमार पड़ गई थीं—डॉक्टर की सलाह यह थी कि बीमारी के घाव को सिर्फ़ पैसों की मरहम-पट्टी से ही सुखाया जा सकता है। परीक्षा के इसी तरल समय में सगे-सम्बंधी भी एक-एक करके अपना परिचय देने लगे थे। साधारण सुविधाओं से सम्पन्न घर के नाम पर कुछ दीवारें और एक छत थीं। बैंक से अब आख़िरी रिश्ता यही बचा था कि बाबूजी के नाम का एक पासबुक अलमारी के अँधेरे दराज़ में बंद सिसकता रहता था। वह दिल्ली की सबसे दूषित दोपहर थी, जब उसने एक फ़ैसला लिया था। बहुत समय तक सोचने के बाद उसने अख़बार के कोने में छुपा हुआ एक फोन नम्बर नोट किया—जो कनखियों से शायद उसी को देख रहा था। फिर काँपती हुई उंगलियों से उसने नम्बर डायल कर दिया।

इस बिज़नेस में वह सबसे कम उम्र का था और उसकी माँग सबसे ज़्यादा थी। तब वह बिल्कुल नया था—महज चौदह साल का ‘जिगोलो’—जिसका न कोई नाम था, न कोई पहचान—हड्डियों के ढाँचे के ऊपर सुसज्जित ढंग से कई परतों में बिछे हुए माँस की एक मटमैली-सी देह था, जो दूसरी देह की ज़रूरतों को पूरा करना जानता था और इसके बदले में उसे उम्मीद से कहीं ज़्यादा पैसे और अच्छे तोहफ़े भी मिलते थे। घाव को सुखाने का, इससे बेहतर तरीका उसके पास नहीं था।

“पता है… मैं तुम्हें क्यों पसंद करती हूँ?”
“...”
“क्योंकि तुम बहुत अच्छे मर्द हो।”
“आपके हसबैंड कहाँ गए?”
“कितनी बार कहा है...मुझे आप मत कहा करो...” पैंतीस की परमजीत ने ज़रा-सा खिसियाते हुए कहा।
“वे दो दिनों में वापस आएँगे?”
“हाँ...अब हमें दो दिनों तक कोई डिस्टर्ब नहीं करने वाला...सिर्फ़ मैं और तुम”
“मुझे कुछ एक्स्ट्रा पैसों की ज़रूरत है...क्या...”
“हाँ-हाँ, ले लेना...आख़िर वो सरदार कमाता है किसके लिए...मेरे लिए और मैं किसके भरोसे ज़िंदा हूँ...तुम्हारे लिए...”
“अच्छा...जब मैं नहीं था तब?”
“मैं पैग बनाती हूँ।” - वह थोड़ी देर तक चुप रही फिर बोली।
“पता है...मुझे शुरू से ही सरदार पसंद नहीं थे। सबसे ज़्यादा चिढ़ मुझे उसकी दाढ़ी-मूँछ से होती है...स्मूच भी ठीक से नहीं कर सकते...साले...”
“तो फिर शादी क्यों की?”
“पैसे के लिए...”
“सिर्फ़ पैसे के लिए?”
“साउथ दिल्ली में इतना बड़ा घर...पाँच-पाँच गाड़ियाँ...बैंक बैलेंस...विदेश का टूअर...और फिर जब चाहो तुम जैसे नए लड़को का प्यार...इतना सबकुछ...एक साथ कहाँ मिलता है?”

वह सोचने लगा कि वाकई इतना सबकुछ कहाँ मिलता है? सपने में या सपने से परे किसी और दुनिया में, जहाँ नसीब नाम की कोई चीज़ होती है। लेकिन क्या प्यार पाना इतना आसान है? क्या प्यार का मतलब सेक्स ही है...जिसे जब चाहो...जहाँ चाहो...पैसे से खरीदा जा सकता है? क्या ‘संतुष्टि’ और देह के पार भी कोई चीज़ होती है? यह सोचते हुए उसे महसूस हुआ कि उसकी पैन्ट की जिप खोली जा रही है। कुछ देर तक चिपचिपी-सी आवाज़ कमरे के शून्य में तैरती रही। फिर उसने देखा कि अजंता की नंगी मूर्ति उसके सामने खड़ी है। वह मूर्ति से लिपट गया...चूमने लगा। उसकी जमी हुई जीभ ज़िंदा हो उठी और मूर्ति की नाक से नाभि की दिशा में आगे बढ़ने लगी। वह अब थोड़ा और नीचे झुक गया था...औरत बिस्तर पर लेट गई। उसे लगा कि आम के पकने का मौसम आ गया है। कमरे में जलती हुई मोमबत्तियों की मध्यम रोशनी में दो देह नजदीक से नजदीकतर आते चले गए। मोमबत्ती की पीली परछाईं पिघल कर पसरने लगी...।

जब वह दो दिनों के बाद घर लौटा, तो लड़की बालकनी में खड़ी थी। शनिवार की शाम का सूरज छतों से अपने लाव-लश्कर समेटने लगा था। पेड़ की सबसे ऊपरी फुनगी पर, जैसे वह कुछ देर के लिए ठहरना चाहता था। सारे शहर को आँख भरकर देख लेना चाहता था। फिर तो पूरे बारह घंटे के बाद मुलाक़ात होनी थी। पता नहीं, रात भर चाँद शहर के साथ क्या सलूक करता होगा। ...और सूरज की आख़िरी साँस भी पिघल गई। उजाले और अँधेरे के झुरमुट में वह उतनी ही ख़ूबसूरत दिखाई दे रही थी, जैसे उसने पहली बार देखा था। वह अपने घर जाने से पहले लड़की के पास चला गया। लड़की दौड़कर आई और उसकी छाती से लिपट गई। थोड़ी देर तक लिपटी रही और फिर झटके से दूर हट गई।

“क्या तुम किसी के साथ सोए थे?”
“तुम यह कैसे कह सकती हो?”
“तुम्हारी देह से उसकी गंध आ रही है...”
“अगर मैं कहूँ...नहीं, तो?”
“तुम झूठ बोलोगे...”
“तुम कैसे पहचान सकती हो?”
“...जब भी वह (लड़की का अमेरिकन साथी) किसी और लड़की के साथ सो कर आता था...मैं पहचान लेती थी...तुम्हें भी पहचान लिया...”
“मगर...कैसे...?”
“लड़की हूँ न! पहचान सकती हूँ...”

थोड़ी देर तक सिर्फ़ हवा के बहने की आवाज़ कमरे में आती रही। जब हवा तेज़ हो गई तो लड़की ने उठकर ख़िड़कियों को बंद कर दिया और लाइट का स्वीच ऑन कर दिया। बाहर बारिश से पानी टूटने लगा था। पेड़ों की पत्तियों को पानी की बूँदें बदहवास होकर चूम रही थीं। दोनों के भीतर कुछ था, जो पिघलने लगा था। दोनों की देह से एक गंध उठती थी और शून्य में सहम कर रह जाती थी। उसने महसूस किया कि उसकी देह को एक दूसरी देह पुकार रही है। यह पुकार अजनबी होते हुए भी इतनी पहचानी-सी लग रही थी कि उसकी पुकार को अनसुनी करना बेहद मुश्किल था। होंठों पर होंठों के साए मँडराने लगे। यह सोच कर खुशी भी हुई कि वह क्लीन सेव करता है। उसने देखा कि दो पके हुए पीले आम ब्रा से बाहर झाँक रहे थे। धीरे-धीरे अमेरिका और इंडिया के बीच का फ़ासला ख़त्म हो रहा था। सोग में डूबा हुआ सारा शहर अँधेरे की आगोश से ऊपर उभर रहा था। हल्की रोशनी के हरे-हरे टुकड़े ट्यूबलाइट से टूटकर फैली हुई फ़र्श की सफ़ेद सतह पर औंधे मुँह गिर रहे थे।

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त्रिपुरारि कुमार शर्मा
ए-203, गाँधी विहार
नई दिल्ली-110009
फोन : +91-9891367594
ई-मेल: tripurariks@gmail.com

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -66- त्रिपुरारि कुमार शर्मा की कहानी : दिल्ली की दोपहर
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -66- त्रिपुरारि कुमार शर्मा की कहानी : दिल्ली की दोपहर
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