कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -60- मोहसिन ख़ान की कहानी : सवारी बदल गयी

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कहानी ‘सवारी बदल गयी’ -डॉ . मोहसिन ख़ान घर में मेरे लिए पढ़ाई करने की टेबल खिड़की से ही लगी हुई थी, खिड़की में लोहे की मोटी सलाख़ें घर की सुर...

कहानी

‘सवारी बदल गयी’

-डॉ . मोहसिन ख़ान

घर में मेरे लिए पढ़ाई करने की टेबल खिड़की से ही लगी हुई थी, खिड़की में लोहे की मोटी सलाख़ें घर की सुरक्षा के लिए लगाईं गईं थीं। मोटी सलाख़ें वैसी ही दिखाई पड़तीं जैसी जेल के दरवाजों और खिड़कियों में होती हैं। मैं हमेशा वहीं उसी टेबल पर पढ़ाई-लिखाई करता। पढ़ाई करते हुए खिड़की से बाहर के दृश्य देखना भी पढ़ाई के ही अंग थे, अकक्सर पढ़ाई का क्रम भंग करके बाहर के दृश्यों से बंध जाता और फिर उस तन्मयता को अचानक झटककर पुन: पढ़ने लगता, तो फिर कभी उन्हीं नज़ारों में खो जाता। मुहल्ले के सभी परिचित चेहरे अलबत्ता सभी को नाम से नहीं जानता कुछ बूढ़े, कुछ जवान, कुछ बच्चे, महिलाएं जिन्हें मैं रोज़ देखता। कभी दीवारों, मकानों की परछाइयों के बढ़ने-घटने का अंदाज़ा लगाकर उन्हें घड़ी की सूइयों से नापता। कुत्ते, बकरियाँ और भी कई पशु, पक्षी सभी घर की खिड़की के स्क्रीन पर आते - जाते रहते। रोज़ ही दूध वाला, सब्ज़ी वाला लगभग ठीक समय पर मुहल्ले की गलियों में आते और चले जाते। दूध वाले की वो आवाज़ जो कितने ही सालों से मुहल्ले और गलियों से होकर मकानों में घुसकर कानों में उतर जाती और कितने घर की स्त्रियाँ घर का काम छोड़ तपेली उठाय दूध लेने आतीं, मेरी माँ भी उनमें से एक थीं। सब्ज़ी वाले से रोज़ ही कोई प्रेम से, कोई रोब से, कोई तेश से दामों की जिरह करते पर सब्ज़ी उसी से ख़रीदते। रोज़ ही इसी तरह का क्रम मेरी खिड़की पर रहता। कोई एक भी क्रम अपनी जगह पर सही नहीं होता तो मन को कुछ अपूर्णता, अटपटेपन का आभास होने लगता और आँखें कुछ टटोलने लगतीं।

बारह बजे स्कूल जाने से पहले रोज़ का वक़्त ऐसे ही बीतता। एक दिन जब परिचित चेहरे का बच्चा मेरी खिड़की को देखते हुए खिड़की की ओर आया, उस बच्चे ने यत्न पूर्वक मेरी खिड़की की मुंडेर पकड़ी, फिर लोहे की मोटी सलाख़ें पकड़ीं तब तक कुर्सी से उठकर उस बच्चे को पहचानने की कोशिश कर रहा था कि इसे कहाँ देखा, कौन है यह ? तभी वह लोहे की मोटी सलाख़ें पकड़कर खड़ा होकर बोला – “आसिफ़ के अब्बा गुज़र गए। उनका इंतकाल हो गया।” अब मेरे दिमाग में स्पष्ट था कि यह बच्चा आसिफ़ के घर के पास ही रहता है, जब मैं आसिफ़ के घर जाता था तब वह वहाँ अक्सर खेलता हुआ दीख जाया करता था। लेकिन इतना सुनते ही मन कि चौकड़ी बिखर गयी, भीतर एक अजीब सा वातावरण छा गया, प्रश्नों ही प्रश्नों की बेतरतीब कटीली झाड़ियाँ मन में उगने लगीं। “अम्मी मैं आसिफ़ के घर जा रहा हूँ।” अम्मी को आवाज़ लगाता हुआ जल्दी से तेज़ कदमों से आसिफ़ के घर की ओर निकाल पड़ा। अम्मी पूछतीं ही रह गईं कि क्यों जा रहा है ? गली फिर गली को लांघते जब आखिरी मौड़ मुड़ा और दूर से ही दिखाई दिया कुछ बुज़ुर्ग, कुछ जवान सिर पर टोपियाँ लगाए बड़ी ही शांत मूद्रा में खड़े थे, कुछ बैठे थे। पास जाकर देखा तो सभी मौन और गंभीर थे, उन्हें देख ऐसा लगता था जैसे मृत्यु ने एक बार फिर सभी को चेता दिया हो कि कल तुम्हारा भी यही हश्र होना है। सभी लोगों के अंगों में अजीब सा भारीपन था और विरक्ति की छाँह ने सभी को ग्रस लिया था। मौत का घर देखने का मेरा यह पहला सामना था, उस वातावरण से जो प्रतिक्रिया मेरे भीतर घुलने लगी उससे मन भीतर ही भीतर सहमता चला गया। पहले के प्रश्न सब टूट- फूट गए और प्रश्नों की कटीली झाड़ियाँ भीतर और बढ़नें लगीं।

आसिफ़ के घर के भीतर से औरतों के विलाप लगातार सुनाई पड़ रहे थे, जिसमें और भी कई दबी सिसकियों के स्वर लिपटे हुए थे और आसिफ़ की दादी के बेतहाशा रोने की आवाज़ वातावरण को और भी विपत्तिदाई, बोझिल बना रही थी। उसकी दादी का विलाप भीतर तक नमक घुले पानी सा उतार गया और मैं मूक दृश्य देखता हुआ आसिफ़ के घर के अंदर गया तो आँगन के बीचों-बीच जनाज़ा रखा था, सब लोग आसिफ़ के अब्बा की सूरत आख़िरी बार देख रहे थे और एक-दूसरे को बड़े ही एहतराम से कहते “आप देखिये, आपने देख लिया।” तभी इस बेसुधी के दृश्य के बीच किसी ने मुझसे कहा- “बेटा देखो।” मैं असामंजस्य में पड़ गया ऐसा सब पहले कभी घटित होते मैंने नहीं देखा था मैं संकोच भाव में था लेकिन ठिठके पैरों से आगे बढ़ा और आसिफ़ के अब्बा की सूरत देखी, जो जनाज़े में लिटाये जा चुके थे। मुझे तो वैसे ही लगे जैसे रोज़ ही दिखाई देते थे, पर मन को आभास हो चुका था कि अब वो इस दुनिया में नहीं रहे, सीने में एक झटका लगा, साथ ही उनकी कितनी ही मूद्राएँ मेरी आँखों में तैर गईं। लेकिन अबकी बार जब आख़िरी समय में उसके अब्बा को देखा था तो पहली बार उनकी आँखें बंद देखीं, क्योंकि अब तक आसिफ़ के अब्बा को कभी सोते हुए नहीं देखा था। मैं न तो कभी सुबह-सुबह या देर रात आसिफ़ के घर गया था जो उन्हें कभी सोता हुआ देख पाता। मैं उनकी सूरत देखकर वहीं लौट आया जहां से बढ़कर उनका चेहरा देखने गया था।

उस शांत किन्तु भयानक वातावरण में मुझे आसिफ़ कहीं नज़र नहीं आया, मेरी आंखें बार-बार उसी को खोजतीं, पूछने का साहस तो मन में न था कि किसी से पूछूँ कि आसिफ़ कहाँ है, इसलिए उसके दीख जाने की ही प्रतीक्षा करता रहा। वातावरण का बोझ ऐसा लग रहा था कि उस घर की दीवारें मुझे दबोच न लें, मैं वहाँ से निकाल जाना चाहता था, परंतु ऐसा करना ठीक न लगा इसलिए वहीं रुका रहा। कुछ देर बाद जनाज़ा आयतों को पढ़ते हुए शालीनता से काँधों पर उठाया गया। जनाज़े ने आँगन छोड़ा और घर की दहलीज़ लांघी तो औरतों का विलाप और बढ़ गया, जो कि आसिफ़ के सगे संबंधी रो रहे थे। पीछे के आहते से विलाप करतीं आवाज़ों की तक़लीफ़ पूरे मुहल्ले को सुनसान कर गईं , सभी के चेहरे उदासी का मेला रंग लिए स्तब्ध और सहमे-सहमे लग रहे थे। सभी के चेहरों का रंग रोज़ जैसा नहीं, बल्कि एक शोक की स्याही में से डुबोकर निकाला हो, ऐसा लग रहा था। सबकी मौन, भारी आँखें मेरे भीतर शोर कर रहीं थीं। इसी बीच मेरी दृष्टि आसिफ़ की पीठ से टकराई, वह भी जनाज़े के साथ चल रहा था। बड़ी विवशता थी उसे रोक भी नहीं पा रहा था और जनाज़े के साथ कब्रस्तान भी जाने का मन नहीं हो रहा था, साथ ही उससे मिलने की भी छ्ट्पटाहट रही। जनाज़ा गली के मौड़ से होता हुआ कब्रस्तान की ओर कान्धेदार ले गए। कुछ लोग दीवारों से सटे हुए, कुछ जहां – तहां खड़े हुए देखते रहे। पूरे मुहल्ले में एक चुप्पी जैसे आसमान से फिसल आई हो ! बच्चे भी चुप, जब जब जनाज़ा गली का मौड़ पार कर गया तो बच्चे अपनी अबोधता में पुन: खेलने लगे। थोड़ी देर मैं आसिफ़ के घर के बाहर ओटले पर ख़मोश , स्तब्ध और चिंताओं के साथ बैठा रहा, फ़िर घर के लिए चल दिया। मैंने घर जाने से पहले एक बार फ़िर आसिफ़ के घर की ओर देखा तो आसिफ़ के घर की दीवारें, दरवाज़े और जो न दिखाई दे रहा था, वह हिस्सा भी बदला- बदला सा, कुछ टूटा हुआ सा लग रहा था। आसिफ़ के घर से उसकी बूढ़ी दादी की सिसकियाँ मेरे कानों तक तब भी आ रही थीं जो बार – बार मेरे ज़हन को खरोंच रही थीं।

मेरे घर पहुँचने से पहले अम्मी को भी ख़बर मिल गई थी कि आसिफ़ के अब्बा का इंतक़ाल हो गया है। घर पहुंचा तो अम्मी का चेहरा भी आँखों के सामने उदास पाया, रोज़ की तरह नहीं लग रहा था, पैशानी पर आचिन्हीं सलवटें और आँखों में गहराती हुई उदासी समा गयी थी। सारा शरीर शिथिल था। अम्मी ने दो मिनिट तो मुझसे कुछ नहीं पूछा फ़िर पता नहीं कैसे हिम्मत जुटाकर टूटे – टूटे स्वरों में पूछा – “कैसे ....... कैसे हुआ यह सब ?” मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, आवाज़ भी भीतर घुट रही थी और ज़बान उल्टी होकर हलक के नीचे ही उतार गई, फ़िर भी जवाब दिया – “पता नहीं।” अम्मी उठकर अपने काम में लग गईं। मैं बैठा- बैठा आहत होता रहा विचारों – पर विचारों की तह जमती गईं। सारा समय भावशून्य बना रहा बीच –बीच में अम्मी को देखता तो वह भी रोज़ की तरह काम करतीं नहीं दिखतीं। उस दिन मैं स्कूल नहीं गया, थोड़ा सा खाना खाकर टूटे मन से मौन होकर बिस्तर पर पड़ा रहा। जाने कब आँख लग गयी, और जब जागा तो अब्बू ऑफ़िस आ चुके थे। मैंने मुँह धोया और अब्बू की ओर देखा तो वह भी इस मौत के बोझ के तले दबे और खंडित दिखाई दिये। अब्बू और अम्मी के संवादों से स्पष्ट हो गया था की अब्बू ऑफ़िस से सीधे आसिफ़ के घर ही चले गए थे। वे आसिफ़ के परिवार के प्रति चिंता प्रकट करते रहे।

दस-बारह दिनों तक घर में, मुहल्ले में और आसिफ़ के घर एक गहराता हुआ सूनापन पसरा रहा। मेरा मन भी पढ़ाई में नहीं लगता, बार-बार मन उसी जगह भटकता रहता और उसी के विषय मे सोचता रहता। इन दिनों आसिफ़ से दो-तीन मुलाकातें हुईं कितना बादल गया था वह भीतर से और बाहर से। उसके प्रति क्या हमदर्दी जाताई जाए, क्या पूछूं सब एक बेमानी सा वार्तालाप लग रहा था इसलिए चुप ही रहा। मैं जानता था कि उसकी वेदना को सहने हेतु उसका अंग मैं नहीं बन सकता हूँ, बस उसे देख भीतर एक विवशता ही आभास करता। मेरा मन उसके लिए चिंताओं के अंधेरे कुएँ में धम्म से गिरता और मैं कई तरह से बेचैन हो उठता। चाहकर भी उससे कुछ पूछ नहीं पाता, अलबत्ता उसकी दादी अपनी हज़ार-हज़ार मुसीबतें मुझ पर ज़हीर करती रहीं। अब आसिफ़ और उसके घर के सदस्यों पर विपत्तियों के दिन लद गए थे, जो एक कमाई का ज़रिया था वह तो हमेशा के लिए अलविदा हो गया था। और रह गयी मुसीबतों की गठरी वह तो आसिफ़ को ही ढोनी थी। उसकी दादी ने कहा था- “अब कैसे गुज़ारा होगा बेटा आसिफ़ को तो तांगा चलाना भी नहीं आता और उसने कहाँ शहर और ठिकानों को देखा है।” इस पर मैंने प्रतिवाद करते हुए उनसे प्रश्न पूछा- “तो क्या आसिफ़ तांगा चलाएगा पढ़ाई छोड़ देगा ?” “बेटा कमाएंगे नहीं तो खाएँगे क्या ?” आसिफ़ की दादी के यह शब्द सुनकर ऐसा लगा की छाती पर बड़ी चट्टान आ गयी हो, उसके बोझ से हिल-डुल और तड़प भी नहीं सकता केवल उसका वज़न ही सह सकता हूँ। मैंने आसिफ़ से कहा- “अब तुम्हें पढ़ाई छोड़कर घर की ज़िम्मेदारियाँ उठानी होंगी, पढ़ाई से ज़्यादा यह सब ज़रूरी है।” यह सब कहते हुए एहसास हो रहा था जैसे मेरे भीतर किसी बड़े समझदार व्यक्ति ने जन्म ले लिया हो। आसिफ़ ने इस प्रश्न पर पहले ही निर्णय ले लिया था, वह अपनी जगह ठंडा और जमा हुआ बैठा रहा, उसकी मूद्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया। वह जानता था कि उसे यह सब करना ही है। वह गंभीर होकर बिना विचलित हुए अपने को अंदर से कितना दृढ़ बनाता रहा होगा इसकी कल्पना क्या की जाए। मैं तो केवल यही चिंता करता रहा कि वह अकेला चार ज़िंदगियों का माध्यम कैसे बन पाएगा। उसके पिता में तो कमाने का बल था लेकिन आसिफ़ इतनी कम उम्र में यह सब कैसे करेगा। उसके अपनों की चार ज़िंदगियाँ थीं स्वयं आसिफ़ उसकी दादी, बड़ी बहन और उसका घोड़ा। मैं आसिफ़ के प्रति आंतरिक तड़प के सूखे आँसू और बाहरी सहानुभूति के स्वेद के अतिरिक्त उसे दे ही क्या सकता था। जिसके सिर मुसीबत टूटती है, आत्मबल भी उसी को मिलता है और जीत भी जीवन-संघर्षों में आत्मबल की ही होती है। अब यह तय था कि सबके पेट भरने की ज़िम्मेदारी आसिफ़ की ही थी और उसने भी अपने जीवन का उद्देश्य यही सब तय कर लिया था। मैं जानता था कि वह बाहर से जितना ठंडा और बेअसर दिखाई पड़ रहा है उतना ही गरम पिघलता लावा उसके अंदर उबाल रहा था लेकिन उसकी आँच कि कोई भी शिकन अपने चेहरे पर नहीं लता। ज़िम्मेदारियों का वज़न अब उसके सिर पर था और उसे बिना रुके एक अंतहीन यात्रा पर जाना था। उसकी पढ़ाई-लिखाई कहीं पीछे छूट गई, अब उसे बस्ते कि बद्दियां नहीं थामना थीं बल्कि घोड़े की लगाम हाथों में थामना थीं। किताबों का साथ बिछड़ गया, हाथों में क़लम की जगह चाबुक थाम लिया, जिसकी मार स्वयं को ही साहनी थी। आसिफ़ मुझसे एक कक्षा पीछे था और यह क्रम बचपने से ही जारी था, उसने सदैव मेरी दी हुई पुस्तकों से ही पढ़ाई की थी। मैंने जब भी उसे किताबें दीं, वह तबर्रुक़ की तरह ग्रहण करता रहा। जिस साल उसे किताबें देता वह नए कवर चढ़ाकर उसे फिर से नई कर देता। वह उन्हें सहज कर रखता जैसे नई हों। लेकिन कठिन परिस्थितियों ने स्कूल की परीक्षाओं से खींचकर जीवन की परीक्षाओं की जलती भट्टी में झोंक दिया। उसने अपनी उम्र से बड़ा काम अपने हाथों में ले लिया, उसकी बेफ़िक्री के दिन गुज़र गए, वह अधिक चिंताग्रस्त होकर ज़िम्मेदार और गंभीर हो गया।

कुछ ही दिनों में आसिफ़ उसके अब्बा की तरह तांगे में घोड़ा जोतकर ले जाने लगा। एक सुबह मैं चौक की ओर कुछ समान लेने गया था तब वह तांगा ले जाता हुआ दिखाई दिया था। वह ठीक उसके अब्बा की तरह ही दिखाई दे रहा था, वह उसी जगह उसी मूद्रा में बैठा था, ऐसा लगा कि उसके अब्बा छोटी उम्र के हो गए हों। उससे निगाहें मिलीं तो एक झूँटी मुस्कान अपने चेहरे पर बिखेर दी, मन की भावनाओं के विरुद्ध और शायद वह भी ऐसे ही मुस्कुराया था। हम दोनों की स्थितियाँ बदल गईं थीं, मैं वही था लेकिन हमारे बीच एक अजीब सा आभास जन्म ले चुका था। आसिफ़ ने अवश्य भीतर महसूस किया था कि मैं और वह अब एक जैसे नहीं रहे, उसके इसी आभास से वह मुझे ज़्यादा अलग-थलग मालूम हो रहा था। उसके जीवन ने नई करवट ले ली थी, मेरा अब भी सामान्य जीवन चल रहा था। वह रोज़ तांगा लेकर काम पर जाता रहा और में भी अपनी पढ़ाई में लगा रहा। आसिफ़ से मुलाक़ात लंबे अंतराल पर होती, जब भी मिलते तो पहले से सहज और निर्द्वंद्व होकर नहीं मिलते। वह मुझे बड़ा आदमी सा मालूम पड़ता, अब वैसी बातें भी नहीं होतीं जैसी पहले हमजोलियों के बीच हुआ करती थीं। वह जब भी मुझसे मिलता औपचारिक सा लगता। मैं अक्सर आसिफ़ की जानकारी उसकी दादी से ही लिया करता कि उसके जीवन में क्या चल रहा है, क्योंकि आसिफ़ से पूछता था तो वह टाल जाता था। एक रोज़ उसकी दादी ने ही बताया यहा कि –“मौत का घर जानते हुए, मुसीबत के मारे जानते हुए सभी तांगे वाले आसिफ़ को ही बहुत सी सवारियों (सवारों) को ले जाने देते हैं, लेकिन बेटा यह अहसान कब तक चलेगा, सभी के घर हैं और सभी घर वालों के हमसे ही पेट हैं, उनको भी रोटी चाहिए, आख़िरकार कोई हम पर कब तक अहसान करेगा। ख़ुद का पेट कटते कोई नहीं देखता है, आसिफ़ को इतनी सवारियाँ (सवारों) ले जाते हुए देख अनवर तो पहले ही बिगड़ता था, आज तो उसने भारी चिल्ला-चोट मचाई। आसिफ़ दिन में खाना खाने आया था तो बता रहा था।” इधर उसकी बड़ी बहन रुख़साना ब्याहने लायक़ थी, सभी रिशतेदारों ने उसका ब्याह जल्द ही करा दिया। उसका ब्याह कस्बे के एक मोटर मेकेनिक से हो गया। ब्याह का सारा ख़र्च उसके मामू ने उठाया। विदाई के समय घर से जुदा होते वक़्त कितना रोई थी, हिचकियाँ थीं कि थम ही नहीं रहीं थीं, उन हिचकियों कि रगड़ आज भी मेरे कानों में महसूस होती हैं। आसिफ़ और उसकी दादी से लिपट-लिपट कर कितनी ही चिंताएँ उनके विषय में रोते हुए कहती जा रही थी। फ़िक्रों से उसका कलेजा कितना छलनी हुआ होगा। वह थी तो आसिफ़ और उसकी दादी को समय पर खाना तो ठीक से मिल जाया करता था, उसके जाने के बाद उनका हाल और भी बुरा हो गया, दादी तो बूढ़ी थीं, आसिफ़ को खाना बनाना याद न था।

मेरी परीक्षाओं के दिन आगए बारहवीं की परीक्षा की तैयारी में जुट गया, सारा ध्यान पढ़ाई में लगा तो दूसरी फ़िक्रों से आप ही निजात मिल गयी। कभी-कभी आसिफ़ के घर चला जाता उन दिनों उससे मुलाक़ात भी न हुई। आसिफ़ के अब्बा की मौत के दु:ख ने आसिफ़ की दादी को खोकला कर दिया था, वह घर में पड़े-पड़े घुलती रहीं, आसिफ़ की स्थिति से जैसे उन पर पाला ही पड़ गया था। उसकी दादी भी जल्द ही एक दिन ठंडी पड़ गईं। उस दिन मेरी परीक्षा का पर्चा भी था सो मैं वहाँ जा न सका। शाम को परीक्षा देकर आया था, थक चुका था तो सो गया। आसिफ़ को क्या मैं सांत्वना के शब्द कह पाता, समय की करवट ने आसिफ़ को कितना अकेला कर दिया था वह अपने ही घर में वीरानों के साये में आ गया, जहां कोई आवाज़ उसके लिए बाक़ी न रही, अलावा सन्नटों की गूँज के। आसिफ़ की दादी की मौत के बाद क़रीब दो माह तक उसकी बहन साथ रही, फ़िर ससुराल लौट गयी। कुछ दिनों के बाद मेरा परीक्षा परिणाम आ गया, नए उत्साह के साथ कॉलेज में प्रवेश लिया। अब कॉलेज जाने का रास्ता अलग था, उस ओर से कॉलेज जाने लगा जहाँ बस स्टैण्ड और रेलवे स्टेशन पड़ता था। उस रास्ते पर तांगा ले जाते हुए आसिफ़ अक्सर मुझे दीख जया करता था, कभी बस स्टैण्ड तांगा खड़ा दिखाई देता तो कभी आसिफ़ तांगे वालों के बीच दिखाई देता।

आसिफ़ की ज़िन्दगी तूफानों के बीच से गुज़रती हुई अलग ही दुनिया में पहुँच गयी थी, अब उसे नए दोस्त, नया माहौल मिल गया था। उसके चेहरे पर अब मर्दानगी छाने लगी थी, मूँछें उग आईं थीं, निरंतर परिश्रम और धूप के कारण उसका चेहरा पिचक गया था और काला हो गया था। तांगे वालों की भी अपनी अलग ही दुनिया होती है, दिन भर थोड़ी-बहुत कमाई, आपस में गली-गलोच, हम उम्रों के साथ आवारगी और रात के शो में फ़िल्म देखना। आसिफ़ भी उसी दुनिया में रम गया था, उसे न तो कोई अच्छी-बुरी सलाह देने वाला बचा और न ही उस पर बंदिश लगाने वाली निगाहें थीं। कहने-सुनने वाले के अभाव में उसका जीवन भी वैसा ही बनने लगा जैसा अन्य तांगे वालों का था। खाना खाने का ठिकाना कस्बे के नीमचौक चौराहे की मोहम्मदी होटल था, दोनों समय वहीं खाना खाता रात को यार-दोस्तों के साथ और देर से घर आकर सोना, थोड़ी-बहुत घोड़े की देखभाल कर लेना। बस इन सब के अलावा और कुछ न बचा था उसकी ज़िंदगी में। मैं अक्सर कॉलेज के दोस्तों के साथ बस स्टैंड पर चाय पीने और नाश्ता करने चला जाता था, कॉलेज के पास ही बस स्टैंड था। वहीं आसिफ़ दिखाई दे जाता था। कभी - कभी जाकर मैं उससे मिल भी लेता था। एक रोज़ इसी तरह कॉलेज से सभी दोस्तों के साथ चाय-नाश्ता करने आया तब बस स्टैंड पर झगड़ा हो रहा था। मैंने दूर से ही भाँप लिया था कि तांगे वालों ने आपस में लड़ाई की है या किसी और के साथ झगड़ रहे हैं। क़रीब जाकर देखा तो आसिफ़ भी था और सब तांगे वाले एकजुट होकर ऑटो वालों से लड़ रहे थे। “हम देखते हैं ये मादर ...... सवारी (सवार) कैसे ले जाते हैं, इनकी तो माँ की.......।” उन्हीं लोगों में आसिफ़ भी गाली-गलोच कर रहा था। मैंने पहली बार उसके मुँह से गाली सुनी थी और दिल को एक धक्का लगा था। उसका पहले जीवन कितना शालीन और सभ्य था, उसके बाद कैसा असभ्य और जंगली हो गया था। आसिफ़ ऑटो वालों से लगातार गालियाँ बकते हुए लड़ रहा था। भीड़ के बीच पहुँचकर मैंने आसिफ़ का कोहनी से हाथ पकड़कर बाहर लाने का प्रयास किया, लेकिन उसने देखे बिना ही हाथ झटक दिया मैंने दोबारा उसका हाथ पकड़ा, उसने मुझे देखा तो उसका कुछ आवेग टूट गया, उसे एक तरफ़ ले गया और विवाद के विषय में पूछा तो उसने कहा – “ऑटो को शहर में सवारियों के लिए लाइसेन्स मिल गया है, कितने ही लोग ऑटो ले आए हैं, सब लोग ऑटो में ही बैठते हैं, तांगे में बैठना अब कोई क्यूँ चाहेगा। हम लोगों का क्या होगा, हमारे जानवरों का क्या होगा ? एक तो पहले ही जैसे-तैसे काम चलता है उस पर से इन मादर........।” वास्तव में समस्या गंभीर थी, आधुनिकता के नए दौर, सवारों की नई पसंद ने पुरानी सवारियों के चलन को ठप्प कर दिया। हमारा कस्बा पहले किसी ज़माने में रियसती था और इसी कारण वहां सवारियों के रूप में प्रचलन केवल तांगों का ही था। मैंने बचपन से कस्बों की सड़कों पर घोड़ो के दौड़ने की टापों की आवाज़ें सुनी थीं, जिसमें कितना मधुर संगीत घुला था, तांगों के बड़े-बड़े लकड़ी के पहिये जिसके भीतर लकड़ी की बड़ी-बड़ी तड़ियाँ, जिनकी तुलना सारनाथ के चक्र से करता था। चाबुक की वह साँय- साँय की ध्वनि और तांगों वालों का वह मुँह टेड़ा करके कच्च.... कच्च.... करना कितना जीवंत और सजीव लगता था।

आसिफ़ सहित सभी तांगों वालों पर जैसे गाज गिर गयी थी, ख़ुद के परिवार के साथ एक कमाने वाले पर कितने ही आश्रित थे। नए दौर के नए तरीक़ों ने जहाँ एक ओर लोगों को सुविधा दी थी वहीं व्यक्ति और परिवार में तनाव भी ला दिया था। ध्वनि प्रदूषण को, वायु प्रदूषण को बढ़ावा मिला और धीरे-धीरे वे लोग बेरोज़गार से होने लगे। शहरीकरण की नयी योजनाओं के साथ आवागमन के नए साधनों के विकास के लिए नगर पालिका और आर. टी. ओ. ने ऑटो वालों को परमिट दे दिये। अब लोग आवागमन के साधनों के चुनाव के लिए स्वतंत्र थे, ऑटो वालों के दामों के आगे तांगों वालों ने अपने दाम यह सोचकर गिरा दिये कि लोग कम पैसे में उनके पास ही आएंगे, परंतु ऐसा न हो पा रहा था। अब तांगों वालों की आवक इतनी नहीं हो रही थी जैसे कि पहले होती थी क्योंकि अब वे एक प्रतिस्पर्धा के शिकार हो गए थे। शहर में आवागमन के साधनों के विकास ने उनके सामने चुनौती नहीं बल्कि पेट पालने कि समस्या रख दी थी। शहर के विकास के कारण उन्हें हानि उठानी थी और उठाई भी, इधर धीरे-धीरे कस्बे का शहरीकरण बढ़ने लगा तांगों वालों की संख्या कम होती जा रही थी। उन्हीं दिनों ‘ऑटो यूनियन’ का भी गठन हो गया जिससे ऑटो वाले संगठित होकर मज़बूत स्थिति में आगए। आसिफ़ बहुत दिनों तक मुझे न तो बस स्टैंड पर और न ही रेलवे स्टेशन कि ओर आते-जाते दिखाई दिया, उसकी स्थिति को लेकर मन पहले ही काफ़ी व्यथित और चिंतित था। एक रोज़ कॉलेज से घर आते समय आसिफ़ से मुलाक़ात हुई, वह किसी दूसरे तांगे वाले के साथ तांगे में था। मैंने साइकिल चलते हुए ही आवाज़ लगाई, तांगा रुका तो आसिफ़ को साइकिल पर बैठकर घर लेकर अगया।

आसिफ़ बहुत दिनों के बाद मेरे घर आया था, उसकी आँखों में पुरानी स्मृतियाँ फिर जाग गईं थीं चेहरे का भाव कुछ अतीत में खोया-खोया सा लग रहा था। कुछ समय तो वह मौन ही रहा और घर कि सब चीजों को दाबी-छुपी नज़रों और कनखियों से देखता रहा। मैंने तब तक कपड़े बदले अम्मी पानी ले आयीं। अम्मी समझ रहीं थीं कि कॉलेज का कोई मेरा दोस्त आया होगा। आसिफ़ को देखकर अम्मी औपचारिकता भूल गईं और बोलीं – “अरे ! बेटा कैसे हो ?” और फिर गालों, सिर पर बड़ी ही ममता के साथ हाथ फेरा और नि:शब्द दुआएँ दीं। उसे थोड़ी देर निहारा बातें कीं – “कैसा हो गया है रे फूल सा बच्चा, कैसा कुम्हला गया है, दुबला हो गया। क्यूँ रे तूने घर की तरफ़ मुँह ही नहीं किया, आज कितने महीने हो गए, पहले जब तू यहाँ पढ़ने आता था तो घर ही नहीं जाता था, अब आने की भी नहीं बनती।” आसिफ़ अम्मी की बातों के सामने नि:शब्द बैठा था, बस पिचके गालों से हँसता रहा बोला कुछ नहीं। अम्मी ने और ज़्यादा सवाल-जवाब नहीं किए क्यूंकि मैं उन्हें समय-समय पर आसिफ़ के विषय में बताता रहता था। अम्मी ने दूसरे कमरे में दस्तरख़्वान बिछाकर खाने के लिए आवाज़ लगाई, हमने खाना खाया। खाना खाते समय इधर उधर की बातें करते रहे, आसिफ़ मेरी पढ़ाई के विषय में पूछता रहा। खाना खाकर उठे, हाथ धोए फ़िर हम एक-दूसरे के सामने थे। मैंने पूछा –“वैसे तुम आजकल रहते कहाँ हो ? न तो तांगा लाते-लेजाते दिखाई पड़ते हो और न ही कहीं। तुम्हारे घर भी दो बार हो आया हूँ, वहाँ हमेशा ताला ही लगा होता है।” आसिफ़ खोई-खोई निगाहों से न जाने क्या ताक रहा था, मेरी आवाज़ उसके कानों तक अवश्य पहुँच रही थी। उसने कहा – “ मैं आजकल मामू के यहाँ रह रहा हूँ, अब कोई काम नहीं रह गया, तांगा बेच दिया है।” मैंने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा – “क्या घोड़ा भी बेच दिया ?” “हाँ।” उसकी यह बात मुझे झकजोर गयी। मुझे याद है जब मैं आठवें दर्जे में था और आसिफ़ सातवें में उन्हीं दिनों उसके अब्बा काला घोड़ा लेकर आए थे। आसिफ़ कितने उल्लास से मेरा हाथ पकड़कर मुझे उसे दिखने ले गाया था। कितने प्यार से हाथ फेर-फेर कर दिखा रहा था और उसी ने उसका नाम राजा रखा था। मैंने भी उसके आग्रह पर राजा को प्यार से दुलारा था, यह पहली बार ही था कि किसी घोड़े को मैंने स्पर्श किया था, उसका स्पर्श आज भी मेरी हथेलियों को याद है। कैसा काला चमकीला घोड़ा था ! मेरी आँखों में उसकी चमकती छवि आजतक मौजूद है। राजा के बिक जाने से मैं विचलित हो उठा था, ऐसा लग रहा था कि जैसे परिवार का कोई सदस्य जुदा हुआ हो, उसकी जुदाई का दु:ख भी वैसा ही था। मेरे मन में राजा के लिए आज भी वेदना है, उसके बिक जाने से पहले उसे ठीक से देख भी न पाया था, इसका दु:ख अधिक था। मैंने आसिफ़ से पूछा – “ तुमने उसे क्यों बेच दिया?” “ बेचता नहीं तो और क्या करता, ग्राहकी ही नई मिल रही थी हम दोनों का गुज़रा कैसे हो सकता था। इधर शहर में ऑटो और टेम्पो वालों ने धावा बोल दिया है, बहुत से तांगे बिक गए हैं, जो नहीं बिके हैं वो स्कूलों में लग गए हैं, स्कूल के बच्चों को लाते-लेजाते हैं। मैंने सारे रुपये मामू को दे दिये हैं, सौदा भी उन्होंने करा दिया था।” आसिफ़ के साथ बैठे-बैठे बहुत सी बातें उस रोज़ निकाल आयें थीं, पुरानी यादें ताज़ा हो गईं थीं। थोड़ी देर बाद आसिफ़ चला गया और मैं उसी के विषय में सोचता रहा।

क़रीब साल भर बाद उसके मामू ने उसकी शादी करादी, शादी उसी शहर में हुई थी, उसके मामू के कोई परिचित थे, बेचारे बड़े ही ख़स्ताहाल थे, उन्हीं की लड़की थी, घर ग़रीब था लेकिन वह लड़की अत्यंत सुघड़ और समझदार थी। मैं भी आसिफ़ के निकाह में शामिल था। आसिफ़ के उजड़े घर और ज़िंदगी में फ़िर से बहार आगई, जहाँ पिछली दो मौतों का और दो विदाइयों का जो मातम छाया था, वहीं छोटी सी एक ख़ुशी ने उसके घर की दीवारों की दरारों को भर दिया था और उन पर नए रंग-रोग़न चढ़ा दिये थे। जिस घर के आँगन में कुछ समय पहले कटिली झाड़ियाँ उग आयीं थीं वहीं बीचों-बीच एक सूर्ख कली भी निकल आई थी और उसकी ख़ुशबू ने आसिफ़ की बेजान ज़िंदगी में फिर रंग भर दिया, आसिफ़ के होठों की चुप्पी टूटकर बिखर गयी थी और उसके होठों पर कितनी मुस्कान खिल आई थी ! उसके जीवन का दु:ख बांटने वाला एक प्यारा सा हमसफ़र उसके साथ था, उसे भी महसूस हो रहा था कि कोई मेरा अपना है और उसके लिए उसे जीना है। एक रोज़ एक ऑटो मेरे घर के सामने आकर रुकी, नई-नवेली दुल्हन जैसी सजी-धजी। उसमें से आसिफ़ उतरा, उस समय उसकी आँखें कितनी चमक लिए हुईं थीं, चेहरे पर अपार उत्साह, दिल में उमंगों की लहरें थीं। उस रोज़ उसके चेहरे का रंग ही दूसरा था, वही रंग था, जिसे देखने के लिए मेरा मन हमेशा पिघलता रहा, जिसके लिए मैं सदैव चिंतित और पीड़ित रहा। उतावला सा आसिफ़ घर के बाहर आँगन वाला फाटक खोल रहा था और मैं उसी खिड़की से उसे निहार रहा था जिसमें लोहे की मोटी- मोटी सलाख़ें लगीं थीं।

लेखक-

डॉ. मोहसिन ख़ान

201, सिद्धान्त गृह निर्माण मर्यादित सहकारी संस्था

विद्यानगर,

अलीबाग़- ज़िला रायगढ़

(महाराष्ट्र) पिन- 402201

 

फोन – 02141-221095

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -60- मोहसिन ख़ान की कहानी : सवारी बदल गयी
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