सोने के दाँत नीतू सिंह 'रेणुका' -- रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अपनी अप्र...
सोने के दाँत
नीतू सिंह 'रेणुका'
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रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अपनी अप्रकाशित कहानी भेज सकते हैं अथवा पुरस्कार व प्रायोजन स्वरूप आप अपनी किताबें पुरस्कृतों को भेंट दे सकते हैं. कहानी भेजने की अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012 है.
अधिक व अद्यतन जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html
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नीतू आँगन में पड़ी अपनी चारपाई पर बैठी थी। उसके झुर्रियों से भरे पोपले मुँह पर हँसी आ गई। अस्सी की उम्र में भी उसकी हँसी पाँच साल के मासूम की सी थी। वह इस समय आँगन में खेल रहे बच्चों को देख रही थी और किशना कि शैतानी पर उसे हँसी आ गई। बिट्टो ने दादी से शिकायत की –"देखो दादी। किशना न तो ठीक से खेल रहा है न खेलने दे रहा है।" नीतू ने किसी जज के समान बिट्टो की शिकायत सुनते हुए कहा "क्यों रे छोरे ! क्यों खेल खराब कर रहा है?"
"दादी। ये मुझे अपने साथ नहीं खिला रही है"
"क्यों बिट्टो?"
"ये बाहर जा कर और लड़कों के साथ क्यों नहीं खेलता। एक तो इसे हमारा खेल आता नहीं और जबरदस्ती स्टापू पर आकर खड़ा हो जाता है।"
"तो सिखा न उसे"
"वो नहीं सीखता"
"सीखेगा, क्यों नहीं सीखेगा। तू सिखा तो सही"
"हाँ मैं सीखूँगा दादी लेकिन ये सिखाएगी नहीं"
"सिखाएगी। मैं हूँ न यहीं बैठी। देखती हूँ।"
फरियादी ने फैसला सुना और एक आज्ञाकारी की तरह तुरंत जज के फैसले पर अमल किया। नीतू फिर बच्चों के खेल में खो गई। थोडी देर में ममता ने चारों बच्चों को रात के खाने के लिए आवाज़ दी। लेकिन बच्चे खेल कहाँ छोड़ने वाले थे। अत: ममता को खुद ही उठकर आना पडा, वो भी जानती थी कि जब तक इन को घसीट कर नहीं लाऎंगें तब तक वो हिलेंगें नहीं। बच्चे खेल में खोए थे जब ममता स्टापू पर आकर खड़ी हो गई। फिर क्या था इससे पहले कि वो चिल्लाना शुरु करती, बच्चे दौड़कर रसोईघर में गए और अपनी अपनी थालियाँ उठा लीं। ममता के चेहरे पर विजयी मुस्कान दौड़ गई, फिर नीतू की तरफ मुड़कर कहा- "अम्माजी! चौका बस उठने ही वाला है, आदमियों ने खाना खा लिया है, बच्चे खा रहे हैं, उसके बाद मैं और दिवीया भी बैठ जाऎंगें। आपके लिए तीन रोटियाँ सेंक दीं हैं, आपको जो कुछ..आलू,बैंगन भूनना हो भून लीजिए वरना राख ठंडी हो जाएगी।"
नीतू ने धीरे से खाट छोड़ी और जाने कब चौके में आलू भुनने चली गई।
नीतू के तीन लड़के थे –रमण, शिव और विमल, दो बहुँऎं-ममता और दिव्या, रमण की दो लड़कियाँ निम्मो और चारू, शिव को किशना और बिट्टो थे। एक अच्छे –खासे जीवन की साँझ वह अब सुख और शांति में बिताना चाहती थी। शायद इसीलिए वह लड़कों के काम में दख़ल नहीं देती थी, हाँ लड़के अपनी सुविधानुसार उससे सलाह-मशविरा कर लेते थे। तब वह अपने अनुभव और ज्ञान का पूरा लाभ देती थी। अपने समय में उसने बहुत इज़्जत बटोरी थी, हाँलाकि इसके लिए उसने काफ़ी कुछ सहा भी था। जब शादी कर के आई थी तब एक क्रूर ससुराल और उसकी सास-ननदों से उसका पाला पड़ा था। शुरु में उसे सताया तो खूब गया लेकिन यह सब ज़्यादा देर न चला। अक़सर कठोर सास और ननदों का उद्देश्य बहू को उत्पीड़ित कर उसके रोने-धोने और शिक़ायत में सुख की प्राप्ति था। लेकिन नीतू की प्रतिक्रिया अजीब होती थी। वह उनकी अपेक्षा के विपरीत न तो रोती थी, न विरोध करती थी और न शिकायत। वह ऎसी प्रताड़ना पर एकदम शांत हो जाती और उसका विद्रोह उस शांत भाव में झलकता जो विरोधियों को मुँह चिढ़ाता और उन्हें ये एहसास दिलाता कि उनकी सारी कोशिशें विफल हो गईं। इसलिए कुछ ही समय बाद नीतू अपनी जगह बनाने में सफल हो गई। पति से उसे मार तो मिलती थी लेकिन वह यह सोच के सह लेती थी कि जहाँ पति से इतना प्रेम मिल रहा है वहाँ दो-चार लातें भी सही हैं, और सबसे बडा संतोष तो इस बात का था कि वह औरों की तरह उसे कभी किसी के सामने न पीटता था और न ही घुड़कियाँ देता था। वह यह समझता था कि नीतू को पीटने या कुछ भी कहने का अधिकार केवल उसी को है जिसमें वो बँटवारा बिल्कुल नहीं झेल सकता था। इन बातों के कारण समय के साथ उसकी इज्जत गाँव की अन्य औरतों से कहीं ज़्यादा होने लगी। नीतू आज भी सोचती है तो दंग रह जाती है कि वो सदी कहाँ गायब हो गई और कैसे उस समय के सब लोगों में केवल वह ही अकेली बची है। वो जानती थी कि आदमियों को अपने काम में औरतों की दख़लंदाज़ी बिल्कुल पसंद नहीं इसलिए वह अपने लड़कों के काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी।
इस वक्त नीतू अपने लिए आलू भून रही थी और रोटियों को लोढ़े से कूट रही थी। दरअसल बात ये थी कि उसके मुँह में गिनकर आठ दाँत बचे थे, जो उसके मुँह की दायीं ओर थे। वास्तव में उसके चार ही दाँत थे, जो ऊपर की ओर थे। उसके नीचे के चार दाँत सोने के थे। इसलिए औरों की तरह वह सामान्य भोजन नहीं करती थी, हाँलाकि अच्छा खाने की चाह में कभी-कभी अपने आठ दाँतों को बड़ा कष्ट दे देती थी और डरती भी थी कि कहीं ये भी न चले जाऎं।
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शाम के वक्त तीनों भाई खेत से लौटे थे और एक गंभीर समस्या पर चर्चा कर रहे थे। हाथ-मुँह धोकर वे आँगन में ही बैठ गए और जलपान का इंतजार करते-करते विचार-विमर्श में मग्न हो गए। ममता लोटे में चाय और चार-पाँच गिलास लेकर पहुँची।
"क्या बात है ? आज खेत में कुछ हुआ क्या?"
शिव बोला "नहीं भाभी, कुछ हुआ नहीं, हम भाई लोग मिलकर ये सोच रहे थे कि अपने खेत के बगल में बूढ़े दानू का खेत है, आज वो अपना खेत बेचने की बात कर रहा था, अगर हम खरीद लें तो कैसा रहे?"
"सोच समझकर खरीदना, वो बुढ़वा बहुत चालू चीज़ है, आज तक उसने एक भी सीधा सौदा नहीं किया, जिसने भी उससे सौदा किया है, रोया है।"
रमण ने बात को और साफ़ करते हुए कहा "यही तो बात है ममता, उससे सावधानी से सौदा करना होगा, लेकिन जो ज़मीन वो बेचना चाहता है वह हमारे खेतों के किनारे है, अगर हमने खरीद ली तो सड़क तक की सारी ज़मीन हमारी ही हमारी होगी, लेकिन अगर किसी और ने खरीदी तो उसे अपने खेत तक जाने के लिए हमारे ही खेत से गुज़रना पड़ेगा, दूसरी बड़ी बात यह है कि बुड्डे के खेत में एक कुँआ भी है जहाँ अगर रहट लगा दी जाए तो अपने आस-पास के सारे खेतों को पानी मिलना आसान हो जाएगा"
विमल ने नीतू की ओर देख कर चिल्लाते हुए पूछा "क्यों अम्मा क्या कहती हो?" नीतू बिट्टो की चोटी में फूल गूँथ रही थी जो बिट्टो ने सारी दोपहर लगाकर इकट्ठे किए थे। दोपहर में चारो बच्चे खेलते-खेलते बगल के बँसवाड़ में निकल गए थे और वहाँ से तरह-तरह का सामान उठा कर लाए थे, जिसके लिए उनको अपनी-अपनी माँओं से अच्छी मार पड़ी थी। लेकिन शाम को जब सोकर उठे तो सारी मार भूल चुके थे और अपने खेलों में फिर मस्त हो गए। बिट्टो ने पहले ही अपने फूल दादी के कमरे में छुपा दिए थे और अब उसे अचानक याद आया। फूल लेकर दादी के पास पहुँची थी और दादी भी कम बच्ची न थी उसका भी मन अब इन्हीं चीज़ों से बहलता था, सो वो भी मग्न थी।
विमल फिर चिल्लाया "अम्मा। कुछ सुनती हो?" नीतू का ध्यान भंग हुआ।
विमल के चेहरे पर आँखें गड़ाकर उसे पहचानते हुए बोली- "क्या?"
"लो यहाँ सारी रामकथा समाप्त हो गई और इनको पता ही नहीं कि राम कौन?"
सब ने सोचा की माँ से सलाह लेकर देखते हैं, उन्हें भी इन सबका कुछ न कुछ पता तो होगा। सारी बात फिर से दुहराई गई। सारी बात गौर से सुनने के बाद नीतू ने कहा "सौदा तो अच्छा है लेकिन दानू बड़ी टेढ़ी खीर है, ममता सही कहती है, आज तक उसने टेढ़े सौदे ही किए हैं। सौदा करते वक्त उससे साफ़-साफ़ बात करने को कहना और जहाँ कहीं वह किसी भी प्रकार की शर्त लगाए, उससे सावधान हो जाना। यह भी देखना कि वह कोई गोल-मोल बात न करे। हो सके तो गाँव के दो-चार बड़े-बूढ़ों के सामने ही सौदे की बात करना। सौदा पटे तो ही करना वरना छोड़ देना, उसकी बातो में आकर कोई गलत सौदा मत कर बैठना। इंच के हिसाब से और मीटर के हिसाब से सौदा करने मत जाना, उसे साफ़-साफ़ कहना की पूरा का पूरा खेत हमें चाहिए और उसका सीधा दाम बता।"
तीनों भाइयों ने गौर से सुना और तय किया कि दानू है तो धाँधलेबाज़ लेकिन हम भी तो बछिया के ताऊ नहीं है। सो अगले दिन ही जाकर सौदा पटा लिया गया।
नीतू को हैरानी यह जानकर हुई कि दानू ने पूरे खेत का एक ही दाम लगाया और वही दाम लेकर चुप बैठ गया। अपनी हैरानी उसने बच्चों पर ज़ाहिर भी की लेकिन उन्होंने प्रसन्नता के उन्माद में इतना ही कहा – "बेकार फिकर करती हो अम्मा, सौदा तो हो चुका और बुड्डे ने रुपए भी ले लिए हैं।" नीतू चुप हो गई और अपने काम में लग गई।
पिछली फसल अच्छी हुई थी और इसी कारण तीनों ये खेत खरीद सके। तीनों बहुत खुश थे क्योंकि नया खेत मिलने के अलावा उनके खेतों की सिंचाई अब और आसान हो गई थी। और तो और तीनों ने मिल-जोड़ कर जो रुपए खेत के लिए जुटाए थे उसमें से कुछ रुपए, खेत की जुताई, रहट लगाने के लिए, बीज खरीदने इत्यादि के लिए बच रहे थे। तीनों ने खेत की जुताई और बुआई भी की और उसके चारो तरफ बाड़ तक लगा दिया।
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आज तीनों भाई मिलकर रहट लगा रहे थे। इतने में दानू खेत में घुसा।
"आओ चचा! देखो कैसे हम तुम्हारी ऊसर ज़मीन को लहलहाते खेत में बदल रहे हैं।"
"मेरी ज़मीन ? अरे कहाँ ! ज़मीन तो अब तुम्हारी हुई। नहीं जोत पाता था इसीलिए तो तुम्हें बेच दिया। अब तुम्हीं मालिक हो मेरे बच्चों। खेत का चाहे जो करो, जोतो या खाली छोड़ो लेकिन.....मेरे कुऎं को तो हाथ मत लगाओ।"
तीनों हक्के-बक्के रह गए। विमल तो जैसे गुस्से के मारे दानू के ऊपर कूद ही जाता लेकिन रमण ने अपना गुस्सा सँभालते हुए कहा-"क्या कह रहे हो चचा। तुमने जितना दाम लगाया हमने उतने में ही ये खेत तुमसे खरीदा, कोई हेर-फेर नहीं हुई और सबके सामने तुमने पूरे रुपए भी लिए, जिसका मतलब की तुमने खेत हमें बेच दिया फिर ये कुआँ तुम्हारा कैसे हुआ।"
"मैं कब कह रहा हूँ कि मैंने पैसे नहीं लिए, या खेत नहीं बेचा या खेत अब भी मेरा है, मैं तो कह रहा हूँ कि मैंने खेत बेचा है लेकिन कुँआ कब बेचा? कुँआ तो अब भी मेरा है, केवल खेत तुम्हारा है। कुँआ तो उसका होगा जो उसकी क़ीमत चुकाएगा।"
विमल ने गुस्से में दानू की गर्दन पकड़ ली और दानू चिल्लाने लगा। "अरे मार डाला रे मार डाला......कोई बूढ़े को बचाओं...अरे दीन-दुखियों का दुनिया में कोई है क्या...गरीब आदमी को गुंडागर्दी से लूट रहे हैं....अरे मुझ गरीब को कोई बचाओ..बचाओ रे बचाओ..."
शिव ने विमल को दानू से अलग किया लेकिन तब तक खेत में क़ाफी भीड़ जमा हो गई थी।
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शाम के समय तीनों भाई भुनभुनाते हुए घर में दाख़िल हुए। घर की सभी औरतों को मालूम चल गया था कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है। विमल ने दोनो भाभियों को जाकर सारा हाल कह सुनाया। विमल भन्नाते हुए बोला ".......कुऎं की भी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। शिव भय्या बीच में न आते तो उसका आज ही राम-नाम सत्य कर देता था। कहता है कि अगर तुम लोग खेत वापस करना चाहो तो उसी पैसे में मुझे वापस कर सकते हो।"
रमण ने विमल के बौखलाहट पर कुछ ध्यान न देते हुए कहा –"खेत की जुताई पर और बीज पर अगर इतना खर्चा न हुआ होता तो सच में उसे वापस दे देते। अच्छा फँसाया बूढ़े ने।"
ममता बोली "तो उसको कहो कि जुताई और बीज और बाड़ वगैरह के पैसे दे दे और उसी दाम में खेत वापस ले ले।"
"हमने कहा तो था लेकिन इतना सीधा समझा है उसको, सड़ी सी सूरत बनाकर बोला - मैंने कहा था क्या खेत जोतने को, हाँ जैसा खेत मैंने तुम्हें बेचा था वैसा ही बनाकर फिर मुझे बेच दो।"
ममता ने कहा-"ये कैसी बच्चों जैसी बात की.."
विमल बोला-"बच्चों जैसी नहीं बहुत कुटिल बात की.... बच्चे तो हम बन गए।"
ममता ने रमण की ओर ताकते हुए पूछा-"अब क्या करेंगें जी?"
"करना क्या है, धूर्त ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा। और रुपयों का इंतज़ाम करना पड़ेगा।"
"लेकिन कहाँ से??"
"यही तो मैं भी सोच रहा हूँ…."
इस चिंता ने घर के सभी लोगों की नींद उड़ा दी थी। घर का वातावरण भारी हो गया था।
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दिव्या तोरई काट रही थी। अचानक किशना का विलाप सुनकर उस ओर दौड़ी। देखा तो किशना ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था, उसके मुँह से खून बह रहा था, बिट्टो उसके कपड़े की धूल झाड़ रही थी और निम्मो और चारू उसे चुप कराने में लगी थीं।
दिव्या ने लगभग चीखते हुए पूछा – "क्या हुआ? किसने मारा? किशना की ये हालत किसने की?"
लड़कियाँ सहम गईं और उनसे कुछ बोलते न बना। दिव्या ने बिट्टो को झकझोरते हुए पूछा-"कुछ बोलती क्यों नहीं?"
सहमी हुई बिट्टो बोली- "अपने से गिर गया... ड्योढी पर..जोर से...और चोट लग गई...." पहले तो दिव्या को यक़ीन न आया। लेकिन किशना और ज़ोर से रोने लगा और रोते- रोते पुष्टि की "..और... मेला दाँत भी...टूट गया।"
दिव्या ने उसे गोद में उठाया और आँचल से पोंछते हुए बोली-"मेरा राजा बेटा.... मेरा सोना बेटा.. तू तो बहुत बहादुर है...रोते नहीं...चल चुप हो जा।"
"लेकिन मेरा दाँत....." इतना कह के फिर जोर-जोर से रोने लगा। किशना की असली समस्या दिव्या को समझ में आई। वह चोट से उतना दु:खी न था जितना दाँत के खो देने पर।
वह बोली-"अच्छा है, वो दाँत अच्छा नहीं था, अब तुझे अच्छा वाला दाँत आएगा।"
"सच्ची"
किशना को खुश होते देख बिट्टो ने भी उसको सांत्वना देने के लिए कहा-"सच्ची किशना। अबकी तुझे सोने के दाँत निकलेंगें, देखना।"
दिव्या हँस पडी –"हट पगली। सोने के दाँत थोड़े न होते हैं।"
"होते हैं अम्मा। मैंने अपनी आँखों से देखें हैं। कसम से.."
"सोने के दाँत...तूने कहाँ देख लिए?"
"दादी के पुराने दाँत टूटने के बाद नए सोने के दाँत निकलें हैं।"
"धत् पागल।"
दिव्या उसकी बात हँसी में टाल गई। लेकिन वहीं पर आटा गूँथ रही ममता को ये बात हज़म न हुई। उसने सोचा कुछ न कुछ बात ज़रूर होगी वरना बिट्टो इतने आश्वासन के साथ कैसे कह सकती है।
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रात को जब ममता लेटी तो इसी ख्याल में थी कि कैसे पता करे कि बिट्टो की बात कितनी सही है। रमण खेत से थका हारा आकर लेटा था, इसके बावजूद उसकी आँखों में नींद नहीं थी। ये बात ममता जानती थी और नींद न आने का कारण भी।
"क्यों जी। कुछ बात बनी।"
"नहीं ममता। दो-चार जगह बात करके देखा, लेकिन कोई अपना सगा नही, जो उधार दे दे। जहाँ उधार मिल भी रहा है वहाँ इतना ब्याज लगा दिया जाता है कि ब्याज ही चुकाते रह जाऎंगें और मूल चुकाने के समय उसी कुँए में कूदना पड़ेगा।"
"ऎसा क्यों कहते हो?"
रमण ने कोई जवाब नहीं दिया। ममता को यह डर भी सता रहा था कि कहीं उससे उसके गहने न माँग लिए जाऎं। कोई न कोई उपाय तो उसे ढूँढना ही होगा ताकि उसके गहने सुरक्षित रहें। बात बदलते हुए उसने पूछा-
"अच्छा। एक बात पूछूँ।"
"दस पूछ।"
"अम्मा के मुँह में क्या सोने के दाँत उगे हैं?"
रमण खिलखिला के हँस दिया। ममता अपने बेतुके सवाल पर झेंप गई।
"तूने कहाँ सुना?"
"बिट्टो कह रही थी।"
"हाँ। अम्मा के मुँह में सोने के दाँत तो हैं लेकिन उगे नहीं हैं बापू ने बनवाए हैं।"
"बाबूजी ने? लेकिन क्यों?"
"दादी के मरने के बाद से खेतों की पूजा के लिए माँ को जाना पड़ता था। तुझे तो पता है कि मकर संक्रांति की पूजा के बाद ही हम खेती शुरू करते हैं..."
"...हाँ..हाँ.."
"....और ये पूजा माँ ही करती है...."
"...हूँ...."
"..... जिस साल दादी मरी थी उस साल गज़ब की फसल उगी थी और हमारे खेतों में बेहिसाब फसल उगी थी। बाबूजी का मानना था....और धीरे-धीरे सारे गाँव का मानना था कि ये सब माँ के हाथों पूजा करवाने का फल था। बाबूजी बड़े प्रसन्न थे, इतने कि उन दिनों जब माँ का एक दाँत टूटा तो बाबूजी ने उन्हें सोने का दाँत लगवाया, और अगले चार साल तक क्रम से हर साल माँ का एक दाँत टूटता और बाबूजी सोने का दाँत लगवाते। माँ के मुँह में कुल चार सोने के दाँत हैं।"
"फिर बाद में उन्होंने बाकी के दाँत सोने के क्यों नहीं लगवाए?"
"..हूँ.....पता नहीं। उन चार दाँतों के बाद अगला दाँत कई सालों बाद गिरा, तब तक शायद उनको रुचि न रही हो या शायद बजट में न हो या...पता नहीं। वैसे माँ के ज़्यादातर दाँत तो बाबूजी के गुज़रने के बाद ही गिरे हैं।"
इस बातचीत ने रमण का ध्यान उसकी समस्या से कहीं दूर हटा दिया था और वो उसी कहीं दूर में खोया-खोया कब सो गया उसे पता न चला। इधर ममता के दिमाग में जाने क्या खलबली मची थी। काफ़ी देर तक अपने आँचल को चबाते-चबाते जब उसने कुछ पूछने के लिए रमण की ओर देखा तो वो सो चुका था। उसके बाद उसके पास भी सोने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
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आज सुबह से ममता माँ की खूब सेवा में लगी थी। नीतू को बात कुछ समझ नहीं आ रही थी और दिव्या को भी हज़म नहीं हो रही थी। बातों-बातों में ममता ने माँ के सोने के दाँत देखेने की ख़्वाहिश की। नीतू को अचंभा हुआ कि इसे कहाँ से पता चला और एक बुरा ख़्याल दिमाग में घर कर गया। उसने अपना पूरा मुँह खोल के दिखाया तो ममता को अपनी आँखों पर यकीन नहीं आया। उसकी आँखों की चमक देखकर नीतू डर गई।
जिसका डर नीतू को सता रहा था वही हुआ। ममता ने घर के सभी सदस्यों को यह समझा दिया कि उनकी समस्या का समाधान नीतू के दाँतों से निकल सकता है। हाँ बेटों को समझाते समय उसे काफी विरोध का सामना करना पड़ा, परंतु अंतत: सफल हुई। विमल को समझाना आसान था, उसे बस इतना ही समझाना पड़ा कि दानू के मुँह पर अगर तमाचा मारना है तो उसका कुँआ नकद में खरीदना होगा और उसके सामने उन खेतों पर लहलहाती फसल खड़ी करनी होगी और यह सब संभव है, माँ के दाँतो से। शिव को मनाना टेढ़ी खीर थी लेकिन उसके लिए उसने पहले दिव्या को शीशे में उतारा, जो काफ़ी आसान था। दिव्या से कहा-"गहने पहने का शौक सुना था, मँहगी साड़ी पहनने का शौक सुना था और तो और सजने-सँवरने का शौक भी सुना था लेकिन ये सोने के दाँत लगाने का शौक कौन सा शौक है भइय्या...वो भी उसे जिसकी एक टाँग कबर(कब्र) में लटक रही हो। अरे बुढ़िया दाँत देने को राजी हो जाए तो उसी के घर में खुशहाली आएगी, उसी के बच्चे जिऎंगें, मगर वो क्यों देने लगी। वो है कि अपने बच्चों से कोई मोह नहीं और ये तीनों मर्द उस पर जान छिड़कते हैं, जब देखो माँ ये..माँ वो। मैं उनकी जगह होती तो कुछ न पूछती..कुछ न बताती...सीधे बुढ़िया के दाँत उखाड़ लेती। अब शिव भइय्या को देखो रात-दिन मेहनत करते हैं ताकि किशना और बिट्टो को अच्छे से अच्छा खाने और ओढ़ने को मिले। कुँए की चिंता ने उनकी क्या हालत कर दी है, न ठीक से खाते हैं न चैन से बैठते हैं, तीन ही दिन में आधे नज़र आ रहे है, चेहरे से रंग गायब। उनकी चिंता का सारा समाधान बुढ़िया अपने मुँह में लिए बैठी है और वो हैं कि माँ के खिलाफ़ कुछ सुनने को तैयार नहीं। तुम ही कुछ क्यों नहीं समझाती। मुझे तो इस बात का भी डर है कि कहीं ये होनहार बेटे अपनी माँ के दाँत बचाने के चक्कर में हम सुहागनों के गहने न उतरवा लें।"
उस रात अपने कमरे में ममता और रमण में ज़बरदस्त झगड़ा हुआ। नौबत यहाँ तक आ गई कि रमण ने ममता पर हाथ तक उठा दिया। गुस्से में कमरे से बाहर निकला और फिर घर से। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि बात क्या हुई जो इतनी बढ़ गई। सबने यही समझा कि घर की समस्याओं का दबाव अब सबके जीवन में भी दिखने लगा है।
रमण रातभर बाहर ही रहा और सारी रात सोचता ही रहा। ज्यादा सोचने पर उसे ममता की बात सही लगी। आखिर वो बेचारी भी तो गलत नहीं कह रही, कुछ सालों में निम्मो की शादी करनी है और फिर चारू की भी; उसके बारे में अभी से नहीं सोचेंगें तो कब....? और माँ की तो उम्र हो चली है, उसे सोने के दाँत का क्या करना है। सही भी है कि अगर कुँआ अपना हो गया तो फसल अच्छी होगी और फसल अच्छी हो गई तो माँ को कोई गहना भी बनवा सकते हैं। वैसे भी माँ ने अपने सारे गहने तो बहुओं को दे डाले। या फिर पूरे के पूरे नकली दाँत भी लगवा सकते हैं, आज तक दूसरी ज़रूरतों के चलते माँ के दाँतों के बारे में कभी नहीं सोचा और उन्होंने भी कभी नहीं कहा। जब इतने साल बिना दाँत के चल गए तो कुछ दिन के लिए और न चल जाऎंगें। लेकिन वे दाँत भी तो नहीं माँग सकता, पिताजी ने बनवाया था।
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अंतत: तीनों भाइयों ने हिम्मत कर के बात कह ही डाली। नीतू को हैरानी तो ज़रूर हुई कि इन तीनों ने इतनी हिम्मत कर कैसे ली, लेकिन वो तैयार बैठी थी।
"तुम्हारे पिताजी ने कोई ताजमहल तो बनवाया नहीं है, ये ही बनवा के दिया मुझे और तुम चाहते हो कि ये भी मैं तुम्हें दे दूँ। आज वो ज़िन्दा होते तो क्या तब भी तुम ये हिमाकत करते। तुम लोगों ने अगर अपना कुछ दिया हो तो मुझसे ले लो मगर वो जो तुम्हारा है ही नहीं वो कैसे माँग सकते हो। माँगना ही है तो अपने पिताजी से माँगों, और अगर वे हाँ कह दें तो ले लेना।"
ममता ने पीछे से चुटकी ली-"बहुत तेज़ हो अम्मा, अब बाबूजी का भूत बुलवाओगी क्या? सीधे-सीधे दे क्यों नहीं देती। इस उमर में सोने का लालच अच्छा नहीं। धरम-करम करो ताकि तुम्हारा परलोक सुधर जाए। तुम्हारे अपने बच्चे ही तो कुछ माँग रहे हैं और फिर कह भी रहें हैं कि लौटा देगें।"
"मुझे अच्छी तरह से पता है कि क्या लौटाऎंगें......"
विमल बोला-"अच्छा माँ! एक बात बता। हमारी तक़लीफें तो तुझे नज़र नहीं आती मगर मान ले अगर पिताजी जिंदा होते और उन्हें ज़रूरत होती तो क्या तू तब भी ऎसा ही करती।"
नीतू अपनी ही मुँह से निकली बात में फँस गई। कुछ न सूझा कि क्या कहे सो कह बैठी-"मेरे दाँत तो अच्छी तरह से जम गए हैं, वे न निकलेगें।" इतना कहने की देर थी, ममता चमक उठी और नीतू पर लगभग झपटते हुए बोली-"अम्मा! चिंता न करो। वह हम पर छोड़ दो।“
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