कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -45- भारती पंडित की कहानी : महक जिंदगी की

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महक ज़िंदगी की घड़ी ने साढ़े दस का घंटा बजाया था। दफ्तर के दरवाजे पर खड़े सभी लोगों ने यंत्र मानवों सी अपनी जगह ले ली थी। समय बीत रहा था औ...

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महक ज़िंदगी की

घड़ी ने साढ़े दस का घंटा बजाया था। दफ्तर के दरवाजे पर खड़े सभी लोगों ने यंत्र मानवों सी अपनी जगह ले ली थी। समय बीत रहा था और माहौल में रोज की तरह ऊब घुलती जा रही थी। इस ऊब को तोड़ने के लिए मेहता ने एक भददा सा जोक उछाला ही था कि अचानक मेरी नाक से किसी अनजानी खुशबू का झोंका सा गंधाया था। मैंने चौंककर नज़रे उठाई, देखा तिवारी भी शायद उसी गंध से विचलित हो दफ्तर के कमरे के दरवाजे की ओर देख रहा था। धीरे-धीरे सभी प्राणियों की नासिकाओं ने वहाँ किसी स्त्री परफ्यूम की उपस्थिति को महसूस कर लिया था और सभी के चेहरों पर आश्चर्य साफ़ महसूस किया जा सकता था। क्योंकि हमारे दफ्तर में इस समय खुशबू नहीं वरन मर्दों के पसीने की विविध गंध मंडराती और नासिकाओं को विचलित करती जाती थी। ऐसे में यह मनभावन गंध यानि ....

हम सब सोच में ही थे कि अचानक दरवाजा खुला और एक मधुर स्वर कानों में पड़ा –

" नमस्ते.. कैसे हैं आप सब ? " 

हमारे दफ्तर में एक जीती-जागती स्त्री को देखकर हम सभी बेतरहा चौंके थे। मैंने अपने हाथ पर चिकोटी काटी थी कि कहीं सपना तो नहीं देख रहा हूँ ? हमारे दफ्तर में एक स्त्री--वह भी एक सुन्दर लड़की? शायद मेरे अन्य साथी भी मेरे जैसी ही हालत में थे।

" क्या हुआ? आप सब मुझे देखकर प्रसन्न नहीं हुए?" वह मधुर आवाज फिर गूँजी थी .".मैं मधुरा .. मेनेजमेंट कर रही हूँ.. आपके दफ्तर में एज इन्टर्न काम करूंगी.. "

क्या ? हमारी आँखें फटी रह गई थी और कानों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था .. कमला सर्विसेस के दफ्तर में काम करेगी एक लड़की ?

कमला सर्विसेस का दफ्तर लगभग 25 साल पुराना था। हमारे मालिक श्री कमला प्रसाद ने इस कंपनी की शुरुवात की थी। कहते थे कि कमला प्रसाद जी ने बड़े बुरे दिन देखे थे। गाँव की जायदाद से निर्वासित होने के बाद शहर का रुख किया था ..बड़ी मेहनत करके, पैसा-पैसा जोड़कर इस कंपनी को शुरू किया था ..हम सभी पहले दिन से कंपनी के साथ थे। घरेलू सामान बनाने से शुरू हुई यह कंपनी आज विविध क्षेत्रों में अपने पाँव फैला चुकी थी और कमला प्रसाद जी देश छोड़कर विदेश की संगत ले चुके थे। सही कहा जाए तो अब यह दफ्तर शुरू रखने की उन्हें कोई जरुरत नहीं रह गई थी मगर बुरे दिनों का साथी होने से इस दफ्तर से, उनके कर्मचारियों से उनका लगाव अधिक था और इसीलिए हिसाब-किताब की छोटी-मोटी जिम्मेदारियों के साथ, सेल-परचेज के हिसाब-किताब के साथ यह दफ्तर अब भी जीवित था और हम सब की नौकरियां सलामत थी।

महीने की २ तारीख को हमारा पगार जमा हो जाता था और साल दर साल योग्य इन्क्रीमेंट भी ... कमला प्रसाद जी जाते-जाते इस दफ्तर को बड़े बाबू के जिम्मे सौंप गए थे .. बड़े बाबू यानि ज़माने से उकताए,बेतरहा धोका खाए व्यक्ति .. अपने काम में माहिर मगर आधुनिकता के कट्टर विरोधी ..और उन्हीं के कारण कंपनी का यह एकमात्र दफ्तर ऐसा था जो एयर कंडीशंड नहीं था। दिल्ली की भारी गर्मी में भी हम सब दो कूलर से काम चलाते थे। सारा दफ्तर कम्प्यूटराइजड होने पर भी बड़े बाबू के टेबल पर पुराना टाइपराइटर अब भी मौजूद था। बरसों से हमारे दफ्तर में किसी लड़की को आने की इजाज़त नहीं थी। बड़े बाबू की दो पत्नियां उन्हें धोखा देकर उनके पडौसी और रिश्तेदार के साथ भाग गई थी। तबसे उनका स्त्री जाति से कट्टर बैर था उनका मानना था कि स्त्री की छाया ही काम करने वाले आदमी को बेकाम कर देती है.. जिए दफ्तर में लड़कियाँ होती हैं, वह काम कम और चुहल ज्यादा होती है ..जीवन को देखने का उनका अपना नजरिया था और उसका खामियाजा दफ्तर की नीरसता के रूप में हम कर्मचारी भोग रहे थे ... और इसलिए मधुरा का दफ्तर में यूँ उदित होना हमारे लिए चमत्कार से कम नहीं था।

मधुरा के पीछे पीछे बड़े बाबू भी घुस आए थे .. मधुरा का परिचय देते हुए उनकी आँखों में विवशता साफ़ झलक रही थी। मधुरा कमला प्रसाद जी की भतीजी थी जो सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती थी ..दिल्ली की बिगड़ती फ़िज़ा का अहसास सभी को था और ऐसे में हमारे दफ्तर से बढ़कर सुरक्षित स्थान कमला प्रसाद जी को मिला न होगा। बहरहाल मधुरा हमारे सामने खड़ी थी और हमसब उसकी प्रेजेंस को शिद्दत से महसूस कर रहे थे।

वैसे इस दफ्तर में काम करने वाले हम सभी लोग विवाहित और नितांत भले लोग थे ..घर में एक अदद पत्नी थी जिसके हर आदेश को मानना यानि हमारा परम पति धर्म था ..बस ख़ास बात यह थी कि हर मध्यम वर्गीय परिवार की ही तरह हमारे विवाह में से भी रोमांच लगभग गायब था, शेष बचा था दाल-सब्जी के बढ़ते भाव का हिसाब, पगार में गुज़ारा न होने की शिकायत और तनाव भरा पत्नी का चेहरा जिसपर बस दो तारीख को ही रौनक दिखाई देती थी।

हाँ तो मधुरा ने आते ही लगभग हर केबिन का, हर टेबल का चक्कर लगा डाला और पहली बार हम मर्दों को अपनी कार्य शैली पर कोफ़्त हुई या यूँ कहे कि लज्जा आई। दफ्तर का हर कोना बेतरतीब था, हर टेबल काम-बेकाम की फाइलों से अटा पड़ा था ...कंप्यूटर के की बोर्ड से लेकर मॉनिटर तक सब जगह धूल का साम्राज्य था। यह भी दुर्योग ही था कि दफ्तर का एकमात्र चपरासी दो दिन से छुट्टी पर था और ऐसे में दफ्तर की साफ़-सफाई यानि...

मधुरा को बड़े बाबू ने अपने केबिन में बुलाया और हम सबने जैसे राहत की सांस ली। मैंने अपनी कुचली हुई शर्ट की ओर देखा..सुबह ही पत्नी से झड़प हो चुकी थी शर्ट इस्त्री न करने की बात पर और गुस्से में मैं ऐसी ही शर्ट पहनकर निकल आया था..हममें से हर एक अपने आप को टटोल रहा था और लज्जा महसूस कर रहा था। तिवारी बाथरूम में जाकर बाल ठीक करके आया था, मेहता भी मुंह में भरे गुटखे को थूककर शरीफ दिखने का प्रयास कर रहा था। दिखाने को हम सब काम से लग गए थे मगर आँखें बड़े बाबू के केबिन पर ही लगी थी। मेहता ने चुटकी ली- साला, वैसे तो बड़ा ब्रह्मचारी बनता है, अब देखो ..लडकी देखी तो सीधे अपने केबिन में ...

अरे चुप कर यार, बॉस की भतीजी है, उनकी भी बेटी समान ..मैंने उसे चुप किया।

अबे बेटी समान है, बेटी नहीं है..मेहता ने सिर हिलाया ।

तभी लंच का समय हो गया। कंजूस तिवारी ने सबके लिए अपनी ओर से चाय और समोसे ऑर्डर किए। मधुरा ने अफ़सोस करते हुए कहा- माफ़ करें, आज मैं टिफिन नहीं लाई हूँ.. मगर कल से आपके साथ ही लंच करूँगी। सबके टिफिन खुले और आग्रह के साथ मधुरा को हरेक के साथ थोडा-थोडा खाना पड़ा।

प्रकृति ने भिन्नलिंगी का आकर्षण स्वाभाविक रूप से सबके मन में डाला है.. महिलाओं से भरे एक दफ्तर में भी किसी पुरुष कर्मचारी के आ जाने से ऐसा ही बदलाव महसूस किया जाता होगा .. या शायद को-एड में पढ़ना भी इसीलिए पसंद किया जाता होगा। खैर बात जो भी हो, दफ्तर से निकलते हुए हरेक बड़ा प्रफुल्लित था। मैं दावे से कह सकता हूँ. आज कम से कम किसी भी घर में बर्तन नहीं बजेंगे, वाक् युद्ध नहीं होगा ।

अगले दिन दफ्तर का नज़ारा बदला हुआ था। ठीक दस बजे अधिकाँश स्टाफ हाज़िर था। चपरासी से दफ्तर का कोना-कोना साफ़ करवाया जा रहा था, मेज पर फाइलों का अम्बार छाँटकर सलीके से जमा दिया गया था ..यहीं नहीं, हर व्यक्ति भरसक सलीके से आया था.. सभी के कपडे चुस्त-दुरुस्त, एक्स की गंध वातावरण में तैर रही थी। अब बस इंतज़ार था मधुरा का .

ठीक ११ बजे मधुरा ने "हेलो एवरीबडी " के मधुर संबोंधन के साथ एंट्री ली। दफ्तर के परिवर्तन को देखकर उसने भीनी सी मुस्कराहट के साथ कहा- वोंव, नाईस चेंज ..हम सबके चेहरे पर विजयी मुस्कान आ गई। मधुरा की ट्रेनिंग शुरू हुई .. वह कुर्सी खींचकर तिवारी के पास बैठ गई.. तिवारी प्रोडक्शन का काम देखता था ...पहली बार हमें अपनी कुर्सी बदलने की इच्छा हुई.. और तिवारी पर रश्क ...तिवारी ने एक विजयी मुस्कान उछालकर मधुरा को काम के बारे में समझाना चालू किया।

अगले कुछ घंटों तक तिवारी जीतने वाली टीम का कप्तान था और हम सब हारी हुई टीम के खिलाड़ी .. मधुरा तल्लीनता से काम समझ रही थी..जरुरी एंट्री कंप्यूटर में करके तिवारी की मदद करती जा रही थी।

हमसब बार-बार घड़ियाँ देख रहे थे। आखिर लंच हुआ और मधुरा का सानिध्य सभी के हिस्से मे आया। आज चाय मेहता ने स्पांसर की। सबके टिफिन भी विशेष आकर्षण लिए थे। मधुरा ने भी अपना टिफिन निकाला. .बेकार पड़ी टेबल जोड़कर उसे बाकायदा बुफे टेबल सा रूप दे दिया गया.. मधुरा ने सारे टिफिन सलीके से सजा दिए .. डिस्पोजल प्लेट्स वह लेती आई थी.. नारी को विद्वानों ने अन्नपूर्णा यूँ ही नहीं कहा होगा ..कुल जमा बाईस वर्ष की लडकी में इतना सलीका देखकर हम हैरान थे..  .व्यवस्थित तरीके से भोजन करके सबके चेहरे तृप्त थे औरआँखों में मधुरा के लिए स्नेह छलक रहा था।

कहना नहीं चाहिए मगर अब तक हम लोग केवल खानापूर्ति के लिए या पगार के लिए काम पर आते थे, दस से पाँच का समय बिताकर घर की राह लेते थे,दफ्तर की नीरसता और ऊब को घर में फैला देते थे। मधुरा क्या आई, जीने का,काम करने का तरीका बदल गया.. जबरदस्त आत्मविश्वास, सकरात्मकता और जीवन की उमंग से भरी उस लडकी ने मानों हम सभी को जीना सिखा दिया था।

मधुरा ने बारी-बारी से हम सभी को असिस्ट किया, काम की बारीकिया सीखी, नई तकनीक समझने में हम सबकी भरसक मदद भी की। इतने समय में सारे दफ्तर के परिवेश में जबरदस्त बदलाव आ गया था। काम की एफ़िशिएन्सी बढ़ी थी, दफ्तर का माहौल खुशनुमा हो गया था। हमारे मन की खुशी हमारे घरवालों को भी खुश करती जा रही थी, घर का तनाव भरा माहौल खुशनुमा हो गया था। वह मानो हवा का एक खुशबूदार झोंका थी जो आते-जाते हर पड़ाव को महकाती जाती थी।

महीने भर का समय पलक झपकते ही निकल गया। मधुरा को शानदार सेंड ऑफ दिया गया.. समोसा-सेंडविच पार्टी ..सुन्दर फूलों का गुच्छा.. जाते-जाते वह कह गई- आप सबके साथ काम करके बहुत अच्छा लगा .. मैं तो सीखकर जा रही हूँ.. मगर मेरे कॉलेज के और साथी आते रहेंगे..आपके अनुभवों का लाभ लेने, आपको असिस्ट करने .

हम सोच में थे कि किसे किसके अनुभव का लाभ मिला है..

मधुरा गई और कुछ महीने में दफ्तर में सारी मिसिंग सुविधाएँ मौजूद थी.. अब दफ्तर में एक अदद रिक्रिएशन रूम बन चुका है..कॉफ़ी मशीन लग गई है, नई नियुक्ति की जगह भले ही न हो, मगर युवा युवक-युवतियाँ इन्टर्न के रूप में आते रहते हैं जिनकी ऊर्जा से हम लाभान्वित होते रहते हैं.. बड़े बाबू भी अब आधुनिक होने में विश्वास रखने लगे हैं...

इस सबसे बढ़कर यह कि हम सब समझ चुके है कि एकरसता चाहे काम की हो, दफ्तर के माहौल की हो,संबंधों की हो या घर के रूटीन की ..उसे तोडना बहुत जरुरी है अन्यथा यह एकरसता जीवन को रसहीन-रंगहीन बना सकती है ..और एक बार मधुरा के छिडके रंग में रंगने के बाद हम में से कोई भी एकरसता की बेरंग दुनिया में वापस जाना नहीं चाहेगा ...

भारती पंडित

३०१, स्वर्ण प्लाज़ा,

स्कीम ११४-,प्लाट ११०९

.बी. रोड, इंदौर

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. भारती जी ..बेहद सुन्दर रचना के लिए अभिनन्दन ...
    आपके शब्द-चित्र ने अनुभिती को सजीव कर दिया ..एक बार तो लगा कि मेरी टेबल और की बोर्ड पर भी धूल जमा हो गई है ..तुरंत साफ कर दूं ...कई "प्रतिगामियों" के विचारों की धूल तो यह यक़ीनन साफ कर ही देगी ...शुभ-भाव सदा के लिए

    -संदीप भालेराव "सिद्धांत"

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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -45- भारती पंडित की कहानी : महक जिंदगी की
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