सागर डाक्छे विजय वर्मा एक था राजा. एक थी रानी. कहानी तो ऐसे ही शुरू होती है न ! तो दादी ने ऐसे ही कहानी की शुरुआत की ,लेकिन अर्नव बीच में...
सागर डाक्छे
विजय वर्मा
एक था राजा. एक थी रानी. कहानी तो ऐसे ही शुरू होती है न ! तो दादी ने ऐसे ही कहानी की शुरुआत की ,लेकिन अर्नव बीच में ही टपक पड़ा--अच्छा, दादी! कहानी हमेशा राजा-रानी से ही क्यों शुरू होती है ? किसी ठेलेवाले या रिक्शा चलाने वाले या चाय बनाने वाले से क्यों नहीं शुरू होती ? अब दादी ठहरी पुराने ज़माने की ,सो नए ज़माने की कहानी कहाँ से सुनाती. तो दादी हो गयी नाराज़ और बोली कि कहानी सुननी है कि नहीं ?वह हाँ में सर हिलाकर चुपचाप कहानी सुनने लगा. लेकिन खो गया अपनी ही दुनिया में. उसे लगता था कि वह बड़ा हो कर सभी के दुःख हर लेगा.
यह था अर्नव दत्ता, वर्ग पाँचवी का छात्र,और दादी उसकी अपनी दादी नहीं ,दोस्त की दादी थी जो बगल वाले मकान में रहती थी. वह अपने माँ-बाप का इकलौता संतान था.
उसकी माँ एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थी और पिताजी डी. वी सी. में अधिकारी. माँ दिनभर बच्चों को पढ़ाने और शाम को काँपी जाँचने के बाद इतनी तरो-ताज़ा नहीं रहती थी कि वह बेटे को कहानी सुनाये. फिर रात का खाना बनाना और अर्नव का होम-वर्क करवाना भी उसी के जिम्मे था.
अर्नव अपने क्लास में बहुत लोकप्रिय था. सुंदर और स्वस्थ शरीर, पढ़ने-लिखने में ज़हीन और सबसे बढकर यह कि इकलौती संतान होने के बावजूद न जिद्दी, न बिगड़ैल.
बचपन से ही सब के लिए मन में दया था. कई बार भिखमंगों में मिठाई का आधा पाकेट बाँट देने के कारण माँ से मीठी झिड़कियाँ भी सुन चुका था. माँ एक-दो टुकड़ा देने के लिए समझाती
तो कह उठता,'' माँ! बाबा आबार निये आसबे तो. '' [माँ !पिताजी फिर ला देंगे ]
माँ के लिए ऐसी उलझन वाली स्थिति वह प्रायः ही पैदा कर देता था. जब माँ उसे गली में मैले-कुचैले कपड़े पहने बच्चों के साथ खेलते देखकर टोकती तो वह कह बैठता कि वे भी तो आखिर उसी के जैसे है. उसकी माँ क्या बोलती ,बस बुदबुदाकर रह जाती ''ऐई छेले किछु बुझे ना. ''[यह लड़का तो कुछ समझता ही नहीं है] . और ऐसी नादानी वह प्रायः करते रहता था. पर वह माँ-बाप का बहुत प्यारा भी था,एकलौता पुत्र जो था.
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उसे दो ही शौक थे ,कहानी सुनना और चित्र बनाना. बड़े मनोयोग से चित्र बनाता और उसमे जान डाल देता. लेकिन उसके चित्रों में नदी, पहाड़, समुन्द्र, झरना यही सब होते.
गर्मी की छुट्टियों में उसके दोस्त मसूरी, नैनीताल ,शिमला जाते तो वहाँ के बारे में तरह-तरह के अनुभव बताते . उसका मन भी कही नयी जगह जाने को करता ,पर उसके माता-पिता छुट्टी मिलते ही कोलकाता के लिए रवाना हो जाते--आखिर श्री दत्ता का घर और ससुराल दोनों ही वहाँ था और हिलिस-माछ और रसोगुल्ला का मोह वे छोड़ नहीं पाते.
पर इस बार बेटे ने ज़िद पकड़ ली थी कि वह कोलकाता नहीं बल्कि पुरी जाएगा . दरअसल उसका एक दोस्त कुछ दिनों पहले पुरी से घूम कर आया था और उसने इतने विस्तार से पुरी और समुन्द्र का वर्णन किया था कि वह समुन्द्र देखने के लिए मचल उठा था. कभी ज़िद नहीं करने वाला बालक अब ज़िद पकड़ बैठा था कि इसबार या तो पुरी जाएगा या कही नहीं जाएगा--बोकारो थर्मल में ही अपनी छुट्टियाँ बिताएगा. आखिर उसके माँ-पापा मान गए . तो समय रहते ही पुरुषोत्तम एक्सप्रेस में और होटल पुरी में आरक्षण करवा लिया गया. धीरे-धीरे तैयारी शुरू होने लगी. सबसे ज्यादा तैयारी अर्नव कर रहा था. सागर से सम्बंधित जितनी जानकारियाँ वह पत्र-पत्रिकाओं से इक्कठा कर सकता था ,कर रहा था. ज्वार-भाटा की तस्वीरें ,सागर-तट की तस्वीरें,और भी बहुत सारी तस्वीरें उसके एलबम में जगह पा चुकी थी. माँ से वह तरह -तरह के सवाल करता--''माँ! सागर कि खूब विशाल '' उसकी माँ जवाब देती--''हाँ ,रे! तोमार ह्रदय मतो. ''
[हाँ,रे! तुम्हारे दिल जैसा ] . एक दिन वह अपनी माँ से कह रहा था --''माँ! मने होच्छे सागर आमा के डाक्छे ''[ माँ! ऐसा लगता कि जैसे सागर मुझे बुला रहा है]
कभी कहता कि सागर में जब लहर उठती है तो ऐसा लगता है जैसे उसकी माँ का आँचल हो. बस सोते-जागते,उठते-बैठते वह समुन्द्र की ही चर्चा करता.
देखते-देखते वह दिन भी आ गया जब वे लोग पुरी की यात्रा पर निकल पड़े. रातभर की यात्रा सुखद रही. सुबह भोरे-भोरे वे लोग पुरी पहुँच गए.
होटल पहुँच कर ,तरोताजा होने के बाद जलपान हुआ और फिर निकल पड़े सबलोग सागर और मंदिर दर्शन को. आपसी सहमती से तय हुआ कि समुन्द्र में स्नान करने
का कार्यक्रम अगले दिन के लिए रखा जाए. दूसरे दिन सुबह-सुबह जल्दी उठकर वह तैयार हो गया और माँ-पापा को भी जल्दी तैयार होने के लिए जोर देने लगा.
फिर भी निकलते-निकलते १० बज ही गया.
सागर किनारे पहुँचकर वह भरपूर नज़रों से उसे निहारने लगा. उसके पापा २०-२५ कदम दूर शंखों-शिपियों की दूकान पर कुछ खरीदने गए. तबतक वह माँ से कहने लगा कि वह समुन्द्र का पानी छूकर आ रहा है . . माँ ने उसे मना कर दिया ,बोली कि जब पापा आ जाए तब वह जाए. पर वह माँ से मनुहार करने लगा . तंग आकर उसकी माँ ने सिर्फ पानी छूकर आने की अनुमति दे दी. अथाह जल-राशी ,ऊपर नीला आकाश ,नीचे नीला सागर--वह तो जैसे मंत्र-मुग्ध हो गया. वह ४-५ कदम आगे बढ़ गया.
तभी उसके पापा भी लौट चुके थे . बेटे को नहीं देखकर पत्नी से पूछा ---तभी दोनों की नज़र एक साथ लहरों में फंसे बेटे पर पड़ी--वह चिल्ला रहा था ,माँ, आमाके बाचाओ. बाबा, आमाके बाचाओ दोनों सागर की तरह दौड़े --लेकिन तबतक वह आँखों से करीब-करीब ओझल हो चुका था,सिर्फ दो छोटे-छोटे हाथ नज़र आ रहे थे पानी के ऊपर. और धीरे-धीरे वह भी ओझल हो गया.
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v k verma,sr. chemist,D. V. C. ,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail. com
मार्मिक...
जवाब देंहटाएंह्रदय को छूती हुई कहानी..शुक्र है कहानी है..
सादर
अनु
दरअसल यह एक बिलकुल सच्ची घटना पर आधारित है ,मैंने सिर्फ
हटाएंकहनी का रूप दे डाला है.प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद.
दरअसल यह बिलकुल सच्ची घटना पर आधारित है,
हटाएंमैंने सिर्फ इसे कहानी का रूप दे डाला है.
प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद.
hridyavidark...
जवाब देंहटाएंthanx poonam ji .
हटाएंbahut umda!!
जवाब देंहटाएंdil ko chuti ek hardyavidarak marmik kahani
जवाब देंहटाएंthanx to mikku & dr.mahendrag.[kahani pasaand karne ke liye]
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