कहानी मझधार सरिता शर्मा पूर्वी दिल्ली का विमला देवी अस्पताल। अस्पताल के कमरा नंबर 13 के बेड पर पड़ी विभा सोच रही थी-‘आखिर जीवन का छंद कह...
कहानी
मझधार
सरिता शर्मा
पूर्वी दिल्ली का विमला देवी अस्पताल। अस्पताल के कमरा नंबर 13 के बेड पर पड़ी विभा सोच रही थी-‘आखिर जीवन का छंद कहां, कैसे बिगड़ गया?’ उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी अपनी ही जिंदगी उसके नियंत्रण से बाहर चली जाएगी।
हर समय साथ चलते रहनेवाला अतीत का भूत फिर उसके दिलोदिमाग पर हावी होने लगा।
मध्यवर्गीय परिवार की विभा पढ़ाई में अव्वल और गंभीर स्वभाव की रही थी। खाली वक्त में खेलने या टीवी देखने की बजाय कहानियों की किताबों में डूबी रहती। नतीजा यह होता कि हिन्दी, अंग्रेजी, समाज विज्ञान में कक्षा में सबसे आगे और विज्ञान-गणित में फिसड्डी। कॉलेज में आखिर अपनी पसंद का विषय साहित्य पढ़ने को मिला तो विभा को लगा मानो लॉटरी लग गयी। जितनी कविताएं-कहानियां पढ़ती, उतने ही भाव मन में उमड़ते। प्रोफेसर विनय ने उसे खूब प्रोत्साहन दिया। कॉलेज के दिनों की ज्यादातर प्रेम कविताएं विनय सर के लिए ही थीं मगर प्लेटोनिक लव के उस दौर में किसी को इसकी भनक नहीं पड़ी। कक्षा के उच्छृंखल लड़कों को तो गंभीर साहित्यिक चर्चाओं की जगह कॉलेज से भाग कर फिल्में देखना ही अधिक पसंद था। बीए के बाद एमए में भी प्रथम आयी तो घर वालों ने पीएचडी के लिए दिल्ली भेज दिया जहां उसे लड़कियों के हॉस्टल में रहना था।
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पढ़ाई के सिलसिले में उसे कई बार प्रोफेसर मलिक के घर भी जाना पड़ता था जहां उनकी पत्नी और बेटी से उसकी अच्छी दोस्ती हो गयी। सर पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते थे और कई लेखक-संपादक उनके मित्र भी थे। एक दिन चाय के समय सर ने उसका परिचय इंद्र से कराया जो एक जानी-मानी साहित्यिक पत्रिका ‘कथादर्पण’ के संपादक थे।
‘मैंने भी कुछ कहानियां-कविताएं लिखी हैं। आप कहें तो आपकी पत्रिका के लिए भेज दूं?’ विभा ने सकुचाते हुए पूछा।
‘हां जरूर, मेरा फोन नंबर ले लीजिए और कभी ऑफिस आ कर अपनी रचनाएं दे जाइए।’
हॉस्टल लौटते हुए विभा के कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी थी। उसकी कल्पनाओं में बार-बार ‘कथादर्पण’ का आगामी अंक झूल रहा था, जिसमें फोटो के साथ उसकी कहानी छपी है...कॉलेज में हर तरफ उसकी कहानी की ही चर्चा चल रही है...
दो-तीन दिन इसी उधेड़बुन में बित गए कि कौन-सी कहानी लेकर वह इंद्र के पास जाए...उसके पास तो ढंग की कोई फोटो भी नहीं। आखिर हॉस्टल की रूममेट नीता के डिजिटल कैमरे ने फोटो की समस्या हल की और डायरी में पड़ी कहानियों में से एक कहानी टाइप करा वह पूर्वी दिल्ली स्थित ‘कथादर्पण’ के कार्यालय पहुंची। इंद्र ने धीर-गंभीर मुद्रा में उससे कुछ औपचारिक सवाल किए, कॉफी पिलायी और कहानी पढ़ने के बाद फोन करने का आश्वासन दिया।
मन में कई तरह की आशंकाएं लिए विभा हॉस्टल लौट आयी। दो-तीन दिनों बाद इंद्र का फोन आया-‘बधाई, आपकी कहानी ‘कथादर्पण’ के अगले अंक में छप रही है।’
हफ्ते भर बाद जब ‘कथादर्पण’ का नया अंक आया तो सचमुच चमत्कार हो गया। देश भर से दर्जनों चिट्ठियों और फोन कॉल आए। वह कॉलेज के हिंदी विभाग में भी चर्चा का विषय बन गयी थी।
विभा को जिंदगी में पहली बार अपने वजूद का एहसास हुआ-हां, वह जो चाहे वो कर सकती है।
उसने इंद्र को फोन कर हार्दिक धन्यवाद दिया और दूसरे दिन कुछ कहानियां-कविताएं लेकर फिर ‘कथादर्पण’ के दफ्तर जा पहुंची। दफ्तर के बाहर ही इंद्र से उसकी मुलाकात हो गयी। इंद्र ने कहा-‘मैं लंच करने कनॉट प्लेस जा रहा हूं...चलोगी?’
विभा ने संकोचवश इनकार किया मगर इंद्र के सामने उसकी एक न चली-‘देखो भई, राइटर को औपचारिकता के झंझट में नहीं पड़ना चाहिए।’
धीरे-धीरे इंद्र से उसका मेलजोल बढ़ता गया और उसे पता ही नहीं चला कि कब वह इंद्र की ओर आकर्षिक होने लगी है। इंद्र भी उसे पसंद करता है, यह बात वह अच्छी तरह समझ चुकी थी। तभी तो वह उससे अपनी निजी जिंदगी के बारे में सब कुछ शेयर करने लगा है।
इंद्र का बीवी से तलाक हो चुका था। दो बच्चे थे-शिखा और मोहित। दोनों हॉस्टल में पढ़ रहे थे। इंद्र मयूर विहार स्थित अपने फ्लैट में अकेले ही रहता था। कभी-कभार बच्चे मिलने या दो-चार रोज साथ रहने चले आते थे।
इंद्र ने अब विभा के साथ छूट लेनी शुरू कर दी थी। बातचीत करते हुए वह अक्सर उसके कंधे पर हाथ रख देता। कभी विभा अपनी कोई कविता सुनती तो तारीफ में खुशी से चीख उठता-‘वाह, ग्रेट!’ और उसे गले लगा लेता। सार्वजनिक स्थलों पर इंद्र के इस बिंदास रवैये से विभा असहज हो उठती। वह घबरा कर इधर-उधर देखने लगती कि कोई देख तो नहीं रहा।
विभा की झिझक देख इंद्र ताना मारता-‘यार, 18वीं सदी के भावबोध से अब नहीं काम चलनेवाला। कहानियों-कविताओं में तो स्त्री विमर्श...औरत की आजादी की खूब वकालत करती हो मगर वास्तविक जिंदगी में अपनी आजादी का इस्तेमाल तक नहीं करना जानती? हूंह!’
एक दिन इंद्र उसे लंच के लिए प्रेस क्लब ले गया। खाने से पहले ठंडी बीयर से गला तर करने के बाद उसने निर्णयात्मक लहजे में अपनी बात शुरू की-‘देखो विभा, हम दोनों अकेले हैं...हमें एक-दूसरे की जरूरत है। इस रिश्ते को आकार लेने दो। एक पल को वह रुका, विभा की ऊंगलियों को अपनी हथेली में कैद करते हुए उसने बात आगे बढ़ायी-‘मुझे पता है, तुम्हारी प्रेम-कविताएं मुझे ही संबोधित होती हैं...!’
विभा चुपचाप उसे एकटक निहारती रही।
उस दिन थोड़ी ना-नुकुर के बाद विभा ने पहली बार बीयर का स्वाद चखा। इंद्र उसके इस ‘साहस’ से बेहद खुश दिखा-‘शराब क्रियेटिव लोगों की संजीवनी है...वो गालिब ने कहा है न...साकी शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर या फिर जगह बता जहां खुदा न हो...हो-हो-हो!’
लंच के बाद जब वे प्रेस क्लब से बाहर निकले, इंद्र ने कहा-‘अभी हॉस्टल जाकर क्या करोगी? चलो, घर चलते हैं...गपशप करेंगे।’
पता नहीं यह बीयर का असर था या इंद्र का सम्मोहन, वह इनकार नहीं कर सकी।
इंद्र के साथ ऑटो में बैठ आध घंटे बाद विभा जब उसके मयूर विहार स्थित डबल बेडरूमवाले फ्लैट में पहुंची, तब कहने-सुनने के लिए कुछ बचा नहीं था।
इंद्र ने डायनिंग हॉल के शोकेस में सजी वोद्का की बोतल खोली। वोद्का की बोतल के साथ विभा भी खुलती चली गयी...जमाने से उसके भीतर जमी बैठी बर्फ पिघल रही थी...अपने अतीत के दुःखों, आकांक्षाओं के बारे में वह लगातार बोले जा रही थी। मानो आज अपना हर सुख-दुःख वह इंद्र से बांट लेना चाहती थी।
इस बीच एक-एक कर उसकी देह से सारे कपड़े उतरते रहे... चुबंन-आलिंगन के लंबे दौर के बाद बिस्तर पर वह इंद्र के आगोश में लेटी थी।
रात के नौ बज गए। मयूर विहार से नार्थ कैम्पस स्थित अपने हॉस्टल के लिए ऑटो लेते हुए विभा मानो हवा में उड़ रही थी...उसे लगा, उसने अपनी आजादी की ओर पहला कदम मजबूती से बढ़ा दिया है।...ऑटो में बैठी तो उसे अचानक खयाल आया कि मयूर विहार पहुंच कर उसने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया था। पर्स से निकाल कर उसने तत्काल मोबाइल ऑन किया तो रूममेट नीता के 10 मिस्ड कॉल देख घबरा गयी।
‘हॉस्टल में आज वार्डन अच्छी-खासी फटकार लगाएगी। खैर, लेक्चररशिप ज्वाइन करते ही वह अलग फ्लैट ले लेगी...अब हॉस्टल की रोक-टोक और ऊबाऊ दिनचर्या में बंध पाना उसके लिए संभव नहीं,’ विभा ने दृढ़ता से सोचा।
विभा की जिंदगी का एक नया दौर शुरू हो चुका था। उसकी शामें अब इंद्र के साथ गुजरने लगी थीं। बीयर, वोद्का के सुरूर में वे घंटों स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, मार्क्सवाद और गांधीवाद आदि पर बहस करते रहते।
‘चलो छोड़ो, अब कुछ रोमांटिक बातें करते हैं,’ फिर इंद्र उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर ले जाता।
विभा अक्सर पूछ बैठती-‘इंद्र, मुझे प्यार तो करते हो न? तुम्हारे पास लड़कियों के फोन आते हैं तो उनसे मेरे सामने बात नहीं करते। सच बताओ, कोई दूसरी औरत भी तुम्हारी जिंदगी में है?’
इंद्र अपनी झुंझलाहट छुपाने की कोशिश करता-‘शक करने का कोई फायदा नहीं। हम पति-पत्नी तो हैं नहीं, न ही किसी सामाजिक बंधन से बंधे हैं। प्यार का यह अनूठा रिश्ता भरोसे के सहारे ही निभ सकता है’-इंद्र टका-सा जवाब दे देता-‘सिर्फ तुम्हारे लिखने से तो हमारी पत्रिका चलने वाली नहीं। बाकी लेखक-लेखिकाओं से भी संपर्क रखना पड़ता है। फिर जब तुम साथ होती हो तो तुम्हारे साथ से बढ़ कर मेरे लिए कुछ नहीं...यह कीमती समय मैं दूसरे लेखक-लेखिकाओं से बात करके बर्बाद नहीं करना चाहता। और तुम हो कि ऐसी बातें करके मेरा मूड बिगाड़ देती हो।’
विभा ने कॉलेज में लेक्चररशिप ज्वाइन की तो घर से शादी के लिए दबाव बढ़ने लगा। कभी-कभार उससे मिलने दिल्ली आये पिता
और भाई को इंद्र के साथ उसके रिश्ते की उड़ती हुई खबर लग गयी थी। पिता ने अप्रत्यक्ष संकेतों के जरिये विभा को सावधान करना चाहा तो भाई ने सीधे-सीधे धमकी दे डाली। मगर विभा पर इन संकेतों और धमकियों का कोई असर नहीं हुआ। आखिर अब वह अपने पैरों पर खड़ी आत्मनिर्भर स्त्री थी। साथ ही एक सम्मानित स्त्रीवादी लेखिका के तौर पर भी उसकी पहचान बनने लगी थी। घर-गृहस्थी के झंझट में अपना लिखना-पढ़ना बंद कर देना विभा को कतई मंजूर नहीं था। अपने कॉलेज की लेक्चरर सीमा को उसने हमेशा हैरान-परेशान देखा था। ज्वांइट फैमिली में सास-ससुर का रौब तो था ही, पति मनोज भी उसे घर के कामों में उलझाये रखता था। कुंठित होकर चिड़चिड़ाते रहने से वह हाई ब्लड प्रेशर की मरीज हो गयी थी। चिड़चिड़े स्वभाव की वजह से पीठ पीछे छात्र-छात्राएं उसका मजाक उड़ाने लगे थे। वह सेहत, साज-श्रृंगार यहां तक कि अपने कपड़ों के प्रति भी लापरवाह रहने लगी थी। मोटापे की वजह से उसकी काया बेडौल होती जा रही थी। 37 की उम्र में वह 50 की दिखने लगी थी।...विभा अपने ऐसे भविष्य की कल्पना कर सहम उठती। अपनी कमाई पर आराम से रह रही है। किश्तों में खरीदे फ्लैट में उसने एक-एक कर जरूरत के सभी साधन जुटा लिए थे। साथी की कमी इन्द्र ने पूरी कर ही दी थी। इस बंधन रहित रिश्ते में समस्या थी तो बस सामाजिक स्वीकृति की।
‘इस अगस्त में तुम 33 की हो जाओगी...कब तक कुंवारी बैठी रहोगी?’ एक दिन पिता बरस पड़े थे।
‘पापा, आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि शादी के बिना औरत अधूरी है?’ लेखन से इतर व्यावहारिक जीवन में शायद पहली बार वह अपनी स्त्रीवादी दृष्टि का प्रयोग कर रही थी-‘अच्छा-खासा कमाती हूँ। मेरी कहानियां और लेख छपते हैं तो देश भर से पाठकों, संपादकों के फोन आते हैं, चिट्ठियां आती हैं। फेसबुक की मेरी वॉल प्रबुद्ध प्रशंसकों के कमेंट से भरे रहते हैं। मेरी अपनी आइडेंटिटी है...आपकी पसंद के किसी अनजान आदमी के साथ शादी करके मैं पूरी जिंदगी उसके साथ नहीं बिता सकती,’ उसने अपना फैसला सुना दिया।
मगर आज पिताजी भी हार माननेवाले नहीं थे। बोले-‘तो फिर अपनी मर्जी के आदमी के साथ शादी कर लो। हम लोग इतने मॉडर्न नहीं हैं। तुम्हारे भाई-बहनों की शादी भी करनी है। अगर अपनी मर्जी से ही रहना चाहती हो तो फिर हमसे तुम्हारा कोई नाता नहीं रहेगा’-विभा के बाद पिता ने भी अपना फैसला दो टूक सुना दिया तो विभा जैसे सातवें आसमान से गिरी।
उसे लगा, मानो उसकी जिंदगी की नाव किसी मझधार में फंस गयी है...और किनारे धुंधले पड़ते जा रहे हैं। उसकी जिंदगी के दो किनारे। एक इंद्र, दूसरा परिवार। इंद्र की वजह से परिवार उससे नाता तोड़ने पर उतारू है और इंद्र उसे अपनाने को तैयार नहीं। पता नहीं, उसे अंधेरे में रख और कितनी लेखिकाओं पर डोरे डालता रहता है।
विभा रोने लगी-‘आप ऐसा कैसे कर सकते हैं? मैं आपसे, मम्मी
से...अतुल, प्रिया...सबसे बहुत इमोशनली अटैच्ड हूँ।’
‘बेटी, तुम्हें क्या लगता है, हम बहुत खुश हैं? प्रिया को लड़केवाले देखने आते हैं तो तुम्हारा जिक्र छिड़ जाता है। बेहतर यही है कि अब मैं सिर्फ अतुल और प्रिया के बारे में सबको बताऊं। सबको बोल दूंगा कि मेरे दो ही बच्चे हैं। तुम्हारी बदनामी से मैं उनकी जिंदगी बर्बाद नहीं होने दूंगा।’
पिताजी दिल्ली से लौटे तो हफ्तों विभा के भीतर-बाहर एक सन्नाटा पसरा रहा। उसने कई बार घर फोन किया लेकिन अब मां और भाई-बहन उससे बात करने से कतराने लगे थे।
वह असुरक्षा और अकेलेपन से घिर गई थी। एक दिन उसने इंद्र से साफ-साफ पूछ लिया-‘हमारे संबंध का जब सबको पता है तो क्यों न हम ‘लिव इन’ कपल बन जाएं। दिल्ली में अब कई लड़कियां, औरतें अपने पार्टनर के साथ लिव-इन रह रही हैं। उन्हें आजादी और सुरक्षा, दोनों मयस्सर हैं। एक के साथ रहते हुए कितने ही दोस्तों का उनके यहां आना-जाना लगा रहता है। अब तो मेरा घर-परिवार से भी कोई संपर्क नहीं रहा।...क्या करूं?’ वह बेहद उदास थी।
उसकी बातें अनसुनी करते हुए इन्द्र ने उसे एक अप्रत्याशित प्रस्ताव दे डाला-‘मारीशस चलोगी? विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन है। मुझे आमंत्रण मिला है।’ विभा को गुस्सा आ गया-‘आमंत्रण आपको मिला है तो क्या नकली बीवी बन कर मैं आपका बैग ढोने चलूं?’ इंद्र ने बुरा-सा मुंह बना लिया। बोला-‘ओह, बाल की खाल खींचने की आदत से बाज आओ...तुम्हें भी इनविटेशन मिलेगा...आयोजक मिस्टर खन्ना शाम को खाने पर आ रहे हैं। सब मैनेज हो जाएगा...तुम किचन संभालो और लिव इन रहने की बात भूल जाओ। मेरे बच्चे उसके लिए कभी तैयार नहीं होंगे।’
शाम को मिस्टर खन्ना आए तो विभा की तारीफों के पुल बांधते हुए इंद्र ने उनसे विभा का परिचय कराया। मिस्टर खन्ना ‘अच्छा-अच्छा’ कहते हुए विभा को घूरते, मुस्कुराते रहे।
डिनर से पहले पीने-पिलाने का दौर शुरू हुआ तो मिस्टर खन्ना ने अर्थपूर्ण ढंग से माहौल को सूंघते हुए अपने दो-तीन लेख इंद्र को पकड़ा दिये-‘ये मेरे आलेख...प्रवासी भारतीय साहित्य की दशा-दिशा पर केंद्रित हैं। पढ़ कर देखें, ठीक लगे तो ‘कथादर्पण में ले सकते हैं।’ इन्द्र तो जैसे इसी मौके की तलाश में था-‘अरे, पढ़ना क्या, हमारी इतनी जुर्रत कि आप लिखें और हम न छापें।’ इंद्र ने ठहका लगाया तो मिस्टर खन्ना भी हंसने लगे। थोड़ी देर बाद मिस्टर खन्ना को शरारत भरी नजरों से देखते हुए इंद्र बोला-‘मैं जरा सिगरेट लेने बाहर जा रहा हूं...आपलोग बात करो, मैं आया।’
मिस्टर खन्ना पेग पर पेग गटकते जा रहे थे। शराब के सुरूर में उनकी आवाज लरजने लगी थी-‘अरे, आपने तो दो ही पेग लिए विभा जी, शरमाइये मत...हम सब दोस्त हैं...’
मौका देख कर विभा ने विश्व हिंदी सम्मेलन के आमंत्रण की बात छेड़ी तो मिस्टर खन्ना के हाथ विभा के कंधे तक पहुंच गए-‘अरे, निश्चिंत रहिए, आप हमारे साथ मारीशस चल रही हैं। प्रॉमिस! मारीशस के खुशनुमा मौसम में आपका संग-साथ मिले तो खूब रंग जमेगा।’
मॉरीशस में ज्यादातर समय इन्द्र बाकी लेखक-लेखिकाओं के आसपास मंडराता रहा। दरअसल मिस्टर खन्ना को विभा के साथ ट्यूनिंग करने की छूट देकर वह अपने लिए नया शिकार तलाशने में जुट गया था। आयोजक होने की अपनी तमाम जिम्मेवारियों के बीच मिस्टर खन्ना ने विभा का खास खयाल रखा। जब भी समय मिलता, खन्ना विभा के आसपास मंडराने लगता। और एक रात पार्टी के बाद विभा अपने होटल के कमरे में लौटी ही थी कि वह आ धमका। नशे में धुत मिस्टर खन्ना ने विभा को अपनी बाहों में भर लिया-‘आप चिंता मत कीजिए, इन्द्र को कोई आपत्ति नहीं। फिर यहां तो आप मेरी ही वजह से आयी हैं विभा जी...आई श्वैर, हमारी दोस्ती परवान चढ़ेगी। मैं आपको पूरी दुनिया घुमाऊंगा। प्रॉमिस!’
विभा इस अप्रत्याशित आमंत्रण के लिए तैयार नहीं थी मगर न जाने क्यों, उसकी इनकार करने की भी इच्छा नहीं हो रही थी। अब जो होता है होने दो। इंपोर्टेड वाइन के नशे के बाद पुरुष-देह के स्पर्श से उसकी देह सुलग उठी थी।
खन्ना के साथ बिस्तर की ओर जाते हुए विभा सोच रही थी-‘क्या ऐसा कर वह इंद्र से अपना हिसाब चुकता कर रही है...मगर इंद्र को इससे क्या फर्क पड़नेवाला...वह तो शायद यही चाहता है। हो सकता है, खन्ना उसे बता कर ही उसके पास आया हो।’
खिड़की से आती धूप की किरणों की चौंध से विभा की नींद खुली। खन्ना अपने कमरे में लौट चुका था। रात को खन्ना के आगोश में जाते हुए एक पल को यह सोच कर वह रोमांचित हो उठी थी कि इंपोर्टेड वाइन के खुमार में सहवास के बाद दूसरे दिन सुबह वह तरोताजा महसूस करेगी। मगर यह क्या? उसका सर भारी था और उसे मितली आ रही थी।
इंद्र के साथ सहवास उसे असीम संतुष्टि और ऊर्जा से भर देता था जबकि खन्ना के साथ रात बिताने के बाद वह एक अजीब-सी विरक्ति से घिर गयी थी।...‘क्या इसलिए कि इंद्र से वह प्यार करती थी जबकि खन्ना के साथ जो हुआ, वह एक सौदेबाजी थी। एक डील। लेकिन इसके लिए भी तो उसे इंद्र ने ही उकसाया।’ उसे लगा-‘इंद्र अगर अभी उसके सामने आ जाए तो वह उसका गला दबा देगी।’
वह बुझे मन से वापस लौटी और दिल्ली पहुंचते ही फट पड़ी-
‘अगर आप लिव-इन रिलेशन के लिए तैयार नहीं तो अब हमारा मिलना-जुलना संभव नहीं। हम औरतों का क्या कुसूर? प्रेम करें तो छली जाएं, विवाह बंधन में बंधें तो कोई कद्र नहीं करता।’
इंद्र चुपचाप उसे अजीब-अपरिचित नजरों से घूरता रहा।
‘यह रास्ता तुमने ही चुना है,’ एयरपोर्ट पर उसे अकेला छोड़ मयूर विहार के लिए टैक्सी लेते हुए इंद्र ने टका-सा जवाब दे दिया। इंद्र के जाने के बाद रोहिणी के लिए दूसरी टैक्सी लेते हुए वह पूरी तरह अवसाद से घिर चुकी थी।
उसे लगा-मझधार में फंसी उसकी नाव बस डूबने ही वाली है!
घर पहुंच कर उसने कई बार इंद्र को फोन लगाया मगर उसने फोन नहीं उठाया। वह वहशत में भरी दिन भर उसे फोन करती रही।
देर रात गए इंद्र का मैसेज आया-‘बच्चे घर आए हैं। दो-तीन दिन बाद मिलते हैं।’
विभा ने फोन पटक दिया और आवेश में नींद की ढेर सारी गोलियां गटक ली!
दूसरे दिन दरवाजा तोड़कर इंद्र उसे अस्पताल ले गया। जान तो बच गयी मगर हफ्तों अवसाद का इलाज चलता रहा।
होश में आने के बाद विभा के समक्ष वही यक्ष प्रश्न खड़ा था-आखिर जीवन का छंद कहां, कैसे बिगड़ गया?
‘लेकिन अब और नहीं...यह छंद अब वही सुधारेगी। पुरुषों का क्या, वे तो आते-जाते रहेंगे...कभी प्यार के रास्ते तो कभी सौदेबाजी के रास्ते...अस्पताल से छुट्टी पाते ही वह अनाथालय से किसी अनाथ बच्ची को गोद लेगी और उसका जीवन संवारेगी। इस भटकाव का अंत शायद तभी संभव है-नेवर टू लेट।
तभी मीठी मुस्कान बिखेरते हुए नर्स कमरा नंबर 13 में दाखिल हुई। उसने विभा को बताया कि अब वह बिल्कुल ठीक है...कल उसे अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया जाएगा।
विभा को लगा, मझधार में फंसी उसकी नाव विकराल लहरों के थपेड़ों से जूझती हुई बाहर निकल किनारे की ओर बढ़ चली है। किनारे पर जीवन है...नयी खुशियां हैं, नयी चुनौतियां।
उसे लगा, उसकी देह फूल-सी खिल उठी है...अलसुबह खिले बेले की सुगंध का झरना उसकी देह से फूट पड़ा था।
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संपर्क : मकान नंबर-1975, सेक्टर-4, अर्बन इस्टेट
गुड़गांव-122001
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