हृदय परिवर्तन जय प्रकाश तिवारी ---------------------------------------------------------------------------------------- रु. 15,000 के ...
हृदय परिवर्तन
जय प्रकाश तिवारी
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रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. अथवा पुरस्कार स्वरूप आप अपनी किताबें पुरस्कृतों को भेंट दे सकते हैं. अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012
अधिक जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html
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पेट की यह निर्मम भूख किसे उद्वेलित और अशांत नहीं कर देती? क्षुधा तृप्ति के लिए ही तो भटक रहा है यह तन और मन, हो चाहे यह इन्सान का या किसी जानवर का. भोली-भाली बकरी भी भूख को रोक नहीं पाई थी, यदि अपनी भूख सहन भी कर ले तो बच्चों की भूख आखिर मिटे कैसे? मंदिर प्रांगण के आस-पास घूमनेवाली उस बकरी में भी आरती और भजनों की धुन पर कुछ गुनगुनाने की आदत सी पड़ गयी है और स्वभाव भी वैसे ही मस्तमौला, बेपरवाह सा. यद्यपि मंदिर के आस-पास ही घूमते रहने से उसे प्रसाद और फल-फूल खाने को मिल जाते थे लेकिन मिलावट की इस दुनिया में अब प्रसाद भी खाने का अर्थ है बीमार पड़ना. आखिर उसे केवल अपना ही पेट तो नहीं पालना था, बच्चों को कौन पालेगा? जबतक दुधमुहें हैं, दूध बनने के लिए भरपेट भोजन तो करना ही होगा और साथ ही सावधानी भी रखनी होगी.
इसलिए हरी घास और मुलायम पत्तों की खोज में एकबार मुँह जो नीचे किया तो ऊपर उठाया ही नहीं. जान ही नहीं पायी कि कब सुरक्षित क्षेत्र पारकर जंगल में प्रवेश कर गयी है वह. वह तो खुश थी कि आज चारों बच्चों का पेट भर जायेगा, कई दिन से आधे पेट सो रहे थे बेचारे... विचार श्रृंखला तब भंग हुयी जब कुछ अजीब सी आहट-सरसराहट हुयी. इस आहट पर जब उसने नजरें उठाया तो सामने भूखे भेडिए को खडा पाया. सकपकाई-घबराई बकरी मौत को सन्निकट पाकर, वात्सल्य के नाम पर सदा की भांति इस बार भी मिमियाई.. और अपने सत्यवचन की दी दुहाई. युवराज! मेमने भूखे होंगे, हमें तनिक समय चाहिए, उन्हें मनभर निहारने का, दुलारने का, पुचकारने और मातृत्व-ममता लुटाने का. फिर लौट आउंगी, आपकी छुधातृप्ति के लिए. कसम भगवान की मैं सच कहती हूँ..
भेडिया ने एक विजेता की तरह अपनी आँखों को नचाया, मन ही मन मुस्कुराया, मूंछों को ऊपर-नीचे घुमाया, दो-चार बूंद लार टपकाया और अभयदान दे दिया बकरी को ..... जाओ, ऐश करो! .. मेरे पुरखे बुद्धू थे जो बकरी को ग्रास बनाते थे. मैंने बकरी खाना छोड़ दिया और तुझे अभयदान दिया. जाओ दीर्घायु हो! फूलो-फलो!! गांधारी की तरह शत-शत बलशाली पुत्रों की माता बनो.
बकरी हैरान थी, इस अद्भुत परिवर्तन को देखकर परेशान थी, भावातिरेक में बोल पड़ी- आप महान है! आप तो संत हैं- युवराज! संत ही नहीं, महासंत हैं!!.. जय हो! जय हो!! इस जंगल ने आजादी के बासठ साल बाद आज गांधीदर्शन को अपनाया है. अब तो नाचने-गाने-मुस्कराने का मंगल अवसर पहली बार आया है.
अरे बुद्धू! गांधीवाद को तो उनके अनुयायियों ने ही नहीं अपनाया और गांधीगिरी मुन्ना भाई को ही मुबारक हो.... हम भी प्रगतिशील हैं,.... दिल्ली-नोयडा सभी जगह घूम-घामकर आये हैं. इसलिए हमने गौतम, महावीर और गाँधी का नहीं, निठारी के सिद्धांत को अपनाया है और इसके लिए पंढेर और कोली को अपना आदर्श बनाया है. अरे महामूर्ख! .. तू अब भी नहीं समझी? अरे! तू जिसे दूध पिलाना चाहती है, जिसपर मातृत्व और ममत्व लुटाना चाहती है, वह तो न जाने कबसे.... मेरे गहरे उदर में समाया है.... माँ के गोश्त से स्वादिष्ट गोश्त बच्चे का होता है. यह बात जंगली जानवर को मानव की इस नई सभ्यता ने सिखाया है.
कुछ क्षण रुक कर भेड़िया ने सर झुका दिया... चिंतनमुद्रा में खड़ा-खड़ा कुछ सोचता रहा. फिर बड़े ही कातर स्वर में बोला.. बहना! मत कहो मुझे युवराज और मत कहो मुझे संत. ये विशेषण हैं केवल इंसानों के लिए. नहीं है उनकी बुद्धि का अंत. वे मानव हैं, मानवता छोड़ सकते हैं, अपने वादे और कसमे तोड़ सकते हैं... स्वधर्म और राजधर्म भूल सकते हैं, दोस्ती-दुश्मनी भी जब चाहे जोड़ सकते हैं, तोड़ सकते हैं.. कभी देव, कभी दानव, तो कभी संत-महंत और न जाने क्या-क्या बन सकते हैं. परन्तु हम तो जंगली है, जानवर हैं, पशु हैं, हिंसक है, कैसे छोड़ दे अपनी पाशविकता? फिर भी उनसे अच्छे है. जंगली और हिंसक होते हुए भी वादे निभाते हैं, पेट भरने के बाद, नहीं करते फिर दूसरा शिकार. बचाखुचा शिकार भी औरों के लिए छोड़ जातें हैं. परन्तु देखो यह इंसान कितना अजीब है, जूठन भी फ्रिज में रखता है. वह केवल अपना पेट ही नहीं, फ्रिज और गोदाम भरता है. .. कहीं कोई भूखा मरता है तो कहीं अन्न सड़ता रहता है. बहना! सच कहूँ तो मैं भी पहले ऐसा नहीं था.... मुझे मक्कार तो मानव की नई सभ्यता ने बनाया है.
देखो बहना! सच कहता हूँ, तुम्हारा दुःख देख मैं भी द्रवित हो गया हूँ, मन मेरा भी अब बदल गया है... जो भूल हुई है मुझसे उसका अब प्रायश्चित करना चाहता हूँ. जो घटा तुम्हारे साथ, न घटित हो औरों के साथ. कुछ ऐसी व्यवस्था बनाना चाहता हूँ. इसमें तुम्हें मेरा साथ निभाना होगा. जंगल में भी सभ्यता-संस्कृति कुछ लाना होगा. हमसब मिल-बैठ कर सभा एक बुलाएँगे. माना कि मानव भी करता रहता है ऐसा, लेकिन गलती उसकी हम नहीं दुहराएंगे. कहेंगे-सुनेंगे अपने-अपने गम, बिगड़ा काम बनायेंगे. नहीं बनना अब हमें प्रगतिशील, शहरों में नहीं अब जाना है. देखी है दुनिया शहरों की, शहरों का रूप घिनौना है. हम यहीं मिल-बैठ कर खायेंगे, पर शहरों में नहीं जायेंगे. जंगल में मंगल मनाएंगे. यहाँ भी लगी है कुदृष्टि मानव की, छीन रहा है वह हमारा ये बसेरा..
पोंछकर बहते अश्रु बोली बकरी- नहीं-नहीं, सभी मानव ऐसे नहीं... अभी भी मानव बहुत कुछ हैं ऐसे, है आवश्यकता इस प्रकृति को जैसे. वे शहर छोड़कर आये हैं, अरण्य को ही निजआश्रय बनाये हैं. करना होगा संकल्प सभा में, हम उन्हें कष्ट नहीं पहुचायेंगे. इसी में है दोनों की भलाई, पशुओं की और मानव की. जब विकसित होगी ऐसी साझी-संस्कृति तभी होगी दूर ये सारी विकृति. हो सकता है संभव कुछ ऐसा, जो ज्ञान ये संत-महात्मा फैलायेंगे, भावी पीढ़ी अपना ले उसे. फिर तो सब जश्न मनाएंगे. दिन खुशी के लौटकर आयेंगे.
भेड़िये को जैसे अचानक कुछ याद हो आया, झट उसने नयी एक बात बताया. एक नया शब्द सुना वाहन मैंने, जिसे कहते हैं सब भ्रष्टाचार. जाने कौन सी गुप्त वस्तु है, नहीं मिली कभी खाने को... सब चिला रहे थे जोर-जोर.. वह खा गया..., वह खा गया... डकार गया.., पचा गया... आरोप उसी पर लगता था जिसकी मोटी तोंद और श्वेत वस्त्र.
छोड़ो-छोड़ो इन बातों को, बोली बकरी मत भटको अब तुम. हम रहेंगे मिलजुल वैसे ही, पुरखों ने जैसी निभाई है. छोड़नी है सारी कटुता और बैर-भाव जो मानव से तुमने पाई है. देखा है मानव को मैंने भी, उनकी संस्कृति में नहीं बुराई है, हाँ हैं वहाँ भी कुछ मन चले, उन्होंने ही विकृति लायी है. अच्छाई जग में लाने खातिर कदम किसी न किसी को तो पहले-पहल बढ़ाना ही होगा, चलो पहला कदम यह हमीं उठाते हैं, कदम से कदम मिलते हैं.
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डॉ.जय प्रकाश तिवारी
ग्राम/पोस्ट – भरसर
जिला – बलिया (उ. प्र.)
सं.सूत्र.- ९४५०८०२२४०
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