थकान --कहानी -पद्मा मिश्रा अभी अभी बारिश रुक गयी थी परन्तु आकाश में काले,घने बादलों का साम्राज्य अभी कायम था. अम्मा जी ने घड़ी की और देखा...
थकान
--कहानी
-पद्मा मिश्रा
अभी अभी बारिश रुक गयी थी परन्तु आकाश में काले,घने बादलों का साम्राज्य अभी कायम था. अम्मा जी ने घड़ी की और देखा चार बज गए थे. पांच बजे तक बेटे ,बहू, बच्चे सभी आ जायेंगे. अभी तो नाश्ता भी नहीं बना था ..वह घुटनों पर हाथ रख एक हल्की सी कराह के उठ कर किचन में बच्चों के लिए दूध गर्म कर ,कुछ सैंडविच बना देती हैं. बहू, बेटे के लिए प्याज के पकौड़े और थोड़ी सी उपमा भी ...विपिन को बहुत पसंद है. उनके हाथ तेजी से काम में व्यस्त हो गए. नाश्ता बना, टेबिल पर सजाकर वह ज़रा कमर सीधी कर ही रही थी की कार का हार्न बजा और बच्चे शोर मचाते भीतर आ गए,,,''दादी माँ भूख लगी है, ''और मन पसंद नाश्ता देख खुश हो गए. विपिन ने चाय की फरमाइश की तो बहू के उठाने के पहले ही अम्माजी ने चाय का पानी चढ़ा दिया था. चाय विपिन को देकर जब नाश्ते के लिए आग्रह किया तो विपिन बेमन से बोला --''नहीं माँ ,आज शुभा का चाइनीज खाने का मन है, ,हम बाहर जा रहे हैं''
पर यह नाश्ता?....बहुत मन से बनाया था मैंने ,बेकार हो जाएगा !'' शुभा ने अपनी उपस्थिति जताते हुए कहा-''किसने कहा था ,इतनी मेहनत करने को ?..अब यह तला भुना रोज रोज तो खाया नहीं जाता .....अरे दिन में आराम ही कर लेती ,रोज घुटनों का दर्द लेकर बैठ जाती हैं.''
अम्माजी मायूस होकर चुप हो गईं. हालांकि वह भली भांति जानती हैं कि बहू को उनकी कितनी फिक्र है!..अरे चाइनीज ही खाने का मन था तो फोन पर बता देती. ..खैर..मन ही तो है ये सारा नाश्ता रात के खाने पर काम आ जाएगा ''
उन्होंने अपने मन को समझा लिया था. और बाहर बागीचे में बैठ कर घुटनों पर दर्द निवारक मलहम की मालिश करने लगीं. ......सत्तर वर्ष की उम्र ..और मन का शांत..सूना अकेलापन बांटने वाला कोई नहीं. ..बाहरी दुनिया की हलचल ...घर से बाहर तक दौड़ती भागती जिन्दगी ,बच्चे, खाना, नाश्ता ..भजन पूजन में खुद को इतना व्यस्त कर लिया था की स्वयं की और देखने की फुरसत भी नहीं थी. .........पर एकांत मिलते ही यादों के भंवर घेर लेते हैं उन्हें,सारी तन्मयता भंग हो जाती है जैसे..----'' वर्षों पूर्व राजरानी सी दिपदिपाते रूप वाली षोडशी सुजाता उनके आसपास मंडराने लगती है ....
माँ की प्यारी बेटी से लेकर ससुराल की लाड़ली बहू बनी ...मालकिन का रुतबा लिए सुजाता की घर में सभी सुनते थे. ...खाना बनाने में इतनी कुशल लोगों की फरमाइशें पूरी करते करते शाम हूँ जाती थी ,जब ससुर जी डांटते तभी वह रसोई से बाहर आती. .....उन्होंने ही उसे पाककला में दक्ष होने लिए होम साइंस में स्नातकोत्तर और करवाया था. और अध्यापिका भी बनवाया पास के ही स्कूल में ताकि उसका आत्मसम्मान बना रहे. क्योंकि पति की फौज की नौकरी थी ..पर जब भी वह घर आते तो पूरा घर सुजाता के बनवाये पकवानों की खुशबू से महकता रहता था. ..उसे माँ ने ही तो सिखाया था पति के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है. उसके बनाए भोजन की प्रशंसा होती रहती और वह मगन हो उन्हें परोसने, खिलाने में ही सुख़ का अनुभव करती.......थकान शब्द तो जैसे उसके शब्द कोष में था ही नहीं. ....स्कूल भी जाती ,और लौटने पर घर गृहस्थी में व्यस्त हो जाती ,पति को खाने का बहुत शौक था. वह सुजाता के बनाए भोजन की भरपूर प्रशंसा करते और उसे पाकर खुद को सौभाग्य शाली भी मानते थे. ..........जब पास के ही शहर में उनकी पोस्टिंग हुई तो सुजाता भी साथ गयी, शीघ्र ही उसे भी काम मिल गया, जीवन की गति सपनों की डगर पर चल पड़ी थी. ...फिर विपिन की किलकारियां गूंजी तो जैसे उसके पाँव धरती पर ही नहीं रहे ......उसे लेकर सपनों की एक नई दुनिया विकसित कर ली थी सुजाता ने. ......शायद यही होती है एक औरत की दुनिया, ...पूर्ण, परितृप्त नारी के सपनों के दुनिया ....वे कितनी भी कामकाजी क्यों न हों ,उनके जीवन का हर एक पल अपने परिवार की खुशियों के लिए ही तो समर्पित होता है........सुजाता ने भी घर से दौड़ते भागते, विपिन की देखभाल करते, विनय को समयानुसार खाना पहुंचाते ..कदमों से कभी थकान का अनुभव नहीं किया था. ......
.....पर सुख़ की घनी छाँह के बादल कब अंधेरी रात में बदल गए ..वह जान ही न सकी. ...कारगिल युद्ध के दौरान पति के वीरगति प्राप्त होने के समाचार ने पूरे परिवार को दहला दिया था. ...उस अनंत भयावह सन्नाटे ने उसे जड़ बना दिया था. .....शून्यवत जिन्दगी हंसना ..रोना तक भूल गयी थी.....................पर धीरे धीरे पति के त्याग -बलिदान और स्वयं के भी पूर्णत; रिक्त हो जाने अहसास ने उसमें यह गर्वबोध भी जगाया कि ..-'वह एक शहीद की विधवा है. उसे रोना नहीं चाहिए. विनय का त्याग बलिदान, देश के लिए था ,वह उनके परिवार की सेवा कर उस देह-दान को व्यर्थ नहीं जाने देगी. और उसी पवित्र भावना में बंध कर उसने पूरे बिखरे परिवार को समेट लिया था. सास ससुर के गुजर जाने के बाद वह विपिन की नई नौकरी में उसके साथ ही रहने लगी थी. उसके पसंद के भोजन बनाती उसकी नई घर गृहस्थी की सारी व्यवस्था अपने हाथों में लेकर वह खो सी गयी थीं. ...जो सपने ,जो अरमान पति राजेश के साथ बिताने ,उसकी सुख़ सुविधाओं का ख्याल रखने के लिए देखे थे, ...अब पति की अंतिम निशानी बेटे की सेवा करके मानो उन्हें पूरा कर पाने का सुख़ पा रही थी. अब तो घर में बहू भी आ गई थी. फिर दोनों को अधिक प्यार दुलार देना, उनकी देखभाल करना उसने अपना कर्तव्य ही मान लिया था....बहू कुछ करना भी चाहती तो तो उसे जबरन बाहर घूमने भेज देती और रात को लौटने पर गर्म खाना खिलाती. यह सुख़ एक असीम से आनंद में कब बदल गया उन्हें पता ही न चला .
''बहू, तुम पर लाल रंग फबता है वही पहनो,''या आज बालों की चोटी बना गजरा लगाओ , अच्छा लगेगा.''वह बहू को अपनी पसंद से सजाकर बहुत खुश होती थीं. जिसमे विपिन को भी टी शर्ट की बजाय पूरी बांह की शर्ट पहनाने की जिद भी शामिल हो गयी थी. और विपिन भी उनकी इच्छा का सम्मान कर ,उनका मन रख लेता था............धीरे धीरे समय ने करवट ली ..पोते पोतियाँ भी हुए और अब वह एक जिम्मेदार दादी भी बन गयी थीं. ..पर इन दिनों न जाने क्यों बेटे बहू की बेरुखी बढ़ती जा रही थी. ...वे जो भी कहतीं या करना चाहती वे दोनों जान बूझकर उसकी अनदेखी कर देते. उसके बनाए भोजन खाने की बजाय बाहर के फास्ट फ़ूड खाना पसंद करने लगे थे. ..वे होम साइंस पढ़ी लिखी थीं अत; किताबों में पढ़ा कर फास्ट फ़ूड बनाना भी सीख लिया था जिसे छोटे बच्चे बड़े शौक से खाते पर विपिन और बहू की नाराजगी बनी रही.................
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..अचानक सड़क से गुजरती किसी कार की तेज आवाज से उनकी तंद्रा टूटी ..और वे वर्तमान में आ गई. वे चौंक गईं ,काश जिन्दगी फिर से अपने अतीत में लौट पाती .धूप ख़त्म हो गयी थी. वातावरण में ठण्ड बढ़ने लगी थी. जाड़े के दिनों की असमय बरसात उन्हें पीड़ा पहुंचाती और उनके घुटनों की तकलीफ बढ़ जाती थी. ...अम्माजी उठ कर बरामदे में रखी शाल ओढ़ कर कमरे में आ गईं. अन्दर के कमरे से बहू के गुस्से में तेज तेज चिल्लाने की आवाज आ रही थी. --''थक गयी हूँ मै इस मनमानी से ,इन्हीं का बनाया खाओ, वही पहनो, मैं तो जैसे गुडिया बन कर रह गयी हूँ. क्या मेरी इच्छा नहीं होती की मैं भी अपने हाथों से अपने परिवार के किये कुछ करूँ......वे बूढ़ी हो गईं हैं तो आराम क्यों नहीं करती? बैठे बिठाए दो रोटियाँ तो उन्हें मिल ही जायेंगी. ''
बहू ने माँ बेटे के बीच दूरियों को बढ़ाने का एक और भावुक हथियार फेंका ताकि विपिन उसे अकर्मण्य न समझे. वह तो बस माँ की खुशी के लिए घर के कामों को हाथ नहीं लगाती. उसकी यह युक्ति काम कर गयी थी. विपिन भी उसके समर्थन में उतर आया था ---''अब तो बच्चे भी रोज रोज तला भुना खाने लगे हैं. चाव से , जो ठीक नहीं है. ''
बहू को एक सहारा मिला और उसने फिर एक एक तीर फेंका ---''दिन रात ख़त कर आखिर क्या दिखाना चाहती हैं की सिर्फ उन्हें ही आपकी परवाह है ,मुझे नहीं?.....कभी तो जीने दें हमें अपने ढंग से. ''
अम्माजी सन्न रह गईं. पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ ,फिर वस्तुस्थिति समझते ही उनकी आँखें बरसने लगीं. ..ये क्या हो गया?...उनका प्यार, उनका स्नेह ..क्या सिर्फ दो रोटियाँ पाने के लिए था?अपने खोये हुए सुख़ और आनंद को अपने बेटे बहू की देखभाल में खोजना क्या कोई अपराध था? ....शायद उनसे ही कोई गलती हो गयी है. समय बदल गया है ,अब वह युवा सुजाता नहीं रही, सत्तर वर्षीया बूढ़ी अम्माजी हो गयी हैं. जब पोते पोतियाँ छोटे थे तब उनकी बहुत पूछ होती थी. उन्हें नहलाना धुलाना कपड़े बदलना, साफ़, सफाई करना, समय पर खाना खिलाना ..ढेरों काम होते थे. बहू ने सारी जिम्मेदारियां उन पर दाल रखी थीं. कभी प्रशंसा के दो बोल भी सुनने को मिल जाए. पर अब तो वे जो भी करती हैं बहू को दिखावा लगता है. ...पोते पोतियाँ बड़े.हो रहे हैं आज बड़े अपमान करते हैं ..कल वे भी करेंगे तब वे क्या करेंगी?......
क्या वह पति की सेवा का अधूरा सुख़ अपने बेटे की सेवा में पाना चाहती हैं?अपनी दमित इच्छाओं की पूर्ती अपनी बहू को सजा, संवार कर पाना चाहती हैं?..नहीं..नहीं..यह सही नहीं,...पर वह एक माँ भी तो हैं. माँ बेटे के बीच दूरियाँ कैसी?..और क्यों? अचानक उन्हें अपनी अशक्तता का अहसास हुआ ,वे समझ गईं की अब घर में उनकी जरुरत न के बराबर रह गयी है ...रिश्तों में भी दूरियां आने लगी हैं....अब उन्हें भी अपने बच्चों की तरह अपनी दुनिया अलग बसा लेनी चाहिए....कुछ ही पलों में उनकी आँखों में न जाने कितनी बनाती बिगड़ती स्मृतियाँ चलचित्र सी उभरने लगती हैं. .......पहली बार हाथों में उस कोमल अहसास की अनुभूति ....मातृत्व का सुख़..डगमगाते कदमों से विपिन का उसकी उंगली पकड़ कर चलना....माँ की तोतली पुकार .... विपिन के इंजीनियर बन ..एक जिम्मेदार बेटे से एक पिता, पति बन तक एक पल भी उनके कदमों ने विश्राम नहीं लिया.......वे अनथक...अनवरत चलती रहीं ..पिता की अनुपस्थिति में कभी पिता तो, कभी माँ बनी ....पल पल उसकी ही नींद जागीं ..सोईं,..उनकी आँखें आज न जाने क्यों बार बार बरसतीं जा रही हैं...पति को खो देने पर अपने अकेलेपन की पीड़ा ...न जाने क्यों ...वर्षों बाद आज उन्हें साल रही है. किसी बेहद अपने को खो देने का दुःख उनका ह्रदय छेदकर बाहर आ रहा है. ......
अचानक उन्हें असीम थकान महसूस होने लगी ,मानो पैरों में जान ही न हो. अपने बोझिल ,लाचार कदमों को घसीटती हुई वे आँखें बंद कर पलंग पर लेट गईं ,मानो अपनी ..युगों युगों की थकान उतार रही हों...!
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-पद्मा मिश्रा
एल.आई.जी-११४,आदित्यपुर-२
जमशेदपुर-१३, [झारखंड]
आत्म कथ्य---मेरी कहानियां जिन्दगी के आसपास साँसें लेती हैं. जीवन के सुख,दुःख, हर्ष विषाद प्रेम की सुन्दरतम अनुभूतियों का दर्पण बन समाज को सच दिखाना ही उनकी सार्थक अभिव्यक्ति है भटके हुए कदमों को उनके सपनों की राह तक पहुंचाना ,और संवेदना के एक नए क्षितिज का निर्माण करना मेरी कहानियों की सृजन यात्रा का पाथेय है. --पद्मा मिश्रा
मार्मिक रचना ! दिल को छू गयी...
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